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मंगलवार, 15 जून 2010
मानवता के दुश्मन
रात का सन्नाटा अचानक चीख पड़ती हैं मौतें किसी ने हिन्दुओं को दोषी माना तो किसी ने मुसलमां को पर किसी ने नहीं सोचा कि न तो ये हिंदू थे न मुसलमां बस मानवता के दुश्मन थे।
17 टिप्पणियां:
waah bahut khoob...
चन्द पंक्तिया और सच का सामना
यही तो होता आया है
बहुत सुन्दर
बिलकुल सच्ची बात
sach kah diya aapne
http://sanjaykuamr.blogspot.com/
अंतिम पंक्तियों ने दिल को छू लिया.... बहुत सुंदर.....
ऐ आसमान तेरे,
खुदा का नहीं है खौफ।
डरते हैं ऐ ज़मीन,
तेरे इन्सान से हम।
गज़ब्……………………बिल्कुल सही कहा।
nice
बहुत ही मार्मिक किन्तु सत्य का चित्रण
बधाई
गज़ब के.के. जी ..मान गए आपकी रचनात्मकता को..शत-शत बधाई !!
कम शब्दों में धारदार बात...कायल हूँ आपका.
एक सच, जो हम रोज समाज में देखते हैं..अनुपम कविता.
बहुत बड़ी बात कह दी आपने कृष्ण कुमार जी . काश कि हर कोई ऐसा ही सोचता.
न तो ये हिंदू थे न मुसलमां
बस मानवता के दुश्मन थे।
....आपने तो हमारे मन की बात कह दी...बधाई.
मुझे भी पसंद आई पापा की यह कविता...
आप सभी लोगों को हमारी यह कविता पसंद आई, आपने इसे सराहा..आभार. अपना स्नेह यूँ ही बनाये रहें !!
सुन्दर सोच...बेहतरीन रचना.
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