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सोमवार, 30 जुलाई 2012

आज का दिन बहुत महत्वपूर्ण है

आज का दिन बहुत महत्वपूर्ण है हमारे लिए। आज ही के दिन ईश्वर ने हमारी जीवन साथी आकांक्षा जी को इस दुनिया में भेजा था. वैसे कभी सोचा है कि हर किसी के लिए ईश्वर एक न एक पसंद बनाकर रखते हैं. तभी तो कहते हैं शादियाँ स्वर्ग में तय होती हैं. मैं भी शादी से पहले इसे नहीं मानता था, तब लगता था सफलता मिलेगी, अच्छे रिश्ते आपने आप मिलेंगे. खैर मैं सौभाग्यशाली लोगों में था.

वो लोग नसीब वाले हैं जिन्हें जीवन साथी के रूप में अच्छे लोग मिलते हैं. मैं भी अपने को उनमें से एक समझता हूँ और सौभाग्यवश आज मेरी जीवन-संगिनी आकांक्षा जी का जन्म-दिन भी है. दिन भी बढ़िया है, बारिश का रोमांटिक माहौल..खुशनुमा अहसास.. फिर क्या सोचना, इन्द्र देवता भी मेहरबान हैं, रेनी-डे के चलते अक्षिता की भी छुट्टी. पत्नी आकांक्षा और बिटिया अक्षिता (पाखी) और तान्या को जितनी खुशियाँ दे सकूँ...वही आज की उपलब्धि होगी. वैसे भी खुशियों को सेलिब्रेट करने का बहाना चाहिए और आज तो इतनी बड़ी ख़ुशी का दिन है.11 दिन बाद मेरा भी जन्मदिन है...सो, यह खुशियाँ चलती रहें !!

एक शायरी याद आ रही है (पर शायर का पता नहीं) -

आप वो फूल हो जो गुलशन में तो नही खिलते
पर जिसपे आसमान के फ़रिश्ते भी फक्र करते
आपकी ज़िन्दगी हद से ज़्यादा कीमती है
जन्मदिन आप हमेशा मनाएं यूँ ही हँसते हँसते.





शुक्रवार, 20 जुलाई 2012

साहस और मानवता की अप्रतिम मूर्ति : कैप्टन लक्ष्मी सहगल

पीढ़ियों का अन्तराल महत्वपूर्ण नहीं होता, यदि पुरातन पीढ़ी वर्तमान परिवेश में भी अपनी प्रासंगिकता बनाये रहें. ऐसे ही पीढ़ी की एक जिंदादिल महिला हैं- कैप्टन डॉक्टर लक्ष्मी सहगल. उन्हें किताबों में पढ़ा, चित्रों में देखा, पोर्टब्लेयर गया तो वहां सेलुलर जेल की दीवारों पर देखा और कानपुर में रहने के दौरान एक साक्षात्कार के लिए उनसे रू-ब-रू भी हुआ. उनके बारे में इतना कुछ सुन रखा था कि कहीं-न-कहीं उनके व्यक्तित्व से आतंकित भी महसूस करता. पर जब पहली बार मिला तो इतना निश्छल और ममत्व भरा आत्मीय व्यवहार देखकर विश्वास ही नहीं हुआ कि यह आजाद हिन्द फौज की वही कर्नल हैं, जिन्होंने अपने साहस और बुद्धिमता के बल पर न सिर्फ आजादी को परवान पर चढ़ाया बल्कि नेता जी सुभाष चन्द्र बोस को आजादी की जंग में नारी-शक्ति में अटूट विश्वास करने पर बाध्य भी कर दिया. देश की आजादी के बाद हर किसी ने उसे भुनाया और सत्ता की चांदी की होड़ में दिल्ली में बसकर अपनी पीढ़ियों का भविष्य सुरक्षित करना सुनिश्चित किया, पर 98 वर्षीया यह डाक्टर आज भी अपने घर पर लोगों का इलाज करती हैं. देश-सेवा को भुनाने की बजे उन्होंने मानव-सेवा के पीछे अपना पूरा जीवन ही लगा दिया. यह संयोग ही है कि आज से ठीक दस वर्ष पूर्व वर्ष 2002 में 88 वर्ष की आयु में उन्होने वामपंथी दलों की ओर से श्री ए पी जे अब्दुल कलाम के विरुद्ध राष्ट्रपति पद का चुनाव लडा था और कल जब नए राष्ट्रपति के चुनाव के लिए मतदान हो रहा था तो उसी समय कैप्टन सहगल दिल के दौरे के बाद अस्पताल में भर्ती हो रही थीं.


कैप्टन डॉक्टर लक्ष्मी सहगल का जन्म 24 अक्तूबर 1914 को एक परंपरावादी तमिल परिवार में मद्रास उच्च न्यायालय के सफल वकील डॉ0 स्वामिनाथन और समाज सेविका व स्वाधीनता सेनानी अम्मुकुट्टी के घर हुआ था. घर पर बेटी के रूप में लक्ष्मी का आगमन हुआ तो मान-पिता ने उसका नाम ही रख दिया- लक्ष्मी स्वामिनाथन। बचपन से ही कुशाग्र लक्ष्मी ने 1930 में पिता के देहावसान का साहसपूर्वक सामना करते हुए 1932 में विज्ञान में स्नातक परीक्षा पास की। 1938 में उन्होने मद्रास मेडिकल कालेज से एम्.बी.बी.एस. किया और अगले वर्ष 1939 में जच्चा-बच्चा रोग विशेषज्ञ बनीं। कुछ दिन भारत में काम करके 1940 में वे सिंगापुर चली गयीं।

लक्ष्मी बचपन से ही राष्ट्रवादी आंदोलन से प्रभावित थीं और जब गाँधी जी ने विदेशी वस्तुओं के बहिष्कार का आंदोलन छेड़ा तो उन्होंने उसमें सक्रियता के साथ भाग लिया. उनका यह देश-प्रेम सिंगापुर जाने के बाद भी ख़त्म नहीं हुआ. सिंगापुर में उन्होने न केवल भारत से आये आप्रवासी मज़दूरों के लिये निशुल्क चिकित्सालय खोला बल्कि भारत स्वतंत्रता संघ की सक्रिय सदस्या भी बनीं। वर्ष 1942 में द्वितीय विश्व युद्ध के दौरान जब अंग्रेज़ों ने सिंगापुर को जापानियों को समर्पित कर दिया तब उन्होंने आहत युद्धबन्दियों के लिये काफी काम किया। दूसरे विश्व युद्ध के दौरान ही जब जापानी सेना ने सिंगापुर में ब्रिटिश सेना पर हमला किया तो उसी समय ब्रिटिश सेना के बहुत से भारतीय सैनिकों के मन में अपने देश की स्वतंत्रता के लिये काम करने का विचार उठ रहा था। ऐसे ही माहौल में 2 जुलाई 1943 को सिंगापुर की धरा पर नेताजी सुभाष चन्द्र बोस का ऐतिहासिक पदार्पण हुआ. नेता जी के विचारों से लक्ष्मी काफी प्रभावित हुईं और अंतत: उन्होंने इस पवित्र अभियान में नेताजी से अपने को भी शामिल करने की इच्छा जाहिर की. पहले तो नेताजी कुछ हिचकिचाए पर लक्ष्मी के बुलंद इरादों को देखकर उन्हें हामी भरनी ही पड़ी. फिर क्या था, आज़ाद हिन्द फौज़ की पहली महिला रेजिमेंट के विचार ने मूर्तरूप लिया जिसका नाम वीरांगना रानी लक्ष्मीबाई के सम्मान में रानी झाँसी रेजिमेंट रखा गया। 22 अक्तूबर 1943 को डॉ0 लक्ष्मी ने बतौर कैप्टन रानी झाँसी रेजिमेंट में कैप्टेन पद पर कार्यभार संभाला. यही नहीं अपने साहस और अद्भुत कार्य की बदौलत बाद में उन्हें कर्नल का पद भी मिला और उन्हें एशिया की प्रथम महिला कर्नल बनने का सौभाग्य भी प्राप्त हुआ, लेकिन जुबान पर चढ़ जाने के कारन लोगों ने उन्हें कैप्टन लक्ष्मी के रूप में ही याद रखा. यही नहीं वे 1943में सुभाषचन्द्र बोस की ‘‘आरजी हुकूमते आजाद हिन्द सरकार’’ में महिला विभाग की कैबिनेट मंत्री भी बनीं.

दितीय विश्व युद्ध में जापान की हार पश्चात् अंतत: ब्रिटिश सेनाओं ने आज़ाद हिंद फ़ौज के स्वतंत्रता सैनिकों की भी धरपकड़ की. सिंगापुर में पकडे गये आज़ाद हिन्द सैनिकों में कर्नल डॉ लक्ष्मी भी थीं। 4 जुलाई 1946 को भारत लाये जाने के बाद अंतत: उन्हें बरी कर दिया गया, पर इतिहास गवाह है की नेताजी के दायें हाथ मेजर जनरल शाहनवाज़ व कर्नल गुरबक्ष सिंह ढिल्लन और कर्नल प्रेमकुमार सहगल पर लाल किले में देशद्रोह के आरोप में मुकदमे चले जिसमें पण्डित जवाहर लाल नेहरू, भूलाभाई देसाई और कैलाशनाथ काटजू जैसे दिग्गज वकीलों की दलीलों के चलते तीनों जांबाजों को बरी करना पडा। कैप्टन लक्ष्मी सहगल ने लाहौर में मार्च 1947 में कर्नल प्रेम कुमार सहगल से विवाह कर लिया और फिर कानपुर आकर बस गईं. पर उनका संघर्ष यहीं ख़त्म नहीं हुआ और वे वंचितों की सेवा में लग गईं. वे भारत विभाजन को कभी स्वीकार नहीं कर पाईं और अमीरों और ग़रीबों के बीच बढ़ती खाई का हमेशा विरोध करती रहीं.

कालांतर में वे सक्रिय राजनीति में भी आयीं और 1971 में मर्क्सवादी कम्युनिस्ट पार्टी से राज्यसभा की सदस्य बनीं। यह एक विडंबना ही है कि जिन वामपंथी पार्टियों ने द्वितीय विश्वयुद्ध में जापान का साथ देने के लिए सुभाष चंद्र बोस की आलोचना की, उसी से अंतत: कैप्टन लक्ष्मी सहगल का जुडाव हुआ. वे अखिल भारतीय जनवादी महिला समिति की संस्थापक सदस्यों में रहीं .1998 में उन्हें भारत सरकार द्वारा उल्लेखनीय सेवाओं के लिए पद्म विभूषण से सम्मनित किया गया। वर्ष 2002 में 88 वर्ष की आयु में उन्होने वामपंथी दलों की ओर से श्री ए पी जे अब्दुल कलाम के विरुद्ध राष्ट्रपति पद का चुनाव भी लडा था।

डॉक्टर लक्ष्मी सहगल जीवन के अंतिम समय तक मानवता के सेवा के लिए तत्पर दिखती हैं. शरीर की स्वस्थता उम्र से नहीं वरन् सक्रियता से निर्धारित होती है, का अक्षरक्षः पालन करने वाली कैप्टन लक्ष्मी सहगल आज भी नियमित रूप से अपने क्लीनिक में मरीजों की देखभाल करती हैं। डाक्टर सहगल किसी कर्मकांड में विश्वास नहीं रखतीं बल्कि मरीजों की देख भाल से वे अपने को ईश्वर के करीब पाती हैं। आज भी वे सुबह 9.30 बजे अपने क्लीनिक के लिए निकल जाती हैं एवम् 10 बजे से 2 बजे तक का समय मरीजों की तीमारदारी में बिताती हैं । उनकी बेटी सुभाषिनी अली 1989 में कानपुर से मार्क्सवादी कम्युनिस्ट पार्टी की सांसद भी रहीं. सुभाषिनी अली ने कम्युनिस्ट नेत्री बृन्दा करात की फिल्म अमू में अभिनेत्री का किरदार भी निभाया था. डॉ सहगल के पौत्र और सुभाषिनी अली और मुज़फ्फर अली के पुत्र शाद अली फिल्म निर्माता निर्देशक हैं, जिन्होंने साथिया, बंटी और बबली इत्यादि चर्चित फ़िल्में बनाई हैं। प्रसिद्ध नृत्यांगना मृणालिनी साराभाई उनकी सगी बहन हैं।

(आज ही सुबह ख़बरों में देखा कि पद्म विभूषण से सम्मानित आजाद हिंद फौज की कैप्टन डॉ. लक्ष्मी सहगल को गुरुवार सुबह दिल का दौरा पड़ने पर कानपुर मेडिकल सेंटर में भर्ती कराया गया। भर्ती कराने के बाद अस्पताल में ही उन्हें ब्रेन हेमरेज भी हो गया। 98 वर्षीया डॉ. सहगल की हालत नाजुक बनी हुई है।....डा. सहगल के शीघ्र स्वस्थ होने क़ी कामनाओं के साथ !!)

(चित्र में कैप्टन लक्ष्मी सहगल के साथ लेखक कृष्ण कुमार यादव)

शनिवार, 7 जुलाई 2012

सावन हे सखी सगरो सुहावन

प्रतीक्षा, मिलन और विरह की अविरल सहेली, निर्मल और लज्जा से सजी-धजी नवयौवना की आसमान छूती खुशी, आदिकाल से कवियों की रचनाओं का श्रृंगार कर, उन्हें जीवंत करने वाली ‘कजरी’ सावन की हरियाली बहारों के साथ तेरा स्वागत है। मौसम और यौवन की महिमा का बखान करने के लिए परंपरागत लोकगीतों का भारतीय संस्कृति में कितना महत्व है-कजरी इसका उदाहरण है। प्रतीक्षा के पट खोलती लोकगीतों की श्रृंखलाएं इन खास दिनों में गज़ब सी हलचल पैदा करती हैं, हिलोर सी उठती है, श्रृंगार के लिए मन मचलता है और उस पर कजरी के सुमधुर बोल! सचमुच वह सबकी प्रतीक्षा है, जीवन की उमंग और आसमान को छूते हुए झूलों की रफ्तार है। शहनाईयों की कर्णप्रिय गूंज है, सुर्ख़ लाल मखमली वीर बहूटी और हरियाली का गहना है, सावन से पहले ही तेरे आने का एहसास! महान कवियों और रचनाकारों ने तो कजरी के सम्मोहन की व्याख्या विशिष्ट शैली में की है।


भारतीय परम्परा का प्रमुख आधार तत्व उसकी लोक संस्कृति है। यहां लोक कोई एकाकी धारणा नहीं है बल्कि इसमें सामान्य-जन से लेकर पशु-पक्षी, पेड़-पौधे, ऋतुएं, पर्यावरण, हमारा परिवेश और हर्ष-विषाद की सामूहिक भावना से लेकर श्रृंगारिक दशाएं तक शामिल हैं। ‘ग्राम-गीत‘ की भारत में प्राचीन परंपरा रही है। लोकमानस के कंठ में, श्रुतियों में और कई बार लिखित-रूप में यह पीढ़ी-दर-पीढ़ी प्रवाहित होते रहते हैं। पं. रामनरेश त्रिपाठी के शब्दों में-‘ग्राम गीत प्रकृति के उदगार हैं। इनमें अलंकार नहीं, केवल रस है। छन्द नहीं, केवल लय है। लालित्य नहीं, केवल माधुर्य है। ग्रामीण मनुष्यों के स्त्री-पुरुषों के मध्य में हृदय नामक आसन पर बैठकर प्रकृति मानो गान करती है। प्रकृति का यह गान ही ग्राम गीत है....।’ इस लोक संस्कृति का ही एक पहलू है- कजरी। ग्रामीण अंचलों में अभी भी प्रकृति की अनुपम छटा के बीच कजरी की धाराएं समवेत फूट पड़ती हैं। यहाँ तक कि जो अपनी मिटटी छोड़कर विदेशों में बस गए, उन्हें भी यह कजरी अपनी ओर खींचती है। तभी तो कजरी अमेरिका, ब्रिटेन इत्यादि देशों में भी अपनी अनुगूंज छोड़ चुकी है। सावन के मतवाले मौसम में कजरी के बोलों की गूंज वैसे भी दूर-दूर तक सुनाई देती है -

रिमझिम बरसेले बदरिया,
गुईयां गावेले कजरिया
मोर सांवरिया भीजै न
वो ही धानियां की कियरिया
मोर सांविरया भीजै न।

वस्तुतः ‘लोकगीतों की रानी’ कजरी सिर्फ गायन भर नहीं है बल्कि यह सावन मौसम की सुन्दरता और उल्लास का उत्सवधर्मी पर्व है। चरक संहिता में तो यौवन की संरक्षा व सुरक्षा हेतु बसन्त के बाद सावन महीने को ही सर्वश्रेष्ठ बताया गया है। सावन में नयी ब्याही बेटियाँ अपने पीहर वापस आती हैं और बगीचों में भाभी और बचपन की सहेलियों संग कजरी गाते हुए झूला झूलती हैं-

घरवा में से निकले ननद-भउजईया
जुलम दोनों जोड़ी साँवरिया।

छेड़छाड़ भरे इस माहौल में जिन महिलाओं के पति बाहर गये होते हैं, वे भी विरह में तड़पकर गुनगुना उठती हैं ताकि कजरी की गूँज उनके प्रीतम तक पहुँचे और शायद वे लौट आयें-

सावन बीत गयो मेरो रामा
नाहीं आयो सजनवा ना।
........................
भादों मास पिया मोर नहीं आये
रतिया देखी सपनवा ना।

यही नहीं जिसके पति सेना में या बाहर परदेश में नौकरी करते हैं, घर लौटने पर उनके सांवले पड़े चेहरे को देखकर पत्नियाँ कजरी के बोलों में गाती हैं -

गौर-गौर गइले पिया
आयो हुईका करिया
नौकरिया पिया छोड़ दे ना।

एक मान्यता के अनुसार पति विरह में पत्नियाँ देवि ‘कजमल’ के चरणों में रोते हुए गाती हैं, वही गान कजरी के रूप में प्रसिद्ध है-

सावन हे सखी सगरो सुहावन
रिमझिम बरसेला मेघ हे
सबके बलमउवा घर अइलन
हमरो बलम परदेस रे।

नगरीय सभ्यता में पले-बसे लोग भले ही अपनी सुरीली धरोहरों से दूर होते जा रहे हों, परन्तु शास्त्रीय व उपशास्त्रीय बंदिशों से रची कजरी अभी भी उत्तर प्रदेश के कुछ अंचलों की खास लोक संगीत विधा है। कजरी के मूलतः तीन रूप हैं- बनारसी, मिर्जापुरी और गोरखपुरी कजरी। बनारसी कजरी अपने अक्खड़पन और बिन्दास बोलों की वजह से अलग पहचानी जाती है। इसके बोलों में अइले, गइले जैसे शब्दों का बखूबी उपयोग होता है, इसकी सबसे बड़ी पहचान ‘न’ की टेक होती है-

बीरन भइया अइले अनवइया
सवनवा में ना जइबे ननदी।
रिमझिम पड़ेला फुहार
बदरिया आई गइले ननदी।

विंध्य क्षेत्र में गायी जाने वाली मिर्जापुरी कजरी की अपनी अलग पहचान है। अपनी अनूठी सांस्कृतिक परंपराओं के कारण मशहूर मिर्जापुरी कजरी को ही ज्यादातर मंचीय गायक गाना पसंद करते हैं। इसमें सखी-सहेलियों, भाभी-ननद के आपसी रिश्तों की मिठास और छेड़छाड़ के साथ सावन की मस्ती का रंग घुला होता है-

पिया सड़िया लिया दा मिर्जापुरी पिया
रंग रहे कपूरी पिया ना
जबसे साड़ी ना लिअईबा
तबसे जेवना ना बनईबे
तोरे जेवना पे लगिहैं मजूरी पिया
रंग रहे कपूरी पिया ना।

विंध्य क्षेत्र में पारंपरिक कजरी धुनों में झूला झूलती और सावन भादो मास में रात में चौपालों में जाकर ‌स्त्रियां उत्सव मनाती हैं। इस कजरी की सबसे बड़ी विशेषता यह है कि यह पीढ़ी दर पीढ़ी चलती है और इसकी धुनों व पद्धति को नहीं बदला जा सका, क्योंकि इसका कोई तोड़ ही नहीं है। कजरी की ही तरह विंध्य क्षेत्र में कजरी अखाड़ों की भी अनूठी परंपरा रही है। आषाढ़ पूर्णिमा के दिन गुरू पूजन के बाद इन अखाड़ों से कजरी का विधिवत गायन आरंभ होता है। स्वस्थ परंपरा के तहत इन कजरी अखाड़ों में प्रतिद्वंदिता भी होती है। कजरी लेखक गुरु अपनी कजरी को एक रजिस्टर पर नोट कर देता है, जिसे किसी भी हालत में न तो सार्वजनिक किया जाता है और न ही किसी को लिखित रूप में दिया जाता है, केवल अखाड़े का गायक ही इसे याद करके या पढ़कर गा सकता है-

कइसे खेलन जइबू
सावन में कजरिया
बदरिया घिर आईल ननदी
संग में सखी न सहेली
कईसे जइबू तू अकेली
गुंडा घेर लीहें तोहरी डगरिया।

बनारसी और मिर्जापुरी कजरी से परे गोरखपुरी कजरी की अपनी अलग ही टेक है और यह ‘हरे रामा‘ और ‘ऐ हारी‘ के कारण अन्य कजरी से अलग पहचानी जाती है-

हरे रामा, कृष्ण बने मनिहारी
पहिर के सारी, ऐ हारी।

सावन की अनुभूति के बीच भला किसका मन प्रिय मिलन हेतु नहीं तड़पेगा, फिर वह चाहे चंद्रमा ही क्यों न हो-

चंदा छिपे चाहे बदरी मा
जब से लगा सवनवा ना।

विरह के बाद संयोग की अनुभूति से तड़प और बेकरारी भी बढ़ती जाती है, फिर यही तो समय होता है इतराने का, फरमाइशें पूरी करवाने का-

पिया मेंहदी लिआय दा मोतीझील से
जायके साइकील से ना
पिया मेंहदी लिअहिया
छोटकी ननदी से पिसईहा
अपने हाथ से लगाय दा
कांटा-कील से
जायके साइकील से।
..................
धोतिया लइदे बलम कलकतिया
जिसमें हरी-हरी पतियां।

ऐसा नहीं है कि कजरी सिर्फ बनारस, मिर्जापुर और गोरखपुर के अंचलों तक ही सीमित है, बल्कि इलाहाबाद और अवध अंचल भी इसकी सुमधुरता से अछूते नहीं हैं। कजरी सिर्फ गाई नहीं जाती, बल्कि खेली भी जाती है। एक तरफ जहां मंच पर लोक गायक इसकी अद्भुत प्रस्तुति करते हैं, वहीं दूसरी ओर इसकी सर्वाधिक विशिष्ट शैली ‘धुनमुनिया’ है, जिसमें महिलाएं झुक कर एक दूसरे से जुड़ी हुई अर्धवृत्त में नृत्य करती हैं।

मध्यप्रदेश और छत्तीसगढ़ के कुछ अंचलों में तो रक्षाबंधन पर्व को ‘कजरी पूर्णिमा’ के तौर पर भी मनाया जाता है। मानसून की समाप्ति को दर्शाता यह पर्व श्रावण अमावस्या के नवें दिन से आरंभ होता है, जिसे ‘कजरी नवमी’ के नाम से जाना जाता है। कजरी नवमी से लेकर कजरी पूर्णिमा तक चलने वाले इस उत्सव में नवमी के दिन महिलाएं खेतों से मिट्टी सहित फसल के अंश लाकर घरों में रखती हैं एवं उसकी साथ सात दिनों तक माँ भगवती के साथ कजमल देवी की पूजा करती हैं। घर को खूब साफ-सुथरा कर रंगोली बनायी जाती है और पूर्णिमा की शाम को महिलाएं समूह बनाकर पूजी जाने वाली फसल को लेकर नजदीक के तालाब या नदी पर जाती हैं और उस फसल के बर्तन से एक दूसरे पर पानी उलचाती हुई कजरी गाती हैं। इस उत्सवधर्मिता के माहौल में कजरी के गीत सातों दिन अनवरत गाए जाते हैं।

कजरी लोक संस्कृति की जड़ है और यदि हमें लोक जीवन की ऊर्जा और रंगत बनाए रखना है, तो इन तत्वों को सहेज कर रखना होगा। कजरी भले ही पावस गीत के रूप में गाई जाती हो, पर लोक रंजन के साथ ही इसने लोक जीवन के विभिन्न पक्षों में सामाजिक चेतना की अलख जगाने का भी कार्य किया है। कजरी सिर्फ राग-विराग या श्रृंगार और विरह के लोक गीतों तक ही सीमित नहीं है, बल्कि इसमें चर्चित समसामयिक विषयों की भी गूंज सुनाई देती है। स्वतंत्रता आंदोलन के दौरान कजरी ने लोक चेतना को बखूबी अभिव्यक्त किया। आज़ादी की लड़ाई के दौर में एक कजरी के बोलों की रंगत देखें-

केतने गोली खाइके मरिगै
केतने दामन फांसी चढ़िगै
केतने पीसत होइहें जेल मां चकरिया
बदरिया घेरि आई ननदी।

1857 की क्रांति के पश्चात जिन जीवित लोगों से अंग्रेजी हुकूमत को ज्यादा ख़तरा महसूस हुआ, उन्हें कालापानी की सज़ा दे दी गई। अपने पति को कालापानी भेजे जाने पर एक महिला ‘कजरी’ के बोलों में गाती है-

अरे रामा नागर नैया जाला काले पनियां रे हरी
सबकर नैया जाला कासी हो बिसेसर रामा
नागर नैया जाला काले पनियां रे हरी
घरवा में रोवै नागर, माई और बहिनियां रामा
से जिया पैरोवे बारी धनिया रे हरी।

स्वतंत्रता की लड़ाई में हर कोई चाहता था कि उसके घर के लोग भी इस संग्राम में अपनी आहुति दें। कजरी के माध्यम से महिलाओं ने अन्याय के विरूद्ध लोगों को जगाया और दुश्मन का सामना करने को प्रेरित किया। ऐसे में उन नौजवानों को जो घर में बैठे थे, महिलाओं ने कजरी के माध्यम से व्यंग्य कसते हुए प्रेरित किया-

लागे सरम लाज घर में बैठ जाहु
मरद से बनिके लुगइया आए हरि
पहिरि के साड़ी, चूड़ी, मुंहवा छिपाई लेहु
राखि लेई तोहरी पगरइया आए हरि।

सुभाष चंद्र बोस ने जंग-ए-आजादी में नारा दिया कि-‘तुम मुझे खून दो, मैं तुम्हें आज़ादी दूंगा, फिर क्या था पुरूषों के साथ-साथ महिलाएं भी उनकी फौज में शामिल होने के लिए बेकरार हो उठीं। तभी तो कजरी के शब्द फूट पड़े-

हरे रामा सुभाष चंद्र ने फौज सजायी रे हारी
कड़ा-छड़ा पैंजनिया छोड़बै, छोड़बै हाथ कंगनवा रामा
हरे रामा, हाथ में झंडा लै के जुलूस निकलबैं रे हारी।

महात्मा गांधी आज़ादी के दौर के सबसे बड़े नेता थे। चरखा कातकर उन्होंने स्वावलंबन और स्वदेशी का रूझान जगाया। नवयुवतियां अपनी-अपनी धुन में गांधी जी को प्रेरणास्त्रोत मानतीं और एक स्वर में कजरी के बोलों में गातीं-

अपने हाथे चरखा चलउबै
हमार कोऊ का करिहैं
गांधी बाबा से लगन लगउबै
हमार कोई का करिहैं।

कजरी में ’चुनरी’ शब्द के बहाने बहुत कुछ कहा गया है। आज़ादी की तरंगें भी कजरी से अछूती नहीं रही हैं-

एक ही चुनरी मंगाए दे बूटेदार पिया
माना कही हमार पिया ना
चंद्रशेखर की बनाना, लक्ष्मीबाई को दर्शाना
लड़की हो गोरों से घोड़ों पर सवार पिया।
जो हम ऐसी चुनरी पइबै, अपनी छाती से लगइबे
मुसुरिया दीन लूटै सावन में बहार पिया
माना कही हमार पिया ना।
..................
पिया अपने संग हमका लिआये चला
मेलवा घुमाए चला ना
लेबई खादी चुनर धानी, पहिन के होइ जाबै रानी
चुनरी लेबई लहरेदार, रहैं बापू औ सरदार
चाचा नेहरू के बगले बइठाए चला
मेलवा घुमाए चला ना
रहइं नेताजी सुभाष, और भगत सिंह खास
अपने शिवाजी के ओहमा छपाए चला
जगह-जगह नाम भारत लिखाए चला
मेलवा घुमाए चला

उपभोक्तावादी ग्लैमर में कजरी भले ही कुछ क्षेत्रों तक सिमट गई हो, पर यह प्रकृति से तादातम्य का गीत है और इसमें कहीं न कहीं पर्यावरण चेतना भी मौजूद है। इसमें कोई शक नहीं कि सावन प्रतीक है-सुख का, सुंदरता का, प्रेम का, उल्लास का और इन सब के बीच, कजरी जीवन के अनुपम क्षणों को अपने में समेटे यूं ही रिश्तों को खनकाती रहेगी और झूले की पींगों के बीच छेड़-छाड़ व मनुहार यूँ ही लुटाती रहेगी। कजरी हमारी जनचेतना की परिचायक है और जब तक धरती पर हरियाली रहेगी कजरी जीवित रहेगी। अपनी वाच्य परंपरा से जन-जन तक पहुंचने वाले कजरी जैसे लोकगीतों के माध्यम से लोकजीवन में तेजी से मिटते मूल्यों को बचाया जा सकता है।

कजरी! तेरी विशिष्टता के बखान के लिए शब्द भी कम पड़ते हैं, मैं तेरे और भी विशेषणों के साथ फिर लौटता हूं।


-कृष्ण कुमार यादव