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मंगलवार, 22 सितंबर 2015

बचपन की कुछ यादें...


चलिए आज बचपन की कुछ यादें ताजा कर लेते हैं। शायद इसी बहाने फिर से वो बचपन लौट आये। याद है, बचपन में 1 रु. की पतंग के पीछे 2 किलोमीटर तक भागते थे। न जाने कितनी बार चोटें खाईं, पर फिर भी हमेशा वही जज्बा। आज पता चलता है, दरअसल वो पतंग नहीं थी; एक चैलेंज थी। वैसे भी खुशियाँ बैठे-बैठे नहीं मिलतीं। खुशियों को हांसिल करने के लिए दौड़ना पड़ता है। वो दुकानो पर नहीं मिलती...शायद यही जिंदगी की दौड़ है !!

जरा गौर करियेगा -

जब बचपन था, तो जवानी एक ड्रीम थी।
जब जवान हुए, तो बचपन एक ज़माना था!!

जब घर में रहते थे, आज़ादी अच्छी लगती थी। 
आज आज़ादी है, फिर भी घर जाने की जल्दी रहती है!!

कभी होटल में जाना पिज़्ज़ा, बर्गर खाना पसंद था। 
आज घर पर आना और माँ के हाथ का खाना पसंद है!!!

स्कूल में जिनके साथ झगड़ते थे। 
आज उनको ही फेसबुक पर तलाशते है!!

ख़ुशी किसमें  होती है, ये पता अब चला है।  
बचपन क्या था, इसका एहसास अब हुआ है !! 

काश बदल सकते हम ज़िंदगी के कुछ साल। 
काश जी सकते हम, ज़िंदगी फिर एक बार !!



याद करिये वो दिन-

जब हम अपने शर्ट में हाथ छुपाते थे 
और लोगों से कहते फिरते थे देखो मैंने
अपने हाथ जादू से हाथ गायब कर दिए। 

जब हमारे पास चार रंगों से लिखने वाली
एक पेन हुआ करती थी और हम
सभी के बटन को एक साथ दबाने
की कोशिश किया करते थे। 

जब हम दरवाज़े के पीछे छुपते थे
ताकि अगर कोई आये तो उसे डरा सकें । 

जब आँख बंद कर सोने का नाटक करते थे 
ताकि कोई हमें गोद में उठाके बिस्तर तक पहुँचा  दे |

सोचा करते थे की ये चाँद 
हमारी साइकिल के पीछे-पीछे क्यों चल रहा है। 

ऑन-ऑफ़ वाले स्विच को बीच में
अटकाने की कोशिश किया करते थे। 

फल के बीज को इस डर से नहीं खाते थे 
की कहीं हमारे पेट में पेड़ न उग जाए। 

बर्थडे सिर्फ इसलिए मनाते थे
ताकि ढेर सारे गिफ्ट मिले। 

फ्रिज को धीरे से बंद करके ये जानने की 
कोशिश करते थे की इसकी लाइट कब बंद होती हैं। 

सच, बचपन में सोचते हम बड़े क्यों नहीं हो रहे
और अब सोचते हैं कि हम बड़े क्यों हो गए ?




एक गीतकार की पंक्तियाँ याद आती हैं -

ये दौलत भी ले लो, ये शोहरत भी ले लो 
भले छीन लो मुझसे मेरी जवानी
मगर मुझको लौटा दो बचपन का सावन
वो कागज़ की कश्ती वो बारिश का पानी !!

- कृष्ण कुमार यादव @ शब्द-सृजन की ओर 

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