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सोमवार, 28 जून 2010

अंडमान के मड-वोल्केनो (कीचड़ वाले ज्वालामुखी)

अंडमान-निकोबार में प्राकृतिक विविधता हर रूप में देखने को मिलती है, फिर वह चाहे प्रकृति के अद्भुत नज़ारे हों या प्रकृति का प्रकोप. भूकंप, सुनामी, ज्वालामुखी जैसी जैसी चीजों से कई बार बड़ा डर लगता है, पर उनका रोमांच भी अलग है. अंडमान में ही भारत का एकमात्र सक्रिय ज्वालामुखी भी बैरन आइलैंड पर है तो भारत में मड-वोल्केनो (कीचड़ ज्वालामुखी) भी सिर्फ अंडमान में ही पाए जाते हैं. पिछले दिनों बाराटांग के दौरे पर गया तो वहाँ इन मड-वोल्केनो से भी रु-ब-रु होने का मौका मिला. पंक (कीचड़) ज्वालामुखी सामान्यतया एक लघु व अस्थायी संरचना हैं जो पृथ्वी के अन्दर जैव व कार्बनिक पदाथों के अपक्षय से उत्सर्जित प्राकृतिक गैस द्वारा निर्मित होते हैं। गैस जैसे-जैसे अन्दर से कीचड़ को बाहर फेंकती है, यह जमा होकर कठोर होती जाती है। वक्त के साथ यही पंक ज्वालामुखी का रुप ले लेती है, जिसके क्रेटर से कीचड़, गैस व पत्थर निकलता रहता है।

विश्व में अधिकतर पंक ज्वालामुखी काला सागर व कैस्पियन सागर के तटों पर मिलते हैं। इनमें वेनेजुएला, ताइवान, इंडानेशिया, रोमानिया और अजरबैजान के बाकू शहर प्रसिद्ध हैं। अब तक कुल खोजे गए 700 पंक ज्वालामुखी में से 300 पूर्वोतर अजरबैजान व कैस्पियन सागर में हैं। सबसे विशाल पंक ज्वालामुखी कैस्पियन सागर क्षेत्र में पाया गया है, जो कि लगभग एक कि0मी0 चैड़ा व उंचाई सैकड़ा मी0 में है। समुद्र के अंदर से तरल पदार्थ बाहर निकलने का पंक ज्वालामुखी एक प्रमुख स्रोत है। जहाँ सामान्य ज्वालामुखी में भूपटल को फोड़कर पिघले पत्थर, राख, वाष्प व लावा निकलते है, वहीं पंक ज्वालामुखी से कीचड़, गैस व पत्थर निकलते हैं। उत्सर्जन के दौरान निकला कीचड़ गर्म नहीं अपितु ठण्डा होता है।

बंगाल की खाड़ी में स्थित भारत के अंडमान-निकोबार द्वीप समूह के बाराटांग द्वीप में जारवा क्रीक गाँव में 18 फरवरी 2003 की सांय 7:45 बजे सर्वप्रथम पंक ज्वालामुखी का उद्भव हुआ। जबरदस्त विस्फोट के साथ उत्पन्न इस प्रक्रिया में थोड़ा कंपन भी महसूस हुआ। इससे पूर्व 1983 में इसी जगह दरार पड़ गई थी। अंतिम बार यह 26 दिसम्बर 2004 को जबरदस्त विस्फोट व कंपन के साथ उत्सर्जित हुआ था।

फिलहाल अंडमान में इस तरह के 11 पंक ज्वालामुखी पाए गए हैं, जिनमें से 08 बाराटांग व मध्य अंडमान में एवं 03 डिगलीपुर (उत्तरी अंडमान) में अवस्थित हैं। ये पंक ज्वालामुखी 1000-1200 वर्ग मी0 के क्षेत्र में विस्तृत हैं और लगभग 30 मी0 व्यास व 2 मी0 उंचे अर्धवृत्ताकार टिब्बे का निर्माण करते हैं। इनके चलते विवर्तनिक रुप से अस्थायी भू-भागों का निर्माण होता है और कालांतर में ऐसी परिघटनाओं से ही नए द्वीपों का भी निर्माण होता है। ये मानव व मानवीय संपत्ति को नुकसान पहुंचा सकते हैं। फिलहाल ये पर्यटकों के लिए आर्कषण का केद्र-बिन्दु हैं।


(जनसत्ता में 13 जून, 2010 को प्रकाशित : इसे आप पाखी की दुनिया में भी पढ़ सकते हैं )













सोमवार, 21 जून 2010

सुबह का अख़बार

आज सुबह का अख़बार देखा
वही मार-काट, हत्या और बलात्कार
रोज पढ़ता हूँ इन घटनाओं को
बस पात्रों के नाम बदल जाते हैं
क्या हो गया है इस समाज को
ये घटनायें उसे उद्वेलित नहीं करतीं
सिर्फ ख़बर बनकर रह जाती हैं
कोई नहीं सोचता कि यह घटना
उसके साथ भी हो सकती है
और लोग उसे अख़बारों में पढ़कर
चाय की चुस्कियाँ ले रहे होंगे।

शुक्रवार, 18 जून 2010

रानी लक्ष्मीबाई का दुर्लभतम फोटोग्राफ



झाँसी की रानी लक्ष्मीबाई का यह दुर्लभ फोटो 160 साल पहले अर्थात वर्ष 1850 में कोलकाता में रहने वाले अंग्रेज फोटोग्राफर जॉनस्टोन एंड हॉटमैन ने खींचा था। इस फोटो को पिछले वर्ष 19 अगस्त, 2009 को भोपाल में आयोजित विश्व फोटोग्राफी प्रदर्शनी में प्रदर्शित किया गया था। यह चित्र अहमदाबाद के एक पुरातत्व महत्व की वस्तुओं के संग्रहकर्ता अमित अम्बालाल ने भेजा था। माना जाता है कि रानी लक्ष्मीबाई का यही एकमात्र फोटोग्राफ उपलब्ध है।


!! आज ही रानी लक्ष्मीबाई की पुण्यतिथि भी है, पुनीत स्मरण !!

मंगलवार, 15 जून 2010

मानवता के दुश्मन

रात का सन्नाटा
अचानक चीख पड़ती हैं मौतें
किसी ने हिन्दुओं को दोषी माना
तो किसी ने मुसलमां को
पर किसी ने नहीं सोचा कि
न तो ये हिंदू थे न मुसलमां
बस मानवता के दुश्मन थे।

शुक्रवार, 11 जून 2010

मौत

आज मैंने मौत को देखा!
अर्द्धविक्षिप्त अवस्था में हवस की शिकार
वो सड़क के किनारे पड़ी थी!
ठण्डक में ठिठुरते भिखारी के
फटे कपड़ों से वह झांक रही थी!
किसी के प्रेम की परिणति बनी
मासूम के साथ नदी में बह रही थी!
नई-नवेली दुल्हन को दहेज की खातिर
जलाने को तैयार थी!
साम्प्रदायिक दंगों की आग में
वह उन्मादियों का बयान थी!
चंद धातु के सिक्कों की खातिर
बिकाऊ ईमान थी!
आज मैंने मौत को देखा!

सोमवार, 7 जून 2010

ये इन्सान

यह कैसा देश है
जहाँ लोग लड़ते हैं मजहब की आड़ में
नफरत के लिए
पर नहीं लड़ता कोई मोहब्बत की खातिर।

दूसरों के घरों को जलाकर
आग तापने वाले भी हैं
पर किसी को खुद के जलते
घर को देखने की फुर्सत नहीं।

एक वो भी हैं जो खुद को जलाकर
दूसरों को रोशनी देते हैं
पर नफरत है उन्हें उस रोशनी से भी
कहीं इस रोशनी में उनका चेहरा न दिख जाये।

फिर भी वे अपने को इंसान कहते हैं
पर उन्हें इंसानियत का पैमाना ही नहीं पता
डरते हैं वे अपने अंदर के इंसान को देखने से
कहीं यह उनको ही न जला दे।

शनिवार, 5 जून 2010

पाठ्यक्रमों से परे पर्यावरण को रोज के व्यवहार से जोड़ने की जरुरत

मानव सभ्यता के आरंभ से ही प्रकृति के आगोश में पला और पर्यावरण की सुरक्षा के प्रति सचेत रहा। पर जैसे-जैसे विकास के सोपानों को मानव पार करता गया, प्रकृति का दोहन व पर्यावरण से खिलवाड़ रोजमर्रा की चीज हो गई. ऐसे में आज समग्र विश्व में पर्यावरण चर्चा व चिंता का विषय बना हुआ है। इसके प्रति चेतना जागृत करने के उद्देश्य से संयुक्त राष्ट्रसंघ के तत्वावधान में हर वर्ष 5 जून को 'विश्व पर्यावरण दिवस' का आयोजन वर्ष 1972 से आरम्भ किया गया। इसका प्रमुख उद्देश्य पर्यावरण के प्रति राजनैतिक-सामाजिक-आर्थिक जागरूकता लाते हुए सभी को इसके प्रति सचेत व शिक्षित करना एवं पर्यावरण-संरक्षण के प्रति प्रेरित करना है. प्रकृति और पर्यावरण, हम सभी को बहुत कुछ देते हैं, पर बदले में कभी कुछ माँगते नहीं। पर हम इसी का नाजायज फायदा उठाते हैं और उनका ही शोषण करने लगते हैं। हमें हर किसी के बारे में सोचने की फुर्सत है, पर प्रकृति और पर्यावरण के बारे में नहीं. यदि पर्यावरण इसी तरह प्रदूषित होता रहे तो क्या होगा... कुछ नहीं। ना हम, ना आप और ना ये सृष्टि. पर इसके बावजूद रोज प्रकृति व पर्यावरण से खिलवाड़ किये जा रहे हैं. हम नित धरती माँ को अनावृत्त किये जा रहे हैं. जिन वृक्षों को उनका आभूषण माना जाता है, उनका खात्मा किये जा रहे हैं. विकास की इस अंधी दौड़ के पीछे धरती के संसाधनों का जमकर दोहन किये जा रहे हैं. वाकई विकास व प्रगति के नाम पर जिस तरह से हमारे वातावरण को हानि पहुँचाई जा रही है, वह बेहद शर्मनाक है. हम सभ्यता का गला घोंट रहें हैं. हम जिस धरती की छाती पर बैठकर इस प्रगति व लम्बे-लम्बे विकास की बातें करते हैं, उसी छाती को रोज घायल किये जा रहे हैं. पृथ्वी, पर्यावरण, पेड़-पौधे हमारे लिए दिनचर्या नहीं अपितु पाठ्यक्रमों का हिस्सा बनकर रह गए हैं. वास्तव में देखा जाय तो पर्यावरण शुद्ध रहेगा तो आचरण भी शुद्ध रहेगा. लोग निरोगी होंगे और औसत आयु भी बढ़ेगी. पर्यावरण-रक्षा कार्य नहीं, बल्कि धर्म है.


सौभाग्य से आज विश्व पर्यावरण दिवस है। लम्बे-लम्बे भाषण, दफ्ती पर स्लोगन लेकर चलते बच्चे, पौधारोपण के कुछ सरकारी कार्यक्रम....शायद कल के अख़बारों में पर्यावरण दिवस को लेकर यही कुछ दिखेगा और फिर हम भूल जायेंगे. हम कभी साँस लेना नहीं भूलते, पर स्वच्छ वायु के संवाहक वृक्षों को जरुर भूल गए हैं। यही कारण है की नित नई-नई बीमारियाँ जन्म ले रही हैं. इन बीमारियों पर हम लाखों खर्च कर डालते हैं, पर अपने पर्यावरण को स्वस्थ व स्वच्छ रखने के लिए पाई तक नहीं खर्च करते.


एक दिन मेरी बिटिया अक्षिता बता रही थी कि पापा, आज स्कूल में टीचर ने बताया कि हमें अपने पर्यावरण की रक्षा करनी चाहिए। पहले तो पेड़ काटो नहीं और यदि काटना ही पड़े तो एक की जगह दो पेड़ लगाना चाहिए। पेड़-पौधे धरा के आभूषण हैं, उनसे ही पृथ्वी की शोभा बढती है और पर्यावरण स्वच्छ रहता है। पहले जंगल होते थे तो खूब हरियाली होती, बारिश होती और सुन्दर लगता पर अब जल्दी बारिश भी नहीं होती, खूब गर्मी भी पड़ती है...लगता है भगवान जी नाराज हो गए हैं. इसलिए आज सभी लोग संकल्प लेंगें कि कभी भी किसी पेड़-पौधे को नुकसान नहीं पहुँचायेंगे, पर्यावरण की रक्षा करेंगे, अपने चारों तरफ खूब सारे पौधे लगायेंगे और उनकी नियमित देख-रेख भी करेंगे. अक्षिता के नन्हें मुँह से कही गई ये बातें मुझे देर तक झकझोरती रहीं। आखिर हम बच्चों में प्रकृति और पर्यावरण की सुरक्षा के संस्कार क्यों नहीं पैदा करते. मात्र स्लोगन लिखी तख्तियाँ पकड़ाने से पर्यावरण का उद्धार संभव नहीं है. इस ओर सभी को तन-मन-धन से जुड़ना होगा. अन्यथा हम रोज उन अफवाहों से डरते रहेंगे कि पृथ्वी पर अब प्रलय आने वाली है. पता नहीं इस प्रलय के क्या मायने हैं, पर कभी ग्लोबल वार्मिंग, कभी सुनामी, कभी कैटरीना व आईला चक्रवात तो कभी बाढ़, सूखा, भूकंप, आगजनी और अकाल मौत की घटनाएँ ॥क्या ये प्रलय नहीं है? गौर कीजिये इस बार तो चिलचिलाती ठण्ड के तुरंत बाद ही चिलचिलाती गर्मी आ गई, हेमंत, शिशिर, बसंत का कोई लक्षण ही नहीं दिखा..क्या ये प्रलय नहीं है. अभी भी वक़्त है, हम चेतें अन्यथा प्रकृति कब तक अनावृत्त होकर हमारे अनाचार सहती रहेंगीं. जिस प्रलय का इंतजार हम कर रहे हैं, वह इक दिन इतने चुपके से आयेगी कि हमें सोचने का मौका भी नहीं मिलेगा.


ऐसे में जरुरत हें कि हम खुद ही चेतें और प्रकृति व पर्यावरण के संरक्षण को मात्र पाठ्यक्रमों व कार्यक्रमों की बजाय अपने दैनिंदिन व्यवहार का हिस्सा बनायें. आज पर्यावरण के प्रति लोगों को सचेत करने के लिए सामूहिक जनभागीदारी द्वारा भी तमाम कदम उठाये जा रहे हैं. मसलन, फूलों को तोड़कर उपहार में बुके देने की बजाय गमले में लगे पौधे भेंट किये जाएँ. स्कूल में बच्चों को पुरस्कार के रूप में पौधे देकर, उनके अन्दर बचपन से ही पर्यावरण संरक्षण का बोध कराया जा सकता है. जीवन के यादगार दिनों मसलन- जन्मदिन, वैवाहिक वर्षगाँठ या अन्य किसी शुभ कार्य की स्मृतियों को सहेजने के लिए पौधे लगायें और उनका पोषण करें. री-सायकलिंग द्वारा पानी की बर्बादी रोकें और टॉयलेट इत्यादि में इनका उपयोग करें. पानी और बिजली का अपव्यय रोकें. फ्लश का इस्तेमाल कम से कम करें. शानो-शौकत में बिजली की खपत को स्वत: रोकें. सूखे वृक्षों को भी तभी काटा जाय, जब उनकी जगह कम से कम दो नए पौधे लगाने का प्रण लिया जाय. अपनी वंशावली को सुरक्षित रखने हेतु ऐसे बगीचे तैयार किये जा सकते हैं, जहाँ हर पीढ़ी द्वारा लगाये गए पौधे मौजूद हों. यह मजेदार भी होगा और पर्यावरण को सुरक्षित रखने की दिशा में एक नेक कदम भी. हमारे पूर्वजों ने यूँ ही नहीं कहा है कि- 'एक वृक्ष - दस पुत्र सामान.'

गुरुवार, 3 जून 2010

भिखमंगों का ईश्वर


मंदिर के सामने

भिखमंगों की कतारें

एक साथ ही उनके कटोरे

ऐसे आगे बढ़ जाते हैं

मानों सब यंत्रवत हों

दस-दस पैसे की बाट जोहते वे

मंदिर के सामने होकर भी

मंदिर में नहीं जाते

क्योंकि वे सिर्फ

एक ही ईश्वर को जानते हैं

जो उनके कटोरे में

पैसे गिरा देता है।