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शुक्रवार, 29 जनवरी 2010

संवेदना की विदाई

कानपुर छोड़कर पोर्टब्लेयर आ चुका हूँ। धीरे-धीरे यहाँ के परिवेश से रु-ब-रु भी होने लगा हूँ। आपके सामने तो सभी आपकी बड़ाई करते हैं, पर आपकी अनुपस्थिति में जब कोई आपके बारे में दो शब्द लिखे तो इतनी दूर बैठकर पढना अच्छा लगता है। कानपुर से मेरे एक शुभचिंतक ने "हेलो कानपुर" अख़बार की एक कटिंग भेजी है। इसके संपादक प्रमोद तिवारी जी चर्चित गज़लकार, कवि और तीखे तेवरों वाले पत्रकारों में गिने जाते हैं। "संवेदना की विदाई" नामक इस लेख को आप भी पढ़ें और अपनी राय से अवगत कराएँ !!

मंगलवार, 26 जनवरी 2010

शुक्रवार, 22 जनवरी 2010

पोर्टब्लेयर से पहली पोस्ट..

प्रिय मित्रों,



अब समय है आपसे खुशखबरी शेयर करने का। प्रोन्नति पश्चात् मैंने आज 22 जनवरी, 2010 को अंडमान-निकोबार दीप समूह के निदेशक(डाक) का पदभार संभाल लिया है।


वाकई यह एक खूबसूरत जगह है, जहाँ आप प्रकृति के सान्निध्य का पूरा लाभ उठा सकते हैं। समुद्र की लहरें यहाँ जब अठखेलियाँ करती हैं तो वो दृश्य देखते ही बनता है। प्रशासन के साथ-साथ हिंदी साहित्य में अभिरुचि रखने के कारण यहाँ मैं अपने साहित्य को भी समृद्ध कर सकूँगा।


पिछले साढ़े चार सालों से मैं कानपुर में विभिन्न पदों पर रहा, और यह एक उचित समय है जब मैं एकाकार जीवन की बजाय अंडमान-निकोबार की विविधता का सपरिवार आनंद उठाऊँ। इससे पूर्व सूरत, लखनऊ और कानपुर में मैंने विभिन्न पदों पर कार्य किया है, पर मुख्य-भूमि से दूर कार्य का यह पहला अनुभव है।


कोशिश करूँगा कि ब्लॉग के माध्यम से यहाँ के अनुभवों को आप सभी के साथ शेयर कर सकूँ. कभी पोर्टब्लेयर आयें तो अवश्य मिलें, ख़ुशी होगी !!


गुरुवार, 21 जनवरी 2010

अगर आप डाकिया होते

कानपुर में साहित्यकारों-बुद्धिजीवियों द्वारा 17 जनवरी, 2010 (रविवार) को आयोजित विदाई-समारोह के दौरान दैनिक जागरण अख़बार में "भाई साहब" स्तम्भ में कार्टून बनाने वाले अंकुश जी ने मेरा एक कार्टून बनाया और कार्यक्रम के दौरान भेंट किया. इसे आप भी देखें और आनंद उठायें. अंकुश जी का आभारी हूँ कि उन्होंने मेरा सुन्दर चित्र बनाकर भेंट किया !!

मंगलवार, 19 जनवरी 2010

कानपुर से अंडमान के सफ़र की तैयारी

जब भी आप किसी जगह से स्थानांतरित/प्रोन्नति होते हैं, तो हमसफ़र साथी भी बड़े जोश के साथ विदाई देते हैं। कुछ को गम होता है तो कुछ ऐसे लोग भी होते हैं जो खुश होते हैं कि चलो इससे छुट्टी मिली। यह मानवीय प्रवृत्ति का परिचायक है। सुख-दुःख, राग-द्वेष जीवन के अभिन्न अंग हैं व्यक्ति एक सफ़र पूरा कर नए के लिए तैयार होता है और साथ में ले जाता है खट्टी-मीठी यादें। वक़्त के साथ नए परिवेश में ढलकर कुछ दिनों तक वहां का हो जाता है, फिर अगले पड़ाव की तैयारी करने लगता है। सरकारी नौकरी का यह तो अभिन्न भाग है फ़िलहाल कानपुर में मेरे अधिकारी साथियों ने मुझे जो प्यार-स्नेह दिया, उसे विस्मृत नहीं कर सकता (यहाँ पर कार्यालय में आयोजित विदाई-समारोह (18 जनवरी, 2010) के कुछ दृश्य आप देख सकते हैं।)

सोमवार, 18 जनवरी 2010

कानपुर से भावभीनी विदाई !!

अंतत: वह दिन (17 जनवरी, 2010) आ ही गया जब कानपुर के साहित्यकारों-बुद्धिजीवियों ने चर्चित कथाकार पद्मश्री गिरिराज किशोर जी की अध्यक्षता में आयोजित एक कार्यक्रम में मुझे औपचारिक रूप से विदाई दी. इसी बहाने जाते-जाते तमाम लोगों से रु-ब-रु भी होने का मौका मिला. पंडित बद्री नारायण तिवारी, डा0 राष्ट्रबंधु, भालचंद्र सेठिया, सूर्य प्रसाद शुक्ल, प्रदीप दीक्षित,गीता सिंह, विकास यादव, इन्द्रपाल सिंह सेंगर, टी0आर0 यादव, सुशील कनोडिया,राजेश वत्स, विमल गौतम, श्यामलाल यादव, अनुराग, शिवशरण त्रिपाठी, विपिन गुप्ता, एस. पी. सिंह, पवन तिवारी, श्री राम तिवारी,एम. एस. यादव, नाज़ अनवरी, शहरोज अनवरी, माधवी सेंगर, अंकुश जी इत्यादि तमाम चिर-परिचित चहरे दिखे. जो नहीं आये उन्होंने फोन पर बात कर विदाई दी. इसके अलावा डाककर्मी, पत्रकार और वो तमाम लोग आये, जिन्होंने यहाँ रहना जरुरी समझा....उन सभी का आभार !!

रविवार, 17 जनवरी 2010

अलविदा कानपुर !!

अंतत: कानपुर का मेरा सफ़र पूरा हुआ. लगभग साढ़े चार साल के पश्चात् अंतत: वो दिन आ ही गया, जब मैं कानपुर से विदा होने की तैयारी करने लगा. जब मैंने अपने केरियर की शुरुआत की थी तो सोचा भी न था कि किसी एक जगह इतने लम्बे समय तक रुकना पड़ेगा. सूरत और लखनऊ के बाद जब मैं कानपुर नियुक्त होकर आया तो लगता था 6 माह बाद किसी नई जगह पर तैनाती पा लूँगा. पर किसने सोचा था कि 6 माह साढ़े चार साल में बदल जायेंगे. कानपुर में मेरे अच्छे अनुभव रहे तो कटु भी, पर कानपुर में मैंने बहुत कुछ सीखा भी. अपने लिए जिंदाबाद से लेकर मुर्दाबाद तक की आवाजें सुनीं. लोगों का प्यार मिला तो उड़ा देने की धमकियाँ भी....पर इन सबके बीच मैं बिंदास चलता रहा. यहीं मेरी 4 पुस्तकें प्रकाशित हुईं तो चलते-चलते जीवन पर भी " बढ़ते चरण शिखर की ओर" नामक पुस्तक देखने को मिली।


चर्चित कथाकार पद्मश्री गिरिराज किशोर जी का सान्निध्य मिला तो मानस संगम के संयोजक पंडित बद्री नारायण तिवारी जी से अपार स्नेह मिला. बाल साहित्यकार डा0 राष्ट्रबंधु जी ने बाल-कविताओं की ओर उन्मुख किया तो मानवती आर्या जी ने भी काफी प्रोत्साहित किया. आचार्य सेवक वात्सयायन, सत्यकाम पाहरिया, दुर्गाचरण मिश्र, कमलेश द्विवेदी, आजाद कानपुरी, शतदल, श्याम सुन्दर निगम, शिवबाबू मिश्र, भालचंद्र सेठिया, सूर्य प्रसाद शुक्ल, हरीतिमा कुमार, प्रभा दीक्षित, दया दीक्षित, प्रमोद तिवारी, अनुराग, देवेन्द्र सफल, शिवशरण त्रिपाठी, विपिन गुप्ता, दयानंद सिंह 'अटल' ,विद्या भास्कर वाजपेयी, मो० गाजी, फिरोज अहमद, सतीश गुप्ता ....जैसे तमाम साहित्यजीवियों से समय-समय पर संबल मिलता रहा. उत्कर्ष अकादमी के निदेशक प्रदीप दीक्षित, देह्दानी दधीची अभियान के संयोजक मनोज सेंगर, सामर्थ्य की संयोजिका गीता सिंह, युवा क्रिकेटर विकास यादव, कवयित्री गीता सिंहचौहान, राष्ट्रपति पुरस्कार प्राप्त प्राचार्या गीता मिश्र , पूर्व बार अध्यक्ष एस. पी. सिंह, पवन तिवारी, श्री राम तिवारी, PIB के एम. एस. यादव, PTI के ज़फर,दलित साहित्यकार के. नाथ ....इन तमाम लोगों से थोडा बाद में परिचय बना, पर प्रगाढ़ता में कोई कमी न रही।

यहीं रहकर ही कादम्बिनी पत्रिका के लिए मैंने आजाद हिंद फ़ौज की कमांडर व राष्ट्रपति का चुनाव लड़ चुकीं पद्मविभूषण कप्तान लक्ष्मी सहगल का साक्षात्कार भी लिया. विख्यात हिंदी उद्घोषक जसदे सिंह से एक कार्यक्रम में हुई मुलाकात व चर्चा अभी भी मेरे मानस पटल पर अंकित है. कानपुर में ही मेरी प्यारी बिटिया अक्षिता का जन्म हुआ, भला कैसे भूलूँगा. पत्नी आकांक्षा की नौकरी भी कानपुर से ही जुडी हुई है. अपने गुरु श्री इन्द्रपाल सिंह सेंगर जी से कानपुर में पुन: मुलाकात हुई. वो बिठूर की धरोहरें, ठग्गू के लड्डू, मोतीझील का सफ़र, रेव थ्री....भला कौन भुला पायेगा. ऐसी ही न जाने कितनी यादें कानपुर से जुडी हुई हैं.....पर हर सफ़र का इक अंत होता है, सो मैं भी अपने नए सफ़र के लिए तैयार हो रहा हूँ....अलविदा कानपुर !!

सोमवार, 11 जनवरी 2010

आदिमानव भी करते थे मेकअप

आधुनिक समय में मेकअप पर लोग काफी ध्यान देते हैं। माना जाता है कि मेकअप से खूबसूरती को और भी निखार मिलता है, पर आपको जानकर आश्चर्य होगा कि आज से करीब 50 हजार साल पहले भी लोग मेकअप करते थे। ब्रिटेन की ब्रिस्टल यूनिवर्सिटी के प्रोफेसर जुओ जिल्हाओ के नेतृतव में हुई इस नई खोज से जुड़े वैज्ञानिकों का दावा है कि उन्हें इस बात के प्रमाण मिल चुके हैं कि हजारों साल पहले के निएंडरथल मानव अपने शरीर को पेंट से सजाते थे। नेशनल एकेडमी ऑफ साइंस में प्रस्तुत इस टीम रिपोर्ट में बताया गया है कि निएंडरथल मानव के मेकअप डिब्बों के अवशेषों से इस बात के प्रमाण मिलते हैं कि वे समुद्र में सीपियों से मेकअप करने का रंग निकालते थे। टीम का यह भी मानना है कि इस खोज के बाद यह पक्ष भी निराधार हो जाता है कि निएंथरडल मानव कम अक्ल के होते थे। यही नहीं इस टीम के सदस्यों ने कुछ समुद्री घोघों के कवच से मिले रंगों और उसके कणों की भी जाँच की है।

प्रोफेसर जिल्हाओ का कहना है कि हालांकि अफ्रीका के कुछ हिस्सों में इस बात के प्रमाण पहले ही मिल चुके थे कि आदि मानव किस तरह से रंगों का उपयोग अपने शरीर पर करते थे। लेकिन इस तरह का प्रमाण पहली बार मिला है कि निएंथरडल मानव इसे अपने मेकअप में बखूबी उपयोग करते थे। वस्तुत: यह सिर्फ बॉडी पेंटिंग नहीं है बल्कि उससे आगे की चीज है। इस शोध से कई धारणाएं भी बदली हैं. वैज्ञानिकों को इस शोध के दौरान पीले और लाल रंग के अवशेष भी मिले हैं। इसको निएंथरडल आदि मानव मेकअप से पहले लगाए जाने वाले फाउंडेशन के रूप में प्रयोग करते थे। इस टीम का ये भी मत है कि संभवत: इस तरह के सीपों और घोघों का प्रयोग ज्वैलरीज के लिए भी होता था। ....तो इस शोध के बाद अब यह नहीं माना जाना चाहिए कि मेकअप और डेकोरेशन का उपयोग आधुनिक युग की देन है.

बुधवार, 6 जनवरी 2010

चिट्ठियाँ हों इन्द्रधनुषी

जयकृष्ण राय तुषार जी इलाहाबाद उच्च न्यायालय में वकालत के पेशे के साथ-साथ गीत-ग़ज़ल लिखने में भी सिद्धहस्त हैं. इनकी रचनाएँ देश की तमाम चर्चित पत्र-पत्रिकाओं में स्थान पाती रहती हैं. मूलत: ग्रामीण परिवेश से ताल्लुक रखने वाले तुषार जी एक अच्छे एडवोकेट व साहित्यकार के साथ-साथ सहृदय व्यक्ति भी हैं. सीधे-सपाट शब्दों में अपनी भावनाओं को व्यक्त करने वाले वाले तुषार जी ने पिछले दिनों डाकिया पर लिखा एक गीत मुझे समर्पित करते हुए भेंट किया. इस खूबसूरत गीत को आपने ब्लॉग के माध्यम से आप सभी के साथ शेयर कर रहा हूँ-

फोन पर
बातें न करना
चिट्ठियाँ लिखना।
हो गया
मुश्किल शहर में
डाकिया दिखना।

चिट्ठियों में
लिखे अक्षर
मुश्किलों में काम आते हैं,
हम कभी रखते
किताबों में इन्हें
कभी सीने से लगाते हैं,
चिट्ठियाँ होतीं
सुनहरे
वक्त का सपना।

इन चिट्ठियों
से भी महकते
फूल झरते हैं,
शब्द
होठों की तरह ही
बात करते हैं
यह हाल सबका
पूछतीं
हो गैर या अपना।

चिट्ठियाँ जब
फेंकता है डाकिया
चूड़ियों सी खनखनाती हैं,
तोड़ती हैं
कठिन सूनापन
स्वप्न आँखों में सजाती हैं,
याद करके
इन्हें रोना या
कभी हँसना।

वक्त पर
ये चिट्ठियाँ
हर रंग के चश्में लगाती हैं,

दिल मिले
तो ये समन्दर
सरहदों के पार जाती हैं,

चिट्ठियाँ हों
इन्द्रधनुषी
रंग भर इतना।

-जयकृष्ण राय तुषार,63 जी/7, बेली कालोनी, स्टेनली रोड, इलाहाबाद, मो0- 9415898913

शुक्रवार, 1 जनवरी 2010

नव वर्ष तुम्हारा स्वागत है

भारतीय संस्कृति में उत्सवों और त्यौहारों का आदि काल से ही महत्व रहा है। हर संस्कार को एक उत्सव का रूप देकर उसकी सामाजिक स्वीकार्यता को स्थापित करना भारतीय लोक संस्कृति की सबसे बड़ी विशेषता रही है। सामान्यतः त्यौहारों का सम्बन्ध किसी न किसी मिथक, धार्मिक मान्यताओं, परम्पराओं और ऐतिहासिक घटनाओं से जुड़ा होता है। प्रसिद्ध दार्शनिक लाओत्से के अनुसार- ‘‘इसकी फिक्र मत करो कि रीति-रिवाज का क्या अर्थ है? रीति-रिवाज मजा देता है, बस काफी है। जिन्दगी को सरल और नैसर्गिक रहने दो, उस पर बड़ी व्याख्यायें मत थोपो।’’
दुनिया के भिन्न-भिन्न भागों में जनवरी माह का प्रथम दिवस नववर्ष के शुभारम्भ के रूप में मनाया जाता है। भारत में भी नववर्ष का शुभारम्भ वर्षा का संदेशा देते मेघ, सूर्य और चंद्र की चाल, पौराणिक गाथाओं और इन सबसे ऊपर खेतों में लहलहाती फसलों के पकने के आधार पर किया जाता है। इसे बदलते मौसमों का रंगमंच कहें या परम्पराओं का इन्द्रधनुष या फिर भाषाओं और परिधानों की रंग-बिरंगी माला, भारतीय संस्कृति ने दुनिया भर की विविधताओं को संजो रखा है। असम में नववर्ष बीहू के रूप में मनाया जाता है, केरल में पूरम विशु के रूप में, तमिलनाडु में पुत्थंाडु के रूप में, आन्ध्र प्रदेश में उगादी के रूप में, महाराष्ट्र में गुड़ीपड़वा के रूप में तो बांग्ला नववर्ष का शुभारंभ वैशाख की प्रथम तिथि से होता है। भारतीय संस्कृति की सबसे बड़ी विशेषता यह है कि यहाँ लगभग सभी जगह नववर्ष मार्च या अप्रैल माह अर्थात चैत्र या बैसाख के महीनों में मनाये जाते हैं। वस्तुतः वर्षा ऋतु की समाप्ति पर जब मेघमालाओं की विदाई होती है और तालाब व नदियाँ जल से लबालब भर उठते हैं तब ग्रामीणों और किसानों में उम्मीद और उल्लास तरंगित हो उठता है। फिर सारा देश उत्सवों की फुलवारी पर नववर्ष की बाट देखता है।
मानव इतिहास की सबसे पुरानी पर्व परम्पराओं में से एक नववर्ष है। नववर्ष के आरम्भ का स्वागत करने की मानव प्रवृत्ति उस आनन्द की अनुभूति से जुड़ी हुई है जो बारिश की पहली फुहार के स्पर्श पर, प्रथम पल्लव के जन्म पर, नव प्रभात के स्वागतार्थ पक्षी के प्रथम गान पर या फिर हिम शैल से जन्मी नन्हीं जलधारा की संगीत तरंगों से प्रस्फुटित होती है। विभिन्न विश्व संस्कृतियाँ इसे अपनी-अपनी कैलेण्डर प्रणाली के अनुसार मनाती हैं। वस्तुतः मानवीय सभ्यता के आरम्भ से ही मनुष्य ऐसे क्षणों की खोज करता रहा है, जहाँ वह सभी दुख, कष्ट व जीवन के तनाव को भूल सके। इसी के तद्नुरूप क्षितिज पर उत्सवों और त्यौहारों की बहुरंगी झांकियाँ चलती रहती हैं।
इतिहास के गर्त में झांकें तो प्राचीन बेबिलोनियन लोग अनुमानतः 4000 वर्ष पूर्व से ही नववर्ष मनाते रहे हैं। यह एक रोचक तथ्य है कि प्राचीन रोमन कैलेण्डर में मात्र 10 माह होते थे और वर्ष का शुभारम्भ 1 मार्च से होता था। बहुत समय बाद 713 ई0पू0 के करीब इसमें जनवरी तथा फरवरी माह जोड़े गये। सर्वप्रथम 153 ई0पू0 में 1 जनवरी को वर्ष का शुभारम्भ माना गया एवं 45 ई0पू0 में जब जूलियन कैलेण्डर का शुभारम्भ हुआ, तो यह सिलसिला बरकरार रहा। 1 जनवरी को नववर्ष मनाने का चलन 1582 ई0 के ग्रेगोरियन कैलेंडर के आरम्भ के बाद ही बहुतायत में हुआ।दुनिया भर में प्रचलित ग्रेगोरियन कैलेंडर को पोप ग्रेगरी अष्टम ने 1582 में तैयार किया था। ग्रेगोरी ने इसमें लीप ईयर का प्रावधान भी किया था। इसाईयों का एक अन्य पंथ ईस्टर्न आर्थोडाॅक्स चर्च रोमन कैलेंडर को मानता है। इस कैलेंडर के अनुसार नया साल 14 जनवरी को मनाया जाता है। यही वजह है कि आर्थोडाक्स चर्च को मानने वाले देशों रूस, जार्जिया, यरूशलम और सर्बिया में नया साल 14 जनवरी को मनाया जाता है। इस्लाम के कैलेंडर को हिजरी साल कहते हैं। इसका नववर्ष मोहर्रम माह के पहले दिन होता है। हिजरी कैलेंडर के बारे में दिलचस्प बात यह है कि इसमें दिनों का संयोजन चंद्रमा की चाल के अनुसार नहीं होता। लिहाजा इसके महीने हर साल करीब 10 दिन पीछे खिसक जाते हैं। चीन का भी कैलेंडर चंद्र गणना पर आधारित है, इसके मुताबिक चीनियों का नया साल 21 जनवरी से 21 फरवरी के मध्य पड़ता है।
भारत में फिलहाल विक्रम संवत, शक संवत, बौद्ध और जैन संवत, तेलगु संवत प्रचलित हंै। इनमें हर एक का अपना नया साल होता है। देश में सर्वाधिक प्रचलित विक्रम और शक संवत है। विक्रम संवत को सम्राट विक्रमादित्य ने शकों को पराजित करने की खुशी में 57 ईसा पूर्व शुरू किया था। विक्रम संवत चैत्र माह के शुक्ल पक्ष की प्रतिपदा से शुरू होता है। इस दिन गुड़ी पड़वा और उगादी के रूप में भारत के विभिन्न हिस्सों में नववर्ष मनाया जाता है।
नववर्ष आज पूरे विश्व में एक समृद्धशाली पर्व का रूप अख्तियार कर चुका है। इस पर्व पर पूजा-अर्चना के अलावा उल्लास और उमंग से भरकर परिजनों व मित्रों से मुलाकात कर उन्हें बधाई देने की परम्परा दुनिया भर में है। अब हर मौके पर ग्रीटिंग कार्ड भेजने का चलन एक स्वस्थ परंपरा बन गयी है पर पहला ग्रीटिंग कार्ड भेजा था 1843 में हेनरी कोल ने। हेनरी कोल द्वारा उस समय भेजे गये 10,000 कार्ड में से अब महज 20 ही बचे हैं। आज तमाम संस्थायंे इस अवसर पर विशेष कार्यक्रम आयोजित करती हैं और लोग दुगुने जोश के साथ नववर्ष में प्रवेश करते हैं। पर इस उल्लास के बीच ही यही समय होता है जब हम जीवन में कुछ अच्छा करने का संकल्प लें, सामाजिक बुराईयों को दूर करने हेतु दृढ़ संकल्प लें और मानवता की राह में कुछ अच्छे कदम और बढ़ायें।