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रविवार, 27 सितंबर 2009

विजय का पर्व : दशहरा

दशहरा पर्व भारतीय संस्कृति में सबसे ज्यादा बेसब्री के साथ इंतजार किये जाने वाला त्यौहार है। दशहरा शब्द की उत्पत्ति संस्कृत भाषा के शब्द संयोजन " दश" व "हरा" से हुयी है, जिसका अर्थ भगवान राम द्वारा रावण के दस सिरों को काटने व तत्पश्चात रावण की मृत्यु रूप मंे राक्षस राज के आंतक की समाप्ति से है। यही कारण है कि इस दिन को विजयदशमी अर्थात अन्याय पर न्याय की विजय के रूप में भी मनाया जाता है। दशहरे से पूर्व हर वर्ष शारदीय नवरात्र के समय मातृरूपिणी देवी नवधान्य सहित पृथ्वी पर अवतरित होती हैं- क्रमशः शैलपुत्री, ब्रह्मचारिणी, चंद्रघंटा, कूष्मांडा, स्कंदमाता, कात्यायनी, कालरात्रि, महागौरी व सिद्धिदात्री रूप में मांँ दुर्गा की लगातार नौ दिनांे तक पूजा होती है। ऐसी मान्यता है कि नवरात्र के अंतिम दिन भगवान राम ने चंडी पूजा के रूप में माँ दुर्गा की उपासना की थी और मांँ ने उन्हें युद्ध में विजय का आशीर्वाद दिया था। इसके अगले ही दिन दशमी को भगवान राम ने रावण का अंत कर उस पर विजय पायी, तभी से शारदीय नवरात्र के बाद दशमी को विजयदशमी के रूप में मनाया जाता है और आज भी प्रतीकात्मक रूप में रावण-पुतला का दहन कर अन्याय पर न्याय के विजय की उद्घोषणा की जाती हेै।

भारत विविधताओं का देश है, अतः उत्सवों और त्यौहारों को मनाने में भी इस विविधता के दर्शन होते हैं। हिमाचल प्रदेश में कुल्लू का दशहरा काफी लोकप्रिय है। एक हते तक चलने वाले इस पर्व पर आसपास के बने पहाड़ी मंदिरों से भगवान रघुनाथ जी की मूर्तियाँ एक जुलूस के रूप में लाकर कुल्लू के मैदान में रखी जाती हैं और श्रद्धालु नृत्य-संगीत के द्वारा अपना उल्लास प्रकट करते हैं। मैसूर (कर्नाटक) का दशहरा अंतर्राष्ट्रीय स्तर पर चर्चित है। वाड्यार राजाओं के काल में आरंभ इस दशहरे को अभी भी शाही अंदाज में मनाया जाता है और लगातार दस दिन तक चलने वाले इस उत्सव में राजाओं का स्वर्ण -सिंहासन प्रदर्शित किया जाता है। सुसज्जित तेरह हाथियों का शाही काफिला इस दशहरे की शान है। आंध्र प्रदेश के तिरूपति (बालाजी मंदिर) में शारदीय नवरात्र को ब्रह्मेत्सवम् के रूप में मनाया जाता है। ऐसी मान्यता है कि इन नौ दिनों के दौरान सात पर्वतों के राजा पृथक-पृथक बारह वाहनों की सवारी करते हैं तथा हर दिन एक नया अवतार लेते हैं। इस दृश्य के मंचन और साथ ही ष्चक्रस्नानष् (भगवान के सुदर्शन चक्र की पुष्करणी में डुबकी) के साथ आंध्र में दशहरा सम्पन्न होता है। केरल में दशहरे की धूम दुर्गा अष्टमी से पूजा वैपू के साथ आरंभ होती है। इसमें कमरे के मध्य में सरस्वती माँ की प्रतिमा सुसज्जित कर आसपास पवित्र पुस्तकें रखी जाती हैं और कमरे को अस्त्रों से सजाया जाता है। उत्सव का अंत विजयदशमी के दिन ष्पूजा इदप्पुष् के साथ होता है। महाराज स्वाथिथिरूनाल द्वारा आरंभ शास्त्रीय संगीत गायन की परंपरा यहाँ आज भी जीवित है। तमिलनाडु में मुरगन मंदिर में होने वाली नवरात्र की गतिविधयाँ प्रसिद्ध हंै। गुजरात मंे दशहरा के दौरान गरबा व डांडिया-रास की झूम रहती है। मिट्टी के घडे़ में दीयों की रोशनी से प्रज्वलित ष्गरबोष् के इर्द-गिर्द गरबा करती महिलायें इस नृत्य के माध्यम से देवी का आह्मन करती हैं। गरबा के बाद डांडिया-रास का खेल खेला जाता है। ऐसी मान्यता है कि माँ दुर्गा व राक्षस महिषासुर के मध्य हुए युद्ध में माँ ने डांडिया की डंडियों के जरिए महिषासुर का सामना किया था। डांडिया-रास के माध्यम से इस युद्ध को प्रतीकात्मक रूप मे दर्शाया जाता है।
भारत त्यौहारों का देश है और हर त्यौहार कुछ न कुछ संदेश देता है-बन्धुत्व भावना, सामाजिक समरसता, सांस्कृतिक तारतम्य, सभ्यताओं की खोज एवं अपने अतीत से जुडे़ रहने का सुखद अहसास। त्यौहार का मतलब ही होता है सारे गिले-शिकवे भूलकर एक नए सिरे से दिन का आगाज। त्यौहारों को मनाने के तरीके अलग हो सकते हैं पर उद्देश्य अंततः मेल-जोल एवं बंधुत्व की भावना को बढ़ाना ही है। त्यौहार सामाजिक सदाशयता के परिचायक हैं न कि हैसियत दर्शाने के। त्यौहार हमें जीवन के राग-द्वेष से ऊपर उठाकर एक आदर्श समाज की स्थापना में मदद करते हैं। समाज के हर वर्ग के लोगों को एक साथ मेल-जोल और भाईचारे के साथ बिठाने हेतु ही त्यौहारों का आरम्भ हुआ। यह एक अलग तथ्य है कि हर त्यौहार के पीछे कुछ न कुछ धार्मिक मान्यताएं, मिथक, परम्पराएं और ऐतिहासिक घटनाएं होती हैं पर अंततः इनका उद््देश्य मानव-कल्याण ही होता है।

शुक्रवार, 25 सितंबर 2009

तुलसीदास ने आरंभ की रामलीला

भारतीय संस्कृति में कोई भी उत्सव व्यक्तिगत नहीं वरन् सामाजिक होता है। यही कारण है कि उत्सवों को मनोरंजनपूर्ण व शिक्षाप्रद बनाने हेतु एवं सामाजिक सहयोग कायम करने हेतु इनके साथ संगीत, नृत्य, नाटक व अन्य लीलाओं का भी मंचन किया जाता है। यहाँ तक कि भरतमुनि ने भी नाट्यशास्त्र में लिखा है कि- "देवता चंदन, फूल, अक्षत, इत्यादि से उतने प्रसन्न नहीं होते, जितना कि संगीत नृत्य और नाटक से होते हैं।''

सर्वप्रथम राम चरित मानस के रचयिता गोस्वामी तुलसीदास ने भगवान राम के जीवन व शिक्षाओं को जन-जन तक पहुँचाने के निमित्त बनारस में हर साल रामलीला खेलने की परिपाटी आरम्भ की। एक लम्बे समय तक बनारस के रामनगर की रामलीला जग-प्रसिद्ध रही, कालांतर में उत्तर भारत के अन्य शहरों में भी इसका प्रचलन तेजी से बढ़ा और आज तो रामलीला के बिना दशहरा ही अधूरा माना जाता है। यहाँ तक कि विदेशों मे बसे भारतीयों ने भी वहाँ पर रामलीला अभिनय को प्रोत्साहन दिया और कालांतर में वहाँ के स्थानीय देवताओं से भगवान राम का साम्यकरण करके इंडोनेशिया, कम्बोडिया, लाओस इत्यादि देशों में भी रामलीला का भव्य मंचन होने लगा, जो कि संस्कृति की तारतम्यता को दर्शाता है।

मंगलवार, 22 सितंबर 2009

जगप्रसिद्ध है बंगाल की दुर्गा पूजा

नवरात्र और दशहरे की बात हो और बंगाल की दुर्गा-पूजा की चर्चा न हो तो अधूरा ही लगता है। वस्तुतः दुर्गापूजा के बिना एक बंगाली के लिए जीवन की कल्पना भी व्यर्थ है। बंगाल में दशहरे का मतलब रावण दहन नहीं बल्कि दुर्गा पूजा होती है, जिसमें माँ दुर्गा को महिषासुर का वध करते हुए दिखाया जाता है। मान्यताओं के अनुसार नौवीं सदी में बंगाल में जन्मे बालक व दीपक नामक स्मृतिकारों ने शक्ति उपासना की इस परिपाटी की शुरूआत की। तत्पश्चात दशप्रहारधारिणी के रूप में शक्ति उपासना के शास्त्रीय पृष्ठाधार को रघुनंदन भट्टाचार्य नामक विद्वान ने संपुष्ट किया। बंगाल में प्रथम सार्वजनिक दुर्गा पूजा कुल्लक भट्ट नामक धर्मगुरू के निर्देशन में ताहिरपुर के एक जमींदार नारायण ने की पर यह समारोह पूर्णतया पारिवारिक था। बंगाल के पाल और सेनवशियों ने दूर्गा-पूजा को काफी बढ़ावा दिया। प्लासी के युद्ध (1757) में विजय पश्चात लार्ड क्लाइव ने ईश्वर के प्रति कृतज्ञता व्यक्त करने हेतु अपने हिमायती राजा नव कृष्णदेव की सलाह पर कलकत्ते के शोभा बाजार की विशाल पुरातन बाड़ी में भव्य स्तर पर दुर्गा-पूजा की। इसमें कृष्णानगर के महान चित्रकारों और मूर्तिकारों द्वारा निर्मित भव्य मूर्तियाँ बनावाई गईं एवं वर्मा और श्रीलंका से नृत्यांगनाएं बुलवाई गईं। लार्ड क्लाइव ने हाथी पर बैठकर इस समारोह का आनंद लिया। राजा नवकृष्ण देव द्वारा की गई दुर्गा-पूजा की भव्यता से लोग काफी प्रभावित हुए व अन्य राजाओं, सामंतों व जमींदारों ने भी इसी शैली में पूजा आरम्भ की। सन् 1790 में प्रथम बार राजाओं, सामंतो व जमींदारों से परे सामान्य जन रूप में बारह ब्राहमणों ने नदिया जनपद के गुप्ती पाढ़ा नामक स्थान पर सामूहिक रूप से दुर्गा-पूजा का आयोजन किया, तब से यह धीरे-धीरे सामान्य जनजीवन में भी लोकप्रिय होता गया।

बंगाल के साथ-साथ बनारस की दुर्गा पूजा भी जग प्रसिद्ध है। इसका उद्भव प्लासी के युद्ध (1757) पश्चात बंगाल छोड़कर बनारस में बसे पुलिस अधिकारी गोविंदराम मित्र (डी0एस0 पी0) के पौत्र आनंद मोहन ने 1773 में बनारस के बंगाल ड्यौड़ी में किया। प्रारम्भ में यह पूजा पारिवारिक थी पर बाद मे इसने जन-समान्य में व्यापक स्थान पा लिया। आज दुर्गा पूजा दुनिया के कई हिस्सों में आयोजित की जाती है। लंदन में प्रथम दुर्गा पूजा उत्सव 1963 में मना, जो अब एक बड़े समारोह में तब्दील हो चुका है।

सोमवार, 14 सितंबर 2009

बदल रही है हिन्दी


आज हिन्दी भारत ही नहीं वरन् पाकिस्तान, नेपाल, बांग्लादेश, इराक, इंडोनेशिया, इजरायल, ओमान, फिजी, इक्वाडोर, जर्मनी, अमेरिका, फ्रांस, ग्रीस, ग्वाटेमाला, सउदी अरब, पेरू, रूस, कतर, म्यंमार, त्रिनिदाद-टोबैगो, यमन इत्यादि देशों में जहाँ लाखों अनिवासी भारतीय व हिन्दी -भाषी हैं, में भी बोली जाती है। चीन, रूस, फ्रांस, जर्मनी, व जापान इत्यादि राष्ट्र जो कि विकसित राष्ट्र हैं की राष्ट्रभाषा अंग्रेजी नहीं वरन् उनकी खुद की मातृभाषा है। फिर भी ये दिनों-ब-दिन तरक्की के पायदान पर चढ़ रहे हैं। विज्ञान और प्रौद्योगिकी क्षेत्र में अंग्रेजी के बिना विकास नहीं हो पाने की अवधारणा को इन विकसित देशों ने परे धकेल दिया है। निज भाषा उन्नति अहै, सब भाषन को मूल......आज वाकई इस बात को अपनाने की जरूरत है। भूमण्डलीकरण एवं सूचना क्रांति के इस दौर में जहाँ एक ओर ‘सभ्यताओं का संघर्ष’ बढ़ा है, वहीं बहुराष्ट्रीय कंपनियों की नीतियों ने भी विकासशील व अविकसित राष्ट्रों की संस्कृतियों पर प्रहार करने की कोशिश की है। सूचना क्रांति व उदारीकरण द्वारा सारे विश्व के सिमट कर एक वैश्विक गाँव में तब्दील होने की अवधारणा में अपनी संस्कृति, भाषा, मान्यताओं, विविधताओं व संस्कारों को बचाकर रखना सबसे बड़ी जरूरत है। एक तरफ बहुराष्ट्रीय कम्पनियां जहाँ हमारी प्राचीन संपदाओं का पेटेंट कराने में जुटी हैं वहीं इनके ब्राण्ड-विज्ञापनों ने बच्चों व युवाओं की मनोस्थिति पर भी काफी प्रभाव डाला है, निश्चिततः इन सबसे बचने हेतु हमंे अपनी आदि भाषा संस्कृत व हिन्दी की तरफ उन्मुख होना होगा।



हम इस तथ्य को नक्कार नहीं सकते कि हाल ही में प्रकाशित आॅक्सफोर्ड अंग्रेजी शब्दकोष में हिन्दी के तमाम प्रचलित शब्दों, मसलन-आलू, अच्छा, अरे, देसी, फिल्मी, गोरा, चड्डी, यार, जंगली, धरना, गुण्डा, बदमाश, बिंदास, लहंगा, मसाला इत्यादि को स्थान दिया गया है तो दूसरी तरफ अमरीकी राष्ट्रपति जार्ज बुश ने राष्ट्रीय सुरक्षा भाषा कार्यक्रम के तहत अपने देशवासियों से हिन्दी, फारसी, अरबी, चीनी व रूसी भाषायें सीखने को कहा है। अमेरिका जो कि अपनी भाषा और अपनी पहचान के अलावा किसी को श्रेष्ठ नहीं मानता, हिन्दी सीखने में उसकी रूचि का प्रदर्शन निश्चिततः भारत के लिए गौरव की बात है। अमेरिकी राष्ट्रपति ने स्पष्टतया घोषणा की कि-‘‘हिन्दी ऐसी विदेशी भाषा है, जिसे 21वीं सदी में राष्ट्रीय सुरक्षा और समृद्धि के लिए अमेरिका के नागरिकों को सीखनी चाहिए।’’ इसी क्रम में अमरीकी राष्ट्रपति बराक हुसैन ओबामा ने अपने चुनावी घोषणा पत्र की प्रतियां अंग्रेजी के साथ-साथ हिन्दी और मलयालम में भी छपवाकर वितरित कीं। ओबामा के राष्ट्रपति चुनने के बाद सरकार की कार्यकारी शाखा में राजनैतिक पदों को भरने के लिए जो आवेदन पत्र तैयार किया गया उसमें 101 भाषाओं में भारत की 20 क्षेत्रीय भाषाओं को भी जगह दी गई। इनमें अवधी, भोजपुरी, छत्तीसगढ़ी, हरियाणवी, माघी व मराठी जैसी भाषायें भी शामिल हैं, जिन्हें अभी तक भारतीय संविधान की आठवीं अनुसूची में स्थान तक नहीं मिल पाया है। ओबामा ने रमजान की मुबारकवाद उर्दू के साथ-साथ हिन्दी में भी दी। यही नहीं टेक्सास के स्कूलों में पहली बार ‘नमस्ते जी‘ नामक हिन्दी की पाठ्यपुस्तक को हाईस्कूल के छा़त्रों के लिए पाठ्यक्रम में शामिल किया गया है। 480 पेज की इस पुस्तक को भारतवंशी शिक्षक अरूण प्रकाश ने आठ सालों की मेहनत से तैयार की है। इसी प्रकार जब दुनिया भर में अंग्रेजी का डंका बज रहा हो, तब अंग्रेजी के गढ़ लंदन में बर्मिंघम स्थित मिडलैंड्स वल्र्ड टेªड फोरम के अध्यक्ष पीटर मैथ्यूज ने ब्रिटिश उद्यमियों, कर्मचारियों और छात्रों को हिंदी समेत कई अन्य भाषाएं सीखने की नसीहत दी है। यही नहीं, अन्तर्राष्ट्रीय इंदु शर्मा कथा सम्मान हिन्दी का अकेला ऐसा सम्मान है जो किसी दूसरे देश की संसद, ब्रिटेन के हाउस आॅफ लॉर्ड्स में प्रदान किया जाता है। आज अंग्रेजी के दबदबे वाले ब्रिटेन से हिन्दी लेखकों का सबसे बड़ा दल विश्व हिन्दी सम्मेलन में अपने खर्च पर पहुँचता है।



निश्चिततः भूमण्डलीकरण के दौर में दुनिया के सबसे बडे लोकतंत्र, सर्वाधिक जनसंख्या वाले राष्ट्र और सबसे बडे़ उपभोक्ता बाजार कीे भाषा हिन्दी को नजर अंदाज करना अब सम्भव नहीं रहा। प्रतिष्ठित अंग्रेजी प्रकाशन समूहों ने हिन्दी में अपने प्रकाशन आरम्भ किए हैं तो बी0 बी0 सी, स्टार प्लस, सोनी, जी0 टी0 वी0, डिस्कवरी आदि अनेक चैनलों ने हिन्दी में अपने प्रसारण आरम्भ कर दिए हैं। हिन्दी फिल्म संगीत तथा विज्ञापनों की ओर नजर डालने पर हमें एक नई प्रकार की हिन्दी के दर्शन होते हैं। यहाँ तक कि बहुराष्ट्रीय कंपनियों के विज्ञापनों में अब क्षेत्रीय बोलियों भोजपुरी इत्यादि का भी प्रयोग होने लगा है और विज्ञापनों के किरदार भी क्षेत्रीय वेश-भूषा व रंग-ढंग में नजर आते हैं। निश्चिततः मनोरंजन और समाचार उद्योग पर हिन्दी की मजबूत पकड़ ने इस भाषा में सम्प्रेषणीयता की नई शक्ति पैदा की है पर वक्त के साथ हिन्दी को वैश्विक भाषा के रूप में विकसित करने हेतु हमें भाषाई शुद्धता और कठोर व्याकरणिक अनुशासन का मोह छोड़ते हुए उसका नया विशिष्ट स्वरूप विकसित करना होगा अन्यथा यह भी संस्कृत की तरह विशिष्ट वर्ग तक ही सिमट जाएगी। हाल ही मे विदेश मंत्रालय ने इसी रणनीति के तहत प्रति वर्ष दस जनवरी को ‘विश्व हिन्दी दिवस’ मनाने का निर्णय लिया है, जिसमें विदेशों मे स्थित भारतीय दूतावासों में इस दिन हिन्दी दिवस समारोह का आयोजन किया जाएगा। आगरा के केन्द्रीय हिन्दी संस्थान में देश का प्रथम हिन्दी संग्रहालय तैयार किया जा रहा है, जिसमें हिन्दी विद्वानों की पाण्डुलिपियाँ, उनके पत्र और उनसे जुड़ी अन्य सामग्रियाँ रखी जायेंगी।



आज की हिन्दी वो नहीं रही..... बदलती परिस्थितियों में उसने अपने को परिवर्तित किया है। विज्ञान-प्रौद्योगिकी से लेकर तमाम विषयों पर हिन्दी की किताबें अब उपलब्ध हैं, क्षेत्रीय अखबारों का प्रचलन बढ़ा है, इण्टरनेट पर हिन्दी की बेबसाइटों में बढ़ोत्तरी हो रही है, सूचना प्रौद्योगिकी क्षेत्र की कई कम्पनियों ने हिन्दी भाषा में परियोजनाएं आरम्भ की हैं। सूचना क्रांति के दौर में कम्प्यूटर पर हिन्दी में कार्य संस्कृति को बढ़ावा देने हेतु सूचना एवं प्रौद्योगिकी मंत्रालय के प्रतिष्ठान सी-डैक ने निःशुल्क हिन्दी साटवेयर जारी किया है, जिसमें अनेक सुविधाएं उपलब्ध हैं। माइक्रोसॉफ्ट ने आफिस हिन्दी के द्वारा भारतीयों के लिए कम्प्यूटर का प्रयोग आसान कर दिया है। आई0 बी0 एम0 द्वारा विकसित सॉफ्टवेयर में हिन्दी भाषा के 65,000 शब्दों को पहचानने की क्षमता है एवं हिन्दी और हिन्दुस्तानी अंग्रेजी के लिए आवाज पहचानने की प्रणाली का भी विकास किया गया है जो कि शब्दों को पहचान कर कम्प्यूटर लिपिबद्ध कर देती है। एच0 पी0 कम्प्यूटर्स एक ऐसी तकनीक का विकास करने में जुटी हुई है जो हाथ से लिखी हिन्दी लिखावट को पहचान कर कम्प्यूटर में आगे की कार्यवाही कर सके। चूँकि इण्टरनेट पर ज्यादातर सामग्री अंग्रेजी में है और अपने देश में मात्र 13 फीसदी लोगों की ही अंग्रेजी पर ठीक-ठाक पकड़ है। ऐसे में हाल ही में गूगल द्वारा कई भाषाओं में अनुवाद की सुविधा प्रदान करने से अंग्रेजी न जानने वाले भी अब इण्टरनेट के माध्यम से अपना काम आसानी से कर सकते हैं। अपनी तरह की इस अनोखी व पहली सेवा में हिन्दी, तमिल, तेलगू, कन्नड़ और मलयालम का अंग्रेजी में अनुवाद किया जा सकता है। यह सेवा इण्टरनेट पर www.google.in/translate_t टाइप कर हासिल की जा सकती है। आज हिन्दी के वेब पोर्टल समाचार, व्यापार, साहित्य, ज्योतिषी, सूचना प्रौद्योगिकी एवं तमाम जानकारियां सुलभ करा रहे हैं। यहाँ तक कि दक्षिण भारत में भी हिन्दी के प्रति दुराग्रह खत्म हो गया है। निश्चिततः इससे हिन्दी भाषा को एक नवीन प्रतिष्ठा मिली है।
- कृष्ण कुमार यादव

रविवार, 13 सितंबर 2009

हिन्दी का सफरनामा: हिन्दी बनी राजभाषा परन्तु....



यह एक सच्चाई है कि स्वतंत्रता से पूर्व हिन्दी ने अंग्रेजी राज के विरूद्ध लोगों को जोड़ने का कार्य किया पर स्वतंत्रता पश्चात उसी अंग्रेजी को हिन्दी का प्रतिद्वंदी बना दिया गया। यदि हम व्यवहारिक धरातल पर बात करें तो हिन्दी सदैव से राजभाषा, मातृभाषा व लोकभाषा रही है पर दुर्भाग्य से हिन्दी कभी भी राजप्रेयसी नहीं रही। स्वतंत्रता आंदोलन में जनभाषा के रूप में लोकप्रियता, विदेशी विद्वानों द्वारा हिन्दी की अहमियत को स्वीकारना, तमाम समाज सुधारकों व महापुरूषों द्वारा हिन्दी को राजभाषा/राष्ट्रभाषा के रूप में प्रतिष्ठित करने की बातें, पर अन्ततः संविधान सभा ने तीन दिनों तक लगातार बहस के बाद 14 सितम्बर 1949 को पन्द्रह वर्ष तक अंग्रेजी जारी रखने के परन्तुक के साथ ही हिन्दी को राजभाषा के रूप में स्वीकार किया।


राष्ट्रभाषा के सवाल पर संविधान सभा में 300 से ज्यादा संशोधन प्रस्ताव आए। जी0 एस0 आयंगर ने मसौदा पेश करते हुए हिन्दी की पैरोकारी की पर अंततः कहा कि - ‘‘हिन्दी आज काफी समुन्नत भाषा नहीं है। अंग्रेजी शब्दों के हिन्दी पर्याय नहीं मिल पाते।’’ यद्यपि हिन्दी के पक्ष में काफी सदस्यों ने विचार व्यक्त किए। पुरूषोतम दास टंडन ने अंग्रेज ध्वनिविज्ञानी इसाक पिटमैन के हवाले से कहा कि विश्व में हिन्दी ही सर्वसम्पन्न वर्णमाला है तो सेठ गोविन्द दास ने कहा कि- ‘‘इस देश में हजारों वर्षों से एक संस्कृति है। अतः यहाँ एक भाषा और एक लिपि ही होनी चाहिए।’’ आर0 वी0 धुलेकर ने काफी सख्त लहजे में हिन्दी की पैरवी करते हुए कहा कि- ‘‘मैं कहता हूँ हिन्दी राजभाषा है, राष्ट्रभाषा है। हिन्दी के राष्ट्रभाषा/राजभाषा हो जाने के बाद संस्कृत विश्व भाषा बनेगी। अंग्रेजों के नाम 15 वर्ष का पट्टा लिखने से राष्ट्र का हित साधन नहीं होगा।’’ स्वयं पं0 नेहरू ने भी हिन्दी की पैरवी में कहा था- ‘‘पिछले एक हजार वर्ष के इतिहास में भारत ही नहीं सारे दक्षिण पूर्वी एशिया में और केन्द्रीय एशिया के कुछ भागों में भी विद्वानों की भाषा संस्कृत ही थी। अंग्रेजी कितनी ही अच्छी और महत्वपूर्ण क्यों न हो किन्तु इसे हम सहन नहीं कर सकते, हमें अपनी ही भाषा (हिन्दी) को अपनाना चाहिए।’’


निश्चिततः इस आधार पर कि हिन्दी भाषा समुन्नत नहीं है, राजकाज की भाषा रूप में पन्द्रह साल तक अंग्रेजी को स्थान दे दिया गया। इस बात पर कालान्तर में काफी बहस हुयी। कुछेक का तो मानना था कि राष्ट्रीय आन्दोलन के अधिकतर नेताओं की दिली इच्छा हिन्दी को राष्ट्रभाषा/राजभाषा के रूप में प्रतिष्ठित करने की थी पर ऐसे सदस्य जो मात्र कानूनविद होने के नाते संविधान सभा से जोड़ दिए गए, वे अंग्रेज भक्त थे और उन्होंने प्रयास करके अंग्रेजी की महत्ता भारत के राजकाज व न्यायालयों पर सदैव हेतु थोप दी। आचार्य हजारी प्रसाद द्विवेदी ने कहा- ‘‘यदि अंग्रेजी अच्छी है और उसे बनाए रखना चाहिए तो अंग्रेज भी अच्छे थे, उन्हें भी राज करने बुला लीजिए।’’

- कृष्ण कुमार यादव

शनिवार, 12 सितंबर 2009

हिन्दी का सफरनामा : राष्ट्रीय आन्दोलन की भाषा बनी हिन्दी



राजनैतिक स्तर पर भी हिन्दी को राष्ट्रभाषा के रूप में प्रतिष्ठित करने हेतु कई समाज सुधारकों व साहित्यकारों ने यत्न किए। गुजराती कवि नर्मद (1833-86) ने हिन्दी को भारत की राष्ट्रभाषा बनाने का प्रस्ताव किया तो सन् 1918 में मराठी भाषी लोकमान्य बाल गंगाधर तिलक ने कांग्रेस अध्यक्ष की हैसियत से घोषित किया कि- हिन्दी भारत की राजभाषा होगी। उसी समय देश की राजनीति में एक नक्षत्र की भांति तेजी से उभर रहे गुजराती भाषी महात्मा गाँधी ने भी कहा -''हिन्दी ही देश को एकसूत्र में बाँध सकती है। मुझे अंग्रेजी बोलने में शर्म आती है और मेरी दिली इच्छा है कि देश का हर नागरिक हिन्दी सीख ले व देश की हर भाषा देवनागरी में लिखी जाये।'' उन्होनें इसको तार्किक रूप देते हुए कहा कि-‘‘सभी भाषाओं को एक ही लिपि में लिखने से वही लाभ होगा जो यूरोप की तमाम भाषाओं को एक ही लिपि में लिखे जाने से हुआ। इससे तमाम यूरोपीय भाषाएँ अधिक विकसित और समुन्नत हुयीं।’’ 1918 में इन्दौर में हिन्दी साहित्य सम्मेलन सभा में महात्मा गाँधी ने दक्षिण भारत में हिन्दी प्रचारकों को भेजा, इनमें स्वयं उनके पुत्र देवदास गाँधी भी थे। 1919 के बाद तो गाँधी जी ने कांग्रेस को अपने सभी कार्य हिन्दी में करना एक तरह से बाध्यकारी बना दिया। उन्होंने यहाँ तक कह दिया कि जिसे हिन्दी नहीं आती उसे कांग्रेस के अधिवेशनों में बोलने का अवसर नहीं दिया जाएगा। इसी से प्रभावित होकर सरदार पटेल ने 1919 में अहमदाबाद के कांग्रेस अधिवेशन में अपना स्वागत भाषण हिन्दी में दिया और अधिवेशन के स्वागत मंत्री पी0 जी0 मावलंकर, जो कि कालांतर में प्रथम लोकसभा अध्यक्ष बने, ने अधिवेशन के सभी दस्तावेज हिन्दी में तैयार किए।





स्वामी दयानन्द सरस्वती, केशव चन्द्र सेन, सुभाष चन्द्र बोस, आचार्य कृपलानी, चक्रवर्ती राजगोपालाचारी जैसे अनेक अहिन्दी भाषी नेताओं ने हिन्दी को भारत की राजभाषा बनाने की पैरवी की। 20 दिसम्बर, 1928 को कलकत्ता में राजभाषा सम्मेलन की अध्यक्षता करते हुए सुभाष चन्द्र बोस ने देश के प्रत्येक नागरिक विशेषकर नवयुवकों से हिन्दी सीखने की अपील की तथा इस बात पर खेद भी व्यक्त किया कि वे स्वयं अच्छी हिन्दी नहीं बोल पाते हैं। 1935 में मद्रास राज्य के मुख्यमंत्री रूप में सी0 राजगोपालाचारी ने हिन्दी शिक्षा को अनिवार्य कर दिया। 1935 में ही बेल्जियम के नागरिक डाॅ0 कामिल बुल्के इसाई धर्म प्रचार के लिए भारत आए पर फ्रेंच, अंग्रेजी, लेमिश, आयरिश भाषाओं पर अधिकार होने के बाद भी हिन्दी को ही अभिव्यक्ति का माध्यम चुना। अपने हिन्दी ज्ञान में वृद्धि हेतु उन्होंने इलाहाबाद विश्वविद्यालय से एम0ए0 किया और तुलसी दास को अपने प्रिय कवि के रूप में चुनकर ‘रामकथा उद्भव और विकास’ पर डी0 फिल की उपाधि भी प्राप्त की। निश्चिततः स्वतंत्रता संग्राम के दिनों में हिन्दी राष्ट्रीय आन्दोलन और भारतीय संस्कृति की अभिव्यक्ति की भाषा बनी।

शुक्रवार, 11 सितंबर 2009

हिन्दी का सफरनामा बनाम मैकाले नीति

सन् 1835 एक निर्णायक वर्ष था जब ईस्ट इण्डिया कम्पनी की सरकार ने मैकाले की अनुशंसा पर 7 मार्च 1835 को अंग्रेजी शिक्षा के प्रचार का प्रस्ताव पास कर दिया और धीरे-धीरे अंग्रेजी के स्कूल खुलने लगे। हिन्दी को अलग-थलग करने का एक अन्य कारण अंग्रेजों की ‘फूट डालो और राज करो’ की नीति भी थी। अंग्रेजी शिक्षा का प्रस्ताव पास होने के बाद भी अदालतों के कामकाज की भाषा फारसी ही रही। सर सैयद अहमद खान ने भी हिन्दी को एक गँवारी बोली बताकर अंग्रेजों को उर्दू की ओर झुकाने की लगातार चेष्टा की। इस बीच सन् 1893 में बनारस में ‘नागरी प्रचारिणी सभा’ का गठन इन सबकी प्रतिक्रिया स्वरूप हिन्दी को एक भाषा के रूप में बढ़ावा देने हेतु किया गया। बनारस के राजा शिव प्रसाद भी हिन्दी की रक्षा के लिए उठ खड़े हुए और निरन्तर यत्नशील रहे। सन् 1913 में शिक्षा विभाग के इंस्पेक्टर के रूप में राजा शिवप्रसाद ने हिन्दी को विचलन से बचाने हेतु ठेठ हिन्दी का आश्रय लिया जिसमें फारसी-अरबी के चालू शब्द भी शामिल थे। सन् 1913 में ही हिन्दी में पहली मूक फिल्म ‘राजा हरिश्चन्द्र’ का निर्माण हुआ तो सन् 1931 में हिन्दी की पहली बोलती फिल्म ‘आलम आरा’ का निर्माण किया गया।

गुरुवार, 10 सितंबर 2009

हिन्दी का सफरनामा


भारत सदैव से विभिन्नताओं का देश रहा है। आज संसार भर में लगभग 5000 भाषाएँ और बोलियाँ बोली जाती हैं । उनमें से लगभग 1652 भाषाएँ व बोलियाँ भारत में सूचीबद्ध की गई हैं जिनमें 63 भाषाएँ अभारतीय हैं । चूँकि इन 1652 भाषाओं को बोलने वाले समान अनुपात में नहीं हैं अतः संविधान की आठवीं अनुसूची में 18 भाषाओं को शामिल किया गया जिन्हें देश की कुल जनसंख्या के 91 प्रतिशत लोग प्रयोग करते हैं। इनमें भी सर्वाधिक 46 प्रतिशत लोग हिन्दी का प्रयोग करते हैं अतः हिन्दी को राजभाषा को रूप में वरीयता दी गयी। अधिकतर भारतीय भाषाएं दो समूहों से आती हैं- आर्य भाषा परिवार की भाषाएं और द्रविड़ भाषा परिवार की भाषाएं। द्रविड़ भाषाओं व बोलियों का एक अलग ही समूह हैं और आर्य भाषाओं के आगमन के बहुत पहले से ही भारत में उनका उपयोग किया जा रहा है। तमिल, तेलुगू, कन्नड़ और मलयालम प्रमुख द्रविड़ भाषाएं हैं।



आर्य भाषा में सबसे प्राचीन संस्कृत भाषा (2500 ई0 पू0- 500 ई0 पू0) मानी जाती है। वेदों की रचना भी संस्कृत में की गई। संस्कृत माने परिमार्जित अथवा विशुद्ध। संस्कृत किसी समय जनभाषा थी पर व्याकरण के कठोर नियमों और उच्चारण की कठिनता के कारण संस्कृत विशिष्ट वर्ग की भाषा बनकर रह गयी। संस्कृत के साथ ही उस समय कई लोकभाषाएँ प्रचलित थीं, जिनसे संस्कृत के विभिन्न रूप प्रचलित हुए। संस्कृत के इन विभिन्न रूपों से विभिन्न प्राकृतों व अपभ्रंशों का विकास हुआ और अंत में हिन्दी आदि प्रान्तीय भाषाओं (1000 ई0 के लगभग) का विकास हुआ। कुल 7 अपभ्रंशों से आधुनिक भारतीय भाषाओं का विकास माना जाता है, जिसमें शौरसेनी से पश्चिमी हिन्दी (खड़ी बोली, ब्रजभाषा, वांगरू, कन्नौजी व बुन्देली बोलियाँ), राजस्थानी (मारवाडी़, जयपुरी, मालवी व मेवाती बोलियाँ), और गुजराती भाषा, महाराष्ट्री से मराठी भाषा (दक्षिणी, कोंकणी, नागपुरी व बरारी बोलियाँ), मागधी से भोजपुरी मैथिली, मगही, बंगला, उड़िया व असमी भाषाएं, अर्धमागधी से पूर्वी हिन्दी (अवधी, बघेली व छत्तीसगढ़ी बोलियाँ), पैशाची से लहँदी, ब्राचउ से सिंधी व पंजाबी भाषा तथा खस से पहाड़ी भाषाओं का उद्भव हुआ।



आधुनिक भारतीय आर्यभाषाओं में सर्वाधिक लोकप्रिय हिन्दी भाषा हुई। कबीर की निर्गुण भक्ति एवम् भक्ति काल के सूफी-संतों ने हिन्दी को काफी समृद्ध किया। कालांतर में मलिक मुहम्मद जायसी ने पद्मावत और गोस्वामी तुलसीदास ने रामचरितमानस की अवधी में रचना कर हिन्दी को और भी जनप्रिय बनाया। अमीर खुसरो ने इसे ‘हिंदवी’ गाया तो हैदराबाद के मुस्लिम शासक कुली कुतुबशाह ने इसे ‘जबाने हिन्दी’ बताया। स्वतंत्रता तक हिन्दी ने कई पड़ावों को पार किया व दिनों-ब-दिन और भी समृद्ध होती गई। सन् 1741 में राम प्रसाद निरंजनी द्वारा खड़ी बोली में प्रथम ग्रंथ ‘भाषा योग्यवासिष्ठ’ लिखा गया तो सन् 1796 में देवनागरी लिपि में टाइप की गयी प्रथम प्रिंटिंग तैयार हुई। सन् 1805 में फोर्ट विलियम कालेज, कलकत्ता के लिए अध्यापक जान गिलक्राइस्ट के आदेश से लल्लू लाल जी ने खड़ी बोली गद्य में ‘प्रेमसागर’ लिखा जिसमें भागवत दशम्स्कंध की कथा वर्णित की गई। यह अंग्रेजों द्वारा भारतीय संस्कृति को हिन्दी के माध्यम से समझने का एक शुरूआती प्रयास था। सन् 1826 में कानपुरवासी पं0 जुगल किशोर ने हिन्दी का प्रथम समाचार पत्र ‘उदंत मार्तंड’ निकालना शुरू किया, जो एक वर्ष बाद ही सहायता के अभाव में बंद हो गया।


- कृष्ण कुमार यादव

गुरुवार, 3 सितंबर 2009

40 साल का हुआ इन्टरनेट

भूमण्डलीकरण को वास्तविक रूप में फलीभूत करने वाला सबसे प्रमुख तत्व ‘सूचना प्रौद्योगिकी’ है और सूचना प्रौद्योगिकी को जन-जन तक पहुँचाने का सबसे सरल माध्यम ‘इण्टरनेट’ है। इण्टरनेट ने समग्र विश्व को एक लघु गाँव में परिवर्तित कर दिया जहाँ एक माउस के क्लिक मात्र से सूचनाओं का संजाल पसरता जाता है। इण्टरनेट ने न सिर्फ चकित करने वाली क्षमताएँ हासिल की है, बल्कि काफी हद तक उसने दुनिया की सूरत भी बदल दी है। आलम यह है कि विकसित देशों में कम्प्यूटर और इण्टरनेट इन्सान के सबसे करीबी मित्र बन गये हैं। बदलते समय में इण्टरनेट ने वैश्विक आर्थिक-सामाजिक विकास को आशातीत रतार उपलब्ध कराने के साथ-साथ मानव को भौतिक समृद्धि के शीर्ष पर भी पहुँचाया।

2 सितम्बर 1969 को आरम्भ हुये इंटरनेट ने वर्ष 2009 में 40 साल पूरे कर लिये। 1969 में अमेरिकी शहर लाॅसएंजिल्स के कैलीफोर्निया विश्वविद्यालय की एक प्रयोगशाला में लेन क्लेनराॅक अपने साथियों के साथ दो कम्प्यूटरों के मध्य डाटा का आदान-आदान करने की कोशिश में वह अद्भुत कार्य कर बैठे, जिसने भविष्य में लोगों की दुनिया ही बदल दी। इसके जरिए दुनिया के लोग एक-दूसरे से सीधे जुड़ गए। दो कम्प्यूटरों के बीच 15 मीटर लंबी केबल से डाटा पास हुआ और इसी के साथ इंटरनेट का जन्म हुआ। वस्तुतः शीत युद्ध के दौरान रूस ने जब स्पुतनिक सेटेलाइट लांच किया तो अमेरिकी सरकार काफी चिंतित हो उठी। अमेरिका में एक ऐसे संचार माध्यम की जरूरत महसूस की जाने लगी जिससे सैन्य-शक्ति में इजाफा हो सके। साथ ही संचार को और तीव्र व व्यापक बनाया जा सके। इसी को मद्देनजर रखते हुए मैसाच्यूसेट्स इंस्टीट्यूट आॅफ टेक्नोलाॅजी के डाॅ0 जे0सी0आर0 लीक लीडर को यह जिम्मेदारी सौंपी गई। 1958 में एडवांस्ड रिसर्च प्रोजेक्ट एजेंसी बनाकर इसके अंतर्गत अर्पानेट तकनीक की शुरूआत की गई। अर्पानेट के तहत 1969 में सर्वप्रथम प्रायोगिक तौर पर चार विश्वविद्यालयों को इससे जोड़ा गया और इसी क्रम में अन्ततः 2 सितम्बर 1969 को इंटरनेट का आरम्भ हुआ।
कालान्तर में इण्टरनेट के क्षेत्र में तमाम क्रान्तिकारी परिवर्तन आये। 1971 में टीसीपी और आईपी प्रोटोकाल बनने से ईमेल सेवा आरम्भ हुई और बीबीएन के इंजीनियर रे टाॅमलिंसन ने प्रथम ईमेल भेजा। 1983 में डोमेन का आरम्भ हुआ एवं एक साल बाद नाम के अंत में डाॅट काॅम, डाॅट इन लगाया जाने लगा। 1988 में पहले इंटरनेट वायरस ने लाखों कंम्प्यूटर्स को क्षति पहुँचाई। 1990 में टिम बर्नर्स ली ने वल्र्ड वाइड वेब का विकास किया तो 1993 में प्रथम वेब ब्राउजर मोजैक का विकास हुआ। इसी क्रम में 1994 में प्रथम बिजनेस वेब ब्राउजर नेटस्केप का आरम्भ हुआ। 1998 तो इण्टरनेट के लिए और भी क्रांतिकारी वर्ष साबित हुआ, जब गूगल सर्च इंजन के विकास ने इंटरनेट की दुनिया में सब कुछ बदल के रख दिया। इसी वर्ष डोमेन के लिए इंटरनेट कारपोरेशन फाॅर असाइंड नेम्स एंड नंबर्स (आईसीएएनएन) संस्था का गठन भी हुआ। 2004-05 के दौरान फेसबुक व विडियो शेयर करने के लिए यू-ट्यूब तकनीक आरम्भ हुई।

इण्टरनेट को 20वीं सदी का सबसे बड़ा आविष्कार माना जाता है, जो 21वीं सदी को अपने इशारों पर परिचालित करेगा। इण्टरनेट पर बढ़ती निर्भरता के साथ इसका प्रयोग अब मात्र सूचनाओं के आदान-प्रदान और शोध कार्यांे के लिये ही नहीं बल्कि मनोरंजन, व्यापार, खरीददारी, नीलामी, संचार, बैंकिंग, शिक्षा, यात्रा कार्यक्रम, बधाई सन्देशों को भेजने, जीवन साथी की खोज और यहाँ तक कि जिन्दगी जीने का जरिया बन चुका है। आज इण्टरनेट अपने आप में पूरी दुनिया को समेटे हुये है। एक सर्वेक्षण के मुताबिक इस समय भारत में 8 करोड़ से भी ज्यादा लोग इण्टरनेट यूज कर रहे हैं। वर्तमान में गूगल सर्च में एक खरब से ज्यादा वेबसाइट सूचीबद्ध हैं और अगर एक पेज को देखने में एक मिनट भी लगता है तो सुलभ साइटों की संख्या आपको 31 हजार साल तक उलझाए रख सकती है।

निश्चिततः आधुनिक दौर में इण्टरनेट के बढ़ते प्रभाव को नजरअंदाज नहीं किया जा सकता। चाहे वह ई-गर्वनेंस हो या ई-काॅमर्स, ई-शाॅपिंग, ई-बिलिंग, ई-एजुकेशन, ई-मेडिकल या वीडियो काॅन्फ्रेन्सिंग हो, इण्टरनेट ने सब सरल और सुगम बना दिया है। पर आज जरूरत है कि इण्टरनेट पर किसी देश विशेष, भाषा विशेष या वर्ग विशेष के अधिकार की बजाय सभी के अधिकार की बात की जाय क्योंकि इण्टरनेट मात्र सूचना प्रौद्यौगिकी और व्यापार का औजार नहीं है बल्कि विकास का भी सक्षम औजार है। तभी सही अर्थांे में इण्टरनेट एक ऐसा ‘ग्लोबल विलेज’ बनाने में सक्षम होगा जो सभी की पहुँच के अन्दर है।

मंगलवार, 1 सितंबर 2009

हिन्दी पखवाड़ा



सरकारी विभागों में सितम्बर माह के प्रथम दिवस से ही हिन्दी पखवाड़ा मनाना आरम्भ हो जाता है और हिन्दी दिवस (14 सितम्बर) आते-आते बहुत कुछ होता जाता है। ऐसी ही कुछ भावनाओं को इस कविता में व्यक्त किया गया है-

एक बार फिर से
हिन्दी पखवाड़ा का आगमन
पुराने बैनर और नेम प्लेटें
धो-पोंछकर चमकाये जाने लगे
बस साल बदल जाना था

फिर तलाश आरम्भ हुई
एक अदद अतिथि की
एक हिन्दी के विद्वान
एक बाबू के
पड़ोस में रहते थे
सो आसानी से तैयार हो गये
कार्यक्रम के मुख्य अतिथि बनने हेतु

आते ही
फूलों का गुलदस्ता
और बंद पैक में भेंट
उन्होंने स्वीकारी
हिन्दी के राजभाषा बनने से लेकर
अपने योगदान तक की चर्चाकर डाली

मंच पर आसीन अधिकारियों ने
पिछले साल के
अपने भाषण में
कुछ काट-छाँट कर
फिर से
हिन्दी को बढ़ावा देने की शपथ ली
अगले दिन तमाम अखबारों में
समारोह की फोटो भी छपी

सरकारी बाबू ने कुल खर्च की फाइल
धीरे-धीरे अधिकारी तक बढ़ायी
अधिकारी महोदय ने ज्यों ही
अंग्रेजी में अनुमोदन लिखा
बाबू ने धीमे से टोका
अधिकारी महोदय ने नजरें उठायीं
और झल्लाकर बोले
तुम्हें यह भी बताना पड़ेगा
कि हिन्दी पखवाड़ा बीत चुका है !!