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रविवार, 31 मार्च 2013

चिट्ठियों से चिट्ठा तक...


चिट्ठियाँ लिखना और पढना किसे नहीं भाता। शब्दों के विस्तार के साथ बहुत सी अनकही भावनाएं मानो इन चिट्ठियों में सिमटती जाती थीं। पहले लोग चिट्ठियाँ लिखते थे, अब चिटठा (ब्लॉग) लिखने लगे हैं। चिटठा के साथ भी अन-सेंसर्ड सुविधा प्राप्त है। शब्दों और भावनाओं का कोई ओर-छोर नहीं। चिटठा लिखना और टिप्पणियाना चिट्ठियों की ही देन है। आज भी पत्र-पत्रिकाओं में पाठकों की चिट्ठियां प्रमुखता से छापी जाती हैं। अब तो चिट्ठे भी पत्र-पत्रिकाओं में ससम्मान स्थान पा रहे हैं।
 
जब संचार के अन्य साधन न थे, तो चिट्ठियाँ ही संवाद का एकमात्र माध्यम था। ये चिट्ठियाँ सिर्फ व्यक्तिगत नहीं होतीं, बल्कि उनमें हमारा परिवेश, सरोकार और संवेदनाएं भी शामिल होती हैं। ठीक यही बात चिट्ठों (ब्लॉग) पर भी लागू होती हैं। हर चिटठा कुछ-न-कुछ कह्ता लिखता नजर आता है। इन चिट्ठों में अपने गाँव-जंवार की बात होती है, जहाँ तक मुख्य मीडिया नहीं पहुँच पाता तो तमाम ऐसी जानकारियाँ भी होती हैं जो हम एक-दूसरे से साझा करना चाहते हैं। चिट्ठियों की भी तो यही अदा थी। पं0 जवाहर लाल नेहरू अपनी पुत्री इन्दिरा गाँधी को जेल से भी चिट्ठियाँ लिखते रहे। ये चिट्ठियाँ सिर्फ पिता-पुत्री के रिश्तों तक सीमित नहीं हैं, बल्कि इनमें तात्कालिक राजनैतिक एवं सामाजिक परिवेश का भी सुन्दर चित्रण है। इन्दिरा गाँधी के व्यक्तित्व को गढ़ने में इन चिट्ठियों का बहुत बड़ा हाथ रहा है। आज ये किताब के रूप में प्रकाशित होकर ऐतिहासिक दस्तावेज बन चुके हैं। इन्दिरा गाँधी ने इस परम्परा को जीवित रखा एवं दून में अध्ययनरत अपने बेटे राजीव गाँधी को घर की छोटी-छोटी चीजों और तात्कालिक राजनैतिक-सामाजिक परिस्थितियों के बारे में लिखती रहीं। एक चिट्ठी में तो वे राजीव गाँधी को रीवा के महाराज से मिले सौगातों के बारे में भी बताती हैं।
चिट्ठी और चिट्ठा इन दोनों के बारे में प्रमुख समानता है कि इनका काम मात्र सूचना देना ही नहीं बल्कि इनमें एक अपनापन, संग्रहणीयता, लेखन कला, संवेदना एवं समाज को जानने का भाव भी छुपा होता है। चिट्ठी और चिट्ठा दोनों की खूबसूरती दूसरे द्वारा पढ़े जाने में है। यह सही है कि संचार क्रान्ति ने चिठ्ठियों की संस्कृति को खत्म करने का प्रयास किया है और पूरी दुनिया को बहुत करीब ला दिया है। पर इसका एक पहलू यह भी है कि इसने दिलों की दूरियाँ इतनी बढ़ा दी हैं कि बिल्कुल पास में रहने वाले अपने इष्ट मित्रों और रिश्तेदारों की भी लोग खोज-खबर नहीं रखते। ऐसे में लोगों के अंदर संवेदनाओं को बचा पाना कठिन हो गया है।
हाल ही में एक रिपोर्ट पर जाकर निगाह अटकी कि, जज़्बातों को अल्फाज़ देती, कागज़ के कुछ पन्नों में सिमटी चिट्ठी और चिट्ठी लिखने की कला मानो ख़त्म सी होती जा रही है.ब्रिटेन में चैरिटी वर्ल्ड विज़न द्वारा हुए एक सर्वेक्षण के अनुसार प्राइमरी स्कूल में पढ़ने वाले करीब 50 फ़ीसदी बच्चे ठीक से नहीं जानते कि चिट्ठी कैसे लिखी जाती है. सात से लेकर 14 साल के बच्चों से पूछा गया कि क्या उन्होंने पिछले एक साल में चिट्ठियाँ लिखने की कोशिश की है तो चार में से एक बच्चे का जवाब था, नहीं. जबकि पिछले एक हफ़्ते में इनमें से 50 फ़ीसदी से ज़्यादा बच्चों ने ईमेल किया है या सोशल नेटवर्किंग साइट पर संदेश भेजे हैं. अध्ययन से पता चलता है कि बहुत से बच्चे न तो चिट्ठियाँ लिखते हैं, न ही उन्हें किसी की चिट्ठी मिलती है. आँकड़ों के मुताबिक पाँच में एक बच्चे को कभी किसी ने चिट्ठी नहीं लिखी.करीब 45 फ़ीसदी बच्चों ने कहा कि या तो उन्हें चिट्ठी लिखनी बिल्कुल नहीं आती या वे पक्के तौर पर नहीं कह सकते. ये सर्वेक्षण ब्रिटेन के 1188 बच्चों में किया गया.
 
वाकई यह स्थिति सोचनीय है। बच्चों की शिक्षा से जुड़े मामले की विशेषज्ञ सू पामर कहती हैं, "जब आप ख़ुद कलम से कुछ लिखते हैं तो इसके ज़रिए लिखने वाला ये दर्शाता है कि वे उस रिश्ते को अपना वक़्त दे रहा है. तभी तो हम पुरानी चिट्ठियों को संभाल कर रखते हैं."
 
आर. के. नारायण की एक कहानी है - पोस्टमैन। उसमें एक डाकिया किसी की मृत्यु के बारे में आई एक चिट्ठी लंबे समय तक अपने पास रोके रखता है क्योंकि गांव में एक लड़की की शादी की तैयारियां चल रही हैं। चिट्ठियों से हमारे समाज के भावनात्मक संबंध ने उसे हमारे साहित्य और सिनेमा में बखूबी स्थान दिया है। लेकिन भावनाओं के विलोपन के साथ-साथ अब वास्तविक जीवन से धीरे-धीरे चिट्ठियाँ लुप्त हो रही है। कभी डाकिया की राह ताकते रहने वाला समाज आज अपने प्रियजनों का हाल जानने के लिए मोबाईल फोन के एस.एम्.एस., ई - मेल के इनबॉक्स और फेसबुक पर क्लिक कर रहा है।
 
'इंस्टेंट' के इस दौर में रिश्ते-नाते, सम्बन्ध, भावनाएं सब कुछ 'इंस्टेंट' हो गए हैं। जिस तरह से फेसबुक की इंस्टेंट बातों ने हिन्दी ब्लागिंग को अधर में छोड़ दिया, ठीक वैसे ही चिट्ठियाँ भी अधर में चली गईं। कट-पेस्ट, लाइक, शेयर, के इस दौर में भला किसे फुर्सत है लम्बी चिट्ठियों या चिट्ठों को पढने की। भला हो उन कुछेक लोगों का, जिन्होंने इन विधाओं को जिन्दा रखा है। चिट्ठियाँ गईं तो चिट्ठे आ गए। ये चिट्ठे भी चिट्ठियों की तरह करामाती हैं। डूबो तो डूबते ही जाओ, भागो तो भागते ही जाओ।
      
हाई-टेक होते इस दौर में कलम का स्थान की-बोर्ड ने ले लिया है। शब्दों के भावार्थ बदलने लगे हैं, उनमें शुद्धता नहीं बल्कि चलताऊपन आ गया है। पर जब यही बात रिश्तों-संवेदनाओं पर लागू होती है तो असहजता महसूस होती है। चिट्ठियाँ लिखना कम हुआ तो लिफाफा देख मजमून भांपने वाली पूरी जमात का अस्तित्व खतरे में है। मोबाइल फोन और कम्प्यूटर से कुछ भांपा नहीं जा सकता।
चिट्ठियों से चिट्ठों तक के इस सफ़र में बहुत कुछ बदला है, आगे भी बदलेगा। पर इन सबके बीच यह बेहद जरुरी है कि संवेदनाएं अपना रूप न परिवर्तित करें। जब परंपरागत मीडिया पेड न्यूज और टीआरपी की आड़ में सब कुछ सही ठहराने लगता है तो वहां न्यू-मीडिया की जरुरत होती है। कभी चिट्ठियों ने इस भूमिका का निर्वाह किया था, आज चिट्ठा (ब्लॉग) इस भूमिका का निर्वाह कर रहा है। ख़त्म होना तो हर किसी की नियति है, पर अपने दौर में परिवेश को कोई भी व्यक्ति या विधा कितना प्रभावित कर पाई, यह महत्वपूर्ण है।
 
सौभाग्यवश अप्रैल-2013 में हिंदी ब्लागिंग अपने एक दशक पूरा कर रहा है, ऐसे में यह सवाल और भी महत्वपूर्ण हो जाता है कि इसने राजनीति-समाज-साहित्य-संस्कृति से लेकर विभिन्न विमर्शों और आंदोलनों को कहाँ तक प्रभावित किया.....!!
 

बुधवार, 20 मार्च 2013

गौरैया नाराज है !

 
चाय की चुस्कियों के बीच
सुबह का अखबार पढ़ रहा था
अचानक
नजरें ठिठक गईं
गौरैया शीघ्र ही विलुप्त पक्षियों में।
 
वही गौरैया,
जो हर आँगन में
घोंसला लगाया करती
जिसकी फुदक के साथ
हम बड़े हुये।
 
क्या हमारे बच्चे
इस प्यारी व नन्हीं-सी चिड़िया को
देखने से वंचित रह जायेंगे!
न जाने कितने ही सवाल
दिमाग में उमड़ने लगे।
 
बाहर देखा
कंक्रीटों का शहर नजर आया
पेड़ों का नामोनिशां तक नहीं
अब तो लोग घरों में
आँगन भी नहीं बनवाते
एक कमरे के फ्लैट में
चार प्राणी ठुंसे पड़े हैं।
 
प्रकृति को
निहारना तो दूर
हर कुछ इण्टरनेट पर ही
खंगालना चाहते हैं।

 
आखिर
 
इन सबके बीच
गौरैया कहाँ से आयेगी
 
शायद गौरैया नाराज है !
 
- कृष्ण कुमार यादव-
 
(''विश्व गौरैया दिवस'' 20 मार्च पर खास प्रस्तुति)

गुरुवार, 7 मार्च 2013

अंतर्राष्ट्रीय महिला दिवस पर : कृष्ण कुमार यादव के हाइकु

 
जाग उठी है
आज शिक्षित नारी
हक लेने को।
 
अबला नहीं
संवेदना की स्रोत
जानिए इसे।
 
रिश्तों की डोर
सहेजती ये नारी
रुप विभिन्न।
 
नारी की शक्ति
पहचानिए इसे
दुर्गा-भवानी।
 
हर क्षेत्र में
रचे नया संसार
आज की नारी।
 
बाधाएँ तोड़
आसमां के सितारे
छू रही नारी।
 
नारी सशक्त
समाज बने सुखी
समृद्ध राष्ट्र।
-कृष्ण कुमार यादव-

मंगलवार, 5 मार्च 2013

वीर-रस के कवि श्याम नारायण पाण्डेय पर विशेष डाक आवरण जारी



द्वितीय मण्डल स्तरीय आजमगढ़ डाक टिकट प्रदर्शनी आजमपेक्स-2013’ का समापन वेस्ली इंटर कॉलेज आजमगढ़ में आयोजित भव्य समारोह में 3 मार्च को किया गया। कार्यक्रम में मुख्य अतिथि के रूप में इलाहाबाद व गोरखपुर परिक्षेत्र के निदेशक डाक सेवाएँ श्री कृष्ण कुमार यादव ने दूसरे दिन के कार्यक्रम का उदघाटन किया। श्री यादव ने इस अवसर पर वीर रस के कवि श्याम नारायण पाण्डेय (वर्ष 1907 में ग्राम डुमराव, जिला- आजमगढ़, संप्रति मऊ जनपद में जन्म।) पर विशेष डाक आवरण एवं विरूपण का विमोचन किया। आवरण जारी करने के साथ साथ मुख्य अतिथि श्री यादव ने रिमोट द्वारा इस विशेष आवरण के ब्लो-अप का भी अनावरण किया।

वीर-रस के कवि श्याम नारायण पाण्डेय (1907 - 1991) पर जारी विशेष आवरण व विरूपण का विमोचन करते हुए निदेशक डाक सेवाएँ श्री कृष्ण कुमार यादव ने कहा कि श्याम नारायण पाण्डेय वीर रस के सुविख्यात हिन्दी कवि थे। आप केवल कवि ही नहीं अपितु अपनी ओजस्वी वाणी में वीर रस के अनन्यतम प्रस्तोता भी थे । देश-प्रेम और अपने संस्कृति के प्रति अनुराग ही श्याम नारायण पाण्डेय जी को वीर रस के प्रति आकर्षित करता था। तभी तो उन्होने हल्दीघाटीजौहर जैसे उत्कृष्ट महाकाव्य रचे, जिनमें हल्दीघाटी (काव्य) सर्वाधिक लोकप्रिय और जौहर(काव्य) विशेष चर्चित हुए। हल्दीघाटी में वीर शिरोमणि महाराणा प्रताप के जीवन और जौहर में चित्तौड की रानी पद्मिनी के आख्यान हैं। हल्दीघाटी के नाम से विख्यात राजस्थान की इस ऐतिहासिक वीर भूमि के लोकप्रिय नाम पर लिखे गये हल्दीघाटी महाकाव्य पर आपको उस समय का सर्वश्रेष्ठ सम्मान देव पुरस्कार प्राप्त हुआ था। श्री यादव ने कहा कि उन्होने आजीवन निश्चल भाव से साहित्य सृजन किया ।

अपने उदबोधन में निदेशक डाक सेवाएँ श्री कृष्ण कुमार यादव ने कहा कि आजमगढ़ की धरती सदैव से ही साहित्यिक-सांस्कृतिक रूप से उर्वर रही है। यह धरा महान विभूतियों की जन्मस्थली-कर्मस्थली रही है, जिन्होने आजमगढ़ का नाम दुनियाभर में फैलाया। ऐसी विभूतियों की स्मृतियों को सहेज कर रखना एवं युवा पीढ़ी को उनके बारे में बताना हमारा कर्तव्य है। डाक विभाग ऐसी विभूतियों पर समय-समय पर डाक टिकट व विशेष आवरण (लिफाफा) जारी कर समाज एवं राष्ट्र के प्रति अपने सामाजिक दायित्यों का निर्वहन करता है। श्री यादव ने कहा कि आजमगढ़ की विरासत, स्थापत्य, विभूतियों एवं यहाँ से जुड़े अन्य पहलुओं पर डाक-टिकट एवं विशेष आवरण जारी किए जाने को प्रस्ताव यदि प्राप्त होते हैं तो उन्हे बेहद खुशी होगी।

प्रवर डाक अधीक्षक श्री वाई एन द्विवेदी ने कहा कि एक लंबे अंतराल पश्चात आजमगढ़ में इस प्रकार का आयोजन कर बेहद खुशी हो रही है और जिस तरह से यंहा के लोगों ने प्रदर्शनी को हाथों हाथ लिया है, वह हमारे लिए उत्साहजनक है। इस अवसर पर डा0 शारदा सिंह, पूर्व प्राचार्य, डा0 डी पी, पूर्व प्राचार्य ने भी अपने उद्गार व्यक्त किए।

सोमवार, 4 मार्च 2013

'प्रिय प्रवास' के शताब्दी वर्ष में कवि सम्राट पंडित अयोध्या सिंह उपाध्याय 'हरिऔध' पर विशेष आवरण जारी

पिछले दिनों अपने गृह जनपद आजमगढ़ में था। मौका था आजमगढ़ में 9 साल बाद आयोजित दो दिवसीय आजमगढ़ डाक टिकट प्रदर्शनी” (आजमपेक्स-2013, 2-3 मार्च 2013) का। प्रदर्शनी के साथ-साथ इस अवसर पर पंडित अयोध्या सिंह उपाध्याय 'हरिऔध' और वीर रस के कवि श्याम नारायण पाण्डेय पर विशेष डाक-आवरण भी जारी किया गया।
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आज़मगढ़ ने तमाम साहित्यिक विभूतियों को पल्लवित-पुष्पित किया है। इन्हीं में से एक प्रमुख नाम है- कवि सम्राट पंडित अयोध्या सिंह उपाध्याय 'हरिऔध' का। 'हरिऔध' जी की स्मृति में भारतीय डाक विभाग ने 2 मार्च, 2013 को "आजमगढ़ डाक टिकट प्रदर्शनी” (आजमपेक्स-2013) के दौरान एक विशेष डाक आवरण और विरूपण जारी किया। उत्तर प्रदेश परिमंडल के चीफ पोस्टमास्टर जनरल कर्नल कमलेश चन्द्र ने इलाहाबाद/गोरखपुर परिक्षेत्र के निदेशक डाक सेवाएँ एवं चर्चित साहित्यकार व ब्लागर कृष्ण कुमार यादव की अध्यक्षता में आयोजित एक कार्यक्रम में इस विशेष डाक आवरण का विमोचन किया।

चीफ पोस्टमास्टर जनरल कर्नल कमलेश चन्द्र ने कहा कि पंडित अयोध्या सिंह उपाध्याय 'हरिऔध' जी द्वारा रचित खड़ी बोली के प्रथम महाकाव्य 'प्रिय प्रवास' का इस समय शताब्दी वर्ष भी मनाया जा रहा है, ऐसे में डाक विभाग द्वारा उन पर विशेष आवरण जारी किया जाना एक महत्वपूर्ण कदम माना जाना चाहिए।

चर्चित साहित्यकार एवं ब्लागर व सम्प्रति निदेशक डाक सेवाएँ कृष्ण कुमार यादव ने इस अवसर पर हरिऔध जी के योगदान को रेखांकित करते हुए कहा कि हरिऔध जी ने गद्य और पद्य दोनों ही क्षेत्रों में हिंदी की सेवा की। वे द्विवेदी युग के प्रमुख कवि रहे है। उन्होंने सर्वप्रथम खड़ी बोली में काव्य-रचना करके यह सिद्ध कर दिया कि उसमें भी ब्रजभाषा के समान खड़ी बोली की कविता में भी सरसता और मधुरता आ सकती है।

श्री यादव ने कहा कि हरिऔध जी आधुनिक हिंदी खड़ी बोली के पितामह हैं। उन्होंने खड़ी बोली के प्रथम महाकाव्य 'प्रिय प्रवास' की रचना करके साहित्य-जगत में शीर्ष स्थान प्राप्त किया । आज भी हरिऔध जी का काव्य ग्रंथ 'प्रिय प्रवास' तथा 'वैदेही वनवास' हिंदी खड़ी भाषा के मील के पत्थर के रुप में स्वीकार किये जाते हैं। उन्होंने कहा कि हरिऔध जी ने विविध विषयों पर काव्य रचना की है। यह उनकी विलक्षण विशेषता है कि उन्होंने राम-सीता, कृष्ण-राधा जैसे धार्मिक विषयों के साथ-साथ आधुनिक समस्याओं को भी अपनी रचनाओं में लिया है और उन पर नवीन ढंग से अपने विचार प्रस्तुत किए हैं। वास्तव में देखा जाये तो प्राचीन और आधुनिक भावों के मिश्रण से 'हरिऔध' जी के काव्य में एक अद्भुत चमत्कार उत्पन्न हो गया है।

कार्यक्रम में साहित्यकार डा0 कन्हैया सिंह ने हरिऔध जी के जीवन पर प्रकाश डालते हुए कहा कि अयोध्या सिंह उपाध्याय 'हरिऔध' (15 अप्रैल, 1865-16 मार्च, 1947) हिन्दी के एक सुप्रसिद्ध साहित्यकार है। इनका जन्म उत्तर प्रदेश के आज़मगढ़ जिले के निजामाबाद नामक स्थान में हुआ। सन १८८९ में हरिऔध जी को सरकारी नौकरी मिल गई। वे कानूनगो हो गए। इस पद से सन १९३२ में अवकाश ग्रहण करने के बाद हरिऔध जी ने काशी हिंदू विश्वविद्यालय के हिंदी विभाग में अवैतनिक शिक्षक के रूप से कई वर्षों तक अध्यापन कार्य किया। सन १९४१ तक वे इसी पद पर कार्य करते रहे। उसके बाद यह निजामाबाद वापस चले आए। इस अध्यापन कार्य से मुक्त होने के बाद हरिऔध जी अपने गाँव में रह कर ही साहित्य-सेवा कार्य करते रहे। अपनी साहित्य-सेवा के कारण हरिऔध जी ने काफी ख़्याति अर्जित की। हिंदी साहित्य सम्मेलन ने उन्हें एक बार सम्मेलन का सभापति बनाया और विद्यावाचस्पति की उपाधि से सम्मानित किया। सन १९४५ ई० में निजामाबाद में आपका देहावसान हो गया।

 
                              (साभार : समाचार-पत्रों में प्रकाशित समाचार से )