समर्थक / Followers

बुधवार, 6 अक्टूबर 2010

अस्तित्व के लिए जूझते अंडमान के आदिवासी

भारत सरकार ने 29 सितम्बर को 10 आदिवासियों को 12 अंकों वाली विशिष्ट पहचान संख्या सौंप कर बहुचर्चित ‘आधार‘ परियोजना के शुभारंभ की घोषणा की। पर यह हैरतअंगेज है कि जिसे हर भारतीय की पहचान के लिए पहल रूप में देखा जा रहा है उससे अण्डमान-निकोबार द्वीप समूह के आदिवासी महरूम रहेंगे। दुनिया की सबसे पुरानी जनजातियों में शामिल यहाँ के आदिवासियों को सरकार का यह बयान मानो चिढ़ाता है कि विशिष्ट संख्या जारी करना नए आधुनिक भारत का संकेत देता है। हर आदिवासी के मन में यह सवाल उठता है कि क्या वे आधुनिक भारत नहीं बल्कि पाषणकालीन भारत के अवशेष हैं। आखिर सरकार इनके कल्याण के लिए क्यों नहीं सोचती ?

ग्रेट अंडमानीज जिन्होंने कभी अंग्रेज हुकूमत को ललकारा था, आज 43 पर सिमट गए हैं। ओंगी (96), जारवा (240), शोम्पेन (398) व सेंटीनली की संख्या मात्र 39 बची है। सरकार इन्हें भोजन दे रही है, पर यह भोजन ही उनके शरीर का क्षय कर रही है। आखिर बैठे-बैठे भोजन किसे अच्छा नहीं लगता, पर इस भोजन ने उनकी शिकार-प्रवृत्ति को ख़त्म कर काफी हद तक कमजोर भी बना दिया है. इसी के साथ उनके अन्दर तमाम रोगों और बुराइयों का भी प्रवेश हो रहा है, नतीजन संक्रमणकालीन अवस्था के बीच वे रोज अपनी जिंदगी के दिन गिन रहे हैं. इनमें से सेंटीनली आदिवासियों से तो अभी आत्मीय संपर्क तक नहीं हो सका है। जारवा लोगों के कौतुहल का केंद्र-बिंदु बने हुए हैं और इनके नाम पर पर्यटन का धंधा भी अच्छा चल रहा है। सुबह और शाम वे पोर्टब्लेयर से बाराटांग जानी वाली रोड के किनारे खड़े होकर पर्यटकों से बिस्कुट और अन्य खाने की वस्तुओं की मांग करते हैं। लोग गाड़ियाँ रोकते हैं, जारवाओं को खाद्य-सामग्री व कभी-कभी कपड़े देते हैं और बदले में उनकी तस्वीरों को कैद कर लेते हैं। अभी भी पाषाण काल में जी रहे जारवा कई बार पें-पे (पैसे ) की मांग भी करते हैं और न मिलने पर कैमरा इत्यादि लेकर भाग जाते हैं। जारवा-महिलाएं सजधजकर सड़कों के किनारे छुपी रहती हैं और मौका पाकर अचानक गाड़ियों पर झपट्टा मारकर खाद्य-सामग्री लेकर जंगलों में कूद जाती हैं। समस्या यह है कि जारवा मुख्यधारा में तो आना चाहते हैं, पर सरकार उन्हें उनकी सीमाओं में ही कैद रखना चाहती है। अचूक निशानेबाजी उनका लक्षण है पर उनके इलाके के बीच दौड़ रही सड़क और तथाकथित सभ्य जन उन्हें भयभीत करते हैं। पेट की भूख शांत करने के लिए वे पर्यटकों के सामने हाथ फैलाते हैं तो पर्यटक उनकी फोटोग्राफ कैद करने के लिए लालची बना रहे हैं।

पता नहीं सरकारों को कब समझ आएगा कि अण्डमान-निकोबार के आदिवासी भी आधुनिक भारत का अंग हैं। द्वीपों में अक्सर विदेशियों द्वारा घुसपैठ बढ़ रही है, डर लगता है कहीं वे इन्हें भी न बरगलाने लगें। मुख्यभूमि के आदिवासियों पर नक्सलवाद-माओवाद के आरोप लगाए जा रहे हैं, शुक्र है यहाँ के आदिवासी इन सबसे बचे हुए हैं। पर उनकी लगातार अनदेखी कठिनाईयाँ भी पैदा कर सकती हैं। शिकार के अभाव में कमजोर होते इन आदिवासियों की जनसंख्या वैसे भी विलुप्त होने के कगार पर है, पर हर भारतीय की पहचान के लिए पहल करती सरकार यदि इनकी पहचान व अस्तित्व-रक्षा के लिए भी प्रबंध करती तो बेहतर होता। अन्यथा, अभी तक तो ये उस आधुनिक भारत से कोसों दूर हैं, जहाँ प्रतीकात्मक रूप में आदिवासियों के नाम पर हो रही हलचल को समझने का प्रयास किया जा रहा है।

दुर्भाग्यवश अण्डमान-निकोबार के आदिवासियों को मतदान का अधिकार भी नहीं है। वे भारतीय संविधान में 18 वर्ष से ऊपर की आयु के हर व्यक्ति को मतदान के अधिकार के अपवाद हैं....? यदि समय रहते सरकार ने इन्हें मुख्यधारा से जोड़कर इनका वाजिब हक नहीं दिया तो फिर इन्हें भी गलत रास्तों पर जाने से रोकना दुःस्साध्य होगा।

(चित्र में सड़क किनारे कड़ी जारवा महिला और हाथ में बिस्कुट और तीर-धनुष लिए जारवा पुरुष)

23 टिप्‍पणियां:

Unknown ने कहा…

अंडमान के आदिवासियों की विडंबना को आपने बड़े करीने से प्रस्तुत किया, काश सरकार इस ओर गंभीर होती....

Unknown ने कहा…

..चित्र देखकर तो लगता है कि वाकई ये पाषाण कल में रह रहे हैं.

जितेन्द्र ‘जौहर’ Jitendra Jauhar ने कहा…

सुनामी के दौरान भारतीय TV चैनलों ने इन पर काफी Stories टेलीकास्ट की थीं। तब मुझे बड़ा आश्चर्य हुआ था कि आधुनिक दौर में भी पाषाणकालीन जीवन-शैली वाले लोग/प्रजातियाँ अभी मौजूद हैं।
आपकी लेखनी इस दिशा में चली,अच्छा लगा।

Dr. Zakir Ali Rajnish ने कहा…

काश आपकी चिंता सरकार की भी चिंता बनती।

डॉ टी एस दराल ने कहा…

ऐसे तो कुछ ही सालों में ये भी extinct हो जायेंगे ।
आखिर कब तक मुख्य धारा से बचे रहेंगे ।

राज भाटिय़ा ने कहा…

हमारी सरकार अब सोई हुयी है, जब किसी ने इन्हे बहकाया तो फ़िर इन्हे ही बुरा कहेगी ओर मारेगी,,, समझ नही आती कि यह लोग पाषाण काल मे रह रहे हे या हमारी सरकार का दिमाग ही पाषाण काल का हे जो अपने नागरिको सही ओर उचित स्थान नही दे पा रही

Mrityunjay Kumar Rai ने कहा…

very touching post. i wonder , why the Govt is not trying to put them in the mainstream?

प्रवीण पाण्डेय ने कहा…

विशिष्टों को विशिष्ट पहचान।

बेनामी ने कहा…

विचारोत्तेजक

Asha Joglekar ने कहा…

कैसी विडंबना है । हमारी अपनी सरकार ही भेदभाव कर रही है । आपने इस स्थिति से अवगत कराया ।

Arvind Mishra ने कहा…

दुखद

Dr. Brajesh Swaroop ने कहा…

ग्रेट अंडमानीज जिन्होंने कभी अंग्रेज हुकूमत को ललकारा था, आज 43 पर सिमट गए हैं। ओंगी (96), जारवा (240), शोम्पेन (398) व सेंटीनली की संख्या मात्र 39 बची है....आधार परियोजना अच्छी है, पर इन आदिवासियों की सुध भी तो लें. आपने ज्वलंत पोस्ट लगाई....आभार.

Dr. Brajesh Swaroop ने कहा…

ग्रेट अंडमानीज जिन्होंने कभी अंग्रेज हुकूमत को ललकारा था, आज 43 पर सिमट गए हैं। ओंगी (96), जारवा (240), शोम्पेन (398) व सेंटीनली की संख्या मात्र 39 बची है....आधार परियोजना अच्छी है, पर इन आदिवासियों की सुध भी तो लें. आपने ज्वलंत पोस्ट लगाई....आभार.

Akanksha Yadav ने कहा…

वाकई अंदमान के आदिवासी विलुप्त होने के कगार पर हैं. यदि सरकार ने समय रहते नहीं सोचा तो सब कुछ ख़त्म ही है. हाल ही में यहाँ की सबसे प्राचीन 'बो' भाषा ऐसे ही विलुप्त हो गई.

arvind ने कहा…

bahut saarthak lekh.....aadhunik shabd bharat ke sandarbh me majaak lagtaa hai.

उपेन्द्र नाथ ने कहा…

अंडमान के आदिवासियों की विवशता का बहुत अच्छा चित्रण किया है आपने. काश सरकार उनकी सुध लेती व उनकी बेहतरी के लिये कुछ करती बजाय उनका तमाशा बनाने के.

virendra pratap yadav ने कहा…

nice article but its one sided. its not only the responsibility of government. we are also equally responsible for this.

if i m right photography of jarwas or other tribes of andaman is not allowed.

every culture is nice and necessary for its members. why should it be necessary that they come in mainstream if they are happy in their own culture? nobody has right to impose his or her culture on other.

the policy of government is to give them food was wrong and fully failed. this time not government but we tourists are making them paralyzed by giving food,money or other things to them.

third, we so called civilized people are interacting with them , is this right that we are taking their pictures , calling them "paleolithic", enriching our album by strange (our view towards them) videos or pictures.

so we have to ask our self is this only governments responsibility for their bad conditions or we so called civilized people who are calling them paleolithic are also equally responsible.

so please respect all cultures

raghav ने कहा…

मुख्यभूमि के आदिवासियों पर नक्सलवाद-माओवाद के आरोप लगाए जा रहे हैं, शुक्र है यहाँ के आदिवासी इन सबसे बचे हुए हैं। पर उनकी लगातार अनदेखी कठिनाईयाँ भी पैदा कर सकती हैं। ...अंदमान के आदिवासियों की स्थिति देखकर बड़ा दुःख हुआ...

raghav ने कहा…

नवरात्र की शुभकामनायें..

शरद कुमार ने कहा…

दुनिया की सबसे पुरानी जनजातियों के बारे में जानकर-देखकर अच्छा लगा और उनकी दुर्दशा पर दुःख भी हुआ. महत्वपूर्ण पोस्ट.

शरद कुमार ने कहा…

नवरात्र के पावन अवसर पर आपको और आपके परिवार के सभी सदस्यों को हार्दिक शुभकामनाएं और बधाई!

editor : guftgu ने कहा…

कृष्ण जी,

अंदमान के आदिवासियों पर पहली बार इतने विस्तार से कोई लेख पढ़ रहा हूँ. तमाम अनजानी बातों से भी रु-ब-रु होने का मौका मिला. आपकी लेखनी प्रभावित करती है. मुबारकवाद स्वीकारें.

Dr. Milind Patil ने कहा…

अंडमान मूलनिवासी निवासी तो लुप्त हो ही रहे है साथ मे उनकी कला,संस्कृति भाषा भी लुप्त हो रही है.