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रविवार, 21 अगस्त 2011

सृजनशील जीवन का संदेश देती कृष्ण जन्माष्टमी

जब-जब भी धरती पर अत्याचार बढ़ा है व धर्म का पतन हुआ है तब-तब भगवान ने पृथ्वी पर अवतार लेकर सत्य और धर्म की स्थापना की है। इसी कड़ी में भाद्रपद माह की कृष्ण पक्ष की अष्टमी को मध्यरात्रि को अत्याचारी कंस का विनाश करने के लिए मथुरा में भगवान कृष्ण ने अवतार लिया। चूँकि भगवान स्वयं इस दिन पृथ्वी पर अवतरित हुए थे अतः इस दिन को कृष्ण जन्माष्टमी अथवा जन्माष्टमी के रूप में मनाते हैं। इस दिन स्त्री-पुरुष रात्रि बारह बजे तक व्रत रखते हैं। इस दिन मंदिरों में झाँकियाँ सजाई जाती हैं और भगवान कृष्ण को झूला झुलाया जाता है।

पाप और शोक के दावानल से दग्ध इस जगती तल में भगवान ने पदार्पण किया। इस बात को आज पाँच सहस्र वर्ष हो गए। वे एक महान सन्देश लेकर पधारे। केवल सन्देश ही नहीं, कुछ और भी लाए। वे एक नया सृजनशील जीवन लेकर आए। वे मानव प्रगति में एक नया युग स्थापित करने आए। इस जीर्ण-शीर्ण रक्तप्लावित भूमि में एक स्वप्न लेकर आए। जन्माष्टमी के दिन उसी स्वप्न की स्मृति में महोत्सव मनाया जाता है। हम लोगों में जो इस तिथि को पवित्र मानते हैं कितने ऐसे हैं जो इस विनश्वर जगत में उस दिव्य जीवन के अमर-स्वप्न को प्रत्यक्ष देखते हैं?

श्रीकृष्ण गोकुल और वृन्दावन में मधुर-मुरली के मोहक स्वर में कुरुक्षेत्र युद्धक्षेत्र में (गीता रूप में) सृजनशील जीवन का वह सन्देश सुनाया जो नाम-रूप, रूढ़ि तथा साम्प्रदायिकता से परे है। रणांगण में अर्जुन को मोह हुआ। भाई-बन्धु, सुहृद-मित्र कुटुम्ब-परिवार, आचार-व्यवहार और कीर्ति अपकीर्ति ये सब नाम-रूप ही तो हैं। श्रीकृष्ण ने अर्जुन को इन सबसे उपर उठने को कहा, व्यष्टि से उठकर समष्टि में अर्थात सनातन तत्त्व की ओर जाने का उपदेश दिया। वही सनातन तत्त्व आत्मा है। 'तत्त्वमसि'!मनुष्य- ! तू आत्मा है ! परमात्मा प्राण है ! मोह रज्जु से बंधा हुआ ईश्वर है! चौरासी के चक्कर में पड़ा हुआ चैतन्य है! क्या यही गीता के उपदेश का सार नहीं है? मेरे प्यारे बन्धुओं! क्या हम और आप सभी सान्त से अनन्त की ओर नहीं जा रहे हैं। क्या तुम भगवान को खोजते हो? अपने हृदय वल्लभ की टोह में हो? यदि ऐसा है तो उसे अपने अन्दर खोजो। वहीं तुम्हें वह प्रियतम मिलेगा.

(कृष्ण-जन्माष्टमी पर्व पर शुभकामनायें. संयोगवश मेरा जन्म भी कृष्ण-जन्माष्टमी के दिन ही हुआ था और नाम भी उसी अनुरूप पड़ा. ऐसे में श्री कृष्ण भगवान के प्रति आसक्ति स्वाभाविक है....)

सोमवार, 15 अगस्त 2011

समग्र रूप में देखें स्वाधीनता को

स्वतंत्रता की गाथा सिर्फ अतीत भर नहीं है बल्कि आगामी पीढ़ियों हेतु यह कई सवाल भी छोड़ती है। वस्तुतः भारत का स्वाधीनता संग्राम एक ऐसा आन्दोलन था, जो अपने आप में एक महाकाव्य है। लगभग एक शताब्दी तक चले इस आन्दोलन ने भारतीय राष्ट्रीयता की अवधारणा से संगठित हुए लोगों को एकजुट किया। यह आन्दोलन किसी एक धारा का पर्याय नहीं था, बल्कि इसमें सामाजिक-धार्मिक सुधारक, राष्ट्रवादी साहित्यकार, पत्रकार, क्रान्तिकारी, कांग्रेसी, गाँधीवादी इत्यादि सभी किसी न किसी रूप में सक्रिय थे।

1857 के प्रथम स्वाधीनता संग्राम को अंग्रेज इतिहासकारों ने ‘सिपाही विद्रोह‘ मात्र की संज्ञा देकर यह सिद्ध करने का प्रयास किया कि यह विद्रोह मात्र सरकार व सिपाहियों के बीच का अल्पकालीन संघर्ष था, न कि सरकार व जनता के बीच का संघर्ष। वस्तुतः इस प्रचार द्वारा उन्होंने भारत के कोने-कोने में पनप रही राष्ट्रीयता की भावना को दबाने का पूरा प्रयास किया। पर इसमें वे पूर्णतया कामयाब नहीं हुये और इस क्रान्ति की ज्वाला अनेक क्षेत्रों में एक साथ उठी, जिसने इसे अखिल भारतीय स्वरूप दे दिया। इस संग्राम का मूल रणक्षेत्र भले ही नर्मदा और गंगा के बीच का क्षेत्र रहा हो, पर इसकी गूँज दूर-दूर तक दक्षिण मराठा प्रदेश, दक्षिण भारत के कुछ हिस्सों, गुजरात और राजस्थान के इलाकों और यहाँ तक कि पूर्वोत्तर भारत के खासी-जंैतिया और कछार तक में सुनाई दी। परिणामस्वरूप, भारतीय स्वाधीनता आन्दोलन का यह प्रथम प्रयास पे्ररणास्रोत बन गया और ठीक 90 साल बाद भारत ने स्वाधीनता के कदम चूमकर एक नये इतिहास का आगाज किया।

भारतीय राष्ट्रीय स्वाधीनता आन्दोलन का सर्वाधिक महत्वपूर्ण पक्ष यह रहा कि आजादी के दीवानों का लक्ष्य सिर्फ अंग्रजों की पराधीनता से मुक्ति पाना नहीं था, बल्कि वे आजादी को समग्र रूप में देखने के कायल थे। भारतीय पुनर्जागरण के जनक कहे जाने वाले राजाराममोहन राय से लेकर भगतसिंह जैसे क्रान्तिकारी और महात्मा गाँधी तक ने एक आदर्श को मूर्तरूप देने का प्रयास किया। राजाराममोहन राय ने सती प्रथा को खत्म करवाकर नारी मुक्ति की दिशा में पहला कदम रखा, ज्योतिबाफुले व ईश्वरचन्द्र विद्यासागर ने शैक्षणिक सुधार की दिशा में कदम उठाए, स्वामी विवेकानन्द व दयानन्द सरस्वती ने आध्यात्मिक चेतना का जागरण किया, दादाभाई नौरोजी ने गरीबी मिटाने व धन-निकासी की अंग्रेजी अवधारणाओं को सामने रखा, लाल-बाल-पाल ने राजनैतिक चेतना जगाकर आजादी को अधिकार रूप में हासिल करने की बात कही, वीर सावरकर ने 1857 की क्रान्ति को प्रथम स्वाधीनता संग्राम के रूप में चिन्हित कर इसकी तुलना इटली में मैजिनी और गैरिबाल्डी के मुक्ति आन्दोलनों से व्यापक परिप्रेक्ष्य में की, भगत सिंह ने क्रान्ति को जनता के हित में स्वराज कहा और बताया कि इसका तात्पर्य केवल मालिकों की तब्दीली नहीं बल्कि नई व्यवस्था का जन्म है, महात्मा गाँधी ने सत्याग्रह व अहिंसा द्वारा समग्र भारतीय समाज को जनान्दोलनों के माध्यम से एक सूत्र में जोड़कर अद्वैत का विश्व रूप दर्शन खड़ा किया, पं0 नेहरू ने वैज्ञानिक समाजवाद द्वारा विचारधाराओं में सन्तुलन साधने का प्रयास किया, डा0 अम्बेडकर ने स्वाधीनता को समाज में व्याप्त विषमता को खत्म कर दलितों के उद्धार से जोड़ा....। इस आन्दोलन में जहाँ हिन्दू-मुसलमान एकजुट होकर लड़े, दलितों-आदिवासियों-किसानों ने भी महत्वपूर्ण भूमिका निभायी। तमाम नारियों ने समाज की परवाह न करते हुये परदे की ओट से बाहर आकर इस आन्दोलन में भागीदारी की।

स्वाधीनता का आन्दोलन सिर्फ इतिहास के लिखित पन्नों पर नहीं है, बल्कि लोक स्मृतियों में भी पूरे ठाठ-बाट के साथ जीवित है। तमाम साहित्यकारों व लोक गायकों ने जिस प्रकार से इस लोक स्मृति को जीवंत रखा है, उसकी उपेक्षा नहीं की जा सकती। वैसे भी पिस्तौल और बम इन्कलाब नहीं लाते बल्कि इन्कलाब की तलवार विचारों की सान पर तेज होती है (भगत सिंह)। यह अनायास ही नहीं है कि अधिकतर नेतृत्वकर्ता और क्रान्तिकारी अच्छे विचारक, कवि, लेखक या साहित्यकार थे। तमाम रचनाधर्मियों ने इस ‘क्रान्ति यज्ञ’ में प्रेरक शक्ति का कार्य किया और स्वाधीनता आन्दोलन को एक नयी परिभाषा दी।

वर्तमान परिप्रेक्ष्य में इस बात की आवश्यकता है कि राष्ट्रीय स्वाधीनता आन्दोलन के तमाम छुये-अनछुये पहलुओं को व्यापक परिप्रेक्ष्य में देखा जाये और औपनिवेशिक पूर्वाग्रहों को खत्म किया जाये। इतिहास के पन्नों में स्वाधीनता आन्दोलन के साक्षात्कार और इसके गहन विश्लेषण के बीच आत्मगौरव के साथ-साथ उससे जुड़े सबकों को भी याद रखना जरूरी है। राजनैतिक स्वतन्त्रता से परे सामाजिक और आर्थिक स्वतंत्रता भी सच्चे अर्थों में हमारा ध्येय होना चाहिए। इसी क्रम में युवा पीढ़ी को राष्ट्रीय स्वाधीनता आन्दोलन के इतिहास से रूबरू कराना हमारी प्राथमिकता होनी चाहिए, पर उससे पहले इतिहास को पाठ्यपुस्तकों से निकालकर लोकाचार से जोड़ना होगा।

स्वतंत्रता दिवस की आप सभी को शुभकामनायें !!

शनिवार, 13 अगस्त 2011

क्रांतिकारी चंद्रशेखर आजाद की राखी

रक्षाबंधन का त्यौहार बहुत पवित्र माना जाता है। इस दिन बहन अपनी रक्षा के लिए भाई को राखी बाँधती है। भारतीय परम्परा में विश्वास का बन्धन ही मूल है और रक्षाबन्धन इसी विश्वास का बन्धन है। यह पर्व मात्र रक्षा-सूत्र के रूप में राखी बाँधकर रक्षा का वचन ही नहीं देता वरन् प्रेम, समर्पण, निष्ठा व संकल्प के जरिए हृदयों को बाँधने का भी वचन देता है। पहले रक्षा बन्धन बहन-भाई तक ही सीमित नहीं था, अपितु आपत्ति आने पर अपनी रक्षा के लिए अथवा किसी की आयु और आरोग्य की वृद्धि के लिये किसी को भी रक्षा-सूत्र (राखी) बांधा या भेजा जाता था। कृष्ण-द्रौपदी, हुमांयू-कर्मवती या सिकंदर-पोरस की कहानी तो सभी ने सुनी होगी, पर आजादी के आन्दोलन में भी कुछ ऐसे उद्धरण आए हैं, जहाँ राखी ने महत्वपूर्ण भूमिका निभाई है. भारतीय स्वतन्त्रता संग्राम में जन जागरण के लिए भी इस पर्व का सहारा लिया गया। रवीन्द्रनाथ ठाकुर ने बंग-भंग का विरोध करते समय रक्षाबंधन त्यौहार को बंगाल निवासियों के पारस्परिक भाईचारे तथा एकता का प्रतीक बनाकर इस त्यौहार का राजनीतिक उपयोग आरंभ किया।


राखी से जुड़ी एक मार्मिक घटना क्रांतिकारी चंद्रशेखर आजाद के जीवन की है। आजाद एक बार तूफानी रात में शरण लेने हेतु एक विधवा के घर पहुँचे। पहले तो उसने उन्हें डाकू समझकर शरण देने से मना कर दिया पर यह पता चलने पर कि वह क्रांतिकारी आजाद हैं, ससम्मान उन्हें घर के अंदर ले गई। बातचीत के दौरान आजाद को पता चला कि उस विधवा को गरीबी के कारण जवान बेटी की शादी हेतु काफी परेशानियाँ उठानी पड़ रही हैं तो उन्होंने द्रवित होकर उससे कहा- '' मेरी गिरफ्तारी पर 5000 रूपये का इनाम है, तुम मुझे अंग्रेजों को पकड़वा दो और उस इनाम से बेटी की शादी कर लो।'' यह सुन विधवा रो पड़ी व कहा- ''भैया ! तुम देश की आजादी हेतु अपनी जान हथेली पर रखकर चल रहे हो और न जाने कितनी बहू-बेटियों की इज्जत तुम्हारे भरोसे है। अतः मै ऐसा हरगिज नहीं कर सकती.'' यह कहते हुए उसने एक रक्षा-सूत्र आजाद के हाथों में बाँधकर देश-सेवा का वचन लिया। सुबह जब विधवा की आँखंे खुली तो आजाद जा चुके थे और तकिए के नीचे 5000 रूपये पड़े थे। उसके साथ एक पर्ची पर लिखा था- '' अपनी प्यारी बहन हेतु एक छोटी सी भेंट- आजाद।''


-- कृष्ण कुमार यादव

बुधवार, 10 अगस्त 2011

अपने जन्मदिन का खुशनुमा अहसास...

आज मेरा जन्मदिन है। वाकई इस दिन का महत्त्व भी है, आखिर यह दिन न होता तो फिर दुनिया में कैसे आते. जन्मदिन खुशियाँ भी देता है तो कई बार चिंता में भी डाल देता है कि एक साल और गुजर गए. खैर यही जीवन-चक्र है. आज भी स्कूल के वो दिन याद आते हैं, जब हम साथियों को टाफियाँ बाँटकर जन्म दिन मनाया करते थे। कई बार स्कूल की प्रातः सभा में यह ऐलान भी किया जाता कि आज फलां का जन्मदिन है। कई दोस्त तो सरप्राइज देने के लिए अपने हाथों से बना ग्रीटिंग कार्ड भी सामूहिक रूप से देते थे। जब हम जवाहर नवोदय विद्यालय, जीयनपुर- आजमगढ़ में पढ़ते थे तो कुछ ऐसे ही बर्थडे मनाते थे। इलाहाबाद विश्वविद्यालय में पढ़ने के लिए आये तो बर्थडे का मतलब होता-किसी थियेटर में जाकर बढ़िया फिल्म देखना और शाम को मित्रों के साथ जमकर चिकन-करी खाना। हर मित्र इन्तजार करता कि कब किसी का बर्थडे आये और उसे बकरा बनाया जाय। बर्थडे केक जैसी चीजें तो एक औपचारिकता मात्र होती। ऐसे दोस्त-यार बड़ी काम की चीज होते, जिनकी कोई गर्लफ्रेन्ड होती। ऐसे लोग बर्थडे की शोभा बढ़ाने के लिए जरूर बुलाये जाते। वो बन्धुवर तो हफ्तेभर पहले से ही दोस्तों को समझाता कि यार ध्यान रखना अपनी गर्लफ्रेण्ड के साथ आ रहा हूँ। मेरी इज्जत का जनाजा न निकालना। कुछ भी हो उन बर्थडे का अपना अलग ही मजा था।



जब सरकारी सेवा में आया तो बर्थडे का मतलब भी बदलता गया।



बर्थडे बकायदा एक त्यौहार हो गया और उसी के साथ नये-नये शगल भी पालते गये। बर्थडे केक, रंग-बिरंगे गुब्बारे, खूबसूरत और मंहगे गिफ्ट, किसी बढ़िया होटल का लजीज डिनर और इन सबके बीच सुन्दर परिधानों मे सजा हुआ व्यक्तित्व...कब जीवन का अंग बन गया, पता ही नहीं चला। पहले कभी किसी मित्र या रिश्तेदार का जन्मदिन पर भेजा हुआ ग्रीटिंग कार्ड मिलता था तो बड़ी आत्मीयता महसूस होती थी, पर अब तो सुबह से ही एस0एम0एस0, ई-मेल, फेसबुक पर संदेशों और आरकुटिंग स्क्रैप्स की बौछार आ जाती है। कई लोग तो एक ही मैसेज स्थाई रूप से सेव किये रहते हैं, और ज्यों ही किसी का बर्थडे आया उसे फारवर्ड कर दिया। कभी एक अदद गुलाब ही बर्थडे के लिए काफी था पर अब तो फूलों का पूरा गुच्छा अर्थात बुके का जमाना है। अगली सुबह जब इन बुके को देखिये तो उनका मुरझाया चेहरा देखकर पिछला दिन याद आता है कि कितनी दिल्लगी से ये प्रस्तुत किये गये थे।



वाकई जन्मदिन भी बड़ी आत्मीय चीज है. कई बार यह मुड़कर देखने को मजबूर भी करती है कि पिछले सालों का लेखा-जोखा लिया जाय. पर कुछ भी हो, इस दिन से जुडी इतनी यादें जेहन में बसी हैं कि यह दिन कभी भी नहीं भूल पाता. आप सभी लोगों की आत्मीयता, प्यार और स्नेह हर दिन को और भी खुशनुमा बनाते हैं !!


रविवार, 7 अगस्त 2011

आज का दिन दोस्तों के नाम...

आज फ्रैंडशिप-डे है, सो आज का दिन दोस्तों के नाम. इसी बहाने कुछ पुराने दोस्तों को फोन करके देखा जाय कि वे कहाँ हैं. जिंदगी की इस भागमभाग में दोस्ती के पैमाने भी बदल गए और उनके मायने भी. कई बार याद आते हैं स्कूल के वो दिन जब दोस्ती निभाने की बड़ी-बड़ी कसमें खाते थे, पर आज वो दोस्त कहाँ हैं पता ही नहीं. आर्कुट, फेसबुक जैसी सोशल नेटवर्किंग वेबसाइट्स ने वर्चुअल दोस्तों की एक अच्छी-खासी फ़ौज खड़ी कर दी है, पर प्रोफाइल पर हाय-हेलो के अलावा शायद ही इसका कोई महत्त्व हो. यद्यपि इन सोशल नेटवर्किंग वेबसाइट्स ने उन तमाम दोस्तों से जोड़ने में मदद अवश्य की है जो इधर-उधर बिखरे हुए हैं. खैर, अच्छी दोस्ती का कोई विकल्प नहीं और अच्छे दोस्त जीवन में बहुत कम मिलते हैं...सो, आज का दिन ऐसे ही दोस्तों के नाम !!

सोमवार, 1 अगस्त 2011

प्रकृति के नियम


प्रकृति ने इस धरा पर
जीने के नियम बनाये
साथ ही हर नियम को
किसी न किसी जीव से जोड़ दिया
मुर्गा बांग देकर
सुबह होना बताता है
कौआ मंुडेर पर काँव-काँव कर
पाहुन का आना बताता है
मोर नाच-नाच कर
सावन की बहार बताता है
कोयल कू-कू कर
बसन्त का आगमन बताती है
गौरेया की चीं-चीं
आँगन में खुशियों का
सन्देश लाती है
शायद मानवता का
उनसे कोई गहरा नाता है।