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मंगलवार, 1 नवंबर 2016

हिन्दी पत्र-पत्रिकाओं में बढ़ती साहित्यिक और लेखकीय चोरी

साहित्यिक/लेखकीय चोरी दिनों-ब-दिन बढ़ती ही जा रही है। इधर कई पत्र-पत्रिकाओं में अपनी रचनाएँ दूसरों के नाम से प्रकाशित देखीं। जरूरत, हम सभी को सतर्क रहने की है। फिर चाहे वह लेखक हो या संपादक।  इंटरनेट के इस दौर में सतही लोग धड़ल्ले से लोगों की रचनाएँ कॉपी-पेस्ट करके अपने नामों से प्रकाशित करा रहे हैं।

फ़िलहाल, कोलकाता से प्रकाशित हिन्दी पत्रिका 'द वेक' (संपादक - श्रीमती शकुन त्रिवेदी) के सितंबर-2016 अंक में मेरे लेख "अंडमान-निकोबार में समृद्ध होती हिन्दी" को किसी कुहेली भट्टाचार्जी के नाम से प्रकाशित किया गया है।
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जब हमने इसे 3 अक्टूबर, 2016  को फेसबुक पर शेयर किया तो पाठकों की प्रतिक्रिया गौरतलब थी -

बेहद शर्मनाक ! कभी बंगाल या कोलकाता अपनी बौद्धिकता के लिए जाना जाता था। यहाँ के लोग साहित्य में भी अग्रदूत थे। और अब यहाँ की पत्रिकाएं और लेखक इस स्तर पर उतर आये हैं।

सर ! आपका लेख चोरी किया जा सकता है, पर आपका कृतित्व नहीं।

आपके पास मौलिक रचना है। ऐसे झूठे लोगो को आइना दिखाया जा सकता है। आप के पास अपनी मूल रचना का copyright law के तहत एकाधिकार होने की सूरत में ही कानूनी कार्यवाही के लिए आगे बढ़ा जा सकता है।

हाहाहा आप के लेख की भी चोरी ,जानती नहीं होंगी डाक विभाग हमेशा सचेत रहता है।

साहित्य और लेखन में ऐसी घृणित चोरी निंदनीय है। आप पत्रिका के संपादक को भी इस बारे में बताइये।

Chori unhi Cheezon ki hoti hai Jo churayi ja sakti hain...sub kuch to chura loge e zamane walon magar WO "Attitude" kahan se laoge Jo Ek gift hai by birth...Have a great day Sir

कॉपी राईट एक्ट और मजबूत होना चाहिए

यह एक गलत प्रचलन है। इसके लिए कुछ आवश्यक कदम उठाये जा सकते हैँ।

पत्रिका के नाम कानूनी कार्रवाई करने का लेटर भेजिए...होश ठिकाने आ जाएंगे...

मंगलवार, 22 सितंबर 2015

बचपन की कुछ यादें...


चलिए आज बचपन की कुछ यादें ताजा कर लेते हैं। शायद इसी बहाने फिर से वो बचपन लौट आये। याद है, बचपन में 1 रु. की पतंग के पीछे 2 किलोमीटर तक भागते थे। न जाने कितनी बार चोटें खाईं, पर फिर भी हमेशा वही जज्बा। आज पता चलता है, दरअसल वो पतंग नहीं थी; एक चैलेंज थी। वैसे भी खुशियाँ बैठे-बैठे नहीं मिलतीं। खुशियों को हांसिल करने के लिए दौड़ना पड़ता है। वो दुकानो पर नहीं मिलती...शायद यही जिंदगी की दौड़ है !!

जरा गौर करियेगा -

जब बचपन था, तो जवानी एक ड्रीम थी।
जब जवान हुए, तो बचपन एक ज़माना था!!

जब घर में रहते थे, आज़ादी अच्छी लगती थी। 
आज आज़ादी है, फिर भी घर जाने की जल्दी रहती है!!

कभी होटल में जाना पिज़्ज़ा, बर्गर खाना पसंद था। 
आज घर पर आना और माँ के हाथ का खाना पसंद है!!!

स्कूल में जिनके साथ झगड़ते थे। 
आज उनको ही फेसबुक पर तलाशते है!!

ख़ुशी किसमें  होती है, ये पता अब चला है।  
बचपन क्या था, इसका एहसास अब हुआ है !! 

काश बदल सकते हम ज़िंदगी के कुछ साल। 
काश जी सकते हम, ज़िंदगी फिर एक बार !!



याद करिये वो दिन-

जब हम अपने शर्ट में हाथ छुपाते थे 
और लोगों से कहते फिरते थे देखो मैंने
अपने हाथ जादू से हाथ गायब कर दिए। 

जब हमारे पास चार रंगों से लिखने वाली
एक पेन हुआ करती थी और हम
सभी के बटन को एक साथ दबाने
की कोशिश किया करते थे। 

जब हम दरवाज़े के पीछे छुपते थे
ताकि अगर कोई आये तो उसे डरा सकें । 

जब आँख बंद कर सोने का नाटक करते थे 
ताकि कोई हमें गोद में उठाके बिस्तर तक पहुँचा  दे |

सोचा करते थे की ये चाँद 
हमारी साइकिल के पीछे-पीछे क्यों चल रहा है। 

ऑन-ऑफ़ वाले स्विच को बीच में
अटकाने की कोशिश किया करते थे। 

फल के बीज को इस डर से नहीं खाते थे 
की कहीं हमारे पेट में पेड़ न उग जाए। 

बर्थडे सिर्फ इसलिए मनाते थे
ताकि ढेर सारे गिफ्ट मिले। 

फ्रिज को धीरे से बंद करके ये जानने की 
कोशिश करते थे की इसकी लाइट कब बंद होती हैं। 

सच, बचपन में सोचते हम बड़े क्यों नहीं हो रहे
और अब सोचते हैं कि हम बड़े क्यों हो गए ?




एक गीतकार की पंक्तियाँ याद आती हैं -

ये दौलत भी ले लो, ये शोहरत भी ले लो 
भले छीन लो मुझसे मेरी जवानी
मगर मुझको लौटा दो बचपन का सावन
वो कागज़ की कश्ती वो बारिश का पानी !!

- कृष्ण कुमार यादव @ शब्द-सृजन की ओर 

शनिवार, 25 अक्टूबर 2014

अब आपका स्मार्टफोन बताएगा आपकी बीमारी

स्मार्टफोन अब वाकई स्मार्ट हो गया है। अमेरिका में शोधकर्ताओं ने एक ऐसा स्मार्टफोन विकसित किया है, जो किसी बायो सेंसर की तरह शरीर में विषाक्त पदार्थो का पता लगाएगा।

स्मार्टफोन में लगा कैमरा शरीर में मौजूद बैक्टीरिया, वायरस और दूसरे मॉलिक्यूल्स का पता लगा सकता है। यह तकनीक चिकित्सा के क्षेत्र में बहुत ही सस्ती और आसान डायग्नोसिस प्रक्रिया उपलब्ध करा सकती है। स्मार्टफोन का ढांचा और इसमें इस्तेमाल की गई एप्लीकेशन बायो सेंसिटिव क्षमता वाली हैं, जिसे फोन के ग्लोबल पोजिशनिंग सिस्टम [जीपीएस] से जोड़ दिया गया है। इससे बैक्टीरिया के फैलने का नक्शा मिल जाता है। बायो सेंसर के बीच एक फोटोनिक क्रिस्टल लगा है।

यह फोटोनिक क्रिस्टल एक तरह का शीशा है, जो प्रकाश की एक तरंगदै‌र्ध्य को अपने में से गुजरने देता है। जैसे ही प्रोटीन, कोशिका, बैक्टीरिया या डीएनए जैसे जैविक तत्व फोनेटिक क्रिस्टल से चिपकते हैं, तो इसमें से निकलने वाली छोटी तरंगदै‌र्ध्य लंबी हो जाती है। इस पूरे परीक्षण में कुछ मिनटों का समय लगेगा। यह अध्ययन पिछले साल 'लैब ऑन ए चिप' नामक जर्नल में प्रकाशित हुआ है।

अब आप फेसबुक पर हमारे पेज को पसंद कर भी हमसे जुड़ सकते हैं : 

मंगलवार, 30 सितंबर 2014

ये भी कुछ कहते हैं



टेम्पो या ट्रक इत्यादि के पीछे लिखे शब्द/वाक्य कई बार गौरतलब होते हैं। यूँ ही उन पर नजर पड़ती है और मुस्कुराकर रह जाते हैं। याद आता है बाबा नागार्जुन की एक रचना में अवतरित वह ट्रक ड्राइवर, जो अपनी बेटी की छोटी-छोटी चूड़ियाँ अपने ट्रक में हमेशा सामने टांगा रहता है, कितनी संवेदना उसमें छुपी हुई है। कई बार इन वाक्यों/शब्दों में हास्य बोध छुपा होता है, प्यार को लेकर कोई अहसास छुपा होता है और कुछेक बार तो इनमें जीवन का कोई सूत्र वाक्य छुपा होता है। कुछेक अपने वजूद का अहसास कराते हैं, कुछ अपने व्यक्तित्व का। जब भी इन्हें पढता या देखता हूँ तो सोचता हूँ कि आखिर यह पेंटर की कारस्तानी होती है या उस वाहन के ड्राइवर की। कॉलेज के दिनों में तो हमारे एक मित्र इन तमाम बातों को अपनी डायरी में लिखने का शौक भी रखते थे, पता नहीं कब और कहाँ सृजन हो जाये !!

रविवार, 2 मार्च 2014

157 साल बाद मिली 1857 के दफन शहीदों को 'आजादी'

1857 के गदर को गुजरे सदी बीत गई, पर गाहे-बगाहे चर्चा में बना रहता है।  सोचकर कितना अजीब लगता है कि 1857 के गदर में अंग्रेजों के जुल्मों के शिकार हुए 282 भारतीय सैनिकों को 157 साल बाद 'आजादी' नसीब हो पाई है। अमृतसर के अजनाला में शहीदां वाला खूह (शहीदों का कुआं) की खुदाई में इन वीर सैनिकों की अस्थियां मिल रही हैं। इन अस्थियों को पूरे सम्मान के साथ हरिद्वार और गोइंदवाल साहिब ले जाकर विसर्जित किया जाएगा, जिससे शहीदों की आत्माओं को शांति मिल सके। कुएं की खुदाई का काम गुरुद्वारा शहीदगंज की शहीदां वाला खूह प्रबंधक कमेटी द्वारा कराया जा रहा है। 

इतिहास के पन्ने पलटें तो, 30 जुलाई 1857 को मेरठ छावनी से निकली विद्रोह की चिंगारी लाहौर की मियामीर छावनी तक पहुंच गई थी। बंगाल नेटिव इन्फेंट्री की 26 रेजिमेंट के 500 सैनिकों ने ईस्ट इंडिया कंपनी के खिलाफ विद्रोह कर दिया था। इसकी सूचना अंग्रेजों को मिली तो विद्रोह को दबाने के लिए अगले दिन 218 सैनिकों को अजनाला के पास रावी नदी इलाके में गोली मार दी गई। 282 सैनिकों को अमृतसर का डिप्टी कमिश्नर फैड्रिक हेनरी कूपर गिरफ्तार करके अजनाला ले गया। यहां सुबह 237 सैनिकों को गोली मारकर कुएं में फेंक दिया गया, जबकि 45 सैनिकों को जिंदा ही कुएं में दफना दिया गया। इसके बाद कुएं को मिट्टी से भर दिया गया। तब से लेकर आज तक इनकी किसी ने खैर-खबर नहीं ली। स्वतंत्रता संग्राम के ये रणबांकुरे शहीद होने के 157 साल तक 'आजादी' को तरसते रहे। आखिरकार अब जाकर शहीदां वाला खूह की खुदाई की जा रही है, जिससे इन शहीद सैनिकों की आत्माओं को शांति नसीब होगी।

कुएं को महज 8 फुट ही खोदा गया कि अस्थियों का मिलना शुरू हो गया। इस कार्य में सैकड़ों महिलाएं भी लगीं हैं। पूरा काम इस हिसाब से किया जा रहा है कि दफन शहीदों की अस्थियों को नुकसान पहुंचे। खुदाई वाले इलाके का माहौल भावुक बना हुआ है। जैसे ही कोई अस्थि मिलती है पूरा माहौल भावुक हो जाता है। यहाँ तक कि बारिश के बावजूद भी कुएं की खुदाई का काम जारी रहा,  ऐसा लगा मानो प्रकृति भी इस अवसर पर ग़मगीन है।  कुएं की खुदाई तब तक जारी रहेगी, जब तक अस्थियां पूरी तरह नहीं मिल जातीं।  सेवकों ने कुएं से निकाली गई मिट्टी को एक जगह इकट्ठा कर लिया है। इस मिट्टी का इस्तेमाल इन शहीदों की याद में बनाए जाने वाले स्मारकों के लिए किया जाएगा। कार सेवा कर रही गुरुद्वारा शहीदगंज की शहीदां वाला खूह प्रबंधक कमिटी अब इन अस्थियों को कलश में भरकर सम्मानपूर्वक जुलूस की शक्ल में हरिद्वार और गोइंदवाल साहिब लेकर जाएगी। इसके बाद अस्थियों की जांच करवाई जाएगी। सरकार की ओर से शहीदों के संस्कार और उनकी समाधियों के निर्माण के लिए उचित जगह मिलने पर इनका अंतिम संस्कार किया जाएगा।

शनिवार, 15 फ़रवरी 2014

जब मैं छोटा था ...

भूमंडलीकरण और हाई-टेक होते इस समय में बहुत कुछ है जो पीछे छूट रहा है। वक़्त की भागमभाग में बहुत सारी चीजें हम विस्मृत करते जा रहे हैं।  जिन चीजों के साथ हम बड़े हुए, उन्हें ही आज बिसरा दिया।  वास्तविक सम्बन्धों पर वर्चुअल रिलेशन हावी हो गए, खतों की खुशबू कब एसएम्एस और चैट में तब्दील हो गई, पता ही नहीं चला। बाल सुलभ जिज्ञासाओं पर गूगल बाबा कुछ इतने हावी हुए कि  हर कुछ इंटरनेट पर ही खंगालने लगे।  शब्दों के अर्थ बदलने लगे, भावनाएं सिमटने लगी, मानवीय  इच्छाओं पर आभासी रंग चढ़ने लगा। वाट्स-एप पर एक मित्र ने जब नीचे लिखी पंक्तियाँ शेयर कीं तो ऐसा ही लगा -

वक़्त की भागमभाग के साथ 
शायद ज़िंदगी बदल रही है
जब मैं छोटा था, शायद दुनिया
बहुत बड़ी हुआ करती थी। 

मुझे याद है मेरे घर से
'स्कूल' तक का वो रास्ता, 
क्या क्या नहीं था वहाँ 
चाट के ठेले, जलेबी की दुकान,
बर्फ के गोले, सब कुछ,
अब  वहाँ 'मोबाइल शॉप','वीडियो पार्लर' हैं,
फिर भी सब सूना है
शायद अब दुनिया सिमट रही है। 

जब मैं छोटा था,
शायद शामें बहुत लम्बी 
हुआ करती थीं
मैं हाथ में पतंग की डोर पकड़े,
घंटों उड़ा करता था,

वो लम्बी 'साइकिल रेस',
वो बचपन के खेल,
वो हर शाम थक के चूर हो जाना,

अब शाम नहीं होती, दिन ढलता है
और सीधे रात हो जाती है
शायद वक्त सिमट रहा है। 


जब मैं छोटा था,
शायद दोस्ती
बहुत गहरी हुआ करती थी,
दिन भर वो हुजूम बनाकर खेलना,
वो दोस्तों के घर का खाना,
वो साथ हँसना और रोना। 

अब भी मेरे कई दोस्त हैं,
पर दोस्ती जाने कहाँ है,
जब भी 'ट्रैफिक सिग्नल' पर  मिलते हैं
हाय-हैलो  हो जाती है,
और अपने अपने रास्ते चल देते हैं। 

होली, दीवाली, जन्मदिन, नए साल
अब  बस एसएमएस  आ जाते हैं,
शायद अब रिश्ते बदल रहें हैं। 


जब मैं छोटा था, 
तब खेल भी खूब हुआ करते थे,
छुपम-छुपाई, लँगड़ी  टाँग।
पोषम पा, कट केक, 
टिप्पी टीपी टाप.

अब वीडियो गेम, फेसबुक  से 
फुर्सत ही नहीं मिलती। 
शायद ज़िन्दगी बदल रही है। 


जिंदगी का सबसे बड़ा सच यही है।  
जो अक्सर कब्रिस्तान के बाहर
बोर्ड पर लिखा होता है
"मंजिल तो यही थी, 
बस जिंदगी गुज़र गयी मेरी
यहाँ आते आते।"


ज़िंदगी का लम्हा बहुत छोटा सा है 
कल की कोई बुनियाद नहीं है
और आने वाला कल सिर्फ सपने में ही है 

अब बच गए इस पल में
तमन्नाओं से भरी इस जिंदगी में
हम सिर्फ भाग रहे हैं.
कुछ रफ़्तार धीमी करो, 
मेरे दोस्त,

और इस ज़िंदगी को जियो
खूब जियो मेरे दोस्त … !!

- कृष्ण कुमार यादव @ शब्द-सृजन की ओर 
- फेसबुक पेज : https://www.facebook.com/KKYadav1977/


गुरुवार, 13 दिसंबर 2012

21 दिसंबर 2012 को कुछ ही दिन रह गए हैं...


21 दिसंबर 2012 को कुछ ही दिन रह गए हैं। 21 दिसंबर 2012 को धरती का अंत हो जाएगा, इस बात के कोई सबूत नहीं है लेकिन दुनिया भर में इसको लेकर लोगों में एक डर बना हुआ है कि आखिर 21 दिसंबर को होगा क्या? क्या दुनिया खत्म हो जाएगी? क्या महाप्रलय आएगी। माया कैलेंडर की मानें तो दुनिया में प्रलय आएगी, लेकिन नासा ने माया सभ्यता की इस भविष्यवाणी को गलत साबित कर दिया है। नासा के एक अध्ययन में यह बात सामने आई है कि इतनी जल्दी पृथ्वी का अंत नहीं होगा।
 
प्रलय या कयामत का दिन, शब्द भले ही अलग हों लेकिन दोनों का आशय दुनिया के भयावह अंत से ही है। हिंदू धर्म के अनुसार कलयुग के अंत के बाद प्रलय का दिन आएगा, जब सब कुछ समाप्त हो जाएगा, पूरी दुनिया विनाश के साए में सिमट जाएगी। दूसरी ओर इस्लाम और ईसाई धर्म में भी कयामत या द डे ऑफ जस्टिस (जब सभी लोगों के पाप और पुण्यों का हिसाब किया जाएगा) इस दिन का उल्लेख किया गया है।
 
क्या है माया सभ्यता
 
दुनिया खत्म होने के पीछे माया सभ्यता की भविष्यवाणी को एक बड़ा कारण माना जा रहा था। माया सभ्यता 300 से लेकर 900 ई के बीच मैक्सिको, पश्चिमी होंडूरास और अल सल्वाडोर के बीच चली आ रही पुरानी सभ्यता है, इस सभ्यता के अनुसार चले आ रहे कैलेंडर में 21 दिसंबर 2012 के आगे किसी तारीख का कोई जिक्र नहीं है, जिसकी वजह से माना जा रहा था कि इस दिन पूरी दुनिया समाप्त हो जाएगी। यह कैलेंडर इतना सटीक है कि आज के सुपर कंप्यूटर भी उसकी गणनाओं में सिर्फ 0.06 तक का ही फर्क निकाल सके हैं।
 
प्राचीन माया सभ्यता के काल में गणित और खगोल के क्षेत्र उल्लेखनीय विकास हुआ। अपने ज्ञान के आधार पर माया लोगों ने एक कैलेंडर बनाया था। हजारों साल पहले बनाए माया कैलेंडर में 21 दिसंबर 2012 के बाद की तारीख नहीं दी गई हैं, इसका अर्थ यही समझा जा रहा है कि इस दिन दुनिया पर खतरा मंडरा सकता है।
 
माया कैलेंडर की भविष्यवाणी
 
माया कैलेंडर के मुताबिक 21 दिसंबर 2012 में एक ग्रह पृथ्वी से टकराएगा, जिससे सारी धरती खत्म हो जाएगी। करीब 250 से 900 ईसा पूर्व माया नामक एक प्राचीन सभ्यता स्थापित थी। ग्वाटेमाला, मैक्सिको, होंडूरास तथा यूकाटन प्रायद्वीप में इस सभ्यता के अवशेष खोजकर्ताओं को मिले हैं।
 
समय-समय पर दुनिया के खात्मे के लिए कई प्रकार की भविष्यवाणिया की जा रही हैं। नास्त्रेदमस और माया सभ्यता की दुहाई देकर जहा इस वर्ष दुनिया का अंत होने की भविष्यवाणियां की जा रही थीं, वहीं ग्वाटेमाला के जंगलों में मिले माया कैलेंडर के एक अज्ञात संस्करण से खुलासा हुआ है कि अगले कई अरब वषरें तक पृथ्वी पर मानव सभ्यता के अंत का कारण बनने वाली कोई भी प्रलयकारी आपदा नहीं आएगी। शूलतुन में माया सभ्यता के एक प्राचीन शहर के खंडहर मौजूद हैं। इन खंडहरों में मौजूद एक दीवार पर यह कैलेंडर मौजूद हैं। लगभग आधे वर्ग मीटर आकार के इस कैलेंडर के अच्छी हालात में होने की बात कही जा रही है। वैज्ञानिक इसे अब तक मिला सबसे पुराना माया कैलेंडर करार दे रहे हैं।
 
उनका दावा है कि यह कम से कम 1200 वर्ष पुराना रहा होगा। माया पुरोहितों के जिस पूजा स्थल से इस कैलेंडर को बरामद किया गया है उसमें माया राजाओं की विशालकाय भिती चित्र मौजूद हैं। पुरोहित समय की गणना करके राजाओं को शुभ मुहूर्त के बारे में सूचित किया करते थे। राजा अपने सभी फैसले शुभ मुहूर्त में ही लिया करते थे। प्राकृतिक आपदाओं से बचने और देवताओं को खुश करने के लिए माया सभ्यता में मानव बलि देने की भी प्रथा रही थी और इसके लिए आसपास के जंगलों में निवास करने वाले आदिवासियों को बड़े पैमाने पर बंदी बनाने का रिवाज था।
 
यह नया कैलेंडर पत्थर की एक दीवार में तराशा हुआ है, जबकि 2012 मे दुनिया के अंत की भविष्यवाणी करने वाले सभी माया कैलेंडर पुरानी पाडुलिपियों में मिलते हैं, जिनमें अलग-अलग चित्रों के माध्यम से अलग-अलग भविष्यवाणिया की गई हैं। दुनिया के अंत की घोषणा करने वाले सभी कैलेंडर इस पाषाण कैलेंडर से कई सौ वर्ष बाद तैयार किए गए थे। शूलतुन के खंडहरों के इस पूजा स्थल की एक दीवार पर चंद्र कैलेंडर बना हुआ है जो 13 वषरें की गणना कर सकता है।
 
इसके निकट की ही एक दीवार पर मौजूद तालिकाओं के आधार पर चार युगों की गणना हो सकती है जो वर्ष 935 से लेकर 6700 ईसवी तक हैं। शूलतुन के जंगलों में माया सभ्यता का एक महत्वपूर्ण शहर होने के बारे में पहली बार वर्ष 1915 में पता चला था। इसके बाद यहा खजाना चोरों ने कई बार सेंध लगाने का प्रयास किया लेकिन उनके हाथ कुछ भी नहीं लगा। प्रोफेसर सैर्टनों के छात्र मैक्स चेम्बरिलन ने जब वर्ष 2010 में एक सुरंग से जाकर यहा कुछ भित्तीचित्रों के होने का पता लगाया तो पूरी टीम खुदाई में जुट गई और उन्होंने सदियों से गुमनामी में खोए माया सभ्यता के इस प्राचीन शहर को ढूंढ निकाला। सैटनरे का दावा है कि यह पूरा शहर 16 वर्गमील में फैला हुआ है और इसे पूरी तरह से खोदकर बाहर निकालने के लिए अगले दो दशकों का समय भी कम है।
 
दुनिया के अंत के संबंध में समय-समय पर कई प्रकार की भविष्यवाणिया की जाती रही है। इससे पहले 21 मई, 2011 को दुनिया के विनाश का दिन बताया जा रहा था लेकिन यह बात झूठी साबित हो गई। लेकिन अब माया कैलेंडर के आधार पर 21 दिसंबर, 2012 को दुनिया का आखिरी दिन मान लिया गया है।
 
साभार : जागरण

शनिवार, 16 जून 2012

अमवा त खइला हो, कोसिलिया खींच मरला - कैलाश गौतम

(आजकल आम का सीजन चल रहा है. कभी भरी दोपहरी में बैग में बैठकर आम खाने का आनंद ही कुछ और था, पर वक़्त के साथ ये आम भी 'खास' हो गया. एक तो महंगाई, ऊपर से आम के नखरे कि इस साल अमुक पेड़ पर ही दिखूंगा. वाकई आम आज 'आम' नहीं रहा बल्कि 'खास' हो गया है. इसीलिए उसकी प्रशस्ति में बहुत कुछ लिखा जा रहा है. कभी कैलाश गौतम जी ने आम पर यह खास लेख लिखा था. आज वो हमारे बीच नहीं हैं, पर अपनी रचनाओं में जरुर जीवंत हैं)

कभी आम का नाम सुनते ही आदमी के मुंह में पानी आ जाता था, लेकिन आज आम का नाम सुनते ही आदमी के मुंह में गाली आ रही है-स्साला आम। आदमी ताव खा जा रहा है। ताव आदमी इसलिए खा रहा है कि ताव खाना आसान है, आम खाना मुश्किल। देख रहे हैं औसत आदमी आज किस निगाह से आज आम को देख रहा है। मुफ्त मिले तो कच्चे का अचार डाल दें और पक्का मिले तो चूस-चूसकर भूंसी छुड़ा दें। लेकिन ऐसा संयोग बन कहां रहा है? दरअसल आम नंबर एक का धोखेबाज फल है, बड़े-बड़े बाग वाले राह देखते रह गए लेकिन पट्ठा आम बाग में नहीं आया तो नहीं आया। और यह अचरज़ देखिए कि बगि में बिल्कुल ही नहीं आया, लेकिन देशभर की सट्टियां आमों से पटी पड़ी हैं। दरबे में एक भी मुर्गी नहीं पर बाज़ार में अंडे ही अंडे, वहीं हाल आम का। वैसे इस समस्या प्रधान देश में इस तरह का आश्चर्य चुनाव के दिनों में ही दिखाई देता है जहां चिरई का पूत कहा जाने वाला सिंगल मतदाता भी नहीं होता, वहां भी मतपेटियां मतपत्रों से भरी मिलती हैं। औसत भारतीय पत्नियां आम की ओर फूटी आंखों से भी नहीं देख रही हैं, क्यों देखें ? जब स्वभाविक मचली जैसे संकट के समय आम उनके काम नहीं आया, तो वह संकट मुक्त होने पर आम की ओर बिल्कुल नहीं देखेंगी। वह आभारी हैं इमली की, मचली के दिनों में उनका साथ इमली ने दिया आम ने नहीं।

आम ने सचमुच अपना विश्वास खो दिया है और सुना तो यहां तक गया है कि भीतर-भीतर अविश्वास प्रस्ताव की तैयारी भी फलों में चल रही है। लेकिन होगी वही जो होता आया है, ऐन मौके पर कुछ फल गायब हो जाएंगे या कुछ फल कैद कर लिए जाएंगे और अविश्वास प्रस्ताव पास नहीं होगा। आम फलों का राजा बना रहेगा। आम जब देशी था तब बहुत अच्छा था लेकिन कलमी हुआ है तब से हिलमी और इलमी तो हुआ ही हुआ और जुल्मी भी हुआ है। देशी में ऐसी बनावट नहीं थी तो ऐसी गिरावट भी नहीं थी, कलमी आम नागा बहुत करता है। एक दिन मेहरी न आए तो हाय-तौबा मच जाती है, एक दिन अख़बार न आए तो हाय-तौबा मच जाती है, एक दिन पानी न आए, बिजली न आए तो हाय-तौबा मच जाती है। जबकि आम साल का साल नागा मारता है लेकिन आदमी इसका कुछ नहीं बिगाड़ पाता। किसी राजा का अपने राज्य से साल साल भर गायब रहना क्या कोई अच्छी बात है। अरे ऐसी हरकत तो उम्मीदवारों को ही शोभा देती है, जो केवल चुनाव में ही दिखाई देते हैं। कुछ परिवारों में आम से कहीं से ज़्यादा महत्व आम की गुठली का होता है शायद इसीलिए कहा गया है कि आम के आम गुठलियों के दाम। सचमुच जिन परिवारों में कुंवारे लड़के-लड़कियां चूसे हुए आम की गुठली उछालकर परस्पर एक-दूसरे के ब्याह की दिशा बताते हैं, वहां आम न होने से इन दिनों शून्य बटा सन्नाटा चल रहा है। मेरे क्रोनिक बैचलर पैसठ वर्षीय मित्र सेठी साहब आम का रोना उतना नहीं रो रहे हैं, जितना रो रहे हैं आम की गुठली का रोना। सेठी साहब, आजकल हर मीटिंग सोसाइटी में दिखाई देते हैं, जहां किसी न किसी बहाने आम की चर्चा की हो रही होती है। भोजपुरी लोकगीतों में एक ऐसा उदाहरण मिलता है जिसमें आम की ताज़ा चूसी गई गुठली से बड़ा महत्वपूर्ण काम लिया गया है। अरे गुठली न सही गुठली की चर्चा ही सही-

‘अमवा त खइला हो, कोसिलिया खींच मरला
दागी नउला दुलहा
हमरी चटकी चुनरिया दागी नउला दुलहा’

दरअसल, तब अमूमन शादियां गर्मियों में ही होती थीं। एक तो मौसम गर्मी का दूसरे शादी की गर्मी। इसीलिए एक-दूसरे को डायरेक्ट छूने में समझदार दंपति हिचकता था। नई नवेली पत्नी को दूल्हा हाथ नहीं लगाता था। पहले वह आम खाता था फिर वह उसकी गुठली से पत्नी को छेड़ता था। आज दूल्हे भी हैं, पत्नियां भी हैं, आम का सीजन भी है, लेकिन नहीं है तो सिर्फ़ आम नहीं है, आम की गुठली नहीं है। वैसे अगर जगह-जगह ‘गुठली मारो’ मेले का आयोजन किया जाए तो निश्चित ही इस मेले से सरकार को करोड़ों का अरबों की आमदनी होगी। भला सोचिए जहां हाल में ब्याहे सैकड़ों हजारों नए जोड़े इकट्ठे किए जाएंगे और हर दूल्हे को दस-दस पके आम दिए जाएंगे कि आम खाये और चूसी हुई गुठली से नई नवेेली पत्नी को गेंद की तरह फेंक कर मारे। मैं सच कहता हूं देखने वालों का तांता लग जाएगा, आम आदमी भले न देख पाए लेकिन ख़ास-ख़ास लोग तो हवाई जहाज या हेलिकप्टर से भागकर आएंगे। मैं एक ऐसा प्रस्ताव भारत सरकार के आमदनी बढ़ाओ विभाग के पास भेजने वाला हूं।

एक आम के चलते न जाने कैसे-कैसे लोग हाई-लाईट हो जाते हैं, अब सरौता को ही देखिए। बड़की भौजी का जो आम फाड़ने वाला बड़का सरौता है ना, उसे इस साल कोई घास नहीं डाल रहा है, वर्ना हर साल बड़की भौजी का सरौता बिजी रहता था। कोई-कोई उसे देखने को तरस जाता था। कभी चैबाइन के पास है, तो कभी ठकुराइन के पास है। इस साल सरौते के लिए बड़की भौजी के यहां कोई झांकने भी नहीं आया। बड़की भौजी रोज़ एक बार अपने सरौत पर हाथ फेरती हैं फिर रख देता हैं- वेट माई डियर सरौता वेड। जब नीके दिन आइहैं बनत न लगिहैं देर। अपना राजपाट फिर लौटेगा प्यारे! तुम्हारी तरह न जाने कितने लोग बदलाव के इंतज़ार में बैठे हुए हैं। इस समय मुझे एक भोजपुरी कहावत याद आ रही है। कहावत इस प्रकार है-

‘झरल आम अब झरल पताई
श्रोवा लइको बप्पा माई’

ऐसी नौबत बस आने ही वाली है। आम भी बस जाने ही वाला है। वैसे इस आम ने इस साल मेरे दफ्तर के रामदास केजुएल को जितना रूलाया, उतना शायद ही किसी को रूलाया हो। रामदास की घरवाली मां होने वाली है। वह बार-बार रामदास से कहती है-हे एक पक्का आम खिला दो वरना पैदा होने वाले बच्चे की जि़न्दगीभर लार गिरेगी। रामदास ने बहुत कहा- तू केला खा ले, संतरा खा ले, जामुन खा ले लेकिन आम का नाम मत ले। इसे सर्वहारा ने हमेशा के लिए त्याग दिया है। यहि तन सती भेंट नाहि। लेकिन रामदास की पत्नी ऐसा ताना दिया कि रामदास तिलमिला उठा- लानत है तुम्हारे जैसे पति पर, अरे उन्हें देखों जिन्होंने अपनी जगह अपनी पत्नी को मुख्यमंत्री बना दिया और एक तुम हो, एक पका आम भी नहीं खिला सकते अपनी पत्नी को। ब्याह करना अच्छा लगा अब दोहद खिलाने में..... आगे की बात रामदास नहीं सुन सका और बिना साइकिल उठाए घबराहट में पैदल ही केजुएल होने चला गया। दफ्तर में पहले से रामदास केजुएल की ढुढाई मची थी। दरअसल यह हुआ कि बड़े साहब की बीवी ने बड़े साहब से कहा कि दो किलो आम लेते आइएगा। बड़े साहब ने दफ्तर पहुंचकर बड़े बाबू से कहा कि बड़े बाबू यार दो किलो आम मंगवा दीजिए। आम बिना आम के घर में घुस नहीं पाउंगा और तब से बड़े बाबू रामदास केजुएल को तलाश रहे हैं। सहसा, रामदास केजुएल टकरा ही गया। बड़े बाबू स्वयं इतने परेशानी में थे कि रामदास केजुएल के नमस्ते का जवाब भी नहीं दिया और अपनी बात करने लगे। रामदास रामदास सुन सुन एक महीने के लिए और दफ्तर में रखने के लिए बड़े साहब राज़ी हो गए हैं। समझे रामदास, बड़े बाबू को धन्यवाद देने लगा, लेकिन बड़े बाबू उसका धन्यवाद सुनें तब न! वो तो अपना आम राग अलापे जा रहे हैं। जाओ जल्दी से पांच किलो दशहरी ले आओ। बड़े साहब का हुकुम है। मरता क्या न करता रामदास केजुएल, जुगाड़ करके जैसे-तैसे दशहरी ले आता है, जिसमें साठ प्रतिशत बड़े बाबू अपने झोले में डाल लेते हैं और चालीस प्रतिशत साहब के पास भेजवा देते हैं।

दिनभर का थका-हारा रामदास केजुएल शाम को जब घर पहुंचता है तो जेब एक आम निकालता है और घरवाली के सामने रखकर हंसने लगता है। उसकी घरवाली लपकरक आम उठाती है और मुंह में दबा लेती है, यह देखकर रामदास और जोर से हंसता है, उसकी घरवाली आम को हाथ में लेकर गौर से देखने लगती है, फिर पूछती है कि यह क्या, इसमें न रस है, न गूदा, न छिलका। रामदास केजुलए की आंखें भर आती हैं- मेरी जान! अगर द्रोणाचार्य की पत्नी चावल का घोल दूध बताकर अपने बच्चे को पिला सकती है तो तुम भी यह प्लास्टिक का नकली आम दिखाकर अपने होने वाले बच्चे को पाल सकती हो। असली आम तो केवल मौसम भर साथ देता है पगली! यह बारहों महीने साथ देगा, बस इसे आग से बचाकर रखना। यह आम खेलने के लिए है खाने के लिए नहीं।

-कैलाश गौतम