यह कैसा देश है
जहाँ लोग लड़ते हैं मजहब की आड़ में
नफरत के लिए
पर नहीं लड़ता कोई मोहब्बत की खातिर।
दूसरों के घरों को जलाकर
आग तापने वाले भी हैं
पर किसी को खुद के जलते
घर को देखने की फुर्सत नहीं।
एक वो भी हैं जो खुद को जलाकर
दूसरों को रोशनी देते हैं
पर नफरत है उन्हें उस रोशनी से भी
कहीं इस रोशनी में उनका चेहरा न दिख जाये।
फिर भी वे अपने को इंसान कहते हैं
पर उन्हें इंसानियत का पैमाना ही नहीं पता
डरते हैं वे अपने अंदर के इंसान को देखने से
कहीं यह उनको ही न जला दे।
20 टिप्पणियां:
गहरी चिन्ता व्यक्त कि है...अच्छी रचना
सुन्दर कविता । सहसा एक प्रसिदध) कवि की कविता की कुछ लाइन याद आ गयी
क्या करेगा प्यार वो भगवान को
क्या करेगा प्यार वो ईमान को
इंसान की कोख से जन्म लेकर
कर सका न प्यार जो इंसान को
सुन्दर
डरते हैं वे अपने अंदर के इंसान को देखने से
कहीं यह उनको ही न जला दे
-हाँ, शायद यही वजह हो!!
सार्थक सोच ।
अंतर्मन की बात कह दी ।
पर किसी को खुद के जलते
घर को देखने की फुर्सत नहीं।
बिलकुल सही कहा, आप ने कविता मै बहुत गहरी बात कह दी धन्यवाद
डरते हैं वे अपने अंदर के इंसान को देखने से
कहीं यह उनको ही न जला दे !
सच में, बहुत गहरी बात है
NICE COMPOSITION
यह कैसा देश है
जहाँ लोग लड़ते हैं मजहब की आड़ में
नफरत के लिए
पर नहीं लड़ता कोई मोहब्बत की खातिर।
....बहुत गहरी बात कही आपने..बधाई.
बहुत शानदार कविता..दिल को छू गई.
मानो मेरे मन की बात लिख दी के. के. जी ने.
आदमी कित्ता गन्दा हो गया है ना, पर अच्छे लोग भी तो हैं इसी समाज में.
आज की इंसानियत पर बेजोड़ कविता.
यह कविता बहुत कुछ कह जाती है. आज समाज में जो हो रहा है, उसे बेहद सहज शब्दों में पेश करती है..बधाई.
उम्दा लिखा कृष्ण कुमार जी ने. समाज को आइना दिखाती कविता.
अतिसुन्दर प्रस्तुति...कृष्ण कुमार यादव जी को बधाई.
Beautifull !!
बहुत अच्छी कविता है..एक तरफ वे हैं जो खुद जलकर दूसरों को रोशनी देते है..दूसरी तरफ़ वे जो दूसरों के घर जला कर हाथ तापने में आनंद लेते हैं ...इंसान इंसान में कितना फरक है..आप ने अपनी कविता में बखूबी बताया है और सही चिंता भी व्यक्त की है.
दूसरों के घरों को जलाकर
आग तापने वाले भी हैं
पर किसी को खुद के जलते
घर को देखने की फुर्सत नहीं।
एक वो भी हैं जो खुद को जलाकर
दूसरों को रोशनी देते हैं
पर नफरत है उन्हें उस रोशनी से भी
कहीं इस रोशनी में उनका चेहरा न दिख जाये।
फिर भी वे अपने को इंसान कहते हैं
पर उन्हें इंसानियत का पैमाना ही नहीं पता
डरते हैं वे अपने अंदर के इंसान को
महोदय , सच्ची अभिब्यक्ति
आप सभी लोगों को हमारी यह कविता पसंद आई, आपने इसे सराहा..आभार. अपना स्नेह यूँ ही बनाये रहें !!
नि:संदेह चिंतनीय...सुन्दर कविता .
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