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शुक्रवार, 31 दिसंबर 2010

नव वर्ष की बेला आई..


नव वर्ष की बेला आई
खुशियों की सौगातें लाई
नया कर गुजरने का मौका
सद्भावों की नौका लाई

नया वर्ष है, नया तराना
झूमो-नाचो, गाओ गाना
इस वर्ष संकल्प है अपना
नहीं किसी को है सताना

बदला साल, कैलेण्डर बदला
बदला है इस तरह जमाना
भेजो सबको स्नेह निमंत्रण
गाओ नव वर्ष का तराना।

कृष्ण कुमार यादव
चित्र साभार : वेबदुनिया

रविवार, 19 दिसंबर 2010

वार्षिक हिंदी ब्लॉग विश्लेषण -2010 : एक अनुपम प्रयास

हिंदी ब्लागिंग में नित नए प्रयोग हो रहे हैं. कोई रचनाधर्मिता के स्तर पर तो कहीं विश्लेषण के स्तर पर. इन सबके बीच लखनऊ के ब्लागर रवीन्द्र प्रभात ने ब्लागोत्सव-2010 और परिकल्पना के माध्यम से नई पहचान बनाई है. आजकल परिकल्पना ब्लॉग के माध्यम से रवीन्द्र जी वार्षिक हिंदी ब्लॉग विश्लेषण-2010 पर ध्यान लगाये हुए हैं. बड़ी खूबसूरती से साल-भर चली गतिविधियों, ब्लॉग जगत की हलचलों, नए-पुराने चेहरों को आत्मसात करते हुए रवीन्द्र जी का यह व्यापक विश्लेषण यथासंभव हर सक्रिय हिंदी ब्लागर को सहेजने की कोशिश करता है. यह विश्लेषण नए ब्लागरों के लिए प्राण-वायु का कार्य करता है, तो पुरानों के लिए पीछे मुड़कर देखने का एक मौका देता है. यह हिंदी ब्लाग-जगत को आत्मविश्लेषण की शक्ति देता है तो शोधपरक रूप में प्रस्तुत सभी पोस्ट महत्वपूर्ण पोस्टों को इतिहास के गर्त में जाने से बचाते भी हैं. मुझे लगता है कि हर हिंदी ब्लागर को परिकल्पना पर प्रस्तुत इस वार्षिक हिंदी ब्लॉग विश्लेषण-2010 पर एक चौकन्नी नजर जरुर डालनी चाहिए और इसे प्रोत्साहित करना चाहिए. फ़िलहाल रवीन्द्र प्रभात जी को लगातार दूसरे वर्ष इस अनुपम ब्लॉग-विश्लेषण के लिए बधाइयाँ और साधुवाद !!


वार्षिक हिंदी ब्लॉग विश्लेषण-2010 (भाग-5) की शुरुआत रवीन्द्र प्रभात जी ने हमारे ब्लॉगों के विश्लेषण से ही की है, तो लगता है कि हम भी कुछ ठीक-ठाक कर रहे हैं. अन्यथा हम तो अपने को इस क्षेत्र में घुसपैठिया ही मानते थे. बकौल रवीन्द्र प्रभात- पिछले भाग में जो साहित्य सृजन की बात चली थी उसे आगे बढाते हुए मैं सबसे पहले जिक्र करना चाहूंगा एक ऐसे परिवार का जो पद-प्रतिष्ठा-प्रशंसा और प्रसिद्धि में काफी आगे होते हुए भी हिंदी ब्लोगिंग में सार्थक हस्तक्षेप रखता है । साहित्य को समर्पित व्यक्तिगत ब्लॉग के क्रम में एक महत्वपूर्ण नाम उभरकर सामने आया है वह शब्द सृजन की ओर , जिसके संचालक है इस परिवार के मुखिया के के यादव । ये जून -२००८ से सक्रिय ब्लोगिंग से जुड़े हैं । इनका एक और ब्लॉग है डाकिया डाक लाया । यह ब्लॉग विषय आधारित है तथा डाक विभाग के अनेकानेक सुखद संस्मरणों से जुडा है।


आकांक्षा यादव इनकी धर्मपत्नी है और ये हिंदी के चार प्रमुख क्रमश: शब्द शिखर, उत्सव के रंग, सप्तरंगी प्रेम और बाल दुनिया ब्लॉग की संचालिका हैं औरइनकी एक नन्ही बिटिया है जिसे पूरा ब्लॉग जगत अक्षिता पाखी (ब्लॉग : पाखी की दुनिया) के नाम से जानता है, इस वर्ष के श्रेष्ठ नन्हा ब्लोगर का अलंकरण पा चुकी है , चुलबुली और प्यारी सी इस ब्लोगर को कोटिश: शुभकामनाएं ! इनसे जुड़े हुए दो नाम और है एक राम शिवमूर्ति यादव और दूसरा नाम अमित कुमार यादव , जिन्होनें वर्ष -२०१० में अपनी सार्थक और सकारात्मक गतिविधियों से हिंदी ब्लॉगजगत का ध्यान खींचने में सफल रहे हैं । ये एक सामूहिक ब्लॉग भी संचालित करते हैं जिसका नाम है युवा जगत । यह ब्लॉग दिसंबर-२००८ में शुरू हुआ और इसके प्रमुख सदस्य हैं अमित कुमार यादव, कृष्ण कुमार यादव, आकांक्षा यादव, रश्मि प्रभा, रजनीश परिहार, राज यादव, शरद कुमार, निर्मेश, रत्नेश कुमार मौर्या, सियाराम भारती, राघवेन्द्र बाजपेयी आदि।

इसी प्रकार वार्षिक हिंदी ब्लॉग विश्लेषण-2010 (भाग-2) के आरंभ में लिखे वाक्य कि- वर्ष-२०१० की शुरुआत में जिस ब्लॉग पर मेरी नज़र सबसे पहले ठिठकी वह है शब्द शिखर , जिस पर हरिवंशराय बच्चन का नव-वर्ष बधाई पत्र !! प्रस्तुत किया गया ।


वार्षिक हिंदी ब्लॉग विश्लेषण-2010 (भाग-1) में भी रवीन्द्र जी ने हमारे ब्लॉगों की चर्चा की है. जून-२००८ से हिंदी ब्लॉगजगत में सक्रिय के. के. यादव का वर्ष-२०१० में प्रकाशित एक आलेख अस्तित्व के लिए जूझते अंडमान के आदिवासी ,वर्ष-२००८ से दस ब्लोगरों क्रमश: अमित कुमार यादव, कृष्ण कुमार यादव, आकांक्षा यादव, रश्मि प्रभा, रजनीश परिहार, राज यादव, शरद कुमार, निर्मेश, रत्नेश कुमार मौर्या, सियाराम भारती, राघवेन्द्र बाजपेयी के द्वारा संचालित सामूहिक ब्लॉग युवा जगत पर इस वर्ष प्रकाशित एक आलेख हिंदी ब्लागिंग से लोगों का मोहभंग ,२४ जून २००९ से सक्रीय और लोकसंघर्ष परिकल्पना सम्मान से सम्मानित वर्ष की श्रेष्ठ नन्ही ब्लोगर अक्षिता पाखी के ब्लॉग पर प्रकाशित आलेख डाटर्स-डे पर पाखी की ड्राइंग... १० नवम्बर-२००८ से सक्रीय राम शिव मूर्ति यादव का इस वर्ष प्रकाशित आलेख मानवता को नई राह दिखाती कैंसर सर्जन डॉ. सुनीता यादव, .............................आदि को पाठकों की सर्वाधिक सराहना प्राप्त हुयी है .

यहाँ मुझे याद है, जब पिछले वर्ष 21 दिसंबर, 2009 को प्रस्तुत वर्ष 2009 : हिंदी ब्लाग विश्लेषण श्रृंखला (क्रम-21) में भी रवीन्द्र जी ने डाकिया डाक लाया ब्लॉग के माध्यम से हमें भी हिंदी ब्लॉग जगत के 9 उपरत्नों में दूसरे स्थान पर शामिल किया था. यह हमारे लिए बेहद प्रसन्नता का क्षण था.

रवीन्द्र प्रभात जी द्वारा प्रस्तुत ब्लॉगों के विश्लेषण से कम से कम हमें भी ब्लागर होने का अहसास हुआ है और लगता है कि हम भी कुछ ठीक-ठाक सा कर रहे हैं. अन्यथा हम तो अपने को इस क्षेत्र में घुसपैठिया ही मानते थे. खैर इसी बहाने सुदूर अंडमान-निकोबार की चर्चा भी ब्लागिंग में हो रही है, जो काफी उपेक्षित माना जाता है. एक बार पुन: रवीन्द्र प्रभात जी को लगातार दूसरे वर्ष इस अनुपम ब्लॉग-विश्लेषण के लिए बधाइयाँ और साधुवाद और रवीन्द्र प्रभात जी व उन सभी स्नेही ब्लोगर्स-पाठकों का आभार जिनकी बदौलत हम आज यहाँ पर हैं !!


...तो आप भी एक बार रवीन्द्र प्रभात जी की परिकल्पना में शामिल हों, और वार्षिक हिंदी ब्लॉग विश्लेषण-2010 की सैर कर अपने विचार वहां जरुर दें. आखिर कोई तो है जो लखनऊ की नज़ाकत, नफ़ासत,तहज़ीव और तमद्दून की जीवंतता को ब्लागिंग में भी बरकरार रखकर अपने-पराये के भेद से परे सबकी सोच रहा है !!

रविवार, 12 दिसंबर 2010

सोने के डाक टिकट


(आज 12 दिसंबर, 2010 के जनसत्ता अख़बार के रविवारी पृष्ठ पर 'सोने के डाक टिकट' शीर्षक से मेरा एक लेख प्रकाशित है. आप इस लेख को यहाँ भी पढ़ सकते हैं. आपकी प्रतिक्रियाओं का इंतजार रहेगा)

डाक टिकटों के बारे में तो सभी जानते हैं लेकिन सोने के डाक-टिकट की बात सुनकर ताज्जुब होता है। हाल ही में भारतीय डाक विभाग ने 25 स्वर्ण डाक टिकटों का एक संग्रहणीय सेट जारी किया है। इसके लिए राष्ट्रीय फिलेटलिक म्यूजियम (नई दिल्ली) के संकलन से 25 ऐतिहासिक व विशिष्ट डाक टिकट इतिहासकारों व डाक टिकट विशेषज्ञों द्वारा विशेष रूप से भारत की अलौकिक कहानी का वर्णन करने के लिए चुने गए हैं, ताकि भारत की सभ्यता और संस्कृति से जुड़ी धरोहरों की जानकारी दी जा सके और महापुरूषों को सच्ची श्रद्धांजलि।

सोने के इन डाक टिकटों को जारी करने के लिए डाक विभाग ने लंदन के हाॅलमार्क ग्रुप को अधिकृत किया है। हाॅलमार्क ग्रुप द्वारा हर चुनी हुई कृति के अनुरूप विश्व प्रसिद्ध कलाकारों द्वारा समान आकार व रूप के मूल टिकट के अनुरूप ही ठोस चांदी में डाक टिकट ढाले गये हैं और उन पर 24 कैरेट सोने की परत चढ़ायी गयी है। ‘‘प्राइड आफ इण्डिया‘‘ नाम से जारी किये गए ये डाक टिकट डायमण्ड कट वाले छिद्र के साथ 2.2 मि0मी0 मोटा है। 25 डाक टिकटों का यह पूरा सेट 1.5 लाख रूपये का है यानि हर डाक टिकट की कीमत 6,000 रूपये है। इन डाक टिकटों के पीछे भारतीय डाक और हाॅलमार्क का लोगो है।

इन 25 खूबसूरत डाक टिकटों में स्वतंत्र भारत का प्रथम डाक टिकट ‘जयहिन्द‘, थाणे और मुंबई के बीच चली पहली रेलगाड़ी पर जारी डाक टिकट, भारतीय डाक के 150 साल पर जारी डाक टिकट, 1857 के महासंग्राम के 150वें साल पर जारी डाक टिकट, प्रथम एशियाई खेल (1951), क्रिकेट विजय-1971, मयूर प्रतिरूप: 19वीं शताब्दी मीनाकारी, राधा किशनगढ़, कथकली, भारतीय गणराज्य, इण्डिया गेट, लालकिला, ताजमहल, वन्देमातरम्, भगवदगीता, अग्नि-2 मिसाइल पर जारी डाक टिकट शामिल किये गये हैं। इनके अलावा महात्मा बुद्ध, महात्मा गांधी, रवीन्द्र नाथ टैगोर, जे.आर.डी.टाटा, होमी जहांगीर भाभा, मदर टेरेसा, सत्यजित रे, अभिनेत्री मधुबाला और धीरूभाई अम्बानी पर जारी डाक टिकटों की स्वर्ण अनुकृति भी जारी की जा रही है।

भूटान ने 1996 में 140 न्यू मूल्य वर्ग का ऐसा विशेष डाक टिकट जारी किया था जिसके मुद्रण में 22 कैरेट सोने के घोल का उपयोग किया गया था। विश्व के पहले डाक टिकट ‘पेनी ब्लैक‘ के सम्मान में जारी किये गये इस टिकट पर ‘22 कैरेट गोल्ड स्टेम्प 1996‘ लिखा है। इस टिकट की स्वर्णिम चमक को देखकर इसकी विश्वसनीयता के बारे में कोई संदेह नहीं रह जाता। यह खूबसूरत डाक टिकट अब दुर्लभ डाक टिकटों की श्रेणी में माना जाता है क्योंकि अब यह आसानी से उपलब्ध नहीं है।

भारतीय डाक विभाग ने हाॅलमार्क ग्रुप के साथ जारी किये जा रहे इन डाक टिकटों के बारे में सबसे रोचक तथ्य यह है कि ये स्वर्ण डाक टिकट डाकघरों में उपलब्ध नहीं हैं और न ही किसी शोरूम में। इन्हें प्राप्त करने के लिए विशेष आर्डर फार्म भर कर हाॅलमार्क को भेजना होता है। इसके साथ संलग्न विवरणिका जो इसकी खूबसूरती की व्याख्या करती है, आपने आप में एक अनूठा उपहार है। साथ ही वैलवेट लगी एक केज, ग्लब्स व स्विस निर्माणकर्ता द्वारा सत्यापित शुद्धता का प्रमाण पत्र इन डाक टिकटों को और भी संग्रहणीय बनाते हैं। इन डाक टिकटों की ऐतिहासिकता बरकरार रखने और इन्हें मूल्यवान बनाने के लिए सिर्फ 7,500 सेट ही जारी किया गया है।

सोने के ये डाक टिकट न सिर्फ डाक टिकट संग्रहकर्ताओं बल्कि अपनी सभ्यता व संस्कृति से जुड़े हर व्यक्ति के लिए एक अमूल्य धरोहर हैं. इसीलिए डाक टिकटों के पहले सेट को नई दिल्ली के राष्ट्रीय फिलेटलिक म्यूजियम में भी प्रदर्शन के लिए सुरक्षित रखने का फैसला किया गया है ।

शनिवार, 4 दिसंबर 2010

जनसत्ता में 'शब्द सृजन की ओर' ब्लॉग की पोस्ट की चर्चा

'शब्द सृजन की ओर' पर 6 अक्तूबर, 2010 को प्रस्तुत पोस्ट अस्तित्व के लिए जूझते अंडमान के आदिवासी को प्रतिष्ठित हिन्दी दैनिक पत्र 'जनसत्ता' ने २२ नवम्बर 2010 को अपने सम्पादकीय पृष्ठ पर नियमित स्तम्भ 'समान्तर' में स्थान दिया ... आभार ! इससे पूर्व जनसत्ता के इसी स्तम्भ में 'शब्द सृजन की ओर' पर 22 अप्रैल, 2010 को प्रस्तुत पोस्ट प्रलय का इंतजार को भी स्थान दिया गया था...बहुत-बहुत आभार !!

बुधवार, 24 नवंबर 2010

मुझे तुम्हारी तलाश है...


मुझे तुम्हारी तलाश है
ढूँढता हूँ हर कहीं
इस छोर से उस छोर तक
उस छोर से इस छोर तक
कभी तुम्हें रिमझिम फुहारों में ढूँढा
कभी अठखेलियाँ करती बहारों में ढूँढा
पर नहीं मिला मुझे मेरे जीवन का बसंत
शायद तुम आसमां के चाँद बन गये
या मेरी रातों के ख्वाब बन गये
पर मैं आज भी वहीं हूँ
आवाज देता हूँ तुम्हें
दूर तलक आवाज जाकर लौट आती है
मैं फिर भी तुम्हें खोजता फिरूँगा
जब तक मेरा अखिरी मुकाम न आ जाय
पर एक आस है दिल में
अगर यहाँ नहीं, तो वहाँ जरूर मिलोगे।

शुक्रवार, 19 नवंबर 2010

नया जीवन


टकटकी बाँधकर देखती है
जैसे कुछ कहना हो
और फुर्र हो जाती है तुरन्त
फिर लौटती है
चोंच में तिनके लिए
अब तो कदमों के पास
आकर बैठने लगी है
आज उसके घोंसले में दिखे
दो छोटे-छोटे अंडे
कुर्सी पर बैठा रहता हूँ
पता नहीं कहाँ से आकर
कुर्सी के हत्थे पर बैठ जाती है
शायद कुछ कहना चाहती है
फिर फुर्र से उड़कर
घोंसले में चली जाती है
सुबह नींद खुलती है
चूँ...चूँ ...चूँ..... की आवाज
यानी दो नये जीवनों का आरंभ
खिड़कियाँ खोलता हूँ
उसकी चमक भरी आँखों से
आँखें टकराती हैं
फिर चूँ....चूँ....चूँ....।

सोमवार, 15 नवंबर 2010

लेखन को समर्पित दिवस : आई लव टू राइट डे

लिखना मेरी अभिरुचियों में शामिल है. कई मित्र अक्सर पूछते हैं कि इस अभिरुचि के क्या मायने हैं ?...इन्टरनेट संस्कृति ने कहीं न कहीं पढने और लिखने को प्रभावित किया है, पर पुस्तक में मुद्रित शब्दों को पढने का जो आनंद है, अन्यत्र कहीं नहीं. इसके सहारे न जाने कितनी दूर-दूर कि यात्रायें ख़त्म हो जाती हैं और कभी-कभी तो पूरी रात भी बिना पलक झपकाए किसी पुस्तक को पढ़कर ख़त्म करने का सुख ही कुछ और है.

...खैर आज इसकी चर्चा का विशेष कारण है. 15 नवम्बर को 'आई लव टू राइट डे' मनाया जाता है. वर्ष 2002 में यह सर्वप्रथम मनाया गया और इसकी परिकल्पना मूलत: डेलवारे के लेखक जॉन रिडले ने की थी. इस पहल को स्वीकारते हुए डेलवारे के गवर्नर रुथ एन. मिनर ने 15 नवम्बर को आधिकारिक रूप से 'आई लव टू राइट डे' मनाये जाने की घोषणा की, जिसे बाद में पेनसेलवेनिया और फ्लोरिडा ने भी स्वीकार लिया. इसके तहत स्कूलों, लाइब्रेरी, कम्युनिटी सेंटर्स, बुक स्टोर्स इत्यादि में तमाम तरह की लेखन गतिविधियों का आयोजन किया गया. वस्तुत: इसका उद्देश्य हर आयु-वर्ग के लोगों को विभिन्न विधाओं- निबंध, पत्र, कहानी इत्यादि लिखने के लिए प्रवृत्त करना है...तो चलिए कुछ लिखते हैं, रचते हैं और फिर गुनते हैं। लेखन को समर्पित इस दिवस की ढेरों शुभकामनायें !!

बुधवार, 10 नवंबर 2010

बिटिया रानी अपूर्वा (तान्या) आज 15 दिन की

आज आप सभी को मिलवाता हूँ, अपने घर की नई सदस्य से. आप हमारी जीवनसंगिनी आकांक्षा जी से परिचित ही हैं, बिटिया अक्षिता(पाखी) से भी रु-ब-रु हो चुके हैं अब इन खास मेहमान का नंबर है. ये हमारी नवजात बिटिया हैं, जो आज 15 दिन की हो गईं . इनका जन्म 27 अक्तूबर, 2010 की रात्रि 11: 10 पर बनारस के हेरिटेज हास्पिटल में हुआ. डाक्टर थीं- मेजर (डा0) अंजली रानी. पता नहीं बनारस से मेरा क्या रिश्ता है, पर कुछ तो है. जीवन में पहली बार घूमने बनारस ही गया था, तब नवोदय विद्यालय, आजमगढ़ में कक्षा 6 में पढता था. सगाई और शादी भी सारनाथ (बनारस) में हुई और अब अब बिटिया रानी का जन्म भी बनारस में. ..चलिए, दीवाली से पहले ही घर में लक्ष्मी का आगमन. बहुत खुश हूँ, पर कुछ दिन साथ रहने के बाद परिवार से दूर हूँ सो दुःख भी होता है।


फ़िलहाल इस महीने के अंत तक पूरा परिवार पुन: पोर्टब्लेयर में आ जायेगा. यहाँ तो मौसम भी सुहाना है, जबकि उधर ठण्ड का एहसास होने लगा है. खास बात यह है कि मेरा व बिटिया दोनों का जन्मांक 9 है. पाखी कि तो ख़ुशी ही नहीं समां रही है, उसे उसका ट्वाय जो मिल गया है, दिन भर उसे गोद में लेने को दौड़ती हैं....मेरी और आकांक्षा की ख़ुशी इससे और भी दुगुनी हो जाती है. हमारे परिवार के इस नए मेहमान को आप सभी के प्यार, स्नेह और आशीष की चाहत बनी रहेगी !!

गुरुवार, 4 नवंबर 2010

उत्सवी परम्परा और दीपावली

भारतीय उत्सवों को लोकरस और लोकानंद का मेल कहा गया है। भूमण्डलीकरण एवं उपभोक्तावाद के बढ़ते दायरों के बीच इस रस और आनंद में डूबा भारतीय जन-मानस आज भी न तो बड़े-बड़े माल और क्लबों में मनने वाले फेस्ट से चहकार भरता है और न ही किसी कम्पनी के सेल आफर को लेकर आन्तरिक उल्लास से भरता है। त्यौहार सामाजिक सदाशयता के परिचायक हैं न कि हैसियत दर्शाने के। त्यौहार हमें जीवन के राग-द्वेष से ऊपर उठाकर एक आदर्श समाज की स्थापना में मदद करते हैं।

दीपावली भारतीय संस्कृति का एक प्रमुख त्यौहार है जिसका बेसब्री से इंतजार किया जाता है। दीपावली माने 'दीपकों की पंक्ति'। दीपावली पर्व के पीछे मान्यता है कि रावण- वध के बीस दिन पश्चात भगवान राम अनुज लक्ष्मण व पत्नी सीता के साथ चैदह वर्षों के वनवास पश्चात अयोध्या वापस लौटे थे। जिस दिन श्री राम अयोध्या लौटे, उस रात्रि कार्तिक मास की अमावस्या थी अर्थात आकाश में चाँद बिल्कुल नहीं दिखाई देता था। ऐसे माहौल में नगरवासियों ने भगवान राम के स्वागत में पूरी अयोध्या को दीपों के प्रकाश से जगमग करके मानो धरती पर ही सितारों को उतार दिया। तभी से दीपावली का त्यौहार मनाने की परम्परा चली आ रही है। धार्मिक मान्यताओं के अनुसार आज भी दीपावली के दिन भगवान राम, लक्ष्मण और पत्नी सीता के साथ अपनी वनवास स्थली चित्रकूट में विचरण कर श्रद्धालुओं की मनोकामनाओं की पूर्ति करते हैं। यही कारण है कि दीपावली के दिन लाखों श्रद्धालु चित्रकूट में मंदाकिनी नदी में डुबकी लगाकर कामद्गिरि की परिक्रमा करते हैं और दीप दान करते हैं। दीपावली के संबंध में एक प्रसिद्ध मान्यतानुसार मूलतः यह यक्षों का उत्सव है। दीपावली की रात्रि को यक्ष अपने राजा कुबेर के साथ हास-विलास में बिताते व अपनी यक्षिणियों के साथ आमोद-प्रमोद करते। दीपावली पर रंग- बिरंगी आतिशबाजी, लजीज पकवान एवं मनोरंजन के जो विविध कार्यक्रम होते हैं, वे यक्षों की ही देन हैं।

सभ्यता के विकास के साथ यह त्यौहार मानवीय हो गया और धन के देवता कुबेर की बजाय धन की देवी लक्ष्मी की इस अवसर पर पूजा होने लगी, क्योंकि कुबेर जी की मान्यता सिर्फ यक्ष जातियों में थी पर लक्ष्मी जी की देव तथा मानव जातियों में। कई जगहों पर अभी भी दीपावली के दिन लक्ष्मी पूजा के साथ-साथ कुबेर की भी पूजा होती है। गणेश जी को दीपावली पूजा में मंचासीन करने में शैव-सम्प्रदाय का काफी योगदान है। ऋद्धि-सिद्धि के दाता के रूप में उन्होंने गणेश जी को प्रतिष्ठित किया। यदि तार्किक आधार पर देखें तो कुबेर जी मात्र धन के अधिपति हैं जबकि गणेश जी संपूर्ण ऋद्धि-सिद्धि के दाता माने जाते हैं। इसी प्रकार लक्ष्मी जी मात्र धन की स्वामिनी नहीं वरन् ऐश्वर्य एवं सुख-समृद्धि की भी स्वामिनी मानी जाती हैं। अतः कालांतर में लक्ष्मी-गणेश का संबध लक्ष्मी-कुबेर की बजाय अधिक निकट प्रतीत होने लगा। दीपावली के साथ लक्ष्मी पूजन के जुड़ने का कारण लक्ष्मी और विष्णु जी का इसी दिन विवाह सम्पन्न होना भी माना गया है। दीपावली से जुड़ी एक अन्य मान्यतानुसार राजा बालि ने देवताओं के साथ देवी लक्ष्मी को भी बन्दी बना लिया। देवी लक्ष्मी को मुक्त कराने भगवान विष्णु ने वामन का रूप धरा और देवी को मुक्त कराया। इस अवसर पर राजा बालि ने भगवान विष्णु से वरदान लिया था कि जो व्यक्ति धनतेरस, नरक-चतुर्दशी व अमावस्या को दीपक जलाएगा उस पर लक्ष्मी की कृपा होगी। तभी से इन तीनों पर्वां पर दीपक जलाया जाता है और दीपावली के दिन ऐश्वर्य की देवी माँ लक्ष्मी एवं विवेक के देवता व विध्नहर्ता भगवान गणेश की पूजा की जाती है।

धनतेरस के दिन धन एवं ऐश्वर्य की देवी माँ लक्ष्मी की दीपक जलाकर पूजा की जाती है और प्रतीकात्मक रूप में लोग सोने-चांदी व बर्तन खरीदते हैं। धनतेरस के अगले दिन अर्थात कार्तिक मास के कृष्ण पक्ष की चतुर्दशी को नरक चतुर्दशी के रूप में मनाने की परंपरा है। पुराणों के अनुसार इसी दिन भगवान कृष्ण ने राक्षस नरकासुर का वध किया था। नरक चतुर्दशी पर घरों की धुलाई-सफाई करने के बाद दीपक जलाकर दरिद्रता की विदाई की जाती है। वस्तुतः इस दिन दस महाविद्या में से एक अलक्ष्मी (धूमावती) की जयंती होती है। अलक्ष्मी दरिद्रता की प्रतीक हैं, इसीलिए चतुर्दशी को उनकी विदाई कर अगले दिन अमावस्या को दस महाविद्या की देवी कमलासीन माँ लक्ष्मी (देवी कमला) की पूजा की जाती है। नरक चतुर्दशी को ‘छोटी दीपावली’ भी कहा जाता है। दीपावली के दिन लोग लईया, खील, गट्टा, लड्डू इत्यादि प्रसाद के लिए खरीदते हैं और शाम होते ही वंदनवार व रंगोली सजाकर लक्ष्मी-गणेश की पूजा करते हैं और फिर पूरे घर में दीप जलाकर माँ लक्ष्मी का आवाह्न करते हैं। व्यापारी वर्ग पारंपरिक रूप से दीपावली के दिन ही नई हिसाब-बही बनाता है और किसान अपने खेतों पर दीपक जलाकर अच्छी फसल होने की कामना करते हंै। इसके बाद खुशियों के पटाखों के बीच एक-दूसरे से मिलने और उपहार व मिठाईयों की सौगात देने का सिलसिला चलता है।

दीपावली का त्यौहार इस बात का प्रतीक है कि हम इन दीपों से निकलने वाली ज्योति से सिर्फ अपना घर ही रोशन न करें वरन् इस रोशनी में अपने हृदय को भी आलोकित करें और समाज को राह दिखाएं। दीपक सिर्फ दीपावली का ही प्रतीक नही वरन् भारतीय सभ्यता में इसके प्रकाश को इतना पवित्र माना गया है कि मांगलिक कार्यों से लेकर भगवान की आरती तक इसका प्रयोग अनिवार्य है। यहाँ तक कि परिवार में किसी की गंभीर अस्वस्थता अथवा मरणासन्न स्थिति होने पर दीपक बुझ जाने को अपशकुन भी माना जाता है। अगर हम इतिहास के गर्भ में झांककर देखें तो सिंधु घाटी सभ्यता की खुदाई में पकी हुई मिट्टी के दीपक प्राप्त हुए हैं और मोहनज़ोदड़ो की खुदाई में प्राप्त भवनों में दीपकों को रखने हेतु ताख बनाए गए थे व मुख्य द्वार को प्रकाशित करने हेतु आलों की श्रृंखला थी। इसमें कोई शक नहीं कि दीपकों का आविर्भाव सभ्यता के साथ ही हो चुका था, पर दीपावली का जन-जीवन में पर्व रूप में आरम्भ श्री राम के अयोध्या आगमन से ही हुआ।

भारत के विभिन्न राज्यों में इस त्यौहार को विभिन्न रूपों  में मनाया जाता है। वनवास पश्चात श्री राम के अयोध्या आगमन को उनका दूसरा जन्म मान केरल में कुछ अदिवासी जातियां दीपावली को राम के जन्म-दिवस के रूप में मनाती हैं । गुजरात में नमक को साक्षात् लक्ष्मी का प्रतीक मान दीपावली के दिन नमक खरीदना व बेचना शुभ माना जाता है तो राजस्थान में दीपावली के दिन घर में एक कमरे को सजाकर व रेशम के गद्दे बिछाकर मेहमानों की तरह बिल्ली का स्वागत किया जाता है। बिल्ली के समक्ष खाने हेतु तमाम मिठाईयाँ व खीर इत्यादि रख दी जाती हैं । यदि इस दिन बिल्ली सारी खीर खा जाये तो इसे वर्ष भर के लिए शुभ व साक्षात् लक्ष्मी का आगमन माना जाता है। उत्तरांचल के थारू आदिवासी अपने मृत पूर्वजों के साथ दीपावली मनाते हैं तो हिमाचल प्रदेश में कुछ आदिवासी जातियां इस दिन यक्ष पूजा करती हैं। पश्चिम बंगाल और उड़ीसा में दीपावली को काली पूजा के रूप में मनाया जाता है। स्वामी रामकृष्ण परमहंस को आज ही के दिन माँ काली ने दर्शन दिए थे, अतः इस दिन बंगाली समाज में काली पूजा का विधान है। यहाँ पर यह तथ्य गौर करने लायक है कि दशहरा-दीपावली के दौरान पूर्वी भारत के क्षेत्रों में देवी के रौद्र रूपों को पूजा जाता है, वहीं उत्तरी व दक्षिण भारत में देवी के सौम्य रूपों अर्थात लक्ष्मी, सरस्वती व दुर्गा माँ की पूजा की जाती है।

ऐसा नहीं है कि दीपावली का सम्बन्ध सिर्फ हिन्दुओं से ही रहा है वरन् दीपावली के दिन ही भगवान महावीर के निर्वाण प्राप्ति के चलते जैन समाज दीपावली को निर्वाण दिवस के रूप में मनाता है तो सिक्खों के प्रसिद्ध स्वर्ण मंदिर की स्थापना एवं गुरू हरगोविंद सिंह की रिहाई दीपावली के दिन होने के कारण इसका महत्व सिक्खों के लिए भी बढ़ जाता है। आर्य समाज के संस्थापक स्वामी दयानंद सरस्वती ने भी वर्ष 1833 में दीपावली के दिन ही प्राण त्यागे थे। देश में ही नहीं अपितु विदेशों में भी दीपावली का त्यौहार बड़े धूम-धाम से मनाया जाता है। जिन देशों में भारतीय जाकर बस गए हैं, अभी भी अपनी संस्कृति से जुड़ाव के चलते दीपावली को भव्य रूप में मनाते हैं। वर्ष 2005 में ब्रिटिश संसद में दीपावली-पर्व के उत्सव पर भारतीय नृत्य, संगीत, रंगोली, संस्कृत मंत्रों के उच्चारण व हिन्दू देवी-देवताओं की उपासना का आयोजन किया गया। ब्रिटेन के करीब सात लाख हिंदू इस पर्व को उत्साह से मनाते हैं। सन् 2004 में तो ब्रिटेन ने इस पर्व पर डाक-टिकट भी जारी किया था। अमेरिका में भी इस त्यौहार को मनाया जाता है।

भारत ही नहीं बल्कि विदेशों में भी धनदेवी लक्ष्मी के कई नाम और रूप मिलते हैं। धनतेरस को लक्ष्मी का समुद्र मंथन से प्राकट्य का दिन माना जाता है। भारतीय परम्परा उल्लू को लक्ष्मी जी का वाहन मानती है पर तमाम भारतीय ग्रन्थों में कुछ अन्य वाहनों का भी उल्लेख है। महालक्ष्मी स्त्रोत में गरूड़ तो अथर्ववेद के वैवर्त ने हाथी को लक्ष्मी जी का वाहन बताया गया है। प्राचीन यूनान की महालक्ष्मी एथेना का वाहन भी उल्लू है। लेकिन प्राचीन यूनान में धन सम्पदा की देवी के तौर पर पूजी जाने वाली ‘हेरा‘ का वाहन मयूर है। तमाम देशों में लक्ष्मी पूजन के पुरातात्विक प्रमाण भी प्राप्त हुए हैं। कम्बोडिया में मिली एक मूर्ति में शेषनाग पर आराम कर रहे विष्णुजी के पैर एक महिला दबा रही है, जो लक्ष्मी है। कम्बोडिया में ही लक्ष्मी की कांस्य प्रतिमा भी मिली है। प्राचानी यूनानी सिक्कों पर लक्ष्मी की आकृति उत्कीर्ण है। रोम के लम्पकश से प्राप्त एक चाँदी की थाली पर भी लक्ष्मी की आकृति है। इसी प्रकार श्रीलंका के पोलेरूमा में पुरातात्विक खनन के दौरान अन्य भारतीय देवी-देवताओं के साथ-साथ लक्ष्मी की मूर्ति प्राप्त हुई थी। नेपाल, थाईलैण्ड, जावा, सुमात्रा, मारीशस, गुयाना, दक्षिण अफ्रीका, जापान इत्यादि देशों में धन की देवी की पूजा की जाती है। यूनान में आइरीन, रोम में डिआ लुक्री, प्राचीन रोम में देवी फार्चूना, तो ग्रीक परम्परा में दमित्री को धन की देवी रूप में पूजा जाता है। जिस तरह भारतीय संस्कृति में लक्ष्मी-काली-सरस्वती का धार्मिक महत्व है, उसी प्रकार यूरोप में एथेना-मिनर्वा-एलोरा का महत्व है।

कोस-कोस पर बदले भाषा, कोस-कोस पर बदले बानी-वाले भारतीय समाज में एक ही त्यौहार को मनाने के अन्दाज में स्थान परिवर्तन के साथ कुछ न कुछ परिवर्तन दिख ही जाता है। वक्त के साथ दीपावली का स्वरूप भी बदला है। पारम्परिक सरसों के तेल की दीपमालायें न सिर्फ प्रकाश व उल्लास का प्रतीक होती हैं बल्कि उनकी टिमटिमाती रोशनी के मोह में घरों के आसपास के तमाम कीट-पतंगे भी मर जाते हैं, जिससे बीमारियों पर अंकुश लगता है। इसके अलावा देशी घी और सरसों के तेल के दीपकों का जलाया जाना वातावरण के लिए वैसे ही उत्तम है जैसे जड़ी-बूटियां युक्त हवन सामग्री से किया गया हवन। पर वर्तमान में जिस प्रकार बल्बों और झालरों का प्रचलन बढ़ रहा है, वह दीपावली के परम्परागत स्वरूप के ठीक उलटा है। आज दीपावली, दीयों का कम पटाखों और आतिशबाजी का त्यौहार ज्यादा हो गया है। भारतीय संस्कृति दीये को प्रतिबिंबित करती है, आतिशबाजी चीनी-संस्कृति की देन है। पटाखे फोड़कर, आतिशबाजी कर व जोर से लाउडस्पीकर बजाकर हम पर्यावरण को प्रदूषित कर रहे हैं। गौरतलब है कि आतिशबाजी से निकलने वाले धुएं में कैडमियम, बेरियम, रुबिडियम, स्ट्रान्सियम और डाईआक्सिन जैसे जहरीले तत्व शामिल होते हैं। इसके धुंए में कार्बनडाईआक्साइड के अलावा कार्बनमोनोआक्साइड, सल्फर डाईआक्साइड जैसी विषैली गैसें शामिल होती हैं। वास्तव में देखें तो आतिशबाजी जल, वायु और ध्वनि तीनों प्रदूषणों का कारण है और इसके चलते इनका जहरीला असर लम्बे समय तक बना रहता है। आतिशबाजी के चलते आँखों, फेफड़ों, शवांस, त्वचा के रोगों में भी इजाफा होने की सम्भावना होती है। एक ओर कोई व्यक्ति बीमार है तो दूसरी ओर अन्य लोग बिना उसके स्वास्थ्य की परवाह किए लाउडस्पीकर बजाए जा रहे हैं, एक व्यक्ति समाज में अपनी हैसियत दिखाने हेतु हजारों-लाखों रुपये की आतिशबाजी कर रहा है तो दूसरी ओर न जाने कितने लोग सिर्फ एक समय का खाना खाकर पूरा दिन बिता देते हैं। एक अनुमानानुसार हर साल दीपावली की रात पूरे देश में करीब पाँच हजार करोड़ रूपये के पटाखे जला दिए जाते हैं और करोड़ों रूपये जुए में लुटा दिए जाते हैं। जिस तरह से आतिशबाजी और पटाखे तैयार करने में बालश्रम का इस्तेमाल होता है, वह भी चिंतनीय है। क्या हमारी अंतश्चेतना यह नहीं कहती कि करोड़ों रुपये के पटाखे छोड़ने और आतिशबाजी की बजाय भूखे-नंगे लोगों हेतु कुछ प्रबन्ध किए जायें? हम दीपावली को 'इको फ्रैंडली' बनाते हुए इसे सामाजिक सरोकारों से क्यों नहीं जोड़ सकते। त्यौहार के नाम पर सब छूट है के बहाने अपने को शराब के नशे में डुबोकर मारपीट व अभद्रता करना कहाँ तक जायज है? निश्चिततः इन सभी प्रश्नों का जवाब अगर समय रहते नहीं दिया गया तो अगली पीढ़ियाँ शायद त्यौहारों की वास्तविक परिभाषा ही भूल जायें।

- कृष्ण कुमार यादव

गुरुवार, 21 अक्तूबर 2010

लघु कथा : पेप्सी-कोला/कृष्ण कुमार यादव


”पेप्सी-.कोला, हाय-हाय!”

” बहुराष्ट्रीय कम्पनियाँ खूनी हैं!”

”बहुराष्ट्रीय कम्पनियाँ-भारत छोड़ो!”

.......के नारों के साथ नौजवानों का एक जुलूस आगे बढ़ा जा रहा था। चैराहे पर प्रेस, टी0वी0 चैनल्स व फोटोग्राफरों का हुजूम देखकर वे और तेजी से नारे लगाने लगे। हर कोई बढ़-चढ़ कर बहुराष्ट्रीय कम्पनियों को गाली देता और अपनी फोटो खिचवाने की फिराक में रहता। कुछ ही देर बाद मीडिया के लोग इस इवेण्ट की कवरेज करके चले गए।

आखिर उनमें से एक बोल पड़ा-‘‘अरे यार! गला सूख रहा है, कुछ ठण्डा-वण्डा मिलेगा कि फ्री में ही नारे लगवाओगे।’’

देखते ही देखते नारे लगाते नौजवान बगल के रेस्टोरेन्ट में घुस गये। बर्गर के साथ पेप्सी-कोला की बोतलें अब गले में तरावट ला रही थीं।

- कृष्ण कुमार यादव : शब्द-सृजन की ओर 

शनिवार, 16 अक्तूबर 2010

दशहरे पर मेला की यादें...


कल दशहरा है. इस दिन का बड़ा इंतजार रहता था कभी. दशहरा आयेगा तो मेला भी होगा और फिर वो जलेबियाँ, चाट, गुब्बारे, बांसुरी, खिलौने...और भी न जाने क्या-क्या. अब तो कहीं भी जाओ ये सभी चीजें हर समय उपलब्ध हैं. पार्क के बाहर खड़े होइए या मार्केट में..गुब्बारे वाला हाजिर. मेले को लेकर पहले से ही न जाने क्या-क्या सपने बुनते थे. राम-लीला की यादें तो अब मानो धुंधली हो गई हैं. घर जाता हूँ तो राम लीला में अभिनय करने वाले लोगों को देखकर अनायास ही पुरानी यादें ताजा हो जाती हैं. एक तरफ दुर्गा पूजा, फिर दीवाली के लिए लक्ष्मी-गणेश की मूर्तियाँ खरीदना इस मेले के अनिवार्य तत्व थे. हमारी लोक-परम्पराएँ, उत्सव और सामाजिकता ..इन सब का मेल होता था मेला. याद कीजिये प्रेमचन्द की कहानी का हामिद, कैसे मेले से अपने माँ के लिए चिमटा खरीद कर लाता है. ऐसे न जाने कितने दृश्य मेले में दिखते थे. जादू वाला, झूले वाला, मदारी, घोड़े वाला, हाथी वाला, सब मेले के बहाने इकठ्ठा हो जाते थे. मानो मेला नहीं, जीवन का खेला हो. मिठाई की दुकानें हफ्ते भर पहले से ही सजने लगती थीं. बिना मिठाई के मेला क्या और जलेबी, रसगुल्ले और चाट की महिमा तो अपरम्पार थी. चारों तरफ बजते लाउडस्पीकर कि अपनी जेब संभल कर चलें, जेबकतरों से खतरा हो सकता है या अमुक खोया बच्चा यहाँ पर है, उसके मम्मी-पापा आकर ले जाएँ. इन मेलों की याद बहुत दिन तक जेहन में कैद रहती थी. मेले में कितने रिश्तेदारों और दोस्तों से मुलाकात हो जाती थी. ऐसा लगता मानो पूरा संसार सिमट कर मेले में समा गया हो.

पर अब न तो वह मेला रहा और न ही उत्साह. आतंक की छाया इन मेलों पर भी दिखाई देने लगी है. हर साल हम रावण का दहन करते हैं, पर अगले साल वह और भी विकराल होकर सामने आता है. मानो हर साल चिढाने आता है कि ये देखो पिछले साल भी मुझे जलाया था, मैं इस साल भी आ गया हूँ और उससे भी भव्य रूप में. यह भी कैसे बेबसी है कि हम हर साल पूरे ताम-झाम के साथ रावण को जलाते हैं और फिर अगले साल वह आकर अट्ठाहस करने लगता है. शायद यह भ्रष्टाचार और अनाचार को समाज में महिमामंडित करने का खेल है.

मेला इस साल भी आयेगा और चला जायेगा. पर इस मेले में ना वह बात रही और न ही सामाजिकता और आत्मीयता.दशहरा शब्द की उत्पत्ति संस्कृत भाषा के शब्द संयोजन "दश" व "हरा" से हुयी है, जिसका अर्थ भगवान राम द्वारा रावण के दस सिरों को काटने व तत्पश्चात रावण की मृत्यु रूप में राक्षस राज के आंतक की समाप्ति से है। यही कारण है कि इस दिन को विजयदशमी अर्थात अन्याय पर न्याय की विजय के रूप में भी मनाया जाता है। काश हर साल दशहरे पर हम प्रतीकात्मक रूप की बजाय वास्तव में अपने और समाज के अन्दर फैले रावण को ख़त्म कर पाते !!

शुक्रवार, 15 अक्तूबर 2010

फक्कड़ कवि थे निराला (पुण्यतिथि 15 अक्तूबर पर विशेष)

निराला सम्भवतः हिन्दी के पहले व अन्तिम कवि हैं, जिनकी लोकप्रियता व फक्कड़पन को कोई दूसरा कवि छू तक नहीं पाया है। निराला से ज्यादा लोकप्रियता सिर्फ कबीर को मिली। यद्यपि अर्थाभाव के कारण निराला को अनेकों कठिनाईयों का सामना करना पड़ा पर न तो वे कभी झुके और न ही अपने उसूलों से समझौता किया। यही कारण है कि उन पर अराजक और आक्रमण होने तक के आरोप लगे, पर वे इन सबसे बेपरवाह अपने फक्कड़पन में मस्त रहे।

महाप्राण सूर्यकान्त त्रिपाठी ‘निराला’ का जन्म बंगाल के मेदिनीपुर में 21 फरवरी 1897 को पं0 रामसहाय त्रिपाठी के पुत्र रूप में हुआ था। कालान्तर में आप इलाहाबाद के दारागंज की तंग गलियों में बस गये और वहीं पर अपने साहित्यिक जीवन के तीस-चालीस वर्ष बिताए। निराला जी गरीबों और शोषितों को प्रति काफी उदार व करूणामयी भावना रखते थे और दूसरों की सहायता के प्रति सदैव तत्पर रहते थे। चाहे वह अपनी पुस्तकों के बदले मिली रायल्टी का गरीबों में बाँटना हो, चाहे सम्मान रूप में मिली धनराशि व शाल जरूरतमंद वृद्धा को दे देना हो, चाहे इलाहाबाद में अध्ययनरत् विद्यार्थियों की जरूरत पड़ने पर सहायता करना हो अथवा एक बैलगाड़ी के एक सरकारी अधिकारी की कार से टकरा जाने पर अधिकारी द्वारा किसान को चाबुकों से पीटा जाना हो और देखते ही देखते निराला द्वारा उक्त अधिकारी के हाथ से चाबुक छीनकर उसे ही पीटना हो। ये सभी घटनायें निराला जी के सम्वेदनशील व्यक्तित्व का उदाहरण कही जा सकती हैं।

जयशंकर प्रसाद, सुमित्रानन्दन पंत और महादेवी वर्मा के साथ छायावाद के सशक्त स्तम्भ रहे निराला ने 1920 के आस-पास कविता लिखना आरम्भ किया और 1961 तक अबाध गति से लिखते रहे। इसमें प्रथम चरण (1920-38) में उन्होंने ‘अनामिका’, ‘परिमल’ व ‘गीतिका’ की रचना की तो द्वितीय चरण (1939-49) में वे गीतों की ओर मुड़ते दिखाई देते हैं। ‘मतवाला’ पत्रिका में ‘वाणी’ शीर्षक से उनके कई गीत प्रकाशित हुए। गीतों की परम्परा में उन्होंने लम्बी कविताएँ लिखना आरम्भ किया तो 1934 में उनकी ‘तुलसीदास’ नामक प्रबंधात्मक कविता सामने आई। इसके बाद तो मित्र के प्रति, सरोज-स्मृति, प्रेयसी, राम की शक्ति-पूजा, सम्राट अष्टम एडवर्ड के प्रति, भिखारी, गुलाब, लिली, सखी की कहानियाँ, सुकुल की बीबी, बिल्लेसुर बकरिहा, जागो फिर एक बार और वनबेला जैसी उनकी अविस्मरणीय कृतियाँ सामने आयीं। निराला ने कलकत्ता पत्रिका, मतवाला, समन्वय इत्यादि पत्रिकाओं का सम्पादन भी किया। राम की शक्ति-पूजा, तुलसीदास और सरोज-स्मृति को निराला के काव्य शिल्प का श्रेष्ठतम उदाहरण माना जाता है। निराला की कविता सिर्फ एक मुकाम पर आकर ठहरने वाली नहीं थी, वरन् अपनी कविताओं में वे अन्त तक संशोधन करते रहते थे। तभी तो उन्होंने लिखा कि- ‘अभी न होगा मेरा अंत/ अभी-अभी तो आया है, मेरे वन मृदुल वसन्त/अभी न होगा मेरा अन्त।’

निराला की रचनाओं में अनेक प्रकार के भाव पाए जाते हैं। यद्यपि वे खड़ी बोली के कवि थे, पर ब्रजभाषा व अवधी में भी कविताएँ गढ़ लेते थे। उनकी रचनाओं में कहीं प्रेम की सघनता है, कहीं आध्यात्मिकता तो कहीं विपन्नों के प्रति सहानुभूति व सम्वेदना, कहीं देश-प्रेम का जज्बा तो कहीं सामाजिक रूढ़ियों का विरोध व कहीं प्रकृति के प्रति झलकता अनुराग। इलाहाबाद में पत्थर तोड़ती महिला पर लिखी उनकी कविता आज भी सामाजिक यथार्थ का एक आईना है। उनका जोर वक्तव्य पर नहीं वरन चित्रण पर था, सड़क के किनारे पत्थर तोड़ती महिला का रेखाकंन उनकी काव्य चेतना की सर्वोच्चता को दर्शाता है - वह तोड़ती पत्थर/देखा उसे मंैने इलाहाबाद के पथ पर/वह तोड़ती पत्थर/कोई न छायादार पेड़/वह जिसके तले बैठी हुयी स्वीकार/श्याम तन, भर बंधा यौवन/नत नयन प्रिय, कर्म-रत मन/गुरू हथौड़ा हाथ/करती बार-बार प्रहार/सामने तरू- मल्लिका अट्टालिका, प्राकार। इसी प्रकार राह चलते भिखारी पर उन्होंने लिखा- पेट-पीठ दोनों मिलकर हैं एक/चल रहा लकुटिया टेक/मुट्ठी भर दाने को, भूख मिटाने को/मुँह फटी पुरानी झोली को फैलाता/दो टूक कलेजे के करता पछताता।

‘राम की शक्ति पूजा’ के माध्यम से निराला ने राम को समाज में एक आदर्श के रूप में प्रस्तुत किया। वे लिखते हैं- होगी जय, होगी जय/हे पुरूषोत्तम नवीन/कह महाशक्ति राम के बदन में हुईं लीन। सौ पदों में लिखी गयी ‘तुलसीदास’ निराला की सबसे बड़ी कविता है, जो कि 1934 में लिखी गयी और 1935 में सुधा के पाँच अंकों में किस्तवार प्रकाशित हुयी। इस प्रबन्ध काव्य में निराला ने पत्नी के युवा तन-मन के आकर्षण में मोहग्रस्त तुलसीदास के महाकवि बनने को बखूबी दिखाया है- जागा, जागा संस्कार प्रबल/रे गया काम तत्क्षण वह जल/देखा वामा, वह न थी, अनल प्रमिता वह/इस ओर ज्ञान, उस ओर ज्ञान/हो गया भस्म वह प्रथम भान/छूटा जग का जो रहा ध्यान।

निराला की रचनाधर्मिता में एकरसता का पुट नहीं है। वे कभी भी बँधकर नहीं लिख पाते थे और न ही यह उनकी फक्कड़ प्रकृति के अनुकूल था। निराला की ‘जूही की कली’ कविता आज भी लोगों के जेहन में बसी है। इस कविता में निराला ने अपनी अभिव्यक्ति को छंदों की सीमा से परे छन्दविहीन कविता की ओर प्रवाहित किया है- विजन-वन वल्लरी पर/सोती थी सुहाग भरी स्नेह स्वप्न मग्न अमल कोमिल तन तरूणी जूही की कली/दृग बंद किये, शिथिल पत्रांक में/वासन्ती निशा थी। यही नहीं, निराला एक जगह स्थिर होकर कविता- पाठ भी नहीं करते थे। एक बार एक समारोह में आकाशवाणी को उनकी कविता का सीधा प्रसारण करना था, तो उनके चारों ओर माइक लगाए गए कि पता नहीं वे घूम-घूम कर किस कोने से कविता पढं़े। निराला ने अपने समय के मशहूर रजनीसेन, चण्डीदास, गोविन्द दास, विवेकानन्द और रवीन्द्र नाथ टैगोर इत्यादि की बंाग्ला कविताओं का अनुवाद भी किया, यद्यपि उन पर टैगोर की कविताओं के अनुवाद को अपना मौलिक कहकर प्रकाशित कराने के आरोप भी लगे। राजधानी दिल्ली को भी निराला ने अपनी कविताओं में अभिव्यक्ति दी- यमुना की ध्वनि में/है गूँजती सुहाग-गाथा/सुनता है अन्धकार खड़ा चुपचाप जहाँ/आज वह ‘फिरदौस’, सुनसान है पड़ा/शाही दीवान, आम स्तब्ध है हो रहा है/ दुपहर को, पाश्र्व में/उठता है झिल्ली रव/ बोलते हैं स्यार रात यमुना-कछार मे/लीन हो गया है रव/शाही अँगनाओं का/निस्तब्ध मीनार, मौन हैं मकबरे।

निराला की मौलिकता, प्रबल भावोद्वेग, लोकमानस के हृदय पटल पर छा जाने वाली जीवन्त व प्रभावी शैली, अद्भुत वाक्य विन्यास और उनमें अन्तर्निहित गूढ़ अर्थ उन्हें भीड़ से अलग खड़ा करते हंै। वसन्त पंचमी और निराला का सम्बन्ध बड़ा अद्भुत रहा और इस दिन हर साहित्यकार उनके सानिध्य की अपेक्षा रखता था। ऐसे ही किन्हीं क्षणों में निराला की काव्य रचना में यौवन का भावावेग दिखा- रोक-टोक से कभी नहीं रूकती है/यौवन-मद की बाढ़ नदी की/किसे देख झुकती है/गरज-गरज वह क्या कहती है, कहने दो/अपनी इच्छा से प्रबल वेग से बहने दो। यौवन के चरम में प्रेम के वियोगी स्वरूप को भी उन्होंने उकेरा- छोटे से घर की लघु सीमा में/बंधे हैं क्षुद्र भाव/यह सच है प्रिय/प्रेम का पयोधि तो उमड़ता है/सदा ही निःसीम भूमि पर।

निराला के काव्य में आध्यात्मिकता, दार्शनिकता, रहस्यवाद और जीवन के गूढ़ पक्षों की झलक मिलती है पर लोकमान्यता के आधार पर निराला ने विषयवस्तु में नये प्रतिमान स्थापित किये और समसामयिकता के पुट को भी खूब उभारा। अपनी पुत्री सरोज के असामायिक निधन और साहित्यकारों के एक गुट द्वारा अनवरत अनर्गल आलोचना किये जाने से निराला अपने जीवन के अन्तिम वर्षों में मनोविक्षिप्त से हो गये थे। पुत्री के निधन पर शोक-सन्तप्त निराला ‘सरोज-स्मृति’ में लिखते हंै- मुझ भाग्यहीन की तू सम्बल/युग वर्ष बाद जब हुयी विकल/दुख ही जीवन की कथा रही/क्या कहूँ आज, जो नहीं कही।

15 अक्टूबर 1961 को अपनी यादें छोड़कर निराला इस लोक को अलविदा कह गये पर मिथक और यथार्थ के बीच अन्तर्विरोधों के बावजूद अपनी रचनात्मकता को यथार्थ की भावभूमि पर टिकाये रखने वाले निराला आज भी हमारे बीच जीवन्त हैं। मुक्ति की उत्कट आकांक्षा उनको सदैव बेचैन करती रही, तभी तो उन्होंने लिखा- तोड़ो, तोड़ो, तोड़ो कारा/पत्थर की, निकलो फिर गंगा-जलधारा/गृह-गृह की पार्वती/पुनः सत्य-सुन्दर-शिव को सँवारती/उर-उर की बनो आरती/भ्रान्तों की निश्चल धु्रवतारा/तोड़ो, तोड़ो, तोड़ो कारा।

सोमवार, 11 अक्तूबर 2010

तंत्र नहीं लोक के नायक थे जे0पी0 (जन्मतिथि 11 अक्टूबर पर विशेष)

भ्रष्टाचार केवल शासन में ही नहीं है, बल्कि वह लोकजीवन के हरेक क्षेत्र में मौजूद है। ऐसी स्थिति में मात्र सत्ता परिवर्तन से जन समस्याओं का हल नहीं होगा, बल्कि इसके लिए व्यवस्था परिवर्तन करना होगा। इस व्यवस्थागत परिवर्तन के बाद ही समतामूलक समाज की स्थापना हो सकती है........यह उद्गार समाजवाद, सर्वोदय से सम्पूर्ण क्रान्ति तक की यात्रा करने वाले जयप्रकाश नारायण के थे, जिन्होंने अपने जीवन में तमाम अवसरों के बावजूद कोई पद स्वीकार नहीं किया। गीता में वर्णित निष्काम कर्म भावना के अनुसार जयप्रकाश नारायण सदैव सक्रिय रहे और सत्ता की कीमत पर कोई भी समझौता नहीं किया। वे लोकतंत्र की उस अवधारण के कायल थेे जो जनता का, जनता के लिए, जनता द्वारा शासन स्थापित करती है। जनमत की आड़ में लोगों की संवेदनाओं को ठुकराकर सत्तातंत्र से येन-केन प्रकरेण चिपके रहने की उन्होंने सदैव मुखालाफत की। जयप्रकाश नारायण के लिए लोकतंत्र में लोक महत्वपूर्ण था न कि तंत्र। इस तंत्र की आड़ में लोक की भावनाओं का तिरस्कार उन्हें कभी मंजूर नहीं था। यही कारण था कि लोगों ने उन्हें ’लोकनायक’ की उपाधि दी।

11 अक्टूबर 1902 को उत्तर प्रदेश व बिहार की संधिस्थल पर स्थित सिताबदियारा (सारण जनपद) गाँव में जयप्रकाश नारायण का जन्म एक सामान्य किसान परिवार में हुआ। बचपन से ही कुशाग्र बुद्धि के मेधावी छात्र रहे जे0पी0 ने 1919 में हाईस्कूल की परीक्षा प्रथम श्रेणी में उत्तीर्ण की। 1921 में जब गाँधी जी द्वारा प्रवर्तित असहयोग आंदोलन चरम पर था, तो जे0पी0 भी इससे अछूते नहीं रह सके और इस आन्दोलन में शामिल होने के लिए न सिर्फ इण्टरमीडिएट की परीक्षा छोड़ दी बल्कि अन्य विद्यार्थियों को भी स्कूल-कालेज छोड़ने के लिए प्रेरित किया। इस बीच उनकी शादी प्रभावती से हो गयी, जिन्होंने जे0पी0 के व्यक्तित्व को एक विस्तार दिया। फरवरी 1922 में चैरीचैरा काण्ड के बाद महात्मा गाँधी ने असहयोग आन्दोलन वापस लेने की घोषणा की और इसके कुछेक महीने बाद ही जे0पी0 आगामी अध्ययन के लिए अमेरिका चले गये। अमेरिका में अध्ययन के लिए उन्होंने वहाँ बूट पालिश करने से लेकर होटलों में जूठे प्लेट धोने और बूचड़खाने तक में काम किया। जे0पी0 ने कठिनाईयों से विचलित होने की बजाय सदैव उनका अवसरों के रूप में उपयोग करना सीखा। इसी अदम्य इच्छाशक्ति के चलते उन्होंने ओहियो विश्वविद्यालय से समाजशास्त्र में स्नाकोत्तर की उपाधि धारण की। मई 1922 से सितम्बर 1929 तक अमेरिका में रहने के पश्चात जे0पी0 भारत लौटे और उस समय स्वतंत्रता संग्राम का पर्याय बन चुके कांग्रेस से जुड़कर आनन्द भवन इलाहाबाद में रहने लगे।1934 के दौरान जे0पी0 ने आचार्य नरेन्द्रदेव, डा0 राममनोहर लोहिया, अशोक मेहता, अच्युत पटवर्धन इत्यादि के साथ कांग्रेस के भीतर समाजवादी विचारों से लैस एक गरम दल बना लिया और वे इसके अगुआ रहे। वस्तुतः जे0पी0 ने एक साथ ही गाँधीवादी और क्रान्तिकारी आन्दोलन की उष्णता महसूस की और दोनों का समन्वय स्वीकार किया।

जे0पी0 ने स्वतंत्रता आन्दोलन में बढ़-चढ़ कर भूमिका निभायी। 1942 में भारत छोड़ो आन्दोलन के दौरान उनका नाम उभरकर सामने आया। इस आन्दोलन की शुरूआत में ही सभी प्रमुख नेताओं को गिरफ्तार कर लिया गया। जे0पी0 को भी गिरफ्तार करके नासिक व हजारीबाग की जेल में रखा गया। पर तूफान को कौन बाँध पाया है, सो हजारीबाग जेल की चहरदीवारी को लांघकर जे0पी0 ’करो या मरो’ भावना से प्रेरित होकर भाग निकले और जेल से बाहर रहकर भारत छोड़ो आन्दोलन को मूर्त रूप दिया। अंग्रेजी हुकूमत के मँुह पर यह एक करारा तमाचा था और इस बात का प्रतीक भी कि अब भारत में अंग्रेजों के दिन गिने-चुने ही रह गये थे। जे0पी0 को पकड़ने के लिए अंग्रेजी हुकूमत ने इनाम की भी घोषणा की, पर जे0पी0 पकड़ में नहीं आये। भारत छोड़ो आन्दोलन के आह्नान के लगभग एक वर्ष बाद जाकर 18 सितम्बर 1943 को लाहौर के पास ट्रेन में नाटकीय अंदाज में जे0पी0 की गिरफ्तारी हुई। अंग्रेजी हुकूमत ने जे0पी0 को जेल में कठोर यातनायें दीं और उन्हें बर्फ की सिल्लियों पर लिटाया गया, पर देशभक्ति का कोई मोल नहीं होता। जे0पी0 को भारत की आजादी का अहसास होने लगा था। 11 अप्रैल 1946 को जब वे जेल से रिहा हुये तो जनमानस ने उनका ’’अगस्त क्रान्ति के नायक’ रूप में जोरदार स्वागत किया।

15 अगस्त 1947 को देश आजाद हो गया। पूरे राष्ट्र के लिए यह हर्ष का विषय था पर जे0पी0 के मन में देश विभाजन की पीड़ा भी थी। जे0पी0 देश विभाजन के घोर विरोधी थे और भारत-पाकिस्तान मित्रता के जबरदस्त पक्षधर। इस बीच स्वतंत्रता आन्दोलन का पर्याय रही कांग्रेस के चरित्र में भी जे0पी0 ने बदलाव महसूस किया। कांग्रेस के चरित्र में उन्हें समतामूलक समाज की बजाय अवसरवादिता और पदलोलुपता की गंध आने लगी। गाँधी जी की हत्या के बाद तो उनका रहा-सहा धैर्य भी जवाब दे गया। इससे आहत होकर बड़ी तल्खी से उन्होंने गृहमंत्री सरदार वल्लभभाई पटेल से इस्तीफे की माँग कर डाली। जे0पी0 की राजनीति में चरित्र था, चालाकी नहीं। यही कारण था कि पं0 जवाहरलाल नेहरू भी उनकी उपेक्षा नहीं कर पाते थे। गृहमंत्री के इस्तीफे के सवाल पर पं0 नेहरू ने आकाशवाणी पर प्रसारित अपने वक्तव्य में मंत्रिमण्डलीय परम्परानुसार सरदार पटेल का बचाव अवश्य किया पर यह कहने से भी नहीं चूके कि -’’जे0पी0 एक दिन देश की तकदीर गढ़ेंगे।’’

गाँधीजी की मौत पश्चात जे0पी0 ने समाजवाद का नारा बुलन्द किया और कांग्रेस सोशलिस्ट पार्टी के गठन द्वारा कांग्रेस के समानान्तर समाजवादी संगठन को बल प्रदान किया। सत्ता की चहरदीवारी से दूर जे0पी0 ने अपने को जनमानस के बीच खड़ा पाया। नवम्बर 1951 में पटना में किसान मार्च का नेतृत्व करते हुए उनकी भावनायें स्पष्ट परिलक्षित हुईं। 1954 में बिनोबा भावे के ‘भूदान आन्दोलन‘ से जे0पी0 जुड़े और अपने जीवनदान की घोषणा करते हुए राजनीति से भी सन्यास ले लिया। सर्वोदयी भावना को अपनाते हुए उन्होंने राजनैतिक परिवर्तन से परे बुनियादी परिवर्तन की सम्भावनाओं को भी टटोला। इसी क्रम में बिनोबा भावे के साथ चम्बल के दुर्दान्त डाकुओं के हृृदय परिवर्तन में भी उन्होंने महत्वपूर्ण भूमिका निभायी। जे0पी0 ने समाज के नवनिर्माण के लिए तमाम रचनात्मक कार्यक्रमों में अवदान दिया और ‘गाँधी विद्या संस्थान‘ (बनारस) जैसी तमाम संस्थायें भी खड़ी कीं। जे0पी0 ने-समाजवाद क्यों, प्रिजन डायरी, सर्वोदय और लोकतंत्र, समाजवाद, फस्र्ट थिंग्स, मेरी विचार-यात्रा, फस्र्ट कांग्रेस सोशलिस्ट, नेशन बिल्डिंग इन इंडिया, संपूर्ण क्रांति के लिए आह्नान, आमने-सामने इत्यादि तमाम चर्चित किताबंे भी लिखीं।

जे0पी0 युवा शक्ति की ताकत को बखूबी महसूूस करते थे। वे जानते थे कि युवा शक्ति के ही कंधों पर भारत का भविष्य टिका हुआ है। दिसम्बर 1973 में पवनार आश्रम से जे0पी0 ने 71 वर्ष की आयु में ’यूथ फार डेमोक्रेसी’ नामक अपील जारी की। यह वह दौर था जब देश में लोकतांत्रिक मूल्यों का गला घोंटने का प्रयास किया जा रहा था। जे0पी0 ने अपील के साथ ही युवाओं के बीच जाकर उनसे सीधा संवाद किया और एक बार फिर राजनैतिक रूप से सक्रिय हुए। नतीजन, युवा शक्ति की तरंगंे देश में हिलोरें मारने लगीं और उद्घोष हुआ- ‘‘सम्पूर्ण क्रान्ति अब नारा है, भावी इतिहास हमारा है।‘‘ गुजरात में युवाओं ने जब आन्दोलन आरम्भ किया तो जे0पी0 उनके बीच पहुँचे और कहा-’’मैं देश के वर्तमान माहौल के बारे में काफी चिन्तित था। मैं अंधेरे में टटोल रहा था और मुझे कोई रास्ता नहीं दिख रहा था। ऐसे समय में गुजरात के युवाओं ने इस आन्दोलन की मशाल जलायी और इसने मुझे प्रकाश दिखाया है।’’ गुजरात का आन्दोलन तो बहुत दिन तक नहीं चला पर इसकी गूँज अन्य प्रान्तों में भी सुनायी दी। इस बीच 12 सूत्रीय माँगों को लेकर फरवरी 1974 में बिहार के छात्र भी आन्दोलनरत हो गये थे। 18 मार्च को विधानसभा के समक्ष छात्रों के सत्याग्रह के दौरान पुलिस ने जमकर लाठीचार्ज किया और गोलियाँ चलायीं। नतीजन, पटना आन्दोलन की आग में जल उठा। इस आन्दोलन के पीछे जे0पी0 की भूमिका को चिन्हित करते हुये सरकार में बैठे लोगों ने तिलमिलाकर उन्हें विदेशी एजेण्ट की संज्ञा दी और मौन जुलूस तक निकालने की इजाजत नहीं दी। बूढ़े जे0पी0 का जवान मन क्रान्ति के लिए तड़प उठा और उन्होंने युवाओं का आह्नान करते हुए कहा-’’डरो मत, अभी मैं जिंदा हूँ।’’ फिर क्या था, जे0पी0 ने भष्टाचार, कालाबाजारी, मुनाफाखोरी, जमाखोरी इत्यादि व्यवस्थागत विसंगतियों पर जमकर प्रहार किये और सच्चे अर्थों में ’लोक’ का राज स्थापित करने के लिए कमर कस ली। 8 अप्रैल 1974 को पटना में जे0पी0 ने मौन जुलूस निकाला और 9 अप्रैल को पटना की एक ऐतिहासिक जनसभा में उन्होंने शान्तिपूर्ण आन्दोलन आरम्भ करने की घोषणा की। जे0पी0 का जादू चल निकला और छात्रों व युवा शक्ति ने उन्हें हाथांे-हाथ लेते हुए ’लोकनायक’ का खिताब दिया। उस समय पटना विश्वविद्यालय के छात्रसंघ अध्यक्ष रहे लालू प्रसाद यादव जैसे तमाम वर्तमान दिग्गज राजनेता जे0पी0 के साथ खड़े थे। देखते ही देखते पूरा बिहार इस आन्दोलन की जद में आ गया और जे0पी0 के पीछे जनमानस उमड़ पड़ा। लोकसत्ता का यह रूप देखकर राजसत्ता बौखला उठी और जे0पी0 पर लाठियाँ बरसीं। इस बीच 12 जून 1975 को इलाहाबाद उच्च न्यायालय ने अपने ऐतिहासिक फैसले में इन्दिरा गाँधी के चुनाव को अवैध करार दे दिया। 23 जून को दिल्ली में संयुक्त विपक्ष के कार्यक्रम को जे0पी0 ने मुख्य वक्ता के रूप में सम्बोधित किया और 25 जून को रामलीला मैदान में ऐतिहासिक जनसभा को सम्बोधित करते हुए उन्होंने राजसत्ता की धज्जियांँ उड़ा कर रख दीं।

73 वर्षीय बूढ़े जे0पी0 की गर्जना राजसत्ता को बर्दाश्त नहीं हुई और 25 जून 1975 को प्रधानमंत्री इन्दिरा गाँधी ने आन्तरिक सुरक्षा को खतरा बताते हुए आपातकाल की घोषणा कर दी। 26 जून को तड़के 4 बजे ही नई दिल्ली के गाँधी शान्ति प्रतिष्ठान में ठहरे जे0पी0 को गिरफ्तार कर लिया गया। लगभग ढाई माह पश्चात जे0पी0 को एक महीने के पेरोल पर 12 नवम्बर को जब रिहा किया गया तो उनका स्वास्थ्य काफी हद तक गिर चुका था। उनके दोनांे गुर्दों ने काम करना बन्द कर दिया था। पर जे0पी0 का यह संघर्ष व्यर्थ नहीं गया और जनवरी 1977 में देश में आम चुनाव की घोषणा हुई। ‘लोकनायक‘ की आवाज लोकमानस तक पहुँची और इन्दिरा गाँधी को रायबरेली लोकसभा सीट से पराजय का मँुह देखना पड़ा। केन्द्र में मोरारजी देसाई के नेतृत्व में जनता पार्टी के नेतृत्व में पहली गैर कांग्रेसी सरकार का गठन हुआ। इस पर जे0पी0 ने कहा-‘‘मेरा काम पूरा हो गया। अब मैं मरना चाहता हूँ‘‘। जे0पी0 का स्वास्थ्य दिनों-ब-दिन गिरता गया और अन्ततः 8 अक्टूबर 1978 को उनका निधन हो गया।

आज जबकि चारों तरफ राजनैतिक पदों के लिए होड़ मची हुई है, सत्ता प्राप्ति के लिए राजनैतिक दल किसी भी स्तर पर उतरने को तैयार हैं, सामाजिक जीवन में शुचिता गौण हो गई है.......ऐसे में जे0पी0 की प्रासंगिकता स्वतः सिद्ध हो जाती है। यह जे0पी0 का लोकमानस के प्रति अटूट प्रेम ही कहा जायेगा कि सरकार गठन के पश्चात भी वे किसी पद या मद में नहीं डूबे। उस दौर में जब लोग उगते सूरज को सलाम कर रहे थे, जे0पी0 सारी पुरानी बातों को भूलकर इन्दिरा गाँधी से मिलने उनके निवास पर गये और उन्हें जनता की सेवा के प्रति और उन्मुख होकर कार्य करने की सलाह दी। उनके मन में किसी के प्रति कोई क्षोभ या दुराग्रह नहीं था। इन्दिरा गाँधी से उन्होंने कहा- ‘‘इन्दु, यही लोकतंत्र है। तुम घबराना मत। जनता की सेवा नहीं छोड़ना। यही सबसे बड़ा धर्म है।‘‘ जे0पी0 के इस महान व्यक्तित्व और राजधर्म निभाने की सलाह पर इन्दिरा गाँधी की आँखे भी छलछला गई थीं, शायद उस समय तक राजनेताओं की आँखों का पानी नहीं मरा था। युवा शक्ति में विश्वास कर जे0पी0 ने युवाओं को न सिर्फ रचनात्मक आन्दोलनों से जोड़ा बल्कि उन्हें उनके अधिकारों के प्रति सचेत भी किया। आज की युवा पीढ़ी जिस प्रकार दिग्भ्रमित होकर नेताओं और राजनैतिक दलांे के चक्कर काटती है और अन्ततः मृगतृष्णा के सिवाय उसे कुछ नहीं प्राप्त होता, ऐसे में जे0पी0 की सोच स्वतः प्रासंगिक हो जाती है। पदों को ठुकराते चले जे0पी0 पर छात्र आन्दोलन में छात्रों को गुमराह करने और अपना स्वार्थ साधने से लेकर पलायनवादी तक के आरोप लगे, पर इन सबसे बेपरवाह जे0पी0 अन्त तक एक नायक के रूप में ‘लोक‘ की लड़ाई लड़ते रहे और एक इतिहास रच गये।

श्री राम शिव मूर्ति यादव

शनिवार, 9 अक्तूबर 2010

अहसास की संजीदगी बरकरार है पत्रों में

पत्रों की दुनिया बेहद निराली है। दुनिया के एक कोने से दूसरे कोने तक यदि पत्र अबाध रूप से आ-जा रहे हैं, तो इसके पीछे ‘यूनिवर्सल पोस्टल‘ यूनियन का बहुत बड़ा योगदान है, जिसकी स्थापना 9 अक्टूबर 1874 को स्विटजरलैंड में हुई थी। यह 9 अक्टूबर पूरी दुनिया में ‘विश्व डाक दिवस‘ के रूप में मनाया जाता है। तब से लेकर आज तक डाक-सेवाओं में वैश्विक स्तर पर तमाम क्रांतिकारी परिवर्तन आए हैं और भारत भी इन परिवर्तनों से अछूता नहीं हैं। संचार क्रान्ति के नए साधनों- टेलीफोन, मोबाइल फोन, इण्टरनेट, फैक्स, वीडियो कान्फं्रेसिंग इत्यादि ने समग्र विश्व को एक ‘ग्लोबल विलेज‘ में परिवर्तित कर दिया। देखते ही देखते फोन नम्बर डायल किया और सामने से इच्छित व्यक्ति की आवाज आने लगी। ई-मेल या एस0एम0एस0 के द्वारा चंद सेकेंडों में अपनी बात दुनिया के किसी भी कोने में पहुँचा दी। वैश्विक स्तर पर पहली बार 1996 में संयुक्त राज्य अमेरिका में ई-मेल की कुल संख्या डाक सेवाओं द्वारा वितरित पत्रों की संख्या को पार कर गई और ऐसे में पत्रों की प्रासंगिकता पर भी प्रश्न चिन्ह लगने लगे।

सभ्यता के आरम्भ से ही मानव किसी न किसी रूप में पत्र लिखता रहा है। दुनिया का सबसे पुराना ज्ञात पत्र 2009 ईसा पूर्व का बेबीलोन के खण्डहरों से मिला था, जोकि वास्तव में एक प्रेम पत्र था और मिट्टी की पटरी पर लिखा गया था। कहा जाता है कि बेबीलोन की किसी युवती का प्रेमी अपनी भावनाओं को समेटकर उससे जब अपने दिल की बात कहने बेबीलोन तक पहुँचा तो वह युवती तब तक वहाँ से जा चुकी थी। वह प्रेमी युवक अपनी भावनाओं पर काबू नहीं रख पाया और उसने वहीं मिट्टी के फर्श पर खोदते हुए लिखा-‘‘मैं तुमसे मिलने आया था, तुम नहीं मिली।‘‘ यह छोटा सा संदेश विरह की जिस भावना से लिखा गया था, उसमें कितनी तड़प शामिल थी। इसका अंदाजा सिर्फ वह युवती ही लगा सकती थी जिसके लिये इसे लिख गया। भावनाओं से ओत-प्रोत यह पत्र 2009 ईसा पूर्व का है और इसी के साथ पत्रों की दुनिया नेे अपना एक ऐतिहासिक सफर पूरा कर लिया है।

जब संचार के अन्य साधन न थे, तो पत्र ही संवाद का एकमात्र माध्यम था। पत्रों का काम मात्र सूचना देना ही नहीं बल्कि इनमें एक अजीब रहस्य या गोपनीयता, संग्रहणीयता, लेखन कला एवं अतीत को जानने का भाव भी छुपा होता है। पत्रों की सबसे बडी विशेषता इनका आत्मीय पक्ष है। यदि पत्र किसी खास का हुआ तो उसे छुप-छुप कर पढ़ने में एवम् संजोकर रखने तथा मौका पाते ही पुराने पत्रों के माध्यम से अतीत में लौटकर विचरण करने का आनंद ही कुछ और है। यह सही है कि संचार क्रान्ति ने चिठ्ठियों की संस्कृति को खत्म करने का प्रयास किया है और पूरी दुनिया को बहुत करीब ला दिया है। पर इसका एक पहलू यह भी है कि इसने दिलों की दूरियाँ इतनी बढ़ा दी हैं कि बिल्कुल पास में रहने वाले अपने इष्ट मित्रों और रिश्तेदारों की भी लोग खोज-खबर नहीं रखते। ऐसे में युवा पीढ़ी के अंदर संवेदनाओं को बचा पाना कठिन हो गया है। तभी तो पत्रों की महत्ता को देखते हुए एन0सी0ई0आर0टी0 को पहल कर कक्षा आठ के पाठ्यक्रम में ‘‘चिट्ठियों की अनोखी दुनिया‘‘ नामक अध्याय को शामिल करना पड़ा।

पत्र लेखन सिर्फ संचार का माध्यम नहीं, बल्कि एक सशक्त विधा है। स्कूलों में जब बच्चों को पत्र लिखना सिखाया जाता है तो अनायास ही वे अपने माता-पिता, रिश्तेदारों या मित्रों को पत्र लिखने का प्रयास करने लगते हैं। पत्र सदैव सम्बंधों की उष्मा बनाये रखते हैं। पत्र लिखने का सबसे बड़ा फायदा यह है कि इसमें कोई जल्दबाजी या तात्कालिकता नहीं होती, यही कारण है कि हर छोटी से छोटी बात पत्रों में किसी न किसी रूप में अभिव्यक्त हो जाती है जो कि फोन या ई-मेल द्वारा सम्भव नहीं है। पत्रों की सबसे बड़ी विशेषता इनका स्थायित्व है। कल्पना कीजिये जब अपनी पुरानी किताबों के बीच से कोई पत्र हम अचानक पाते हैं, तो लगता है जिन्दगी मुड़कर फिर वहीं चली गयी हो। जैसे-जैसे हम पत्रोें को पलटते हैं, सम्बन्धों का एक अनंत संसार खुलता जाता है। व्यक्ति पत्र तात्कालिक रूप से भले ही जल्दी-जल्दी पढ़ ले पर फिर शुरू होती है-एकान्त की खोज और फिर पत्र अगर किसी खास के हों तो सम्बन्धों की पवित्र गोपनीयता की रक्षा करते हुए उसे छिप-छिप कर बार-बार पढ़ना व्यक्ति को ऐसे उत्साह व ऊर्जा से भर देता है, जहाँ से उसके कदम जमीं पर नहीं होते। वह जितनी ही बार पत्र पढ़ता है, उतने ही नये अर्थ उसके सामने आते हैं।

सिर्फ साधारण व्यक्ति ही नहीं बल्कि प्रतिष्ठित व्यक्तियों ने भी पत्रों के अंदाज को जिया है। माक्र्स-एंजिल्स के मध्य ऐतिहासिक मित्रता का सूत्रपात पत्रों से ही हुआ। अमेरिका के तत्कालीन राष्ट्रपति अब्राहम लिंकन ने उस स्कूल के प्राचार्य को पत्र लिखा, जिसमें उनका पुत्र अध्ययनरत था। इस पत्र में उन्होंने प्राचार्य से अनुरोध किया था कि उनके पुत्र को वे सारी शिक्षायें दी जाय, जो कि एक बेहतर नागरिक बनने हेतु जरूरी हैं। इसमें किसी भी रूप में उनका पद आडे़ नहीं आना चाहिये। महात्मा गाँधी तो पत्र लिखने में इतने सिद्धहस्त थे कि दाहिने हाथ के साथ-साथ वे बाएं हाथ से भी पत्र लिखते थे। पं0 जवाहर लाल नेहरू अपनी पुत्री इन्दिरा गाँधी को जेल से भी पत्र लिखते रहे। ये पत्र सिर्फ पिता-पुत्री के रिश्तों तक सीमित नहीं हैं, बल्कि इनमें तात्कालिक राजनैतिक एवं सामाजिक परिवेश का भी सुन्दर चित्रण है। इन्दिरा गाँधी के व्यक्तित्व को गढ़ने में इन पत्रों का बहुत बड़ा हाथ रहा है। आज ये किताब के रूप में प्रकाशित होकर ऐतिहासिक दस्तावेज बन चुके हैं। इन्दिरा गाँधी ने इस परम्परा को जीवित रखा एवं दून में अध्ययनरत अपने बेटे राजीव गाँधी को घर की छोटी-छोटी चीजों और तात्कालिक राजनैतिक-सामाजिक परिस्थितियों के बारे में लिखती रहीं। एक पत्र में तो वे राजीव गाँधी को रीवा के महाराज से मिले सौगातों के बारे में भी बताती हैं। तमाम राजनेताओं-साहित्यकारों के पत्र समय-समय पर पुस्तकाकार रूप में प्रकाशित होते रहते हैं। इनसे न सिर्फ उस व्यक्ति विशेष के संबंध में जाने-अनजाने पहलुओं का पता चलता है बल्कि तात्कालिक राजनैतिक-सामाजिक-साहित्यिक-सांस्कृतिक परिवेश के संबंध में भी बहुत सारी जानकारियाँ प्राप्त होती हैं। इसी ऐतिहासिक के कारण आज भी पत्रों की नीलामी लाखों रूपयों में होती हैं।

कहते हैं कि पत्रों का संवेदनाओं से गहरा रिश्ता है और यही कारण है कि पत्रों से जुड़े डाक विभाग ने तमाम प्रसिद्ध विभूतियों को पल्लवित-पुष्पित किया है। अमेरिका के राष्ट्रपति रहे अब्राहम लिंकन पोस्टमैन तो भारत में पदस्थ वायसराय लार्ड रीडिंग डाक वाहक रहे। विश्व प्रसिद्ध वैज्ञानिक व नोबेल पुरस्कार विजेता सी0वी0 रमन भारतीय डाक विभाग में अधिकारी रहे वहीं प्रसिद्ध साहित्यकार व ‘नील दर्पण‘ पुस्तक के लेखक दीनबन्धु मित्र पोस्टमास्टर थे। ज्ञानपीठ पुरस्कार से सम्मानित लोकप्रिय तमिल उपन्यासकार पी0वी0अखिलंदम, राजनगर उपन्यास के लिए साहित्य अकादमी पुरस्कार से सम्मानित अमियभूषण मजूमदार, फिल्म निर्माता व लेखक पद्मश्री राजेन्द्र सिंह बेदी, मशहूर फिल्म अभिनेता देवानन्द डाक कर्मचारी रहे हैं। उपन्यास सम्राट प्रेमचन्द जी के पिता अजायबलाल डाक विभाग में ही क्लर्क रहे। ज्ञानपीठ पुरस्कार विजेता मशहूर लेखिका महाश्वेता देवी ने आरम्भ में डाक-तार विभाग में काम किया था तो प्रसिद्ध बाल साहित्यकार डा0 राष्ट्रबन्धु भी पोस्टमैन रहे। सुविख्यात उर्दू समीक्षक पद्मश्री शम्सुररहमान फारूकी, शायर कृष्ण बिहारी नूर, महाराष्ट्र के प्रसिद्ध किसान नेता शरद जोशी सहित तमाम विभूतियाँ डाक विभाग की गोद में अपनी सृजनात्मक-रचनात्मक काया का विस्तार पाने में सफल रहीं।

भारतीय परिपे्रक्ष्य में इस तथ्य से इन्कार नहीं किया जा सकता कि भारत एक कृषि प्रधान एवं ग्रामीण अर्थव्यवस्था वाला देश है, जहाँ 70 फीसदी आबादी गाँवों में बसती है। समग्र टेनी घनत्व भले ही 60 का आंकड़ा छूने लगा हो पर ग्रामीण क्षेत्रों में यह बमुश्किल 15 से 20 फीसदी ही है। यदि हर माह 2 करोड़ नए मोबाइल उपभोक्ता पैदा हो रहे हैं तो उसी के सापेक्ष डाक विभाग प्रतिदिन दो करोड़ से ज्यादा डाक वितरित करता है। 1985 में यदि एस0एम0एस0 पत्रों के लिए चुनौती बनकर आया तो उसके अगले ही वर्ष दुतगामी ‘स्पीड पोस्ट‘ सेवा भी आरम्भ हो गई। यह एक सुखद संकेत है कि डाक-सेवाएं नवीनतम टेक्नाॅलाजी का अपने पक्ष में भरपूर इस्तेमाल कर रही हैं। ‘ई-मेल‘ के मुकाबले ‘ई-पोस्ट‘ के माध्यम से डाक विभाग ने डिजिटल डिवाइड को भी कम करने की मुहिम छेड़ी है। आखिरकार अपने देश में इंटरनेट प्रयोक्ता महज 7 फीसदी हंै। आज डाकिया सिर्फ सिर्फ पत्र नहीं बांटता बलिक घरों से पत्र इकट्ठा करने और डाक-स्टेशनरी बिक्री का भी कार्य करता है। समाज के हर सेक्टर की जरूरतों के मुताबिक डाक-विभाग ने डाक-सेवाओं का भी वर्गीकरण किया है, मसलन बल्क मेलर्स के लिए बिजनेस पोस्ट तो कम डाक दरों के लिए बिल मेल सेवा उपलब्ध है। पत्रों के प्रति क्रेज बरकरार रखने के लिए खुश्बूदार डाक-टिकट तक जारी किए गए हैं। आई0टी0 के इस दौर में चुनौतियों का सामना करने के हेतु डाक विभाग अपनी ब्रांडिंग भी कर रहा है। ‘प्रोजेक्ट एरो‘ के तहत डाकघरों का लुक बदलने से लेकर काउंटर सेवाओं, ग्राहकों के प्रति व्यवहार, सेवाओं को समयानुकूल बनाने जैसे तमाम कदम उठाए गए हैं। इस पंचवर्षीय योजना में डाक घर कोर बैंकिंग साल्यूशन के तहत एनीव्हेयर, एनी टाइम, एनीब्रांच बैंकिंग भी लागू करने जा रहा है। सिम कार्ड से लेकर रेलवे के टिकट और सोने के सिक्के तक डाकघरों के काउंटरों पर खनकने लगे हैं और इसी के साथ डाकिया डायरेक्ट पोस्ट के तहत पम्फ्लेट इत्यादि भी घर-घर जाकर बांटने लगा है। पत्रों की मनमोहक दुनिया अभी खत्म नहीं हुई है। तभी तो अन्तरिक्ष-प्रवास के समय सुनीता विलियम्स अपने साथ भगवद्गीता और गणेशजी की प्रतिमा के साथ-साथ पिताजी के हिन्दी में लिखे पत्र ले जाना नहीं भूलती। हसरत मोहानी ने यूँ ही नहीं लिखा था-

लिक्खा था अपने हाथों से जो तुमने एक बार।
अब तक हमारे पास है वो यादगार खत ।।

(विश्व डाक दिवस पर लिखा यह लेख आकाशवाणी पोर्टब्लेयर से प्रसारित)

बुधवार, 6 अक्तूबर 2010

अस्तित्व के लिए जूझते अंडमान के आदिवासी

भारत सरकार ने 29 सितम्बर को 10 आदिवासियों को 12 अंकों वाली विशिष्ट पहचान संख्या सौंप कर बहुचर्चित ‘आधार‘ परियोजना के शुभारंभ की घोषणा की। पर यह हैरतअंगेज है कि जिसे हर भारतीय की पहचान के लिए पहल रूप में देखा जा रहा है उससे अण्डमान-निकोबार द्वीप समूह के आदिवासी महरूम रहेंगे। दुनिया की सबसे पुरानी जनजातियों में शामिल यहाँ के आदिवासियों को सरकार का यह बयान मानो चिढ़ाता है कि विशिष्ट संख्या जारी करना नए आधुनिक भारत का संकेत देता है। हर आदिवासी के मन में यह सवाल उठता है कि क्या वे आधुनिक भारत नहीं बल्कि पाषणकालीन भारत के अवशेष हैं। आखिर सरकार इनके कल्याण के लिए क्यों नहीं सोचती ?

ग्रेट अंडमानीज जिन्होंने कभी अंग्रेज हुकूमत को ललकारा था, आज 43 पर सिमट गए हैं। ओंगी (96), जारवा (240), शोम्पेन (398) व सेंटीनली की संख्या मात्र 39 बची है। सरकार इन्हें भोजन दे रही है, पर यह भोजन ही उनके शरीर का क्षय कर रही है। आखिर बैठे-बैठे भोजन किसे अच्छा नहीं लगता, पर इस भोजन ने उनकी शिकार-प्रवृत्ति को ख़त्म कर काफी हद तक कमजोर भी बना दिया है. इसी के साथ उनके अन्दर तमाम रोगों और बुराइयों का भी प्रवेश हो रहा है, नतीजन संक्रमणकालीन अवस्था के बीच वे रोज अपनी जिंदगी के दिन गिन रहे हैं. इनमें से सेंटीनली आदिवासियों से तो अभी आत्मीय संपर्क तक नहीं हो सका है। जारवा लोगों के कौतुहल का केंद्र-बिंदु बने हुए हैं और इनके नाम पर पर्यटन का धंधा भी अच्छा चल रहा है। सुबह और शाम वे पोर्टब्लेयर से बाराटांग जानी वाली रोड के किनारे खड़े होकर पर्यटकों से बिस्कुट और अन्य खाने की वस्तुओं की मांग करते हैं। लोग गाड़ियाँ रोकते हैं, जारवाओं को खाद्य-सामग्री व कभी-कभी कपड़े देते हैं और बदले में उनकी तस्वीरों को कैद कर लेते हैं। अभी भी पाषाण काल में जी रहे जारवा कई बार पें-पे (पैसे ) की मांग भी करते हैं और न मिलने पर कैमरा इत्यादि लेकर भाग जाते हैं। जारवा-महिलाएं सजधजकर सड़कों के किनारे छुपी रहती हैं और मौका पाकर अचानक गाड़ियों पर झपट्टा मारकर खाद्य-सामग्री लेकर जंगलों में कूद जाती हैं। समस्या यह है कि जारवा मुख्यधारा में तो आना चाहते हैं, पर सरकार उन्हें उनकी सीमाओं में ही कैद रखना चाहती है। अचूक निशानेबाजी उनका लक्षण है पर उनके इलाके के बीच दौड़ रही सड़क और तथाकथित सभ्य जन उन्हें भयभीत करते हैं। पेट की भूख शांत करने के लिए वे पर्यटकों के सामने हाथ फैलाते हैं तो पर्यटक उनकी फोटोग्राफ कैद करने के लिए लालची बना रहे हैं।

पता नहीं सरकारों को कब समझ आएगा कि अण्डमान-निकोबार के आदिवासी भी आधुनिक भारत का अंग हैं। द्वीपों में अक्सर विदेशियों द्वारा घुसपैठ बढ़ रही है, डर लगता है कहीं वे इन्हें भी न बरगलाने लगें। मुख्यभूमि के आदिवासियों पर नक्सलवाद-माओवाद के आरोप लगाए जा रहे हैं, शुक्र है यहाँ के आदिवासी इन सबसे बचे हुए हैं। पर उनकी लगातार अनदेखी कठिनाईयाँ भी पैदा कर सकती हैं। शिकार के अभाव में कमजोर होते इन आदिवासियों की जनसंख्या वैसे भी विलुप्त होने के कगार पर है, पर हर भारतीय की पहचान के लिए पहल करती सरकार यदि इनकी पहचान व अस्तित्व-रक्षा के लिए भी प्रबंध करती तो बेहतर होता। अन्यथा, अभी तक तो ये उस आधुनिक भारत से कोसों दूर हैं, जहाँ प्रतीकात्मक रूप में आदिवासियों के नाम पर हो रही हलचल को समझने का प्रयास किया जा रहा है।

दुर्भाग्यवश अण्डमान-निकोबार के आदिवासियों को मतदान का अधिकार भी नहीं है। वे भारतीय संविधान में 18 वर्ष से ऊपर की आयु के हर व्यक्ति को मतदान के अधिकार के अपवाद हैं....? यदि समय रहते सरकार ने इन्हें मुख्यधारा से जोड़कर इनका वाजिब हक नहीं दिया तो फिर इन्हें भी गलत रास्तों पर जाने से रोकना दुःस्साध्य होगा।

(चित्र में सड़क किनारे कड़ी जारवा महिला और हाथ में बिस्कुट और तीर-धनुष लिए जारवा पुरुष)

शनिवार, 2 अक्तूबर 2010

हे राम...


गुजरात-दंगों के दौरान यह कविता मैंने लिखी थी. गौरतलब है कि गुजरात, गाँधी जी की जन्मस्थली भी है. आज गाँधी-जयंती पर इसे ही यहाँ प्रस्तुत कर रहा हूँ-

एक बार फिर
गाँधी जी खामोश थे
सत्य और अहिंसा के प्रणेता
की जन्मस्थली ही
सांप्रदायिकता की हिंसा में
धू-धू जल रही थी
क्या इसी दिन के लिए
हिन्दुस्तान व पाक के बंटवारे को
जी पर पत्थर रखकर स्वीकारा था!
अचानक उन्हें लगा
किसी ने उनकी आत्मा
को ही छलनी कर दिया
उन्होंने ‘हे राम’ कहना चाहा
पर तभी उन्मादियों की एक भीड़
उन्हें रौंदती चली गई।

बुधवार, 22 सितंबर 2010

सूरज और दीया


एक कहानी सुनी थी
सूरज ने पूछा
मेरे बाद
कौन देगा प्रकाश
एक टिमटिमाते
दीये ने कहा
मैं दूँगा।

पर देखता हूँ
इस समाज में
लोगों का झुण्ड चला जाता है
कंधों से कंधा टकराते
हर कोई सूरज की
पहली किरण को
लेना चाहता है
अपने आगोश में
पर नहीं चाहता वह
नन्हा दीया बनना
जो सूरज के बाद भी
दे सके प्रकाश।

मंगलवार, 14 सितंबर 2010

भूमण्डलीकरण के दौर में हिन्दी के बढ़ते कदम

भूमण्डलीकरण, उदारीकरण, उन्नत प्रौद्योगिकी एवं सूचना-तकनीक के बढ़ते इस युग में सबसे बड़ा खतरा भाषा, साहित्य और संस्कृति के लिए पैदा हुआ है। इतिहास साक्षी है कि जब-जब समाज पथभ्रमित हुआ है या अपसंस्कृति हावी हुयी है तो साहित्य ने ही उसे संभाला है। कहा भी गया है कि- ‘‘साहित्य समाज का दर्पण है।’’ साहित्य का सम्बन्ध सदैव संस्कृति से रहा है और हिन्दी भारतीय संस्कृति की अस्मिता की पहचान है। संस्कृत वाग्डमय का पूरा सांस्कृतिक वैभव हिन्दी के माध्यम से ही आम जन तक पहुँचा है। हिन्दी का विस्तार क्षेत्र काफी व्यापक रहा है, यहाँ तक कि उसमें संस्कृत साहित्य की परंपरा और लोक भाषाओं की वाचिक परम्परा की संस्कृति भी समाविष्ट रही है। स्वतंत्रता संग्राम में भी हिन्दी और उसकी लोकभाषाओं ने घर-घर स्वाधीनता की जो लौ जलायी वह मात्र राजनैतिक स्वतंत्रता के लिए ही नहीं थी, वरन् सांस्कृतिक अस्मिता की रक्षा के लिए भी थी। भारत में साहित्य, संस्कृति और हिन्दी एक दूसरे के दर्पण रहे हैं ऐसा कहना अतिश्योक्ति नहीं होगा।

यदि हम व्यवहारिक धरातल पर बात करें तो हिन्दी सदैव से राजभाषा, मातृभाषा व लोकभाषा रही है पर दुर्भाग्य से हिन्दी कभी भी राजपे्रयसी नहीं रही। स्वतंत्रता आंदोलन में जनभाषा के रूप में लोकप्रियता, विदेशी विद्वानों द्वारा हिन्दी की अहमियत को स्वीकारना, तमाम समाज सुधारकों व महापुरूषों द्वारा हिन्दी को राजभाषा/राष्ट्रभाषा के रूप में प्रतिष्ठित करने की बातें, पर अन्ततः संविधान सभा ने तीन दिनों तक लगातार बहस के बाद 14 सितम्बर 1949 को पन्द्रह वर्ष तक अंग्रेजी जारी रखने के परन्तुक के साथ ही हिन्दी को राजभाषा के रूप में स्वीकार किया। राष्ट्रभाषा के सवाल पर संविधान सभा में 300 से ज्यादा संशोधन प्रस्ताव आए। जी0 एस0 आयंगर ने मसौदा पेश करते हुए हिन्दी की पैरोकारी की पर अंततः कहा कि -‘‘हिन्दी आज काफी समुन्नत भाषा नहीं है। अंग्रेजी शब्दों के हिन्दी पर्याय नहीं मिल पाते।’’ यद्यपि हिन्दी के पक्ष में काफी सदस्यों ने विचार व्यक्त किए। पुरूषोतम दास टंडन ने अंग्रेज ध्वनिविज्ञानी इसाक पिटमैन के हवाले से कहा कि विश्व मंे हिन्दी ही सर्वसम्पन्न वर्णमाला है तो सेठ गोविन्द दास ने कहा कि- ‘‘इस देश में हजारों वर्षों से एक संस्कृति है। अतः यहाँ एक भाषा और एक लिपि ही होनी चाहिए।’’ आर0 वी0 धुलेकर ने काफी सख्त लहजे में हिन्दी की पैरवी करते हुए कहा कि- ‘‘मैं कहता हूँ हिन्दी राजभाषा है, राष्ट्रभाषा है। हिन्दी के राष्ट्रभाषा/राजभाषा हो जाने के बाद संस्कृत विश्व भाषा बनेगी। अंग्रेजों के नाम 15 वर्ष का पट्टा लिखने से राष्ट्र का हित साधन नहीं होगा।’’ स्वयं पं0 नेहरू ने भी हिन्दी की पैरवी में कहा था- ‘‘पिछले एक हजार वर्ष के इतिहास में भारत ही नहीं सारे दक्षिण पूर्वी एशिया में और केन्द्रीय एशिया के कुछ भागों में भी विद्वानों की भाषा संस्कृत ही थी। अंग्रेजी कितनी ही अच्छी और महत्वपूर्ण क्यों न हो किन्तु इसे हम सहन नहीं कर सकते, हमें अपनी ही भाषा (हिन्दी) को अपनाना चाहिए।’’

आज हिन्दी भारत ही नहीं वरन् पाकिस्तान, नेपाल बंाग्लादेश, इराक, इंडोनेशिया, इजरायल, ओमान, फिजी, इक्वाडोर, जर्मनी, अमेरिका, फ्रांस, ग्रीस, ग्वाटेमाला, सउदी अरब, पेरू, रूस, कतर, म्यंमार, त्रिनिदाद-टोबैगो, यमन इत्यादि देशों में जहाँ लाखों अनिवासी भारतीय व हिन्दी -भाषी हैं, में भी बोली जाती है। चीन, रूस, फ्रांस, जर्मनी, व जापान इत्यादि राष्ट्र जो कि विकसित राष्ट्र हंै की राष्ट्रभाषा अंग्रेजी नहीं वरन् उनकी खुद की मातृभाषा है। फिर भी ये दिनों-ब-दिन तरक्की के पायदान पर चढ़ रहे हैं। विज्ञान और प्रौेद्योगिकी क्षेत्र में अंग्रेजी के बिना विकास नहीं हो पाने की अवधारणा को इन विकसित देशों ने परे धकेल दिया है।

यह एक कटु सत्य है कि आज वैश्विक स्तर पर हिन्दी को प्रतिष्ठा मिलने के बाद भी हिन्दी अपनों से ही उपेक्षित रही है। एक प्रतिष्ठित शख्सियत ने विदेशी मंच पर कहा कि-‘‘हिन्दी एक पिछड़ी भाषा है, यहाँ तक कि हिन्दी में रैट और माउस हेतु के अलग-अलग शब्द नही हैं।’’ इसी प्रकार प्रवासी भारतीयों के सम्मेलन में राष्ट्रीय सलाहकार परिषद के सदस्य सैम पित्रोदा ने मैग्सेसे पुरस्कार से सम्मानित राजेन्द्र सिंह द्वारा हिन्दी में दिए गए भाषण पर न केवल आपत्ति की बल्कि माफी भी माँगी। क्या यह माँ व प्रेयसी के द्वंद में असलियत जानते हुए भी प्रेयसी को ज्यादा भाव दिये जाने की सोच का परिचायक नहीं है कि प्रेयसीे कहीं मुझे पिछड़ा और गंवार न समझ ले? भारत की 70 प्रतिशत जनसंख्या गाँवों में रहती है और अभी भी भारत में अंग्रेजी-तहजीब वालों की गिनती अंगुलियों पर की जा सकती है। अधिकतर शहरी घरों में आज भी बच्चे भले ही अंग्रेजी भाषी स्कूलों में पढ़ते हांे, पर क्या वाकई वे अपने माता-पिता, रिश्तेदारों और मित्रों से अंग्रेजी मंे बातें करते हंै। निश्चिततः इन सबकेे पीछे ही छुपा है हिन्दी की उपेक्षा का भाव। असलियत तो यही है कि हम हिन्दी अपनाना चाहते हंै पर आड़े आता है, स्टेट्स सिम्बल और समाज की यह सोच कि हिन्दी रोजगार नहीं दिला सकती। राजनैतिक व प्रशासनिक नेतृत्व के शीर्ष की भाषा अंग्रेजी हो सकती है पर मध्यम व निचले पायदान पर हिन्दी या अन्य क्षेत्रीय भाषाएँ ही काबिज हैं। फील्ड में काम कर रहे तमाम अधिकारियों को भी लोगों से उनकी मातृभाषा मंे ही सम्वाद करना पड़ता है। हिन्दी को यदि उचित प्रतिष्ठा नहीं मिली है तो उसका एक अन्य प्रमुख कारण हिन्दी पर कुण्डली मारकर बैठे साहित्यकारों-प्रकाशकों-सम्पादकों का त्रिगुट है। अपना वर्चस्व न टूटनेे देने हेतु यह त्रिगुट नवागन्तुकों को हतोत्साहित करता है। पैसे व चमचागिरी की बदौलत एक अयोग्य व्यक्ति समाज में प्रतिष्ठा पाता है वहीं योग्य व्यक्ति अपनी रचनाएँ लेकर सम्पादकों और प्रकाशकों के दरवाजे भटकता रहता है। निश्चिततः हिन्दी के विकास में ऐसे कदम अवरोध उत्पन्न करते हैं।

निज भाषा उन्नति अहै, सब भाषन को मूल....... आज वाकई इस बात को अपनाने की जरूरत है। भूमण्डलीकरण एवं सूचना क्रांति के इस दौर में जहाँ एक ओर ‘सभ्यताओं का संघर्ष’ बढ़ा है, वहीं बहुराष्ट्रीय कम्पनियांे की नीतियों ने भी विकासशील व अविकसित राष्ट्रों की संस्कृतियों पर प्रहार करने की कोशिश की है। सूचना क्रांति व उदारीकरण द्वारा सारे विश्व के सिमट कर एक वैश्विक गाँव में तब्दील होने की अवधारणा में अपनी संस्कृति, भाषा, मान्यताओं, विविधताओं व संस्कारों को बचाकर रखना सबसे बड़ी जरूरत है। एक तरफ बहुराष्ट्रीय कम्पनियां जहाँ हमारी प्राचीन सम्पदाआंेें का पेटेंट कराने में जुटी हैं वहीं इनके ब्राण्ड-विज्ञापनों ने बच्चों व युवाओं की मनोस्थिति पर भी काफी प्रभाव डाला है, निश्चिततः इन सबसे बचने हेतु हमं अपनी आदि भाषा संस्कृत व हिन्दी की तरफ उन्मुख होना होगा। हम इस तथ्य को नक्कार नहीं सकते कि हाल ही में प्रकाशित आक्सफोर्ड अंग्रेजी शब्दकोष में हिन्दी के तमाम प्रचलित शब्दों, मसलन-आलू, अच्छा, अरे, देसी, फिल्मी, गोरा, चड्डी, यार, जंगली, धरना, गुण्डा, बदमाश, बिंदास, लहंगा, मसाला इत्यादि को स्थान दिया गया है तो दूसरी तरफ अमरीकी राष्ट्रपति जार्ज बुश ने राष्ट्रीय सुरक्षा भाषा कार्यक्रम के तहत अपने देशवासियों से हिन्दी, फारसी, अरबी, चीनी व रूसी भाषायें सीखने को कहा है। अमेरिका जो कि अपनी भाषा और अपनी पहचान के अलावा किसी को श्रेष्ठ नहीं मानता, हिन्दी सीखने में उसकी रूचि का प्रदर्शन निश्चिततः भारत के लिए गौरव की बात है। अमेरिकी राष्ट्रपति ने स्पष्टतया घोषणा की कि- ‘‘हिन्दी ऐसी विदेशी भाषा है, जिसे 21 वीं सदी में राष्ट्रीय सुरक्षा और समृद्धि के लिए अमेरिका के नागरिकों को सीखनी चाहिए।’’ इसी क्रम में टेक्सास के स्कूलों में पहली बार ‘नमस्ते जी‘ नामक हिन्दी की पाठ्यपुस्तक को हाईस्कूल के छा़त्रों के लिए पाठ्यक्रम में शामिल किया गया है। 480 पेज की इस पुस्तक को भारतवंशी शिक्षक अरूण प्रकाश ने आठ सालों की मेहनत से तैयार की है। निश्चिततः भूमण्डलीकरण के दौर में दुनिया के सबसे बडे लोकतंत्र, सर्वाधिक जनसंख्या वाले राष्ट्र और सबसे बडे़ उपभोक्ता बाजार कीे भाषा हिन्दी को नजर अंदाज करना अब सम्भव नहीं रहा। प्रतिष्ठित अंग्रेजी प्रकाशन समूहों ने हिन्दी में अपने प्रकाशन आरम्भ किए हैं तो बी0 बी0 सी, स्टार प्लस, सोनी, जी0 टी0 वी0, डिस्कवरी आदि अनेक चैनलों ने हिन्दी में अपने प्रसारण आरम्भ कर दिए हैं। हिन्दी फिल्म संगीत तथा विज्ञापनों की ओर नजर डालने पर हमें एक नई प्रकार की हिन्दी के दर्शन होते हंै। यहाँ तक कि बहुराष्ट्रीय कम्पनियांे के विज्ञापनों में अब क्षेत्रीय बोलियों भोजपुरी इत्यादि का भी प्रयोग होने लगा है और विज्ञापनों के किरदार भी क्षेत्रीय वेश-भूषा व रंग-ढंग में नजर आते हैं। निश्चिततः मनोरंजन और समाचार उद्योग पर हिन्दी की मजबूत पकड़ ने इस भाषा में सम्प्रेषणीयता की नई शक्ति पैदा की है पर वक्त के साथ हिन्दी को वैश्विक भाषा के रूप में विकसित करने हेतु हमें भाषाई शुद्धता और कठोर व्याकरणिक अनुशासन का मोह छोड़ते हुए उसका नया विशिष्ट स्वरूप विकसित करना होगा अन्यथा यह भी संस्कृत की तरह विशिष्ट वर्ग तक ही सिमट जाएगी। हाल ही मे विदेश मंत्रालय ने इसी रणनीति के तहत प्रति वर्ष दस जनवरी को ‘विश्व हिन्दी दिवस’ मनाने का निर्णय लिया है, जिसमें विदेशों मे स्थित भारतीय दूतावासों में इस दिन हिन्दी दिवस समारोह का आयोजन किया जाएगा। आगरा के केन्द्रीय हिन्दी संस्थान में देश का प्रथम हिन्दी संग्रहालय तैयार किया जा रहा है, जिसमें हिन्दी विद्वानों की पाण्डुलिपियाँ, उनके पत्र और उनसे जुड़ी अन्य सामग्रियाँ रखी जायेंगी।

आज की हिन्दी वो नहीं रही..... बदलती परिस्थितियों में उसने अपने को परिवर्तित किया हैै। विज्ञान-प्रौद्योगिकी से लेकर तमाम विषयों पर हिन्दी की किताबें अब उपलब्ध हैं, क्षेत्रीय अखबारों का प्रचलन बढ़ा है, इण्टरनेट पर हिन्दी की बेबसाइटों में बढ़ोत्तरी हो रही है, सूचना प्रौद्योगिकी क्षेत्र की कई कम्पनियों ने हिन्दी भाषा मंे परियोजनाएं आरम्भ की हंै। सूचना क्रांति के दौर में कम्प्यूटर पर हिन्दी में कार्य संस्कृति को बढ़ावा देने हेतु सूचना एवं प्रौद्योगिकी मंत्रालय के प्रतिष्ठान सी-डैक ने निःशुल्क हिन्दी साफ्टवेयर जारी किया है, जिसमें अनेक सुविधाएं उपलब्ध हैं। माइक्रोसाफ्ट ने आॅफिस हिन्दी के द्वारा भारतीयों के लिए कम्प्यूटर का प्रयोग आसान कर दिया है। आई0 बी0 एम0 द्वारा विकसित साॅफ्टवेयर में हिन्दी भाषा के 65,000 शब्दों को पहचानने की क्षमता है एवं हिन्दी और हिन्दुस्तानी अंग्रेजी के लिए आवाज पहचानने की प्रणाली का भी विकास किया गया है जो कि शब्दों को पहचान कर कम्प्यूटर लिपिबद्ध कर देती है। एच0 पी0 कम्प्यूटरस एक ऐसी तकनीक का विकास करने में जुटी हुई है जो हाथ से लिखी हिन्दी लिखावट को पहचान कर कम्प्यूटर में आगे की कारवायी कर सके। चूँकि इण्टरनेट पर ज्यादातर सामग्री अंग्रेजी में है और अपने देश में मात्र 13 फीसदी लोगों की ही अंग्रेजी पर ठीक-ठाक पकड़ है। ऐसे में हाल ही में गूगल द्वारा कई भाषाओं में अनुवाद की सुविधा प्रदान करने से अंग्रेजी न जानने वाले भी अब इण्टरनेट के माध्यम से अपना काम आसानी से कर सकते हैं। अपनी तरह की इस अनोखी व पहली सेवा में हिन्दी, तमिल, तेलगू, कन्नड़ और मलयालम का अंग्रेजी में अनुवाद किया जा सकता है। यह सेवा इण्टरनेट पर www.google.in/translate_t टाइप कर हासिल की जा सकती है। हिन्दी के वेब पोर्टल समाचार, व्यापार, साहित्य, ज्योतिषी, सूचना प्रौद्योगिकी एवं तमाम जानकारियां सुलभ करा रहे हंै। यहाँ तक कि दक्षिण भारत में भी हिन्दी के प्रति दुराग्रह खत्म हो गया है। निश्चिततः इससे हिन्दी भाषा को एक नवीन प्रतिष्ठा मिली है।

- कृष्ण कुमार यादव

गुरुवार, 9 सितंबर 2010

बिखरते शब्द


शंकर जी के डमरू से
निकले डम-डम अपरंपार
शब्दों का अनंत संसार
शब्द है तो सृजन है
साहित्य है, संस्कृति है
पर लगता है
शब्द को लग गई
किसी की बुरी नजर
बार-बार सोचता हूँ
लगा दूँ एक काला टीका
शब्द के माथे पर
उत्तर संरचनावाद और विखंडनवाद के इस दौर में
शब्द बिखर रहे हैं
हावी होने लगा है
उन पर उपभोक्तावाद
शब्दों की जगह
अब शोरगुल हावी है !!

- कृष्ण कुमार यादव

शनिवार, 4 सितंबर 2010

हिन्दी पखवाड़ा


सरकारी विभागों में सितम्बर माह के प्रथम दिवस से ही हिन्दी पखवाड़ा मनाना आरम्भ हो जाता है और हिन्दी दिवस (14 सितम्बर) आते-आते बहुत कुछ होता जाता है। ऐसी ही कुछ भावनाओं को इस कविता में व्यक्त किया गया है-

एक बार फिर से
हिन्दी पखवाड़ा का आगमन
पुराने बैनर और नेम प्लेटें
धो-पोंछकर चमकाये जाने लगे
बस साल बदल जाना था

फिर तलाश आरम्भ हुई
एक अदद अतिथि की
एक हिन्दी के विद्वान
एक बाबू के
पड़ोस में रहते थे
सो आसानी से तैयार हो गये
कार्यक्रम के मुख्य अतिथि बनने हेतु

आते ही
फूलों का गुलदस्ता
और बंद पैक में भेंट
उन्होंने स्वीकारी
हिन्दी के राजभाषा बनने से लेकर
अपने योगदान तक की चर्चाकर डाली

मंच पर आसीन अधिकारियों ने
पिछले साल के
अपने भाषण में
कुछ काट-छाँट कर
फिर से
हिन्दी को बढ़ावा देने की शपथ ली
अगले दिन तमाम अखबारों में
समारोह की फोटो भी छपी

सरकारी बाबू ने कुल खर्च की फाइल
धीरे-धीरे अधिकारी तक बढ़ायी
अधिकारी महोदय ने ज्यों ही
अंग्रेजी में अनुमोदन लिखा
बाबू ने धीमे से टोका
अधिकारी महोदय ने नजरें उठायीं
और झल्लाकर बोले
तुम्हें यह भी बताना पड़ेगा
कि हिन्दी पखवाड़ा बीत चुका है !!

-- कृष्ण कुमार यादव

बुधवार, 1 सितंबर 2010

सृजनशील जीवन का संदेश देती कृष्ण जन्माष्टमी

जब-जब भी धरती पर अत्याचार बढ़ा है व धर्म का पतन हुआ है तब-तब भगवान ने पृथ्वी पर अवतार लेकर सत्य और धर्म की स्थापना की है। इसी कड़ी में भाद्रपद माह की कृष्ण पक्ष की अष्टमी को मध्यरात्रि को अत्याचारी कंस का विनाश करने के लिए मथुरा में भगवान कृष्ण ने अवतार लिया। चूँकि भगवान स्वयं इस दिन पृथ्वी पर अवतरित हुए थे अतः इस दिन को कृष्ण जन्माष्टमी अथवा जन्माष्टमी के रूप में मनाते हैं। इस दिन स्त्री-पुरुष रात्रि बारह बजे तक व्रत रखते हैं। इस दिन मंदिरों में झाँकियाँ सजाई जाती हैं और भगवान कृष्ण को झूला झुलाया जाता है।

पाप और शोक के दावानल से दग्ध इस जगती तल में भगवान ने पदार्पण किया। इस बात को आज पाँच सहस्र वर्ष हो गए। वे एक महान सन्देश लेकर पधारे। केवल सन्देश ही नहीं, कुछ और भी लाए। वे एक नया सृजनशील जीवन लेकर आए। वे मानव प्रगति में एक नया युग स्थापित करने आए। इस जीर्ण-शीर्ण रक्तप्लावित भूमि में एक स्वप्न लेकर आए। जन्माष्टमी के दिन उसी स्वप्न की स्मृति में महोत्सव मनाया जाता है। हम लोगों में जो इस तिथि को पवित्र मानते हैं कितने ऐसे हैं जो इस विनश्वर जगत में उस दिव्य जीवन के अमर-स्वप्न को प्रत्यक्ष देखते हैं?

श्रीकृष्ण गोकुल और वृन्दावन में मधुर-मुरली के मोहक स्वर में कुरुक्षेत्र युद्धक्षेत्र में (गीता रूप में) सृजनशील जीवन का वह सन्देश सुनाया जो नाम-रूप, रूढ़ि तथा साम्प्रदायिकता से परे है। रणांगण में अर्जुन को मोह हुआ। भाई-बन्धु, सुहृद-मित्र कुटुम्ब-परिवार, आचार-व्यवहार और कीर्ति अपकीर्ति ये सब नाम-रूप ही तो हैं। श्रीकृष्ण ने अर्जुन को इन सबसे उपर उठने को कहा, व्यष्टि से उठकर समष्टि में अर्थात सनातन तत्त्व की ओर जाने का उपदेश दिया। वही सनातन तत्त्व आत्मा है। 'तत्त्वमसि'!मनुष्य- ! तू आत्मा है ! परमात्मा प्राण है ! मोह रज्जु से बंधा हुआ ईश्वर है! चौरासी के चक्कर में पड़ा हुआ चैतन्य है! क्या यही गीता के उपदेश का सार नहीं है? मेरे प्यारे बन्धुओं! क्या हम और आप सभी सान्त से अनन्त की ओर नहीं जा रहे हैं। क्या तुम भगवान को खोजते हो? अपने हृदय वल्लभ की टोह में हो? यदि ऐसा है तो उसे अपने अन्दर खोजो। वहीं तुम्हें वह प्रियतम मिलेगा.

(कृष्ण-जन्माष्टमी पर्व पर शुभकामनायें. संयोगवश मेरा जन्म भी कृष्ण-जन्माष्टमी के दिन ही हुआ था और नाम भी उसी अनुरूप पड़ा. ऐसे में श्री कृष्ण भगवान के प्रति आसक्ति स्वाभाविक है....)

मंगलवार, 31 अगस्त 2010

साहित्य की अनुपम दीपशिखा : अमृता प्रीतम

(आज अमृता प्रीतम जी की जयंती (31 अगस्त) है। अमृता प्रीतम मेरी मनपसंदीदा लेखिकाओं में से हैं. उन पर मेरा एक लेख आज ब्लागोत्सव 2010 में रविन्द्र प्रभात जी द्वारा प्रकाशित है. रविन्द्र जी का आभार. इस आलेख को यहाँ भी आप लोगों हेतु प्रस्तुत कर रहा हूँ।)


वह दिसम्बर की कड़कड़ाती सर्दियों की रात थी। इलाहाबाद विश्वविद्यालय से उस समय मैं बी0ए0 कर रहा था कि अचानक दिल्ली से आए मेरे एक मित्र कमरे पर पधारे। छोटा सा कमरा और एक ही बेड...... सो संकोचवश मैंने मित्र से कहा कि आप आराम से सो जाइये, क्योंकि मेरी रात को पढ़ने की आदत है। कुछ ही देर में वे खर्राटे लेते नजर आये और मैं किंकर्तव्यविमूढ़ सा खड़ा सोच रहा था कि, आखिर रात कैसे गुजारूं क्योंकि रात में पढ़ने का तो एक बहाना मात्र था। इसी उधेड़बुन में मेरी निगाह मित्र के बैग से झांकती एक किताब पर पड़ी तो मंैने उसे बाहर निकाल लिया और यह किताब थी- अमृता प्रीतम का आत्मकथ्यात्मक उपन्यास ‘रसीदी टिकट’। ‘रसीदी टिकट’ को पढ़ते हुए कब आँखों ही आँखों में रात गुजर गयी, पता ही नहीं चला। ईमानदारी के साथ स्वीकारोक्ति करूं तो फिर ‘रसीदी टिकट’ मेरी सहचरी बन गयी। तब से आज तक के सफर में जिंदगी न जाने कहाँ से कहाँ पहुँच गयी, पर ‘रसीदी टिकट’ अभी भी मेरी अमानत में सुरक्षित है।

अमावस पूर्व 31 अक्टूबर, 2005 की शाम ..... पटाखों के शोर के बीच अचानक टेलीविजन पर खबर देखी कि- अमृता प्रीतम नहीं रहीं। ऐसा लगा कोई अपना नजदीकी बिछुड़ गया हो। दूसरे कमरे में जाकर देखा तो मानो ‘रसीदी टिकट’ को भी अमृता जी के न रहने का आभास हो गया हो.... स्याह, उदास व गमगीन उस ‘रसीदी टिकट’ पर कब आँसू की एक बूंद गिरी, पता ही नहीं चला। ऐसा लगा मानो हम दोनों ही एक दूसरे को ढांढस बंधाने की कोशिश कर रहे हों।

1919 का दौर..... गाँधीजी के नेतृत्व में इस देश ने अंग्रेजी के दमनकारी रौलेट एक्ट का विरोध आरम्भ कर दिया था। ब्रिटिश सरकार की चूलें हिलती नजर आ रही थीं। इसी दौर में उपन्यास सम्राट मुंशी प्रेमचन्द ने, जो कि उस समय गोरखपुर में एक स्कूल में अध्यापक थे, एक अंग्रेज स्कूल इंस्पेक्टर को अपने घर के सामने सलाम करने से मना कर दिया। उनका तर्क था- “मैं जब स्कूल में रहता हूँ तब मैं नौकर हूँ बाद में अपने घर का बादशाह हूँ” ऐसे ही क्रांतिकारी दिनों में पंजाब के गुजराँवाला (अब पाकिस्तान में) में 31 अगस्त 1919 को अमृता प्रीतम का जन्म हुआ था। मात्र 11 वर्ष की अल्पायु में, जबकि उन्होंने दुनिया को अपनी नजरों से समझा भी नहीं था माँ का देहावसान हो गया। कड़क स्वभाव के लेखक पिता के सान्निध्य में अमृता का बचपन लाहौर में बीता और शिक्षा -दीक्षा भी वहीं हुयी। लेखन के प्रति तो उनका आकर्षण बचपन से ही था पर माँ की असमय मौत ने इसमें और भी धार ला दी। अपनी आत्मकथा ‘रसीदी टिकट’ में उन्होंने माँ के अभाव को जिया है- “सोलहवां साल आया-एक अजनबी की तरह। घर में पिताजी के सिवाय कोई नहीं था- वह भी लेखक जो सारी रात जागते थे, लिखते थे और सारे दिन सोते थे। माँ जीवित होतीं तो शायद सोलहवां साल और तरह से आता- परिचितों की तरह, सहेलियों-दोस्तों की तरह, सगे-संबंधियों की तरह, पर माँ की गैरहाजिरी के कारण जिंदगी में से बहुत कुछ गैरहाजिर हो गया था। आस-पास के अच्छे-बुरे प्रभावों से बचाने के लिए पिताजी को इसी में सुरक्षा समझ में आई कि मेरा कोई परिचित न हो। न स्कूल की कोई लड़की, न पड़ोस का कोई लड़का।”

अमृता जी की प्रथम कविता इंडिया किरण में छपी तो प्रथम कहानी 1943 में कुंजियाँ में। मोहन सिंह द्वारा प्रकाशित पत्रिका पंज दरया ने अमृता की प्रारम्भिक पहचान बनाई। सन~ 1936 में अमृता की प्रथम किताब छपी। इससे प्रभावित होकर महाराजा कपूरथला ने बुजुर्गाना प्यार देते हुए दो सौ रूपये भेजे तो महारानी ने प्रेमवश पार्सल से एक साड़ी भिजवायी। इस बीच जीवन यापन हेतु 1937 में उन्होंने लाहौर रेडियो ज्वाइन कर लिया। जब देश आजाद हुआ तो उनकी उमz मात्र 28 वर्ष थी। वक्त के हाथों मजबूर हो वो उस पार से इस पार आयी और देहरादून में पनाह ली। इस बीच 1948 में वे उद्घोषिका रूप में आल इण्डिया रेडियो से जुड़ गयीं। पर विभाजन के जिस दर्द को अमृता जी ने इतने करीब से देखा था, उसकी टीस सदैव स्मृति पटल पर बनी रही और रचनाओं में भी प्रतिबिम्बित हुयी। बँटवारे पर उन्होंने लिखा- “पुराने इतिहास के भीषण अत्याचारी काण्ड हम लोगों ने भले ही पढ़े हुये थे, पर फिर तब भी हमारे देश के बंटवारे के समय जो कुछ हुआ, किसी की कल्पना में भी उस जैसा खूनी काण्ड नहीं आ सकता.... मैने लाशें देखी थीं लाशें जैसे लोग देखे थे।” बँटवारे की टीस और क्रंदन को वे कभी भी भुला नहीं पायीं। जिस प्रकार प्रणय-क्रीड़ा में रत क्रौंच पक्षी को व्याध द्वारा बाण से बींधने पर कौंची के करूण शब्द सुन विचलित वाल्मीकि अपने को रोक न पाये थे और बहेलिये को शाप दे दिया था, जो कि भारतीय संस्कृति का आदि “लोक बना, ठीक वैसे ही पंजाब की इस बेटी की आत्मा लाखों बेटियों की क्रंदन सुनकर बार-बार द्रवित होती जाती थी।....... और फिर यूं ही ट्रेन-यात्रा के दौरान उनके जेहन में वारिस भाह की ये पंक्तियाँ गूंज उठीं - भला मोए ते, बिछड़े कौन मेले.....। अमृता को लगा कि वारिस भाह ने तो हीर के दु:ख को गा दिया पर बँटवारे के समय लाखों बेटियों के साथ जो हुआ, उसे कौन गायेगा। फिर उसी रात चलती हुयी ट्रेन में उन्होंने यह कविता लिखी- "अज्ज आख्यां वारिस भाह नूँ, किते कबरां बिच्चों बोलते अज्ज किताबे-इश्क दा कोई अगला वरका खोल।इक रोई-सी धी पंजाब दी, तूं लिख-लिख मारे बैनअज्ज लक्खां धीयां रोंदियां, तैनूं वारिस भाह नूं कहन।"

यह कविता जब छपी तो पाकिस्तान में भी पढ़ी गयी। उस दौर में इसका इतना मार्मिक असर पड़ा कि लोग इस कविता को अपनी जेबों में रखकर चलते और एकांत मिलते ही निकालकर पढ़ते व रोते.......मानो यह उन पर गुजरी दास्तां को सहलाकर उन्हें हल्का करने की कोशिश करती। विभाजन के दर्द पर उन्होनें ‘पिंजर’ नामक एक उपन्यास भी लिखा, जिस पर कालान्तर में फिल्म बनी।

अमृता प्रीतम ने करीब 100 रचनायें रचीं, जिनमें कविता, कहानी, उपन्यास, यात्रा संस्मरण और आत्मकथा शामिल है ।उनकी रचनाओं में पाँच बरस लम्बी सड़क, उन्चास दिन, कोरे कागज, सागर और सीपियाँ , रंग का पत्ता, अदालत, डॉक्टर देव, दिल्ली की गलियाँ, हरदत्त का जिन्दगीनामा, पिंजर (उपन्यास), कहानियाँ जो कहानियाँ नहीं हैं, कहानियों के आँगन में, एक शहर की मौत, अंतिम पत्र, दो खिड़कियाँ, लाल मिर्च (कहानी संग्रह ), कागज और कैनवस, धूप का टुकड़ा, सुनहरे (कविता संग्रह ), एक थी सारा, कच्चा आँगन (संस्मरण), रसीदी टिकट, अक्षरों के साये में, दस्तावेज (आत्मकथा) प्रमुख हैं। अन्य रचनाओं में एक सवाल, एक थी अनीता, एरियल, आक के पत्ते,यह सच है, एक लड़की: एक जाम, तेरहवां सूरज, नागमणि, न राधा-न रूक्मिणी, खामोशी के आँचल में, रात भारी है, जलते-बुझते लोग, यह कलम-यह कागज-यह अक्षर, लाल धागे का रिश्ता इत्यादि प्रमुख हैं। उन्होंने पंजाबी कविता की अन्तराष्ट्रीय स्तर पर एक अलग पहचान कायम की पर इसके बावजूद वे पंजाबी से ज्यादा हिन्दी की लेखिका रूप में जानी जाती थीं। यहाँ तक कि विदेशों में भी उनकी रचनायें उतने ही मनोयोग से पढ़ी जाती थीं। एक समय में तो राजकपूर की फिल्में देखना और अमृता प्रीतम की कवितायें पढ़ना सोवियत संघ के लोगों का शगल बन गया था। अमृता जी की रचनाओं में साझी संस्कृति की विरासत को आगे बढ़ाने और समृद्ध करने का पुट शामिल था। सन~ 1957 में साहित्य अकादमी पुरस्कार ('सुनहरे’ कविता संकलन पर) पाने वाली वह प्रथम महिला रचनाकार बनीं तो 1958 में उन्हें पंजाब सरकार ने पंजाब अकादमी पुरस्कार से सम्मानित किया। 1982 में ‘कागज के केनवास’ के लिए ज्ञानपीठ पुरस्कार से सम्मानित किया गया तो पद्मश्री और पद्मविभूषण जैसे सम्मान भी उनके आँचल में आए। 1973 में दिल्ली विश्वविद्यालय ने अमृता को डी0 लिट की आनरेरी डिग्री दी तो पिंजर उपन्यास के फ्रेंच अनुवाद को फ्रांस का सर्वश्रे’ठ साहित्य सम्मान भी प्राप्त हुआ। 1975 में अमृता के लिखे उपन्यास ‘धरती सागर और सीपियाँ’ पर कादम्बरी फिल्म बनी और कालान्तर में उनके उपन्यास ‘पिंजर’ पर चंद्रप्रकाश द्विवेदी ने एक फिल्म का निर्माण किया। पचास के दशक में नागार्जुन ने अमृता की कई पंजाबी कविताओं के हिन्दी अनुवाद किए। अमृता प्रीतम राज्यसभा की भी सदस्य रहीं। विभाजन ने पंजाबी संस्कृति को बाँटने की जो कोशिश की थी, वे उसके खिलाफ सदैव संघर्ष करती रहीं और उसे कभी भी विभाजित नहीं होने दिया। पंजाबी साहित्य को समृद्ध करने हेतु वे ‘नागमणि’ नामक एक साहित्यिक मासिक पत्रिका भी निकालती थीं।

आज स्त्री विमर्श , महिला सशक्तिकरण , नारी स्वातंत्रय और लिव-इन-रिलेशनशिप जैसी जिन बातों को नारे बनाकर उछाला जा रहा है, अमृता जी की रचनाओं में वे काफी पहले ही स्थान पा चुकी थीं। शायद भारतीय भाषाओं में वह प्रथम ऐसी जनप्रिय लेखिका थीं, जिन्होंने पिंजरे में कैद छटपटाहट की कलात्मक अभिव्यक्तियों को मुखर किया। ज्वलंत मुद्दों पर जबरदस्त पकड़ के साथ-साथ उनके लेखन में विद्रोह का भी स्वर था। उन्होंने परम्पराओं को जिया तो दकियानूसी से उन्हें निजात भी दिलायी। आधुनिकता उनके लिए फैशन नहीं जरूरत थी। यही कारण था कि वे समय से पूर्व ही आधुनिक समाज को रच पायीं। ऐसा नहीं है कि इन सबके पीछे मात्र लिखने का जुनून था वरन~ बँटवारे के दर्द के साथ-साथ अपने व्यक्तिगत जीवन की रूसवाइयों और तन्हाइयों को भी अमृता जी ने इन रचनाओं में जिया। ‘अमृता प्रीतम’ शीर्षक से लिखी एक कविता में उन्होंने अपने दर्द को यूं उकेरा- एक दर्द था जो सिगरेट की तरह मैंने चुपचाप पिया है सिर्फ कुछ नज्में हैं - जो सिगरेट से मैंने राख की तरह झाड़ी हैं। कभी-कभी तो उनकी रचनाओं को पढ़कर समझ में ही नहीं आता कि वे किसी पात्र को जी रही हैं या खुद को। उन्होंने खुद के बहाने औरत को जिया और उसे परिवर्तित भी किया। ठेठ पंजाबियत के साथ रोमांटिसिज्म का नया मुहावरा गढ़कर दर्द को भी दिलचस्प बना देने वाली अमृता कहीं न कहीं सूफी कवियों की कतार में खड़ी नजर आती हैं। उनकी रचना ‘दिल्ली की गलियाँ’ में जब कामिनी नासिर की पेंटिग देखने जाती है तो कहती है- “तुमने वूमेन विद फ्लॉवर , वूमेन विद ब्यूटी या वूमेन विद मिरर को तो बड़ी खूबसूरती से बनाया पर वूमेन विद माइंड बनाने से क्यों रह गए।निश्चितत: यह वाक्य पुरुष वर्ग की उस मानसिकता को दर्शाता है जो नारी को सिर्फ भावों का पुंज समझता है, एक समग्र व्यक्तित्व नहीं। सिमोन डी बुआ ने भी अपनी पुस्तक ‘सेकेण्ड सेक्स’ में इसी प्रश्न को उठाया है। ‘लिव-इन-रिलेशनशिप एक ऐसा मुद्दा है जिस पर अमृता जी ने समय से काफी पहले ही लेखनी चलायी थी। अपनी रचना ‘नागमणि’ में अलका व कुमार के बहाने उन्होंने खुद को ही जिया है, जो बिना विवाह के एक अनजान गाँव में साथ रहते हैं और वह भी बिना किसी अतिरिक्त हक व अपराध-बोध के। स्वयं अमृता जी का जीवन भी ऐसी ही दास्तां थी। वे प्रेम के मर्म को जीना चाहती थीं, उसके बाहरी रूप को नहीं। इसीलिए तमाम आलोचनाओं की परवाह किए बिना उन्होंने अपने परम्परागत पति प्रीतम सिंह को तिलांजलि देकर चित्रकार इमरोज (असली नाम इन्द्रजीत ) को अपना हमसफर बनाया और आलोचनाओं का जवाब अपने लेखन को और भी धारदार बनाके दिया। नतीजन, भारत ही नहीं विश्व स्तर पर उनकी रचनाओं की मांग बढ़ने लगी।

विवाद और अवसाद अमृता के साथ बचपन से ही जुड़े रहे। माँ की असमय मौत ने उनके जीवन को अंदर तक झकझोर दिया था। इस घटना ने उनका इश्वर पर से विश्वास उठा दिया। जिन्दगी के अवसादों के बीच जूझते हुए उन्होंने कई महीनों तक मनोवैज्ञानिक इलाज भी कराया। डॉक्टर के ही कहने पर उन्होंने अपनी परेशानियों और सपनों को कागज पर उकेरना आरम्भ किया। इस बीच अमृता ने फोटोग्राफी , नृत्य, सितार वादन, टेनिस....... न जाने कितने शौकों को अपना राहगीर बनाया। उनका विवाह लाहौर के अनारकली बाजार में एक बड़ी दुकान के मालिक सरदार प्रीतम सिंह से हुआ पर वो भी बहुत दिन तक नहीं निभ सका। इस बीच शमा पत्रिका हेतु उनके उपन्यास डा0देव के इलेष्ट्रेशन बना रहे चित्रकार इमरोज से 1957 में मुलाकात हुयी और 1960 से वे साथ रहने लगे। इमरोज के बारे में अमृता ने लिखा कि- “मंैने अपने सपने को कभी उसके साथ जोड़कर नहीं देखा था, लेकिन यह एक हकीकत है कि उससे मिलने के बाद फिर कभी मैंने सपना नहीं देखा।” अपने उपन्यास ‘दिल्ली की गलियाँ’ में नासिर के रूप मेंं उन्होंने इमरोज को ही जिया था। अगर इमरोज के साथ उनका सम्बंध विवादों में रहा तो ‘हरदत्त का जिन्दगी नामा’ नाम के कारण ‘जिन्दगीनामा’ की लेखिका कृ’णा सोबती ने उनके विरूद्ध अदालत का दरवाजा भी खटखटाया। अपने अन्तिम दिनों में अमृता अतिशय आध्यात्मिकता, ओ”ाो प्रेम, मिस्टिसिज्म का शिकार हो गई थीं पर अन्तिम समय तक वे आशावान और उर्जावान बनी रहीं। अपने अन्तिम दिनों में उन्होंने इमरोज को समर्पित एक कविता ‘फिर मिलूंगी’ लिखी-

"तुम्हें फिर मिलूंगी

कहाँ? किस तरह? पता नहीं।

शायद तुम्हारी कल्पनाओं का चित्र बनकर

तुम्हारे कैनवस पर उतरूंगी

सर फिर तुम्हारे कैनवस के ऊपर

एक रहस्यमयी लकीर बनकर

खामोश तुम्हें ताकती रहूँगी।"

ऐसा था अमृता जी का जीवन...... एक ही साथ वे मानवतावादी, अस्तित्ववादी, स्त्रीवादी और आधुनिकतावादी थीं। जब विभाजन के दर्द को वे जीती हैं तो मानवतावादी, जब तमाम दुख-दर्दों और आलोचनाओं से परे स्वत:स्फूर्त वे स्व में से उद~भूत होती हैं तो अस्तित्ववादी, जब पुरुष की दकियानूसी मानसिकता पर चोट कर उसे स्त्री को समग्र व्यक्तित्व रूप में अपनाने की बात कहती हैं तो स्त्रीवादी एवं जब समय से आगे परम्पराओं के विपरीत अपने हमसफर को बिना किसी बंधन के समाज में स्वीकारती हैं तो आधुनिकतावादी रूप में उनका व्यक्तित्व सामने आता है। अपनी आत्मकथा में उन्होंने लिखा कि- “मरी हुयी मिटटी के पास, किसी जमाने में, लोग पानी के घड़े या सोने-चाँदी की वस्तुएं रखा करते थे। ऐसी किसी आव”यकता में मेरी कोई आस्था नहीं है-पर हर चीज के पीछे आस्था का होना आव”यक नहीं होता, चाहती हूँ इमरोज मेरी मिटटी के पास मेरा कलम रख दे।’’ पर किसे पता था कि साहित्य की यह अनुपम दीपशिखा एक दिन दीपावली की पूर्व संध्या पर अंधेरे में गुम हो जाएगी और छोड़ जाएगी एक अलौकिक शमां , जिसकी रोशनी में आने वाली पीढियां दैदीप्यमान होती रहेंगीं।

(इसे ब्लागोत्सव 2010 में भी पढ़ें )