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मंगलवार, 28 जून 2011

अंडमान में ''बदलते दौर में साहित्य के सरोकार'' विषय पर संगोष्ठी और 'सरस्वती सुमन' का विमोचन

अंडमान-निकोबार द्वीप समूह की राजधानी पोर्टब्लेयर में सामाजिक-सांस्कृतिक संस्था ‘चेतना’ के तत्वाधान में स्वर्गीय सरस्वती सिंह की 11 वीं पुण्यतिथि पर 26 जून, 2011 को मेगापोड नेस्ट रिसार्ट में आयोजित एक कार्यक्रम में देहरादून से प्रकाशित 'सरस्वती सुमन' पत्रिका के लघुकथा विशेषांक का विमोचन किया गया. इस अवसर पर ''बदलते दौर में साहित्य के सरोकार'' विषय पर संगोष्ठी का आयोजन भी किया गया। कार्यक्रम में मुख्य अतिथि के रूप में श्री एस. एस. चौधरी, प्रधान वन सचिव, अंडमान-निकोबार द्वीप समूह, अध्यक्षता देहरादून से पधारे डा. आनंद सुमन 'सिंह', प्रधान संपादक-सरस्वती सुमन एवं विशिष्ट अतिथि के रूप में श्री कृष्ण कुमार यादव, निदेशक डाक सेवाएँ, अंडमान-निकोबार द्वीप समूह, डा. आर. एन. रथ, विभागाध्यक्ष, राजनीति शास्त्र, जवाहर लाल नेहरु राजकीय महाविद्यालय, पोर्टब्लेयर एवं डा. जयदेव सिंह, प्राचार्य टैगोर राजकीय शिक्षा महाविद्यालय, पोर्टब्लेयर उपस्थित रहे. कार्यक्रम का आरंभ पुण्य तिथि पर स्वर्गीय सरस्वती सिंह के स्मरण और तत्पश्चात उनकी स्मृति में जारी पत्रिका 'सरस्वती सुमन' के लघुकथा विशेषांक के विमोचन से हुआ. इस विशेषांक का अतिथि संपादन चर्चित साहित्यकार और द्वीप समूह के निदेशक डाक सेवा श्री कृष्ण कुमार यादव द्वारा किया गया है. अपने संबोधन में मुख्य अतिथि एवं द्वीप समूह के प्रधान वन सचिव श्री एस.एस. चौधरी ने कहा कि सामाजिक मूल्यों में लगातार गिरावट के कारण चिंताजनक स्थिति पैदा हो गई है । >ऐसे में साहित्यकारों को अपनी लेखनी के माध्यम से जन जागरण अभियान शुरू करना चाहिए । उन्होंने कहा कि आज के समय में लघु कथाओं का विशेष महत्व है क्योंकि इस विधा में कम से कम शब्दों के माध्यम से एक बड़े घटनाक्रम को समझने में मदद मिलती है। उन्होंने कहा कि देश-विदेश के 126 लघुकथाकारों की लघुकथाओं और 10 सारगर्भित आलेखों को समेटे सरस्वती सुमन के इस अंक का सुदूर अंडमान से संपादन आपने आप में एक गौरवमयी उपलब्धि मानी जानी चाहिए.

युवा साहित्यकार एवं निदेशक डाक सेवा श्री कृष्ण कुमार यादव ने बदलते दौर में लघुकथाओं के महत्व को रेखांकित करते हुए कहा कि भूमण्डलीकरण एवं उपभोक्तावाद के इस दौर में साहित्य को संवेदना के उच्च स्तर को जीवन्त रखते हुए समकालीन समाज के विभिन्न अंतर्विरोधों को अपने आप में समेटकर देखना चाहिए एवं साहित्यकार के सत्य और समाज के सत्य को मानवीय संवेदना की गहराई से भी जोड़ने का प्रयास करना चाहिये। श्री यादव ने समाज के साथ-साथ साहित्य पर भी संकट की चर्चा की और कहा कि संवेदनात्मक सहजता व अनुभवीय आत्मीयता की बजाय साहित्य जटिल उपमानों और रूपकों में उलझा जा रहा है, ऐसे में इस ओर सभी को विचार करने की जरुरत है.

संगोष्ठी को आगे बढ़ाते हुए डा. जयदेव सिंह, प्राचार्य टैगोर राजकीय शिक्षा महाविद्यालय, पोर्टब्लेयर ने कहा कि साहित्य के क्षेत्र में समग्रता के स्थान पर सीमित सोच के कारण उन विषयों पर लेखन होने लगा है जिनका सामाजिक उत्थान और जन कल्याण से कोई सरोकार नहीं है । केंद्रीय कृषि अनुसन्धान संस्थान के निदेशक डा. आर. सी. श्रीवास्तव ने इस बात पर चिंता व्यक्त की कि आज बड़े पैमाने पर लेखन हो रहा है लेकिन रचनाकारों के सामने प्रकाशन और पुस्तकों के वितरण की समस्या आज भी मौजूद है । उन्होंने समाज में नैतिकता और मूल्यों के संर्वधन में साहित्य के महत्व पर विस्तार से प्रकाश डाला । डा. आर. एन. रथ, विभागाध्यक्ष, राजनीति शास्त्र, जवाहर लाल नेहरु राजकीय महाविद्यालय ने अंडमान के सन्दर्भ में भाषाओँ और साहित्य की चर्चा करते हुए कहा कि यहाँ हिंदी का एक दूसरा ही रूप उभर कर सामने आया है. उन्होंने इस बात पर जोर दिया कि साहित्य का एक विज्ञान है और यही उसे दृढ़ता भी देता है.अंडमान से प्रकाशित एकमात्र साहित्यिक पत्रिका 'द्वीप लहरी' के संपादक डा. व्यास मणि त्रिपाठी ने ने साहित्य में उभरते दलित विमर्श, नारी विमर्श, विकलांग विमर्श को केन्द्रीय विमर्श से जोड़कर चर्चा की और बदलते दौर में इसकी प्रासंगिकता को रेखांकित किया. उन्होंने साहित्य पर हावी होते बाजारवाद की भी चर्चा की और कहा कि कला व साहित्य को बढ़ावा देने के लिए लोगों को आगे आना होगा। पूर्व प्राचार्य डा. संत प्रसाद राय ने कहा कि कहा कि समाज और साहित्य एक सिक्के के दो पहलू हैं और इनमें से यदि किसी एक पर भी संकट आता है, तो दूसरा उससे अछूता नहीं रह सकता।

कार्यक्रम के अंत में अपने अध्यक्षीय संबोधन में ‘‘सरस्वती सुमन’’ पत्रिका के प्रधान सम्पादक डाॅ0 आनंद सुमन सिंह ने पत्रिका के लघु कथा विशेषांक के सुन्दर संपादन के लिए श्री कृष्ण कुमार यादव को बधाई देते हुए कहा कि कभी 'काला-पानी' कहे जानी वाली यह धरती क्रन्तिकारी साहित्य को अपने में समेटे हुए है, ऐसे में 'सरस्वती सुमन' पत्रिका भविष्य में अंडमान-निकोबार पर एक विशेषांक केन्द्रित कर उसमें एक आहुति देने का प्रयास करेगी. उन्होंने कहा कि सुदूर विगत समय में राष्ट्रीय-अन्तर्राष्ट्रीय स्तर पर तमाम घटनाएं घटी हैं और साहित्य इनसे अछूता नहीं रह सकता है। अपने देश में जिस तरह से लोगों में पाश्चात्य संस्कृति के प्रति अनुराग बढ़ रहा है, वह चिन्ताजनक है एवं इस स्तर पर साहित्य को प्रभावी भूमिका का निर्वहन करना होगा। उन्होंने रचनाकरों से अपील की कि वे सामाजिक और सांस्कृतिक मूल्यों को ध्यान में रखकर स्वास्थ्य समाज के निर्माण में अपनी रचनात्मक भूमिका निभाएं। इस अवसर पर डा. सिंह ने द्वीप समूह में साहित्यिक गतिविधियों को बढ़ावा देने के लिए और स्व. सरस्वती सिंह की स्मृति में पुस्तकालय खोलने हेतु अपनी ओर से हर संभव सहयोग देने का आश्वासन दिया।

कार्यक्रम के आरंभ में संस्था के संस्थापक महासचिव दुर्ग विजय सिंह दीप ने अतिथियों और उपस्थिति का स्वागत करते हुए आज के दौर में हो रहे सामाजिक अवमूल्यन पर चिंता व्यक्त की । कार्यक्रम का संचालन संस्था के उपाध्यक्ष अशोक कुमार सिंह ने किया और संस्था की निगरानी समिति के सदस्य आई.ए. खान ने धन्यवाद ज्ञापन किया। इस अवसर पर विभिन्न द्वीपों से आये तमाम साहित्यकार, पत्रकार व बुद्धिजीवी उपस्थित थे.

दुर्ग विजय सिंह दीप
संयोजक- 'चेतना' (सामाजिक-सांस्कृतिक संस्था)
उपनिदेशक- आकाशवाणी (समाचार अनुभाग)
पोर्टब्लेयर -744102

सोमवार, 27 जून 2011

अंडमान में 'सरस्वती सुमन' का लोकार्पण और संगोष्ठी : चित्रमय झलकियाँ

(कृष्ण कुमार यादव के अतिथि संपादन में जारी 'सरस्वती-सुमन' पत्रिका के 'लघु-कथा' विशेषांक (जुलाई-सितम्बर-2011) का पोर्टब्लेयर (अंडमान) में 26 जून को विमोचन करते हुए डा. आनंद सुमन 'सिंह', प्रधान संपादक-सरस्वती सुमन, श्री एस. एस. चौधरी, प्रधान वन सचिव, अंडमान-निकोबार द्वीप समूह, कृष्ण कुमार यादव, निदेशक डाक सेवाएँ, अंडमान-निकोबार द्वीप समूह, एवं डा. जयदेव सिंह, प्राचार्य टैगोर राजकीय शिक्षा महाविद्यालय, पोर्टब्लेयर.)

(उपस्थित विद्वान जन, साहित्यकार और श्रोतागण)(लघु-कथा विशेषांक पर प्रकाश डालते अतिथि संपादक- कृष्ण कुमार यादव)
(कार्यक्रम को संबोधित करते हुए कार्यक्रम के अध्यक्ष- देहरादून से पधारे, डा. आनंद सुमन 'सिंह', प्रधान संपादक-सरस्वती सुमन )
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(कार्यक्रम के दूसरे सत्र में 'वर्तमान दौर में साहित्य के बदलते सरोकार' विषय पर संगोष्ठी हुई. जिसमें विभिन्न वक्ताओं ने अपने विचार व्यक्त किये.)
(मुख्य अतिथि श्री एस. एस. चौधरी, प्रधान वन सचिव, अंडमान-निकोबार द्वीप समूह,का संबोधन)(कृष्ण कुमार यादव, निदेशक डाक सेवाएँ, अंडमान-निकोबार द्वीप समूह,का संबोधन) (डा. आर. सी. श्रीवास्तव, निदेशक- केंद्रीय कृषि अनुसन्धान संस्थान का संबोधन)
(डा. व्यास मणि त्रिपाठी, संपादक-द्वीप लहरी एवं एसोसिएट प्रोफ़ेसर, हिंदी विभाग, जवाहर लाल नेहरु राजकीय महाविद्यालय, पोर्टब्लेयर का संबोधन)

(डा. संत प्रसाद राय, शिक्षाविद का संबोधन) (डा. आर. एन. रथ, विभागाध्यक्ष, राजनीति शास्त्र, जवाहर लाल नेहरु राजकीय महाविद्यालय, एवं अध्यक्ष- चेतना, पोर्टब्लेयर का संबोधन)

(श्री दुर्ग विजय सिंह 'दीप', उपनिदेशक-आकाशवाणी, पोर्टब्लेयर का संबोधन)

























125 रचनाकारों की लघुकथाओं और 10 आलेखों सहित 'सरस्वती सुमन' का 'लघु-कथा' अंक जारी


अंतत: 'सरस्वती-सुमन' का लघुकथा विशेषांक (जुलाई-सितम्बर-2011) आ ही गया. चूँकि इस अंक के अतिथि संपादन का दायित्व मेरा था, अत: प्रतीक्षा भी स्वाभाविक थी. इस अंक हेतु मुझे अंतत: सामग्री भेजने तक 4,82 रचनाकारों की और तत्पश्चात 37 रचनाकारों की लघुकथाएं/आलेख प्राप्त हुई. यह दर्शाता है कि लघुकथा ने एक विधा के रूप में काफी तरक्की कर ली है.

फ़िलहाल, 180 पृष्ठ के इस अंक में कुल 125 रचनाकारों की लघुकथाएं और लघुकथाओं पर 10 आलेख शामिल किये गए हैं. इसमें भारत के तमाम प्रान्तों और विदेश से भी लघुकथाकारों को शामिल किया गया है. कुछेक ब्लागर्स की लघुकथाएं भी इसमें शामिल हैं. 125 लघुकथाओं के अतिरिक्त, शेष लघुकथाएं और आलेख हम सरस्वती सुमन को भेज रहे हैं, ताकि वे इनका सामान्य अंक में उपयोग कर सकें.

इस अंक के लिए जिन लोगों ने हमें सामग्री एकत्र करने में मदद की, रचनाएँ भेजीं और अन्य रूप में सहयोग दिया, उन सभी का आभार !!

सरस्वती सुमन (त्रैमासिक) : लघुकथा विशेषांक : जुलाई-सितम्बर-2011
अतिथि संपादक : कृष्ण कुमार यादव
प्रधान संपादक : डा. आनंद सुमन सिंह
पता: 'सारस्वतम', 1-छिब्बर मार्ग, आर्य नगर, देहरादून, उत्तराखण्ड-248001
saraswatisuman@rediffmail.com










गुरुवार, 23 जून 2011

पैरट आइलैंड, अंडमान में एक दिन तोतों के साथ

अंडमान में बहुत सी ऐसी चीजें हैं, जो प्राय: बहुत कम ही लोगों को पता होती हैं. इन्हीं में से एक है-पैरट-आइलैंड. पोर्टब्लेयर से बाराटांग की यात्रा में बहुत कुछ देखने को मिलता है. रास्ते में पाषाण कालीन सभ्यता में रह रहे तीर-धनुष से लैस जारवा आदिवासी, बाराटांग में कीचड़ के ज्वालामुखी, लाइम स्टोन केव. चारों तरफ घने वृक्षों से आच्छादित हरे-भरे जंगल और समुद्र की अठखेलियाँ. समुद्र का सीना चीरते हमारी स्टीमर-बोट शाम को साढ़े चार बजे आगे बढती है, साथ में मेरा परिवार और कुछेक स्टाफ के लोग.



मैन्ग्रोव-क्रीक के बीच से गुजरते हुए शाम की समुद्री हवाएँ ठण्ड का अहसास कराती हैं. जैसे-जैसे हम आगे बढ़ते हैं, आस-पास दसियों छोटे-छोटे द्वीप दिखने लगते हैं. मौसम सुहाना सा हो चला है. गंतव्य नजदीक है. आखिर हम पैरट-आइलैंड के करीब पहुँच ही जाते हैं. बोट को धीमे-धीमे वह किनारे लगाता है. उतरने की कोई जगह नहीं, बोट में बैठकर ही नजारा लेना है.





बिटिया पाखी चारों तरफ टक-टकी सी निगाह लगाए हुए है. बार-बार पूछती है कि तोते कब दिखेंगें. कानपुर में हमारे आवास-प्रांगन में एक विशाल वट वृक्ष था, शाम को उस पर अक्सर ढेर सारे तोते आते थे. तोतों की टें-टें सुनना मनोरंजक लगता था.





...चारों तरफ ठहरी हुई शांति, समुद्र भी मानो थक कर आराम कर रहो हो. एक-दो मछुहारे नाव के साथ मछली पकड़ते दिख जाते हैं. अचानक एक चीख सी पूरे माहौल का सन्नाटा तोड़ती है. हम चौंकते हैं कि क्या हुआ ? नाविक ने बताया कि जंगल में किसी ने हिरण का शिकार कर पकड़ लिया है. यद्यपि यहाँ हिरण को मारना जुर्म है, पर ये तथाकथित शिकारी जंगलों में कुत्तों के साथ जाते हैं और कुत्ते दौड़कर हिरण को पकड़ लेते हैं. अंडमान में अवैध रूप से हिरण के मांस की बिक्री कई बार सुनने को मिलती है. यह भी एक अजीब बात है की यहाँ के आदिवासी हिरणों को पवित्र आत्मा मानते हैं और उनका शिकार नहीं करते, पर बाहर से आकर बसे लोग हिरणों के शिकार में अवैध रूप से लिप्त हैं.





पैरट आईलैंड वास्तव में समुद्र के बीच मैंग्रोव की झाड़ियों पर अवस्थित है. यहाँ कोई जमीन नहीं, इसीलिए चाहकर भी बोट से नहीं उतर सकते. इन मैंग्रोव की झाड़ियों को तोतों ने कुतर-कुतर कर सम बना दिया है, ताकि उन्हें किसी प्रकार की असुविधा न हो. दूर से देखने पर यह हरे रंग का गलीचा लगता है. न तो एक पत्ती ऊपर, न एक पत्ती नीचे. वाकई, प्रकृति का अद्भुत नजारा.


...तभी एक तोते की टें-टें सुनाई दी. वह चारों तरफ एक चक्कर मरता है, फिर आवाज़ देता है-टें-टें. यह इशारा था सभी तोतों को बुलाने का. तभी दूसरी दिशा से आते दो तोते दिखाई दिए..टें-टें. फिर तो देखते ही देखते चारों तरफ से तोतों का झुण्ड दिखने लगा. बमुश्किल 15 मिनट के भीतर हजारों तोते आसमान में दिखने लगे. आसमान में कलाबाजियाँ करते, विभिन्न तरह की आकृति बनाते, एक झुण्ड से दुसरे झुण्ड में मिलते और फिर बड़ा झुण्ड बनाते तोते मानो अपनी एकता और कला का जीवंत प्रदर्शन कर रहे हों.




सबसे बड़ा अजूबा तो यह था कि कोई भी तोता मैंग्रोव पर नहीं बैठता, बस उसके चारों तरफ चक्कर लगाता और फिर आसमान में कलाबाजियाँ, मानो सब एक अनुशासन से बंधे हुए हों...और देखते ही देखते सारे तोते मैंग्रोव की झाड़ियों पर उतर गए. हरे रंग के मैंग्रोव पर हरे -हरे तोते, सब एकाकार से हो गए थे. चूँकि हमने उन्हें वहाँ उतरते देखा था, अत: उनकी उपस्थिति का भान हो रहा था. कोई सोच भी नहीं सकता कि मैंग्रोव की इन झाड़ियों पर हजारों तोते उपस्थित हैं. न जाने कितने द्वीपों से और दूर-दूर से ये तोते आते हैं और पूरी रात एक साथ बिताने के बाद फिर अगली सुबह मोती की तरह बिखरे द्वीपों की सैर पर निकल जाते हैं.

सोमवार, 20 जून 2011

भोपाल से प्रकाशित LN STAR में 'शब्द सृजन की ओर' की प्रविष्टि


भोपाल से प्रकाशित LN STAR साप्ताहिक पत्र के 4-10 जून, 2011 अंक में 'शब्द-सृजन की ओर' ब्लॉग पर 9 मार्च, 2011 को प्रकाशित पोस्ट 'काला पानी के 105 साल' को प्रकाशित किया गया है. इससे पहले 'शब्द सृजन की ओर' ब्लॉग की पोस्टों की चर्चा जनसत्ता, अमर उजाला इत्यादि में हो चुकी है.

मेरे दूसरे ब्लॉग 'डाकिया डाक लाया' ब्लॉग और इसकी प्रविष्टियों की चर्चा दैनिक हिंदुस्तान, राष्ट्रीय सहारा, राजस्थान पत्रिका, उदंती, LN STAR पत्र-पत्रिकाओं में हो चुकी है.

इस प्रोत्साहन के लिए सभी का आभार !!

शुक्रवार, 17 जून 2011

अपनी संस्कृति पर गर्व करना सीखें...

भारत आज भौतिक उन्नति के पथ पे है. ये हर्ष और गौरव की बात है. चाहे हम वैज्ञानिक उपलब्धियों की बात कर ले या आर्थिक मोर्चे पर अपनी स्वर्णिम सफलताओ पे नज़र डाल ले तो हम ये पाएंगे कि भारत अपने तमाम विरोधाभासो के बावजूद एक महाशक्ति के रूप में उभर रहा है. ये उस देश के लिए गर्व की बात है जिसने एक लम्बे समय तक दासता झेली हो. पर क्या उस देश को सिर्फ इन उपलब्धियों को ही सर्वस्व मान लेना चाहिए जिस देश में ज्ञान के उच्त्तम सोपानो पे विचरण करना नैसर्गिक माना जाता रहा हो. भौतिक उपलब्धियों पे गर्व करना अलग बात है पर उनको सर्वस्व या अंतिम लक्ष्य मान लेना अलग बात है. दुःख की बात है की जिस देश में ज्ञान की महिमा का बखान होता रहा है आज उसी देश में कंचन और काया की प्रधानता है.

ऐसा क्यों हुआ कि पूंजीपति कि इज्ज़त ज्ञानियो से अधिक हो गयी. ज्ञान का पलड़ा पूँजी से हल्का कैसे हो गया? पाश्चात्य संस्कृति से महज अच्छे गुण लेने के बजाय हमने उसको अपना पथ प्रदर्शक क्यों मान लिया? विश्लेषण करने वाले कह सकते है कि भाई ये तो लॉर्ड मैकाले कि शिक्षा पद्वत्ति का कमाल है . उसने चाहा था कि हमारे न रहने पर भी एक ऐसी नस्ल तैयार हो जो कि सिर्फ तन से भारतीय हो. उसने चाहा कि ऐसी प्रजाति का जन्म हो जिसे अपने प्राचीन श्रेष्ठ गुणों को आत्मसात करने में शर्म महसूस हो, एक ग्लानि बोध का भाव उत्पन्न हो.एक ऐसी नस्ल तैयार हो जिसे अपने ही गौरव को धिक्कारनमें रस का अनुभव हो. मुझे कहने में सकोच नहीं कि मैकाले ने जो चाल चली उसमे वो कामयाब रहा. अगर वो आज जिन्दा होता तो अपनी सफलता पर खुश हो रहा होता. आज आप कही भी नज़र डाल के देखिये सब उसी के चेले आपको नज़र आयेंगे.एक ऐसा देश अस्तित्व में आ गया है जिसमे लोग सरस्वती पूजा को तो लोग सांप्रदायिक मानते है पर वैलेंटाइन डे को अंगीकार करने में कोई हायतौबा नहीं मचती.

इस अजीबोगरीब माहौल में आज जरुरत है उन बुद्धिजीवियों, लेखको कि जो हम भारतीयों को प्रचीन मूल्यों को गर्व के साथ अपनाने का मार्ग प्रशस्त कर सके. अगर ऐसा न हुआ तो हम भी उसी गति को प्राप्त होगे जो उन सभ्यताओ का हुआ जिनमे भौतिक मूल्यो पे ज्यादा आस्था प्रकट की गयी.इसी सोच के साथ सलिल ज्ञवाली ने “भारत क्या है” पुस्तक को लिखा है. आज के युग में गरिमामय मूल्यों को पुनर्स्थापित या फिर प्राचीन सनातन संस्कृति के आदर्शो में लोगो का विश्वास फिर से बहाल करना टेढ़ी खीर है. सलिल जी ने इस चुनौती को स्वीकार करते हुए एक दुष्कर शोध और कठिन मेहनत के उपरान्त “भारत क्या है” की रचना की है. यह पुस्तक विश्वव्यापी हो चुकी हैं जिसका प्रकाशन सिघ्र ही अमेरिका से भी होने जा रही हैं।

इस अनुपम पुस्तक में सलिल जी ने पाश्चात्य विचारको, वैज्ञानिको के साथ ही भारतीय विचारको के कथन का हवाला देते हुए इस बात की पुष्टि की है कि जिस सनातन संस्कृति के ज्ञान को हम श्रद्धा के साथ आत्मसात करने में हिचकते है वही ज्ञान पाश्चात्य जगत के महान वैज्ञानिको, लेखको और इतिहासकारों की नज़रो में अमूल्य और अमृत सामान है. वे हमारे ऋषि मुनियों के ज्ञान को बहुत आदर कि दृष्टि से देखते है. कितने आश्चर्य कि बात है कि हम आज इसी ज्ञान को रौंद कर आगे बढ़ रहे है .

सलिल जी की इस अद्भुत कृति में आप आइन्स्टीन, नोबेल से सम्मानित अमेरिकन कवि और दार्शनिक टी एस इलिएट , दार्शनिक एलन वाट्स, अमेरिकन लेखक मार्क ट्वेन, प्रसिद्ध विचारक एमर्सन, फ्रेंच दार्शनिक वोल्टायर, नोबेल से सम्मानित फ्रेंच लेखक रोमा रोला, ऑक्सफोर्ड के प्रोफ़ेसर पाल रोबर्ट्स, भौतिक शास्त्र में नोबेल से सम्मानित ब्रायन डैविड जोसेफसन, अमेरिकन दार्शनिक हेनरी डेविड थोरू, एनी बेसंट, महान मनोवैज्ञानिक कार्ल जुंग के साथ भारतीय विचारको जैसे अब्दुल कलाम के विचारो को आप पढ़ और समझ सकते है. ये विचार आप को अन्यत्र भी पढने को मिल सकते है पर जो इस किताब को औरो से अलग बनाती है वो बात ये है कि आप को स्थापित विचारको से जुड़े कई महत्वपूर्ण विचार एक ही जगह पढने को मिल जाएगा. थोडा सा किताब के कथ्य पर भी गौर करे. इतना तो स्पष्ट है किताब को पढने के बाद कि भले आज अपने प्राचीन ऋषि मुनियों की संस्कृति से दूरी बनाये रखने को ही हम आधुनिकता का परिचायक मान बैठे हो पर इस आधुनिक जगत के महान विचारको ने अपने ऋषि मुनियों के ज्ञान की मुक्त कंठ से सराहना की है. अब आइन्स्टीन को देखे जो यह कह रहे है कि ” हम भारतीयों के ऋणी है जिन्होंने हमको गणना करना सिखाया जिसके अभाव में महत्वपूर्ण वैज्ञानिक खोजे संभव नहीं थी.” वर्नर हाइजेनबर्ग प्रसिद्ध जर्मन वैज्ञानिक जो क्वांटम सिद्धांत की उत्पत्ति से जुड़े है का यह कहना है कि ”भारतीय दर्शन से जुड़े सिद्धांतो से परिचित होने के बाद मुझे क्वांटम सिद्धांत से जुड़े तमाम पहलु जो पहले एक अबूझ पहेली की तरह थे अब काफी हद तक सुलझे नज़र आ रहे है.” इन सब को पढने के बाद क्या आपको ऐसा नहीं लग रहा कि आज कि शिक्षा पद्वति में कही न कही बहुत बड़ा दोष है जिसके वजह से पढ़े लिखे गधे पैदा हो रहे है जिनको अपने ही देश के ज्ञान को अपनाने में लज्जा महसूस होती है. खैर इस किताब के कुछ और अंश देखे.

ग्रीस की रानी फ्रेडरिका जो कि एडवान्स्ड भौतिक शास्त्र से जुडी रिसर्च स्कालर थी का कहना है कि “एडवान्स्ड भौतिकी से जुड़ने के बाद ही आध्यात्मिक खोज की तरफ मेरा रुझान हुआ. इसका परिणाम ये हुआ की श्री आदि शंकराचार्य के अद्वैतवाद या परमाद्वैत रुपी दर्शन को जीवन और विज्ञान की अभिव्यक्ति मान ली अपने जीवन में “. प्रसिद्ध जर्मन दार्शनिक आर्थर शोपेन हॉवर का यह कहना है कि “ सम्पूर्ण भू-मण्डल पर मूल उपनिषदों के समान इतना अधिक फलोत्पादक और उच्च भावोद्दीपक ग्रन्थ कही नहीं हैं। इन्होंने मुझे जीवन में शान्ति प्रदान की है और मरते समय भी यह मुझे शान्ति प्रदान करेंगे .”

प्रसिद्ध जर्मन लेखक फ्रेडरिक श्लेगल (१७७२-१८२९) ने संस्कृत और भारतीय ज्ञान के बारे में श्रद्धा प्रकट करते हुए ये कहा है कि ” संस्कृत भाषा में निहित भाषाई परिपक्वत्ता और दार्शनिक शुद्धता के कारण ये ग्रीक भाषा से कही बेहतर है. यही नहीं भारत समस्त ज्ञान कि उदयस्थली है. नैतिक , राजनैतिक और दार्शनिक दृष्टिकोण से भारत अन्य सभी से श्रेष्ट है और इसके मुकाबले ग्रीक सभ्यता बहुत फीकी है.” इतना तो यह पढने के बाद समझ में आना चाहिए कि कम से कम हम भारतीय लोग अपनी संस्कृति का उपहास उड़ना बंद कर दे. कम से कम वो लोग तो जो यह मानते है कि पीछे मुड़कर देखने से हम “केव-मेंटालिटी” के शिकार हो जायेगे.

इसके आगे के पन्नो में सलिल जी ने अपने लेखो में इन्ही सब महान पुरुषो के विचारो को अपने तरह से व्याख्या कि है जिसमे आज के नैतिक पतन पे क्षोभ प्रकट किया गया. कुल मिला के हमे सलिल जी के इस पवित्र प्रयास कि सराहना करनी चाहिए कि आज की विषम परिस्थितयो में भी उन्होंने भारतीय संस्कृति के गौरव को पुनर्जीवित करने की कोशिश कि है. उम्मीद है कि ये पुस्तक एक रौशनी की किरण बनेगी और हम सब अब्दुल कलाम की तरह सोचने पे विवश हो जायंगे कि क्यों मीडिया या भारतीय आज नकरात्मक रुख में उलझे हुए है? क्यों हम अपनी उपलब्धियों और मजबूत पहलुओ को नकारने में ही सारी उर्जा खत्म कर देते है. चलिए हम अपनी संस्कृति पे गर्व करना सीखे बिना किसी ग्लानि बोध के. आज से और अभी से!

--अरविन्द पाण्डे,इलाहावाद

सोमवार, 13 जून 2011

ख़त

बहुत दिनों बाद खतों को लेकर संजीदगी से लिखी कोई कविता पढ़ी. मन में उतर सी गई 'दीपिका रानी' की 'आउटलुक' में छपी यह कविता, सो अब आप से भी शेयर कर रहा हूँ-


एक दिन अचानक एक खत मिला
लिफाफे में थी
थोड़ी खुशबू
कुछ ताजी हवा
और पहली बारिश का सौंधापन

माँ के हाथों की बनी
रोटियों की गर्माहट थी उसमें
पिता की थपकियों सा सुकून
और एक शरारती सा बच्चा
झांक रहा था बार-बार

खत में थे दो हाथ
जो उठे थे दुआओं में
दो आँखें जिनमें दर्द था
जो मेरा था.
मुस्कराहट के पीछे
मेरी आँखों की उदासी को
वो आँखें समझती थीं

खत ने वो असर किया
कि मेरा दर्द
मुस्कराहट में बदल दिया
उसमें थी वो संजीवनी
जो मेरी डूबती सांसों में
जिन्दगी भर गई
और मेरे जीने का सामान कर गई

मैने सोचा, लिखूँ जवाबी खत
वही खुशबू वही गर्माहट
वही सुकून ,वही मुस्कराहट
बंद की लिफाफे में
मगर अब तक वो यहीं पड़ा है
क्या फरिश्तों का कोई पता होता है ?

-दीपिका रानी
(साभार : आउटलुक, मई 2011)

बुधवार, 8 जून 2011

जब ज़ीरो दिया मेरे भारत ने ......

आज मुझे याद आ रहा है "पूरब और पश्चिम" नामक एक भारतीय फ़िल्म का एक मशहूर गाना "जब ज़ीरो दिया मेरे भारत ने, दुनियां को तब गिनती आई..."। शायद आम भारतीय इस बात को नही जानता कि विश्व को ज़ीरो और सही मायने में गिनती भारत ने ही दी थी परन्तु विश्व के महान वैज्ञानिक आईन्सटीन इस बात को कभी नही भूलें; उन्होने ईमानदारी से मुक्त कंठ से भारत की प्रसंशा करते हुए कहा था कि " हमे भारतीयों का ॠणी होना चाहिये जिन्होने विश्व को गिनती दी, जिसकी बिना कोई भी अन्य ख़ोज सम्भव ही नही थी"

अभी हाल में ही प्रकाशित एक महान कृति जो कि एक पुस्तक के रूप में समाने आई है जिसे सकंलित किया है उतर-पूर्व भारत के एक महान लेख़क सलिल गेवाली ने । इस कृति का नाम है "What is India" इस पुस्तक में विश्व के सभी महान वैज्ञानिकों, महान कवियों, समाज शास्त्रियों, नेताओं व अन्य महान हस्तियों के द्वारा की गई उदघोषनाएं है; जहां उन्होने भारतीय ग्रन्थ सम्पदा की तहदिल से प्रसंशा की है । विश्व की इन महान आत्माओं ने खुले रूप से यह स्वीकार किया है कि किस प्रकार हिन्दुस्तान के महान ग्रन्थों ने उनकी महान कृतियों के उदय के समय सहायता की ।

“What is India” को पढकर हर भारतीय का सिर गर्व से ऊचां हो जाता है । हर भारतीय को समझ आ जाता है कि हमारे ग्रन्थ इतने महान है कि वो विश्व की महान खोज़ो के भागीदार बने । सचमुच महान है यह पुस्तक । आजतक इस प्रकार का सकंलन किसी भी ने भी इस तरह से प्रस्तुत नही कियां । सलिल गेवाली का यह कार्य वास्तव में तरीफ़ के काबिल है और अपने आप मे एक महान कार्य है ।

यह पुस्तक हर भारतीय को प्रेरित करती है कि वो अपनी ग्रन्थ सम्पदा को फ़िर से देखें और अध्यन करें और उनमें वो सब कुछ खोज़ निकाले जो अब तक नही खोज़ा गया है । क्योकि अभी भी बहुत कुछ ऐसा भी है जो विश्व की महान आत्मायें शायद नही खोज़ पायी । युवा भारतीयों को इस महान कृति से बहुत आत्मिक बल मिला है और उनका आत्मविश्वास बढ़ा है ।

“What is India” से हमें हमारी प्राचीन संस्कृति की महानता का भी पता चलता है । महान अमेरिकन कवि ओर दार्शनिक टी.ऐस. ईलिओट जिन्होने २ साल तक संस्कृत भाषा सीखी और पांतन्जलि योग की तत्वमीमांसा को समझा ओर स्वयं माना कि "यूरोप के दार्शनिक भारतीय दार्शनिकों की कुशाग्र बुद्धि के समक्ष स्कूली बच्चे जैसे है"

यह पुस्तक उस महान भारत की महानता को ताज़ा कर रही है जिसके बारे में आज से कई वर्ष पहले रानी फ़्रेडरिका - ग्रीस के राजा पाल की पत्नि - ने यह कहा "मुझे इस बात से जलन होती है आप भारतीय कितने भाग्यशाली है कि आपके पास इतनी महान विरासत है" । उन्होने तो यहां तक भी कहा "ग्रीस मेरा जन्म स्थान अवश्य है परन्तु मेरी आत्मा भारत मे ही बसती है" ।

“What is India” से हमें मालूम पड़ता है हमारा अतित क्या था । हमारे पूर्वज ॠषि-मुनि कितने उन्न्त विचारों के थे और कितनी महान थी वो कृतियां जो उन्होने हमें हमारे ग्रन्थों के रूप में दी । उनकी इन महान कृतियों का प्रयोग पूरे विश्वभर में हुआ । पूरे विश्व समाज ने इस बात का लाभ उठाया ।

इस पुस्तक में उद्घोषित एक उक्ति में फ़्रांस के एक महान दार्शनिक नें तो यह तक कहा कि " मैं इस बात से पूरी तरह से सहमत हू कि खगोलशास्त्र, ज्योतिष विधा, अध्यात्म आदि यह सब ज्ञान हमारे पास गंगा के किनारों से आया है" इनके कहने का आशय यह कि भारत की महान और पवित्र नदी गंगा के किनारों पर ही भारत वर्ष के महान ऋषियों ने इन महान विधाओं की खोज की है" यह कहना है फ्रांस के महान दार्शनिक फ़्रानकोस एम वोलटेयर का ।

अब यदि हाल में ही चल रही वैज्ञानिक खोज़ो की बात करे तो बात आती है आज के महान वैज्ञानिक स्टीफ़ेन हाकिंस की जो इस समय पर अपनी खोज़ो पर अग्रसर है । स्टीफ़ेन हाकिंस कहते है कि अगर कोई यान प्रकाश की गति के आस पास किसी भारी पिण्ड के चारो ओर चक्कर कटे तो उसमे बैठे हुए लोगो के लिए समय धीरे चलने लगेगा । अगर यह यान 5 साल तक भारी पिण्ड के चारो ओर चक्कर लगता रहता है तो उसके लिए तो 5 साल बितेगे परन्तु बाहरी दुनिया में 20 साल बीत चुके होंगे ।

यानि ऐसा भी संभव है की हमारे आस पास एक ओर दुनिया भी चल रही हो । यही हमारे प्राचीन ग्रन्थ योग वसिष्ठ में बताया गया है यदि आप इस महान ग्रन्थ का अध्यन करे तो इसमें लीला की कहानी है इस कहानी के माध्यम से यह बताया गया है की ब्रहमांड के अन्दर ब्रहमांड चल रहा है । ओर भी बहुत कुछ इस ग्रन्थ में बताया गया है जोकि Stephen Hawkins जैसे महान वैज्ञानिक की बातो से हू बहू है ।
अपने भारत को पहचानने के लिये, अपनी ग्रन्थ सम्पदा की ताकत को समझने के लिये; विश्व के महान लोगों का हमारे भारत को लेकर क्या सोच है इस बात को जानने के लिये “What is India” एक बेजोड़ उपलब्धि हो सकती है !

--- Harish Kumar
Haryana

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Courtesy : E-mail received by Priyanka Sharma,Los Angeles, USA