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गुरुवार, 21 अक्तूबर 2010

लघु कथा : पेप्सी-कोला/कृष्ण कुमार यादव


”पेप्सी-.कोला, हाय-हाय!”

” बहुराष्ट्रीय कम्पनियाँ खूनी हैं!”

”बहुराष्ट्रीय कम्पनियाँ-भारत छोड़ो!”

.......के नारों के साथ नौजवानों का एक जुलूस आगे बढ़ा जा रहा था। चैराहे पर प्रेस, टी0वी0 चैनल्स व फोटोग्राफरों का हुजूम देखकर वे और तेजी से नारे लगाने लगे। हर कोई बढ़-चढ़ कर बहुराष्ट्रीय कम्पनियों को गाली देता और अपनी फोटो खिचवाने की फिराक में रहता। कुछ ही देर बाद मीडिया के लोग इस इवेण्ट की कवरेज करके चले गए।

आखिर उनमें से एक बोल पड़ा-‘‘अरे यार! गला सूख रहा है, कुछ ठण्डा-वण्डा मिलेगा कि फ्री में ही नारे लगवाओगे।’’

देखते ही देखते नारे लगाते नौजवान बगल के रेस्टोरेन्ट में घुस गये। बर्गर के साथ पेप्सी-कोला की बोतलें अब गले में तरावट ला रही थीं।

- कृष्ण कुमार यादव : शब्द-सृजन की ओर 

शनिवार, 16 अक्तूबर 2010

दशहरे पर मेला की यादें...


कल दशहरा है. इस दिन का बड़ा इंतजार रहता था कभी. दशहरा आयेगा तो मेला भी होगा और फिर वो जलेबियाँ, चाट, गुब्बारे, बांसुरी, खिलौने...और भी न जाने क्या-क्या. अब तो कहीं भी जाओ ये सभी चीजें हर समय उपलब्ध हैं. पार्क के बाहर खड़े होइए या मार्केट में..गुब्बारे वाला हाजिर. मेले को लेकर पहले से ही न जाने क्या-क्या सपने बुनते थे. राम-लीला की यादें तो अब मानो धुंधली हो गई हैं. घर जाता हूँ तो राम लीला में अभिनय करने वाले लोगों को देखकर अनायास ही पुरानी यादें ताजा हो जाती हैं. एक तरफ दुर्गा पूजा, फिर दीवाली के लिए लक्ष्मी-गणेश की मूर्तियाँ खरीदना इस मेले के अनिवार्य तत्व थे. हमारी लोक-परम्पराएँ, उत्सव और सामाजिकता ..इन सब का मेल होता था मेला. याद कीजिये प्रेमचन्द की कहानी का हामिद, कैसे मेले से अपने माँ के लिए चिमटा खरीद कर लाता है. ऐसे न जाने कितने दृश्य मेले में दिखते थे. जादू वाला, झूले वाला, मदारी, घोड़े वाला, हाथी वाला, सब मेले के बहाने इकठ्ठा हो जाते थे. मानो मेला नहीं, जीवन का खेला हो. मिठाई की दुकानें हफ्ते भर पहले से ही सजने लगती थीं. बिना मिठाई के मेला क्या और जलेबी, रसगुल्ले और चाट की महिमा तो अपरम्पार थी. चारों तरफ बजते लाउडस्पीकर कि अपनी जेब संभल कर चलें, जेबकतरों से खतरा हो सकता है या अमुक खोया बच्चा यहाँ पर है, उसके मम्मी-पापा आकर ले जाएँ. इन मेलों की याद बहुत दिन तक जेहन में कैद रहती थी. मेले में कितने रिश्तेदारों और दोस्तों से मुलाकात हो जाती थी. ऐसा लगता मानो पूरा संसार सिमट कर मेले में समा गया हो.

पर अब न तो वह मेला रहा और न ही उत्साह. आतंक की छाया इन मेलों पर भी दिखाई देने लगी है. हर साल हम रावण का दहन करते हैं, पर अगले साल वह और भी विकराल होकर सामने आता है. मानो हर साल चिढाने आता है कि ये देखो पिछले साल भी मुझे जलाया था, मैं इस साल भी आ गया हूँ और उससे भी भव्य रूप में. यह भी कैसे बेबसी है कि हम हर साल पूरे ताम-झाम के साथ रावण को जलाते हैं और फिर अगले साल वह आकर अट्ठाहस करने लगता है. शायद यह भ्रष्टाचार और अनाचार को समाज में महिमामंडित करने का खेल है.

मेला इस साल भी आयेगा और चला जायेगा. पर इस मेले में ना वह बात रही और न ही सामाजिकता और आत्मीयता.दशहरा शब्द की उत्पत्ति संस्कृत भाषा के शब्द संयोजन "दश" व "हरा" से हुयी है, जिसका अर्थ भगवान राम द्वारा रावण के दस सिरों को काटने व तत्पश्चात रावण की मृत्यु रूप में राक्षस राज के आंतक की समाप्ति से है। यही कारण है कि इस दिन को विजयदशमी अर्थात अन्याय पर न्याय की विजय के रूप में भी मनाया जाता है। काश हर साल दशहरे पर हम प्रतीकात्मक रूप की बजाय वास्तव में अपने और समाज के अन्दर फैले रावण को ख़त्म कर पाते !!

शुक्रवार, 15 अक्तूबर 2010

फक्कड़ कवि थे निराला (पुण्यतिथि 15 अक्तूबर पर विशेष)

निराला सम्भवतः हिन्दी के पहले व अन्तिम कवि हैं, जिनकी लोकप्रियता व फक्कड़पन को कोई दूसरा कवि छू तक नहीं पाया है। निराला से ज्यादा लोकप्रियता सिर्फ कबीर को मिली। यद्यपि अर्थाभाव के कारण निराला को अनेकों कठिनाईयों का सामना करना पड़ा पर न तो वे कभी झुके और न ही अपने उसूलों से समझौता किया। यही कारण है कि उन पर अराजक और आक्रमण होने तक के आरोप लगे, पर वे इन सबसे बेपरवाह अपने फक्कड़पन में मस्त रहे।

महाप्राण सूर्यकान्त त्रिपाठी ‘निराला’ का जन्म बंगाल के मेदिनीपुर में 21 फरवरी 1897 को पं0 रामसहाय त्रिपाठी के पुत्र रूप में हुआ था। कालान्तर में आप इलाहाबाद के दारागंज की तंग गलियों में बस गये और वहीं पर अपने साहित्यिक जीवन के तीस-चालीस वर्ष बिताए। निराला जी गरीबों और शोषितों को प्रति काफी उदार व करूणामयी भावना रखते थे और दूसरों की सहायता के प्रति सदैव तत्पर रहते थे। चाहे वह अपनी पुस्तकों के बदले मिली रायल्टी का गरीबों में बाँटना हो, चाहे सम्मान रूप में मिली धनराशि व शाल जरूरतमंद वृद्धा को दे देना हो, चाहे इलाहाबाद में अध्ययनरत् विद्यार्थियों की जरूरत पड़ने पर सहायता करना हो अथवा एक बैलगाड़ी के एक सरकारी अधिकारी की कार से टकरा जाने पर अधिकारी द्वारा किसान को चाबुकों से पीटा जाना हो और देखते ही देखते निराला द्वारा उक्त अधिकारी के हाथ से चाबुक छीनकर उसे ही पीटना हो। ये सभी घटनायें निराला जी के सम्वेदनशील व्यक्तित्व का उदाहरण कही जा सकती हैं।

जयशंकर प्रसाद, सुमित्रानन्दन पंत और महादेवी वर्मा के साथ छायावाद के सशक्त स्तम्भ रहे निराला ने 1920 के आस-पास कविता लिखना आरम्भ किया और 1961 तक अबाध गति से लिखते रहे। इसमें प्रथम चरण (1920-38) में उन्होंने ‘अनामिका’, ‘परिमल’ व ‘गीतिका’ की रचना की तो द्वितीय चरण (1939-49) में वे गीतों की ओर मुड़ते दिखाई देते हैं। ‘मतवाला’ पत्रिका में ‘वाणी’ शीर्षक से उनके कई गीत प्रकाशित हुए। गीतों की परम्परा में उन्होंने लम्बी कविताएँ लिखना आरम्भ किया तो 1934 में उनकी ‘तुलसीदास’ नामक प्रबंधात्मक कविता सामने आई। इसके बाद तो मित्र के प्रति, सरोज-स्मृति, प्रेयसी, राम की शक्ति-पूजा, सम्राट अष्टम एडवर्ड के प्रति, भिखारी, गुलाब, लिली, सखी की कहानियाँ, सुकुल की बीबी, बिल्लेसुर बकरिहा, जागो फिर एक बार और वनबेला जैसी उनकी अविस्मरणीय कृतियाँ सामने आयीं। निराला ने कलकत्ता पत्रिका, मतवाला, समन्वय इत्यादि पत्रिकाओं का सम्पादन भी किया। राम की शक्ति-पूजा, तुलसीदास और सरोज-स्मृति को निराला के काव्य शिल्प का श्रेष्ठतम उदाहरण माना जाता है। निराला की कविता सिर्फ एक मुकाम पर आकर ठहरने वाली नहीं थी, वरन् अपनी कविताओं में वे अन्त तक संशोधन करते रहते थे। तभी तो उन्होंने लिखा कि- ‘अभी न होगा मेरा अंत/ अभी-अभी तो आया है, मेरे वन मृदुल वसन्त/अभी न होगा मेरा अन्त।’

निराला की रचनाओं में अनेक प्रकार के भाव पाए जाते हैं। यद्यपि वे खड़ी बोली के कवि थे, पर ब्रजभाषा व अवधी में भी कविताएँ गढ़ लेते थे। उनकी रचनाओं में कहीं प्रेम की सघनता है, कहीं आध्यात्मिकता तो कहीं विपन्नों के प्रति सहानुभूति व सम्वेदना, कहीं देश-प्रेम का जज्बा तो कहीं सामाजिक रूढ़ियों का विरोध व कहीं प्रकृति के प्रति झलकता अनुराग। इलाहाबाद में पत्थर तोड़ती महिला पर लिखी उनकी कविता आज भी सामाजिक यथार्थ का एक आईना है। उनका जोर वक्तव्य पर नहीं वरन चित्रण पर था, सड़क के किनारे पत्थर तोड़ती महिला का रेखाकंन उनकी काव्य चेतना की सर्वोच्चता को दर्शाता है - वह तोड़ती पत्थर/देखा उसे मंैने इलाहाबाद के पथ पर/वह तोड़ती पत्थर/कोई न छायादार पेड़/वह जिसके तले बैठी हुयी स्वीकार/श्याम तन, भर बंधा यौवन/नत नयन प्रिय, कर्म-रत मन/गुरू हथौड़ा हाथ/करती बार-बार प्रहार/सामने तरू- मल्लिका अट्टालिका, प्राकार। इसी प्रकार राह चलते भिखारी पर उन्होंने लिखा- पेट-पीठ दोनों मिलकर हैं एक/चल रहा लकुटिया टेक/मुट्ठी भर दाने को, भूख मिटाने को/मुँह फटी पुरानी झोली को फैलाता/दो टूक कलेजे के करता पछताता।

‘राम की शक्ति पूजा’ के माध्यम से निराला ने राम को समाज में एक आदर्श के रूप में प्रस्तुत किया। वे लिखते हैं- होगी जय, होगी जय/हे पुरूषोत्तम नवीन/कह महाशक्ति राम के बदन में हुईं लीन। सौ पदों में लिखी गयी ‘तुलसीदास’ निराला की सबसे बड़ी कविता है, जो कि 1934 में लिखी गयी और 1935 में सुधा के पाँच अंकों में किस्तवार प्रकाशित हुयी। इस प्रबन्ध काव्य में निराला ने पत्नी के युवा तन-मन के आकर्षण में मोहग्रस्त तुलसीदास के महाकवि बनने को बखूबी दिखाया है- जागा, जागा संस्कार प्रबल/रे गया काम तत्क्षण वह जल/देखा वामा, वह न थी, अनल प्रमिता वह/इस ओर ज्ञान, उस ओर ज्ञान/हो गया भस्म वह प्रथम भान/छूटा जग का जो रहा ध्यान।

निराला की रचनाधर्मिता में एकरसता का पुट नहीं है। वे कभी भी बँधकर नहीं लिख पाते थे और न ही यह उनकी फक्कड़ प्रकृति के अनुकूल था। निराला की ‘जूही की कली’ कविता आज भी लोगों के जेहन में बसी है। इस कविता में निराला ने अपनी अभिव्यक्ति को छंदों की सीमा से परे छन्दविहीन कविता की ओर प्रवाहित किया है- विजन-वन वल्लरी पर/सोती थी सुहाग भरी स्नेह स्वप्न मग्न अमल कोमिल तन तरूणी जूही की कली/दृग बंद किये, शिथिल पत्रांक में/वासन्ती निशा थी। यही नहीं, निराला एक जगह स्थिर होकर कविता- पाठ भी नहीं करते थे। एक बार एक समारोह में आकाशवाणी को उनकी कविता का सीधा प्रसारण करना था, तो उनके चारों ओर माइक लगाए गए कि पता नहीं वे घूम-घूम कर किस कोने से कविता पढं़े। निराला ने अपने समय के मशहूर रजनीसेन, चण्डीदास, गोविन्द दास, विवेकानन्द और रवीन्द्र नाथ टैगोर इत्यादि की बंाग्ला कविताओं का अनुवाद भी किया, यद्यपि उन पर टैगोर की कविताओं के अनुवाद को अपना मौलिक कहकर प्रकाशित कराने के आरोप भी लगे। राजधानी दिल्ली को भी निराला ने अपनी कविताओं में अभिव्यक्ति दी- यमुना की ध्वनि में/है गूँजती सुहाग-गाथा/सुनता है अन्धकार खड़ा चुपचाप जहाँ/आज वह ‘फिरदौस’, सुनसान है पड़ा/शाही दीवान, आम स्तब्ध है हो रहा है/ दुपहर को, पाश्र्व में/उठता है झिल्ली रव/ बोलते हैं स्यार रात यमुना-कछार मे/लीन हो गया है रव/शाही अँगनाओं का/निस्तब्ध मीनार, मौन हैं मकबरे।

निराला की मौलिकता, प्रबल भावोद्वेग, लोकमानस के हृदय पटल पर छा जाने वाली जीवन्त व प्रभावी शैली, अद्भुत वाक्य विन्यास और उनमें अन्तर्निहित गूढ़ अर्थ उन्हें भीड़ से अलग खड़ा करते हंै। वसन्त पंचमी और निराला का सम्बन्ध बड़ा अद्भुत रहा और इस दिन हर साहित्यकार उनके सानिध्य की अपेक्षा रखता था। ऐसे ही किन्हीं क्षणों में निराला की काव्य रचना में यौवन का भावावेग दिखा- रोक-टोक से कभी नहीं रूकती है/यौवन-मद की बाढ़ नदी की/किसे देख झुकती है/गरज-गरज वह क्या कहती है, कहने दो/अपनी इच्छा से प्रबल वेग से बहने दो। यौवन के चरम में प्रेम के वियोगी स्वरूप को भी उन्होंने उकेरा- छोटे से घर की लघु सीमा में/बंधे हैं क्षुद्र भाव/यह सच है प्रिय/प्रेम का पयोधि तो उमड़ता है/सदा ही निःसीम भूमि पर।

निराला के काव्य में आध्यात्मिकता, दार्शनिकता, रहस्यवाद और जीवन के गूढ़ पक्षों की झलक मिलती है पर लोकमान्यता के आधार पर निराला ने विषयवस्तु में नये प्रतिमान स्थापित किये और समसामयिकता के पुट को भी खूब उभारा। अपनी पुत्री सरोज के असामायिक निधन और साहित्यकारों के एक गुट द्वारा अनवरत अनर्गल आलोचना किये जाने से निराला अपने जीवन के अन्तिम वर्षों में मनोविक्षिप्त से हो गये थे। पुत्री के निधन पर शोक-सन्तप्त निराला ‘सरोज-स्मृति’ में लिखते हंै- मुझ भाग्यहीन की तू सम्बल/युग वर्ष बाद जब हुयी विकल/दुख ही जीवन की कथा रही/क्या कहूँ आज, जो नहीं कही।

15 अक्टूबर 1961 को अपनी यादें छोड़कर निराला इस लोक को अलविदा कह गये पर मिथक और यथार्थ के बीच अन्तर्विरोधों के बावजूद अपनी रचनात्मकता को यथार्थ की भावभूमि पर टिकाये रखने वाले निराला आज भी हमारे बीच जीवन्त हैं। मुक्ति की उत्कट आकांक्षा उनको सदैव बेचैन करती रही, तभी तो उन्होंने लिखा- तोड़ो, तोड़ो, तोड़ो कारा/पत्थर की, निकलो फिर गंगा-जलधारा/गृह-गृह की पार्वती/पुनः सत्य-सुन्दर-शिव को सँवारती/उर-उर की बनो आरती/भ्रान्तों की निश्चल धु्रवतारा/तोड़ो, तोड़ो, तोड़ो कारा।

सोमवार, 11 अक्तूबर 2010

तंत्र नहीं लोक के नायक थे जे0पी0 (जन्मतिथि 11 अक्टूबर पर विशेष)

भ्रष्टाचार केवल शासन में ही नहीं है, बल्कि वह लोकजीवन के हरेक क्षेत्र में मौजूद है। ऐसी स्थिति में मात्र सत्ता परिवर्तन से जन समस्याओं का हल नहीं होगा, बल्कि इसके लिए व्यवस्था परिवर्तन करना होगा। इस व्यवस्थागत परिवर्तन के बाद ही समतामूलक समाज की स्थापना हो सकती है........यह उद्गार समाजवाद, सर्वोदय से सम्पूर्ण क्रान्ति तक की यात्रा करने वाले जयप्रकाश नारायण के थे, जिन्होंने अपने जीवन में तमाम अवसरों के बावजूद कोई पद स्वीकार नहीं किया। गीता में वर्णित निष्काम कर्म भावना के अनुसार जयप्रकाश नारायण सदैव सक्रिय रहे और सत्ता की कीमत पर कोई भी समझौता नहीं किया। वे लोकतंत्र की उस अवधारण के कायल थेे जो जनता का, जनता के लिए, जनता द्वारा शासन स्थापित करती है। जनमत की आड़ में लोगों की संवेदनाओं को ठुकराकर सत्तातंत्र से येन-केन प्रकरेण चिपके रहने की उन्होंने सदैव मुखालाफत की। जयप्रकाश नारायण के लिए लोकतंत्र में लोक महत्वपूर्ण था न कि तंत्र। इस तंत्र की आड़ में लोक की भावनाओं का तिरस्कार उन्हें कभी मंजूर नहीं था। यही कारण था कि लोगों ने उन्हें ’लोकनायक’ की उपाधि दी।

11 अक्टूबर 1902 को उत्तर प्रदेश व बिहार की संधिस्थल पर स्थित सिताबदियारा (सारण जनपद) गाँव में जयप्रकाश नारायण का जन्म एक सामान्य किसान परिवार में हुआ। बचपन से ही कुशाग्र बुद्धि के मेधावी छात्र रहे जे0पी0 ने 1919 में हाईस्कूल की परीक्षा प्रथम श्रेणी में उत्तीर्ण की। 1921 में जब गाँधी जी द्वारा प्रवर्तित असहयोग आंदोलन चरम पर था, तो जे0पी0 भी इससे अछूते नहीं रह सके और इस आन्दोलन में शामिल होने के लिए न सिर्फ इण्टरमीडिएट की परीक्षा छोड़ दी बल्कि अन्य विद्यार्थियों को भी स्कूल-कालेज छोड़ने के लिए प्रेरित किया। इस बीच उनकी शादी प्रभावती से हो गयी, जिन्होंने जे0पी0 के व्यक्तित्व को एक विस्तार दिया। फरवरी 1922 में चैरीचैरा काण्ड के बाद महात्मा गाँधी ने असहयोग आन्दोलन वापस लेने की घोषणा की और इसके कुछेक महीने बाद ही जे0पी0 आगामी अध्ययन के लिए अमेरिका चले गये। अमेरिका में अध्ययन के लिए उन्होंने वहाँ बूट पालिश करने से लेकर होटलों में जूठे प्लेट धोने और बूचड़खाने तक में काम किया। जे0पी0 ने कठिनाईयों से विचलित होने की बजाय सदैव उनका अवसरों के रूप में उपयोग करना सीखा। इसी अदम्य इच्छाशक्ति के चलते उन्होंने ओहियो विश्वविद्यालय से समाजशास्त्र में स्नाकोत्तर की उपाधि धारण की। मई 1922 से सितम्बर 1929 तक अमेरिका में रहने के पश्चात जे0पी0 भारत लौटे और उस समय स्वतंत्रता संग्राम का पर्याय बन चुके कांग्रेस से जुड़कर आनन्द भवन इलाहाबाद में रहने लगे।1934 के दौरान जे0पी0 ने आचार्य नरेन्द्रदेव, डा0 राममनोहर लोहिया, अशोक मेहता, अच्युत पटवर्धन इत्यादि के साथ कांग्रेस के भीतर समाजवादी विचारों से लैस एक गरम दल बना लिया और वे इसके अगुआ रहे। वस्तुतः जे0पी0 ने एक साथ ही गाँधीवादी और क्रान्तिकारी आन्दोलन की उष्णता महसूस की और दोनों का समन्वय स्वीकार किया।

जे0पी0 ने स्वतंत्रता आन्दोलन में बढ़-चढ़ कर भूमिका निभायी। 1942 में भारत छोड़ो आन्दोलन के दौरान उनका नाम उभरकर सामने आया। इस आन्दोलन की शुरूआत में ही सभी प्रमुख नेताओं को गिरफ्तार कर लिया गया। जे0पी0 को भी गिरफ्तार करके नासिक व हजारीबाग की जेल में रखा गया। पर तूफान को कौन बाँध पाया है, सो हजारीबाग जेल की चहरदीवारी को लांघकर जे0पी0 ’करो या मरो’ भावना से प्रेरित होकर भाग निकले और जेल से बाहर रहकर भारत छोड़ो आन्दोलन को मूर्त रूप दिया। अंग्रेजी हुकूमत के मँुह पर यह एक करारा तमाचा था और इस बात का प्रतीक भी कि अब भारत में अंग्रेजों के दिन गिने-चुने ही रह गये थे। जे0पी0 को पकड़ने के लिए अंग्रेजी हुकूमत ने इनाम की भी घोषणा की, पर जे0पी0 पकड़ में नहीं आये। भारत छोड़ो आन्दोलन के आह्नान के लगभग एक वर्ष बाद जाकर 18 सितम्बर 1943 को लाहौर के पास ट्रेन में नाटकीय अंदाज में जे0पी0 की गिरफ्तारी हुई। अंग्रेजी हुकूमत ने जे0पी0 को जेल में कठोर यातनायें दीं और उन्हें बर्फ की सिल्लियों पर लिटाया गया, पर देशभक्ति का कोई मोल नहीं होता। जे0पी0 को भारत की आजादी का अहसास होने लगा था। 11 अप्रैल 1946 को जब वे जेल से रिहा हुये तो जनमानस ने उनका ’’अगस्त क्रान्ति के नायक’ रूप में जोरदार स्वागत किया।

15 अगस्त 1947 को देश आजाद हो गया। पूरे राष्ट्र के लिए यह हर्ष का विषय था पर जे0पी0 के मन में देश विभाजन की पीड़ा भी थी। जे0पी0 देश विभाजन के घोर विरोधी थे और भारत-पाकिस्तान मित्रता के जबरदस्त पक्षधर। इस बीच स्वतंत्रता आन्दोलन का पर्याय रही कांग्रेस के चरित्र में भी जे0पी0 ने बदलाव महसूस किया। कांग्रेस के चरित्र में उन्हें समतामूलक समाज की बजाय अवसरवादिता और पदलोलुपता की गंध आने लगी। गाँधी जी की हत्या के बाद तो उनका रहा-सहा धैर्य भी जवाब दे गया। इससे आहत होकर बड़ी तल्खी से उन्होंने गृहमंत्री सरदार वल्लभभाई पटेल से इस्तीफे की माँग कर डाली। जे0पी0 की राजनीति में चरित्र था, चालाकी नहीं। यही कारण था कि पं0 जवाहरलाल नेहरू भी उनकी उपेक्षा नहीं कर पाते थे। गृहमंत्री के इस्तीफे के सवाल पर पं0 नेहरू ने आकाशवाणी पर प्रसारित अपने वक्तव्य में मंत्रिमण्डलीय परम्परानुसार सरदार पटेल का बचाव अवश्य किया पर यह कहने से भी नहीं चूके कि -’’जे0पी0 एक दिन देश की तकदीर गढ़ेंगे।’’

गाँधीजी की मौत पश्चात जे0पी0 ने समाजवाद का नारा बुलन्द किया और कांग्रेस सोशलिस्ट पार्टी के गठन द्वारा कांग्रेस के समानान्तर समाजवादी संगठन को बल प्रदान किया। सत्ता की चहरदीवारी से दूर जे0पी0 ने अपने को जनमानस के बीच खड़ा पाया। नवम्बर 1951 में पटना में किसान मार्च का नेतृत्व करते हुए उनकी भावनायें स्पष्ट परिलक्षित हुईं। 1954 में बिनोबा भावे के ‘भूदान आन्दोलन‘ से जे0पी0 जुड़े और अपने जीवनदान की घोषणा करते हुए राजनीति से भी सन्यास ले लिया। सर्वोदयी भावना को अपनाते हुए उन्होंने राजनैतिक परिवर्तन से परे बुनियादी परिवर्तन की सम्भावनाओं को भी टटोला। इसी क्रम में बिनोबा भावे के साथ चम्बल के दुर्दान्त डाकुओं के हृृदय परिवर्तन में भी उन्होंने महत्वपूर्ण भूमिका निभायी। जे0पी0 ने समाज के नवनिर्माण के लिए तमाम रचनात्मक कार्यक्रमों में अवदान दिया और ‘गाँधी विद्या संस्थान‘ (बनारस) जैसी तमाम संस्थायें भी खड़ी कीं। जे0पी0 ने-समाजवाद क्यों, प्रिजन डायरी, सर्वोदय और लोकतंत्र, समाजवाद, फस्र्ट थिंग्स, मेरी विचार-यात्रा, फस्र्ट कांग्रेस सोशलिस्ट, नेशन बिल्डिंग इन इंडिया, संपूर्ण क्रांति के लिए आह्नान, आमने-सामने इत्यादि तमाम चर्चित किताबंे भी लिखीं।

जे0पी0 युवा शक्ति की ताकत को बखूबी महसूूस करते थे। वे जानते थे कि युवा शक्ति के ही कंधों पर भारत का भविष्य टिका हुआ है। दिसम्बर 1973 में पवनार आश्रम से जे0पी0 ने 71 वर्ष की आयु में ’यूथ फार डेमोक्रेसी’ नामक अपील जारी की। यह वह दौर था जब देश में लोकतांत्रिक मूल्यों का गला घोंटने का प्रयास किया जा रहा था। जे0पी0 ने अपील के साथ ही युवाओं के बीच जाकर उनसे सीधा संवाद किया और एक बार फिर राजनैतिक रूप से सक्रिय हुए। नतीजन, युवा शक्ति की तरंगंे देश में हिलोरें मारने लगीं और उद्घोष हुआ- ‘‘सम्पूर्ण क्रान्ति अब नारा है, भावी इतिहास हमारा है।‘‘ गुजरात में युवाओं ने जब आन्दोलन आरम्भ किया तो जे0पी0 उनके बीच पहुँचे और कहा-’’मैं देश के वर्तमान माहौल के बारे में काफी चिन्तित था। मैं अंधेरे में टटोल रहा था और मुझे कोई रास्ता नहीं दिख रहा था। ऐसे समय में गुजरात के युवाओं ने इस आन्दोलन की मशाल जलायी और इसने मुझे प्रकाश दिखाया है।’’ गुजरात का आन्दोलन तो बहुत दिन तक नहीं चला पर इसकी गूँज अन्य प्रान्तों में भी सुनायी दी। इस बीच 12 सूत्रीय माँगों को लेकर फरवरी 1974 में बिहार के छात्र भी आन्दोलनरत हो गये थे। 18 मार्च को विधानसभा के समक्ष छात्रों के सत्याग्रह के दौरान पुलिस ने जमकर लाठीचार्ज किया और गोलियाँ चलायीं। नतीजन, पटना आन्दोलन की आग में जल उठा। इस आन्दोलन के पीछे जे0पी0 की भूमिका को चिन्हित करते हुये सरकार में बैठे लोगों ने तिलमिलाकर उन्हें विदेशी एजेण्ट की संज्ञा दी और मौन जुलूस तक निकालने की इजाजत नहीं दी। बूढ़े जे0पी0 का जवान मन क्रान्ति के लिए तड़प उठा और उन्होंने युवाओं का आह्नान करते हुए कहा-’’डरो मत, अभी मैं जिंदा हूँ।’’ फिर क्या था, जे0पी0 ने भष्टाचार, कालाबाजारी, मुनाफाखोरी, जमाखोरी इत्यादि व्यवस्थागत विसंगतियों पर जमकर प्रहार किये और सच्चे अर्थों में ’लोक’ का राज स्थापित करने के लिए कमर कस ली। 8 अप्रैल 1974 को पटना में जे0पी0 ने मौन जुलूस निकाला और 9 अप्रैल को पटना की एक ऐतिहासिक जनसभा में उन्होंने शान्तिपूर्ण आन्दोलन आरम्भ करने की घोषणा की। जे0पी0 का जादू चल निकला और छात्रों व युवा शक्ति ने उन्हें हाथांे-हाथ लेते हुए ’लोकनायक’ का खिताब दिया। उस समय पटना विश्वविद्यालय के छात्रसंघ अध्यक्ष रहे लालू प्रसाद यादव जैसे तमाम वर्तमान दिग्गज राजनेता जे0पी0 के साथ खड़े थे। देखते ही देखते पूरा बिहार इस आन्दोलन की जद में आ गया और जे0पी0 के पीछे जनमानस उमड़ पड़ा। लोकसत्ता का यह रूप देखकर राजसत्ता बौखला उठी और जे0पी0 पर लाठियाँ बरसीं। इस बीच 12 जून 1975 को इलाहाबाद उच्च न्यायालय ने अपने ऐतिहासिक फैसले में इन्दिरा गाँधी के चुनाव को अवैध करार दे दिया। 23 जून को दिल्ली में संयुक्त विपक्ष के कार्यक्रम को जे0पी0 ने मुख्य वक्ता के रूप में सम्बोधित किया और 25 जून को रामलीला मैदान में ऐतिहासिक जनसभा को सम्बोधित करते हुए उन्होंने राजसत्ता की धज्जियांँ उड़ा कर रख दीं।

73 वर्षीय बूढ़े जे0पी0 की गर्जना राजसत्ता को बर्दाश्त नहीं हुई और 25 जून 1975 को प्रधानमंत्री इन्दिरा गाँधी ने आन्तरिक सुरक्षा को खतरा बताते हुए आपातकाल की घोषणा कर दी। 26 जून को तड़के 4 बजे ही नई दिल्ली के गाँधी शान्ति प्रतिष्ठान में ठहरे जे0पी0 को गिरफ्तार कर लिया गया। लगभग ढाई माह पश्चात जे0पी0 को एक महीने के पेरोल पर 12 नवम्बर को जब रिहा किया गया तो उनका स्वास्थ्य काफी हद तक गिर चुका था। उनके दोनांे गुर्दों ने काम करना बन्द कर दिया था। पर जे0पी0 का यह संघर्ष व्यर्थ नहीं गया और जनवरी 1977 में देश में आम चुनाव की घोषणा हुई। ‘लोकनायक‘ की आवाज लोकमानस तक पहुँची और इन्दिरा गाँधी को रायबरेली लोकसभा सीट से पराजय का मँुह देखना पड़ा। केन्द्र में मोरारजी देसाई के नेतृत्व में जनता पार्टी के नेतृत्व में पहली गैर कांग्रेसी सरकार का गठन हुआ। इस पर जे0पी0 ने कहा-‘‘मेरा काम पूरा हो गया। अब मैं मरना चाहता हूँ‘‘। जे0पी0 का स्वास्थ्य दिनों-ब-दिन गिरता गया और अन्ततः 8 अक्टूबर 1978 को उनका निधन हो गया।

आज जबकि चारों तरफ राजनैतिक पदों के लिए होड़ मची हुई है, सत्ता प्राप्ति के लिए राजनैतिक दल किसी भी स्तर पर उतरने को तैयार हैं, सामाजिक जीवन में शुचिता गौण हो गई है.......ऐसे में जे0पी0 की प्रासंगिकता स्वतः सिद्ध हो जाती है। यह जे0पी0 का लोकमानस के प्रति अटूट प्रेम ही कहा जायेगा कि सरकार गठन के पश्चात भी वे किसी पद या मद में नहीं डूबे। उस दौर में जब लोग उगते सूरज को सलाम कर रहे थे, जे0पी0 सारी पुरानी बातों को भूलकर इन्दिरा गाँधी से मिलने उनके निवास पर गये और उन्हें जनता की सेवा के प्रति और उन्मुख होकर कार्य करने की सलाह दी। उनके मन में किसी के प्रति कोई क्षोभ या दुराग्रह नहीं था। इन्दिरा गाँधी से उन्होंने कहा- ‘‘इन्दु, यही लोकतंत्र है। तुम घबराना मत। जनता की सेवा नहीं छोड़ना। यही सबसे बड़ा धर्म है।‘‘ जे0पी0 के इस महान व्यक्तित्व और राजधर्म निभाने की सलाह पर इन्दिरा गाँधी की आँखे भी छलछला गई थीं, शायद उस समय तक राजनेताओं की आँखों का पानी नहीं मरा था। युवा शक्ति में विश्वास कर जे0पी0 ने युवाओं को न सिर्फ रचनात्मक आन्दोलनों से जोड़ा बल्कि उन्हें उनके अधिकारों के प्रति सचेत भी किया। आज की युवा पीढ़ी जिस प्रकार दिग्भ्रमित होकर नेताओं और राजनैतिक दलांे के चक्कर काटती है और अन्ततः मृगतृष्णा के सिवाय उसे कुछ नहीं प्राप्त होता, ऐसे में जे0पी0 की सोच स्वतः प्रासंगिक हो जाती है। पदों को ठुकराते चले जे0पी0 पर छात्र आन्दोलन में छात्रों को गुमराह करने और अपना स्वार्थ साधने से लेकर पलायनवादी तक के आरोप लगे, पर इन सबसे बेपरवाह जे0पी0 अन्त तक एक नायक के रूप में ‘लोक‘ की लड़ाई लड़ते रहे और एक इतिहास रच गये।

श्री राम शिव मूर्ति यादव

शनिवार, 9 अक्तूबर 2010

अहसास की संजीदगी बरकरार है पत्रों में

पत्रों की दुनिया बेहद निराली है। दुनिया के एक कोने से दूसरे कोने तक यदि पत्र अबाध रूप से आ-जा रहे हैं, तो इसके पीछे ‘यूनिवर्सल पोस्टल‘ यूनियन का बहुत बड़ा योगदान है, जिसकी स्थापना 9 अक्टूबर 1874 को स्विटजरलैंड में हुई थी। यह 9 अक्टूबर पूरी दुनिया में ‘विश्व डाक दिवस‘ के रूप में मनाया जाता है। तब से लेकर आज तक डाक-सेवाओं में वैश्विक स्तर पर तमाम क्रांतिकारी परिवर्तन आए हैं और भारत भी इन परिवर्तनों से अछूता नहीं हैं। संचार क्रान्ति के नए साधनों- टेलीफोन, मोबाइल फोन, इण्टरनेट, फैक्स, वीडियो कान्फं्रेसिंग इत्यादि ने समग्र विश्व को एक ‘ग्लोबल विलेज‘ में परिवर्तित कर दिया। देखते ही देखते फोन नम्बर डायल किया और सामने से इच्छित व्यक्ति की आवाज आने लगी। ई-मेल या एस0एम0एस0 के द्वारा चंद सेकेंडों में अपनी बात दुनिया के किसी भी कोने में पहुँचा दी। वैश्विक स्तर पर पहली बार 1996 में संयुक्त राज्य अमेरिका में ई-मेल की कुल संख्या डाक सेवाओं द्वारा वितरित पत्रों की संख्या को पार कर गई और ऐसे में पत्रों की प्रासंगिकता पर भी प्रश्न चिन्ह लगने लगे।

सभ्यता के आरम्भ से ही मानव किसी न किसी रूप में पत्र लिखता रहा है। दुनिया का सबसे पुराना ज्ञात पत्र 2009 ईसा पूर्व का बेबीलोन के खण्डहरों से मिला था, जोकि वास्तव में एक प्रेम पत्र था और मिट्टी की पटरी पर लिखा गया था। कहा जाता है कि बेबीलोन की किसी युवती का प्रेमी अपनी भावनाओं को समेटकर उससे जब अपने दिल की बात कहने बेबीलोन तक पहुँचा तो वह युवती तब तक वहाँ से जा चुकी थी। वह प्रेमी युवक अपनी भावनाओं पर काबू नहीं रख पाया और उसने वहीं मिट्टी के फर्श पर खोदते हुए लिखा-‘‘मैं तुमसे मिलने आया था, तुम नहीं मिली।‘‘ यह छोटा सा संदेश विरह की जिस भावना से लिखा गया था, उसमें कितनी तड़प शामिल थी। इसका अंदाजा सिर्फ वह युवती ही लगा सकती थी जिसके लिये इसे लिख गया। भावनाओं से ओत-प्रोत यह पत्र 2009 ईसा पूर्व का है और इसी के साथ पत्रों की दुनिया नेे अपना एक ऐतिहासिक सफर पूरा कर लिया है।

जब संचार के अन्य साधन न थे, तो पत्र ही संवाद का एकमात्र माध्यम था। पत्रों का काम मात्र सूचना देना ही नहीं बल्कि इनमें एक अजीब रहस्य या गोपनीयता, संग्रहणीयता, लेखन कला एवं अतीत को जानने का भाव भी छुपा होता है। पत्रों की सबसे बडी विशेषता इनका आत्मीय पक्ष है। यदि पत्र किसी खास का हुआ तो उसे छुप-छुप कर पढ़ने में एवम् संजोकर रखने तथा मौका पाते ही पुराने पत्रों के माध्यम से अतीत में लौटकर विचरण करने का आनंद ही कुछ और है। यह सही है कि संचार क्रान्ति ने चिठ्ठियों की संस्कृति को खत्म करने का प्रयास किया है और पूरी दुनिया को बहुत करीब ला दिया है। पर इसका एक पहलू यह भी है कि इसने दिलों की दूरियाँ इतनी बढ़ा दी हैं कि बिल्कुल पास में रहने वाले अपने इष्ट मित्रों और रिश्तेदारों की भी लोग खोज-खबर नहीं रखते। ऐसे में युवा पीढ़ी के अंदर संवेदनाओं को बचा पाना कठिन हो गया है। तभी तो पत्रों की महत्ता को देखते हुए एन0सी0ई0आर0टी0 को पहल कर कक्षा आठ के पाठ्यक्रम में ‘‘चिट्ठियों की अनोखी दुनिया‘‘ नामक अध्याय को शामिल करना पड़ा।

पत्र लेखन सिर्फ संचार का माध्यम नहीं, बल्कि एक सशक्त विधा है। स्कूलों में जब बच्चों को पत्र लिखना सिखाया जाता है तो अनायास ही वे अपने माता-पिता, रिश्तेदारों या मित्रों को पत्र लिखने का प्रयास करने लगते हैं। पत्र सदैव सम्बंधों की उष्मा बनाये रखते हैं। पत्र लिखने का सबसे बड़ा फायदा यह है कि इसमें कोई जल्दबाजी या तात्कालिकता नहीं होती, यही कारण है कि हर छोटी से छोटी बात पत्रों में किसी न किसी रूप में अभिव्यक्त हो जाती है जो कि फोन या ई-मेल द्वारा सम्भव नहीं है। पत्रों की सबसे बड़ी विशेषता इनका स्थायित्व है। कल्पना कीजिये जब अपनी पुरानी किताबों के बीच से कोई पत्र हम अचानक पाते हैं, तो लगता है जिन्दगी मुड़कर फिर वहीं चली गयी हो। जैसे-जैसे हम पत्रोें को पलटते हैं, सम्बन्धों का एक अनंत संसार खुलता जाता है। व्यक्ति पत्र तात्कालिक रूप से भले ही जल्दी-जल्दी पढ़ ले पर फिर शुरू होती है-एकान्त की खोज और फिर पत्र अगर किसी खास के हों तो सम्बन्धों की पवित्र गोपनीयता की रक्षा करते हुए उसे छिप-छिप कर बार-बार पढ़ना व्यक्ति को ऐसे उत्साह व ऊर्जा से भर देता है, जहाँ से उसके कदम जमीं पर नहीं होते। वह जितनी ही बार पत्र पढ़ता है, उतने ही नये अर्थ उसके सामने आते हैं।

सिर्फ साधारण व्यक्ति ही नहीं बल्कि प्रतिष्ठित व्यक्तियों ने भी पत्रों के अंदाज को जिया है। माक्र्स-एंजिल्स के मध्य ऐतिहासिक मित्रता का सूत्रपात पत्रों से ही हुआ। अमेरिका के तत्कालीन राष्ट्रपति अब्राहम लिंकन ने उस स्कूल के प्राचार्य को पत्र लिखा, जिसमें उनका पुत्र अध्ययनरत था। इस पत्र में उन्होंने प्राचार्य से अनुरोध किया था कि उनके पुत्र को वे सारी शिक्षायें दी जाय, जो कि एक बेहतर नागरिक बनने हेतु जरूरी हैं। इसमें किसी भी रूप में उनका पद आडे़ नहीं आना चाहिये। महात्मा गाँधी तो पत्र लिखने में इतने सिद्धहस्त थे कि दाहिने हाथ के साथ-साथ वे बाएं हाथ से भी पत्र लिखते थे। पं0 जवाहर लाल नेहरू अपनी पुत्री इन्दिरा गाँधी को जेल से भी पत्र लिखते रहे। ये पत्र सिर्फ पिता-पुत्री के रिश्तों तक सीमित नहीं हैं, बल्कि इनमें तात्कालिक राजनैतिक एवं सामाजिक परिवेश का भी सुन्दर चित्रण है। इन्दिरा गाँधी के व्यक्तित्व को गढ़ने में इन पत्रों का बहुत बड़ा हाथ रहा है। आज ये किताब के रूप में प्रकाशित होकर ऐतिहासिक दस्तावेज बन चुके हैं। इन्दिरा गाँधी ने इस परम्परा को जीवित रखा एवं दून में अध्ययनरत अपने बेटे राजीव गाँधी को घर की छोटी-छोटी चीजों और तात्कालिक राजनैतिक-सामाजिक परिस्थितियों के बारे में लिखती रहीं। एक पत्र में तो वे राजीव गाँधी को रीवा के महाराज से मिले सौगातों के बारे में भी बताती हैं। तमाम राजनेताओं-साहित्यकारों के पत्र समय-समय पर पुस्तकाकार रूप में प्रकाशित होते रहते हैं। इनसे न सिर्फ उस व्यक्ति विशेष के संबंध में जाने-अनजाने पहलुओं का पता चलता है बल्कि तात्कालिक राजनैतिक-सामाजिक-साहित्यिक-सांस्कृतिक परिवेश के संबंध में भी बहुत सारी जानकारियाँ प्राप्त होती हैं। इसी ऐतिहासिक के कारण आज भी पत्रों की नीलामी लाखों रूपयों में होती हैं।

कहते हैं कि पत्रों का संवेदनाओं से गहरा रिश्ता है और यही कारण है कि पत्रों से जुड़े डाक विभाग ने तमाम प्रसिद्ध विभूतियों को पल्लवित-पुष्पित किया है। अमेरिका के राष्ट्रपति रहे अब्राहम लिंकन पोस्टमैन तो भारत में पदस्थ वायसराय लार्ड रीडिंग डाक वाहक रहे। विश्व प्रसिद्ध वैज्ञानिक व नोबेल पुरस्कार विजेता सी0वी0 रमन भारतीय डाक विभाग में अधिकारी रहे वहीं प्रसिद्ध साहित्यकार व ‘नील दर्पण‘ पुस्तक के लेखक दीनबन्धु मित्र पोस्टमास्टर थे। ज्ञानपीठ पुरस्कार से सम्मानित लोकप्रिय तमिल उपन्यासकार पी0वी0अखिलंदम, राजनगर उपन्यास के लिए साहित्य अकादमी पुरस्कार से सम्मानित अमियभूषण मजूमदार, फिल्म निर्माता व लेखक पद्मश्री राजेन्द्र सिंह बेदी, मशहूर फिल्म अभिनेता देवानन्द डाक कर्मचारी रहे हैं। उपन्यास सम्राट प्रेमचन्द जी के पिता अजायबलाल डाक विभाग में ही क्लर्क रहे। ज्ञानपीठ पुरस्कार विजेता मशहूर लेखिका महाश्वेता देवी ने आरम्भ में डाक-तार विभाग में काम किया था तो प्रसिद्ध बाल साहित्यकार डा0 राष्ट्रबन्धु भी पोस्टमैन रहे। सुविख्यात उर्दू समीक्षक पद्मश्री शम्सुररहमान फारूकी, शायर कृष्ण बिहारी नूर, महाराष्ट्र के प्रसिद्ध किसान नेता शरद जोशी सहित तमाम विभूतियाँ डाक विभाग की गोद में अपनी सृजनात्मक-रचनात्मक काया का विस्तार पाने में सफल रहीं।

भारतीय परिपे्रक्ष्य में इस तथ्य से इन्कार नहीं किया जा सकता कि भारत एक कृषि प्रधान एवं ग्रामीण अर्थव्यवस्था वाला देश है, जहाँ 70 फीसदी आबादी गाँवों में बसती है। समग्र टेनी घनत्व भले ही 60 का आंकड़ा छूने लगा हो पर ग्रामीण क्षेत्रों में यह बमुश्किल 15 से 20 फीसदी ही है। यदि हर माह 2 करोड़ नए मोबाइल उपभोक्ता पैदा हो रहे हैं तो उसी के सापेक्ष डाक विभाग प्रतिदिन दो करोड़ से ज्यादा डाक वितरित करता है। 1985 में यदि एस0एम0एस0 पत्रों के लिए चुनौती बनकर आया तो उसके अगले ही वर्ष दुतगामी ‘स्पीड पोस्ट‘ सेवा भी आरम्भ हो गई। यह एक सुखद संकेत है कि डाक-सेवाएं नवीनतम टेक्नाॅलाजी का अपने पक्ष में भरपूर इस्तेमाल कर रही हैं। ‘ई-मेल‘ के मुकाबले ‘ई-पोस्ट‘ के माध्यम से डाक विभाग ने डिजिटल डिवाइड को भी कम करने की मुहिम छेड़ी है। आखिरकार अपने देश में इंटरनेट प्रयोक्ता महज 7 फीसदी हंै। आज डाकिया सिर्फ सिर्फ पत्र नहीं बांटता बलिक घरों से पत्र इकट्ठा करने और डाक-स्टेशनरी बिक्री का भी कार्य करता है। समाज के हर सेक्टर की जरूरतों के मुताबिक डाक-विभाग ने डाक-सेवाओं का भी वर्गीकरण किया है, मसलन बल्क मेलर्स के लिए बिजनेस पोस्ट तो कम डाक दरों के लिए बिल मेल सेवा उपलब्ध है। पत्रों के प्रति क्रेज बरकरार रखने के लिए खुश्बूदार डाक-टिकट तक जारी किए गए हैं। आई0टी0 के इस दौर में चुनौतियों का सामना करने के हेतु डाक विभाग अपनी ब्रांडिंग भी कर रहा है। ‘प्रोजेक्ट एरो‘ के तहत डाकघरों का लुक बदलने से लेकर काउंटर सेवाओं, ग्राहकों के प्रति व्यवहार, सेवाओं को समयानुकूल बनाने जैसे तमाम कदम उठाए गए हैं। इस पंचवर्षीय योजना में डाक घर कोर बैंकिंग साल्यूशन के तहत एनीव्हेयर, एनी टाइम, एनीब्रांच बैंकिंग भी लागू करने जा रहा है। सिम कार्ड से लेकर रेलवे के टिकट और सोने के सिक्के तक डाकघरों के काउंटरों पर खनकने लगे हैं और इसी के साथ डाकिया डायरेक्ट पोस्ट के तहत पम्फ्लेट इत्यादि भी घर-घर जाकर बांटने लगा है। पत्रों की मनमोहक दुनिया अभी खत्म नहीं हुई है। तभी तो अन्तरिक्ष-प्रवास के समय सुनीता विलियम्स अपने साथ भगवद्गीता और गणेशजी की प्रतिमा के साथ-साथ पिताजी के हिन्दी में लिखे पत्र ले जाना नहीं भूलती। हसरत मोहानी ने यूँ ही नहीं लिखा था-

लिक्खा था अपने हाथों से जो तुमने एक बार।
अब तक हमारे पास है वो यादगार खत ।।

(विश्व डाक दिवस पर लिखा यह लेख आकाशवाणी पोर्टब्लेयर से प्रसारित)

बुधवार, 6 अक्तूबर 2010

अस्तित्व के लिए जूझते अंडमान के आदिवासी

भारत सरकार ने 29 सितम्बर को 10 आदिवासियों को 12 अंकों वाली विशिष्ट पहचान संख्या सौंप कर बहुचर्चित ‘आधार‘ परियोजना के शुभारंभ की घोषणा की। पर यह हैरतअंगेज है कि जिसे हर भारतीय की पहचान के लिए पहल रूप में देखा जा रहा है उससे अण्डमान-निकोबार द्वीप समूह के आदिवासी महरूम रहेंगे। दुनिया की सबसे पुरानी जनजातियों में शामिल यहाँ के आदिवासियों को सरकार का यह बयान मानो चिढ़ाता है कि विशिष्ट संख्या जारी करना नए आधुनिक भारत का संकेत देता है। हर आदिवासी के मन में यह सवाल उठता है कि क्या वे आधुनिक भारत नहीं बल्कि पाषणकालीन भारत के अवशेष हैं। आखिर सरकार इनके कल्याण के लिए क्यों नहीं सोचती ?

ग्रेट अंडमानीज जिन्होंने कभी अंग्रेज हुकूमत को ललकारा था, आज 43 पर सिमट गए हैं। ओंगी (96), जारवा (240), शोम्पेन (398) व सेंटीनली की संख्या मात्र 39 बची है। सरकार इन्हें भोजन दे रही है, पर यह भोजन ही उनके शरीर का क्षय कर रही है। आखिर बैठे-बैठे भोजन किसे अच्छा नहीं लगता, पर इस भोजन ने उनकी शिकार-प्रवृत्ति को ख़त्म कर काफी हद तक कमजोर भी बना दिया है. इसी के साथ उनके अन्दर तमाम रोगों और बुराइयों का भी प्रवेश हो रहा है, नतीजन संक्रमणकालीन अवस्था के बीच वे रोज अपनी जिंदगी के दिन गिन रहे हैं. इनमें से सेंटीनली आदिवासियों से तो अभी आत्मीय संपर्क तक नहीं हो सका है। जारवा लोगों के कौतुहल का केंद्र-बिंदु बने हुए हैं और इनके नाम पर पर्यटन का धंधा भी अच्छा चल रहा है। सुबह और शाम वे पोर्टब्लेयर से बाराटांग जानी वाली रोड के किनारे खड़े होकर पर्यटकों से बिस्कुट और अन्य खाने की वस्तुओं की मांग करते हैं। लोग गाड़ियाँ रोकते हैं, जारवाओं को खाद्य-सामग्री व कभी-कभी कपड़े देते हैं और बदले में उनकी तस्वीरों को कैद कर लेते हैं। अभी भी पाषाण काल में जी रहे जारवा कई बार पें-पे (पैसे ) की मांग भी करते हैं और न मिलने पर कैमरा इत्यादि लेकर भाग जाते हैं। जारवा-महिलाएं सजधजकर सड़कों के किनारे छुपी रहती हैं और मौका पाकर अचानक गाड़ियों पर झपट्टा मारकर खाद्य-सामग्री लेकर जंगलों में कूद जाती हैं। समस्या यह है कि जारवा मुख्यधारा में तो आना चाहते हैं, पर सरकार उन्हें उनकी सीमाओं में ही कैद रखना चाहती है। अचूक निशानेबाजी उनका लक्षण है पर उनके इलाके के बीच दौड़ रही सड़क और तथाकथित सभ्य जन उन्हें भयभीत करते हैं। पेट की भूख शांत करने के लिए वे पर्यटकों के सामने हाथ फैलाते हैं तो पर्यटक उनकी फोटोग्राफ कैद करने के लिए लालची बना रहे हैं।

पता नहीं सरकारों को कब समझ आएगा कि अण्डमान-निकोबार के आदिवासी भी आधुनिक भारत का अंग हैं। द्वीपों में अक्सर विदेशियों द्वारा घुसपैठ बढ़ रही है, डर लगता है कहीं वे इन्हें भी न बरगलाने लगें। मुख्यभूमि के आदिवासियों पर नक्सलवाद-माओवाद के आरोप लगाए जा रहे हैं, शुक्र है यहाँ के आदिवासी इन सबसे बचे हुए हैं। पर उनकी लगातार अनदेखी कठिनाईयाँ भी पैदा कर सकती हैं। शिकार के अभाव में कमजोर होते इन आदिवासियों की जनसंख्या वैसे भी विलुप्त होने के कगार पर है, पर हर भारतीय की पहचान के लिए पहल करती सरकार यदि इनकी पहचान व अस्तित्व-रक्षा के लिए भी प्रबंध करती तो बेहतर होता। अन्यथा, अभी तक तो ये उस आधुनिक भारत से कोसों दूर हैं, जहाँ प्रतीकात्मक रूप में आदिवासियों के नाम पर हो रही हलचल को समझने का प्रयास किया जा रहा है।

दुर्भाग्यवश अण्डमान-निकोबार के आदिवासियों को मतदान का अधिकार भी नहीं है। वे भारतीय संविधान में 18 वर्ष से ऊपर की आयु के हर व्यक्ति को मतदान के अधिकार के अपवाद हैं....? यदि समय रहते सरकार ने इन्हें मुख्यधारा से जोड़कर इनका वाजिब हक नहीं दिया तो फिर इन्हें भी गलत रास्तों पर जाने से रोकना दुःस्साध्य होगा।

(चित्र में सड़क किनारे कड़ी जारवा महिला और हाथ में बिस्कुट और तीर-धनुष लिए जारवा पुरुष)

शनिवार, 2 अक्तूबर 2010

हे राम...


गुजरात-दंगों के दौरान यह कविता मैंने लिखी थी. गौरतलब है कि गुजरात, गाँधी जी की जन्मस्थली भी है. आज गाँधी-जयंती पर इसे ही यहाँ प्रस्तुत कर रहा हूँ-

एक बार फिर
गाँधी जी खामोश थे
सत्य और अहिंसा के प्रणेता
की जन्मस्थली ही
सांप्रदायिकता की हिंसा में
धू-धू जल रही थी
क्या इसी दिन के लिए
हिन्दुस्तान व पाक के बंटवारे को
जी पर पत्थर रखकर स्वीकारा था!
अचानक उन्हें लगा
किसी ने उनकी आत्मा
को ही छलनी कर दिया
उन्होंने ‘हे राम’ कहना चाहा
पर तभी उन्मादियों की एक भीड़
उन्हें रौंदती चली गई।