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शुक्रवार, 23 अप्रैल 2010

पुस्तकों के प्रति आकर्षण जरुरी (विश्व पुस्तक दिवस पर)

पढना किसे अच्छा नहीं लगता। बचपन में स्कूल से आरंभ हुई पढाई जीवन के अंत तक चलती है. पर दुर्भाग्यवश आजकल पढ़ने की प्रवृत्ति लोगों में कम होती जा रही है. पुस्तकों से लोग दूर भाग रहे हैं. हर कुछ नेट पर ही खंगालना चाहते हैं. शोध बताते हैं कि इसके चलते लोगों की जिज्ञासु प्रवृत्ति और याद करने की क्षमता भी ख़त्म होती जा रही है. बच्चों के लिए तो यह विशेष समस्या है. पुस्तकें बच्चों में अध्ययन की प्रवृत्ति, जिज्ञासु प्रवृत्ति, सहेजकर रखने की प्रवृत्ति और संस्कार रोपित करती हैं. पुस्तकें न सिर्फ ज्ञान देती हैं, बल्कि कला-संस्कृति, लोकजीवन, सभ्यता के बारे में भी बताती हैं. नेट पर लगातार बैठने से लोगों की आँखों और मस्तिष्क पर भी बुरा असर पड़ रहा है. ऐसे में पुस्तकों के प्रति लोगों में आकर्षण पैदा करना जरुरी हो गया है. इसके अलावा तमाम बच्चे गरीबी के चलते भी पुस्तकें नहीं पढ़ पाते, इस ओर भी ध्यान देने की जरुरत है. 'सभी के लिए शिक्षा कानून' को इसी दिशा में देखा जा रहा है.


आज विश्व पुस्तक दिवस है. यूनेसको ने 1995 में इस दिन को मनाने का निर्णय लिया, कालांतर में यह हर देश में व्यापक होता गया. लोगों में पुस्तक प्रेम को जागृत करने के लिए मनाये जाने वाले इस दिवस पर जहाँ स्कूलों में बच्चों को पढ़ाई की आदत डालने के लिए सस्ते दामों पर पुस्तकें बाँटने जैसे अभियान चलाये जा रहे हैं, वहीँ स्कूलों या फिर सार्वजनिक स्थलों पर प्रदर्शनियां लगाकर पुस्तक पढ़ने के प्रति लोगों को जागरूक किया जा रहा है. स्कूली बच्चों के अलावा उन लोगों को भी पढ़ाई के लिए जागरूक किया जाना जरुरी है जो किसी कारणवश अपनी पढ़ाई छोड़ चुके हैं। बच्चों के लिए विभिन्न जानकारियों व मनोरंजन से भरपूर पुस्तकों की प्रदर्शनी जैसे अभियान से उनमें पढ़ाई की संस्कृति विकसित की जा सकती है. पुस्तकालय इस सम्बन्ध में अहम् भूमिका निभा सकते हैं, बशर्ते उनका रख-रखाव सही ढंग से हो और स्तरीय पुस्तकें और पत्र-पत्रिकाएं वहाँ उपलब्ध कराई जाएँ। वाकई आज पुस्तकों के प्रति ख़त्म हो रहे आकर्षण के प्रति गंभीर होकर सोचने और इस दिशा में सार्थक कदम उठाने की जरुरत है. विश्व पुस्तक दिवस पर अपना एक बाल-गीत भी प्रस्तुत कर रहा हूँ-




प्यारी पुस्तक, न्यारी पुस्तक

ज्ञानदायिनी प्यारी पुस्तक

कला-संस्कृति, लोकजीवन की

कहती है कहानी पुस्तक।


अच्छी-अच्छी बात बताती

संस्कारों का पाठ पढ़ाती

मान और सम्मान बड़ों का

सुन्दर सीख सिखाती पुस्तक।



सीधी-सच्ची राह दिखाती

ज्ञान पथ पर है ले जाती

कर्म और कर्तव्य हमारे

सदगुण हमें सिखाती पुस्तक।

गुरुवार, 22 अप्रैल 2010

प्रलय का इंतजार

आज की यह पोस्ट माँ पर, पर वो माँ जो हर किसी की है। जो सभी को बहुत कुछ देती है, पर कभी कुछ माँगती नहीं। पर हम इसी का नाजायज फायदा उठाते हैं और उसका ही शोषण करने लगते हैं। जी हाँ, यह हमारी धरती माँ है. हमें हर किसी के बारे में सोचने की फुर्सत है, पर धरती माँ की नहीं. यदि धरती ही ना रहे तो क्या होगा... कुछ नहीं। ना हम, ना आप और ना ये सृष्टि. पर इसके बावजूद हम नित उसी धरती माँ को अनावृत्त किये जा रहे हैं. जिन वृक्षों को उनका आभूषण माना जाता है, उनका खात्मा किये जा रहे हैं. विकास की इस अंधी दौड़ के पीछे धरती के संसाधनों का जमकर दोहन किये जा रहे हैं. हम जिसकी छाती पर बैठकर इस प्रगति व लम्बे-लम्बे विकास की बातें करते हैं, उसी छाती को रोज घायल किये जा रहे हैं. पृथ्वी, पर्यावरण, पेड़-पौधे हमारे लिए दिनचर्या नहीं अपितु पाठ्यक्रमों का हिस्सा बनकर रह गए हैं. सौभाग्य से आज विश्व पृथ्वी दिवस है. लम्बे-लम्बे भाषण, दफ्ती पर स्लोगन लेकर चलते बच्चे, पौधारोपण के कुछ सरकारी कार्यक्रम....शायद कल के अख़बारों में पृथ्वी दिवस को लेकर यही कुछ दिखेगा और फिर हम भूल जायेंगे. हम कभी साँस लेना नहीं भूलते, पर स्वच्छ वायु के संवाहक वृक्षों को जरुर भूल गए हैं। यही कारण है की नित नई-नई बीमारियाँ जन्म ले रही हैं. इन बीमारियों पर हम लाखों खर्च कर डालते हैं, पर अपने परिवेश को स्वस्थ व स्वच्छ रखने के लिए पाई तक नहीं खर्च करते.


आज आफिस के लिए निकला तो बिटिया अक्षिता बता रही थी कि पापा आपको पता है आज विश्व पृथ्वी दिवस है। आज स्कूल में टीचर ने बताया कि हमें पेड़-पौधों की रक्षा करनी चाहिए। पहले तो पेड़ काटो नहीं और यदि काटना ही पड़े तो एक की जगह दो पेड़ लगाना चाहिए। पेड़-पौधे धरा के आभूषण हैं, उनसे ही पृथ्वी की शोभा बढती है. पहले जंगल होते थे तो खूब हरियाली होती, बारिश होती और सुन्दर लगता पर अब जल्दी बारिश भी नहीं होती, खूब गर्मी भी पड़ती है...लगता है भगवान जी नाराज हो गए हैं. इसलिए आज सभी लोग संकल्प लेंगें कि कभी भी किसी पेड़-पौधे को नुकसान नहीं पहुँचायेंगे, पर्यावरण की रक्षा करेंगे, अपने चारों तरफ खूब सारे पौधे लगायेंगे और उनकी नियमित देख-रेख भी करेंगे.


अक्षिता के नन्हें मुँह से कही गई ये बातें मुझे देर तक झकझोरती रहीं. आखिर हम बच्चों में धरती और पर्यावरण की सुरक्षा के संस्कार क्यों नहीं पैदा करते. मात्र स्लोगन लिखी तख्तियाँ पकड़ाने से धरा का उद्धार संभव नहीं है. इस ओर सभी को तन-माँ-धन से जुड़ना होगा. अन्यथा हम रोज उन अफवाहों से डरते रहेंगे कि पृथ्वी पर अब प्रलय आने वाली है. पता नहीं इस प्रलय के क्या मायने हैं, पर कभी ग्लोबल वार्मिंग, कभी सुनामी, कभी कैटरिना चक्रवात तो कभी बाढ़, सूखा, भूकंप, आगजनी और अकाल मौत की घटनाएँ ..क्या ये प्रलय नहीं है. गौर कीजिये इस बार तो चिलचिलाती ठण्ड के तुरंत बाद ही चिलचिलाती गर्मी आ गई, हेमंत, शिशिर, बसंत का कोई लक्षण ही नहीं दिखा..क्या ये प्रलय नहीं है. अभी भी वक़्त है, हम चेतें अन्यथा धरती माँ कब तक अनावृत्त होकर हमारे अनाचार सहती रहेंगीं. जिस प्रलय का इंतजार हम कर रहे हैं, वह इक दिन इतने चुपके से आयेगी कि हमें सोचने का मौका भी नहीं मिलेगा !!

धरती से मरूभूमि भगाएं (पृथ्वी दिवस पर प्रस्तुति)



सुन्दर-सुन्दर वृक्ष घनेरे

सबको सदा बुलाते

ले लो फल-फूल सुहाने

सब कुछ सदा लुटाते।


करते हैं जीवन का पोषण

नहीं करो तुम इनका शोषण

धरती पर होगी हरियाली

तो सारे जग की खुशहाली।


वृक्ष कहीं न कटने पाएं

संकल्पों के हाथ उठाएं

ढेर सारे पौधे लगाकर

धरती से मरूभूमि भगाएं।

मंगलवार, 20 अप्रैल 2010

संबंधों की दुनिया (कविता)

सम्बन्धों के मकड़जाल से
भरी हुई है दुनिया
एक सम्बन्ध से नाता टूटा
तो दूसरे सम्बन्ध जुड़ गये
हर दिन न जाने कितने ही
सम्बन्धों से जुड़ते हैं लोग
कोई औपचारिक
तो कोई अनौपचारिक
पर कई सम्बन्ध
ऐसे भी होते हैं
जो न चाहते हुये भी
जुड़ जाते हैं,
क्योंकि
उनका नाता कहीं
मन की गहराईयों से होता है
ये सम्बन्ध
साथ भले
ही न निभा सकें
पर चेतन या अवचेतन में
उनकी टीस सदा बनी रहती है।

मंगलवार, 13 अप्रैल 2010

विचारों का पुंज छोड़ गए डा0 अम्बेडकर ( अम्बेडकर जयंती पर )

आधुनिक भारत के निर्माताओं में डा0 भीमराव अम्बेडकर का नाम प्रमुखता से लिया जाता है पर स्वयं डा0 अम्बेडकर को इस स्थिति तक पहुँचने के लिये तमाम सामाजिक कुरीतियों और भेदभाव का सामना करना पड़ा। डा0 अम्बेडकर मात्र एक साधारण व्यक्ति नहीं थे वरन् दार्शनिक, चिंतक, विचारक, शिक्षक, सरकारी सेवक, समाज सुधारक, मानवाधिकारवादी, संविधानविद और राजनीतिज्ञ इन सभी रूपों में उन्होंने विभिन्न भूमिकाओं का निर्वाह किया। 14 अप्रैल, 1891 को इन्दौर के निकट महू कस्बे में अछूत जाति माने जाने वाले महार परिवार में जन्मे अम्बेडकर रामजी अम्बेडकर की 14वीं सन्तान थे। यह संयोग ही कहा जाएगा कि जिस वर्ष डा0 अम्बेडकर का जन्म हुआ, उसी वर्ष महात्मा गाँधी वकालत पास कर लंदन से भारत वापस आए। डा0 अम्बेडकर के पिता रामजी अम्बेडकर सैन्य पृष्ठभूमि के थे एवं विचारों से क्रान्तिकारी थे। उनके संघर्षस्वरूप सेना में महारों के प्रवेश पर लगी पाबन्दी को हटाकर सन् 1914 में प्रथम विश्व युद्ध के दौरान ‘महार बटालियन’ की स्थापना हुयी।



डा0 अम्बेडकर पर बुद्ध, कबीरदास और ज्योतिबाफुले की अमिट छाप पड़ी थी। बुद्ध से उन्होंने शारीरिक व मानसिक शान्ति का पाठ लिया, कबीर से भक्ति मार्ग तो ज्योतिबाफुले से अथक संघर्ष की प्रेरणा। यही नहीं अमेरिका और लन्दन में अध्ययन के दौरान वहाँ के समाज, परिवेश व संविधान का भी आपने गहन अध्ययन किया और उसे भारतीय परिवेश में उतारने की कल्पना की। अमेरिका के 14वंे संविधान संशोधन जिसके द्वारा काले नीग्रों को स्वाधीनता के अधिकार प्राप्त हुए, से वे काफी प्रभावित थे और इसी प्रकार दलितों व अछूतों को भी भारत में अधिकार दिलाना चाहते थे। 20 मार्च 1927 को महाड़ में आपने दलितों का एक विशाल सम्मेलन बुलाया और उनकी अन्तरात्मा को झकझोरते हुए अपने पैरों पर खड़ा होने और स्वचेतना से स्वाभिमान व सम्मान पैदा करने की बात कही। उन्होंने दलितों का आह्यन किया कि वे सरकारी नौकरियों में बढ़-चढ़कर भाग लें वहीं दूसरी तरफ यह भी कहा कि- ‘‘अपना घर-बार त्यागो, जंगलों की तरफ भागो और जंगलों पर कब्जा कर उसे कृषि लायक बनाकर अपना अधिकार जमाओ।’’ इस आन्दोलन से रातोंरात डा0 अम्बेडकर दलितों के सर्वमान्य नेता के रूप में उभरकर सामने आए। डा0 अम्बेडकर का स्पष्ट मानना था कि राजनैतिक स्वतंत्रता से पूर्व सामाजिक एवं आर्थिक समानता जरूरी है। अम्बेडकर का मानना था कि वर्ण व्यवस्था का सीधा दुष्प्रभाव भले ही दलितों व पिछड़ों मात्र पर दिखता है पर जब इसी सामाजिक विघटन के कारण देश गुलाम हुआ तो सवर्ण भी बिना प्रभावित हुए नहीं रह सके।



डा0 अम्बेडकर अपनी योग्यता की बदौलत सन् 1942 में वायसराय की कार्यकारी परिषद के सदस्य भी बने एवम् कालान्तर में संविधान सभा के सदस्य भी चुने गये। संविधान सभा की प्रारूप समिति के अध्यक्ष रूप में आपने संविधान का पूरा खाका खींचा और उसमें समाज के दलितों व पिछड़े वर्गों की बेहतरी के लिए भी संवैधानिक प्रावधान सुनिश्चित किए। स्वतंत्रता पश्चात डा0 अम्बेडकर भारत के प्रथम कानून मंत्री भी बने पर महिलाओं को सम्पति में बराबर का हिस्सा देने के लिये उनके द्वारा संसद में पेश किया गया ‘हिन्दू कोड बिल’ निरस्त हो जाने से वे काफी आहत हुए और 10 अक्टूबर 1951 को मंत्रिमण्डल से त्यागपत्र दे दिया।



1935 में नासिक जिले के भेवले में आयोजित महार सम्मेलन में ही अम्बेडकर ने घोषणा कर दी थी कि- ‘‘आप लोगों को यह जानकर आश्चर्य होगा कि मैं धर्म परिवर्तन करने जा रहा हूँ। मैं हिन्दू धर्म में पैदा हुआ, क्योंकि यह मेरे वश में नहीं था लेकिन मैं हिन्दू धर्म में मरना नहीं चाहता। बौद्ध धर्म ग्रहण करने के कुछ ही दिनों पश्चात 6 दिसम्बर 1956 को डा0 अम्बेडकर ने नश्वर शरीर को त्याग दिया पर ‘आत्मदीपोभव’ की तर्ज पर समाज के शोषित, दलित व अछूतों के लिये विचारों की एक पुंज छोड़ गए।
आज डा0 अम्बेडकर को लेकर मत-विमत में राजनीति बहुतेरे करते हैं, पर उनके दिखाए रास्ते पर बहुत कम ही लोग चलते हैं. उन्होंने दलित-पिछड़ों के समन्वय का सपना देखा था, वह असमय कल-कवलित हो गया. जब तक इस धरती पर शोषण है, छूत-अछूत की भावना है, शोषक शक्तियों द्वारा दमितों का दोहन है..तब तक डा0 अम्बेडकर की प्रासंगिकता स्वमेव बनी रहेगी.

- कृष्ण कुमार यादव

बुधवार, 7 अप्रैल 2010

अधूरे अहसास और टूटे सपने

जब छोटे थे तब बड़े होने की तमन्ना करते थे।

मगर अब पता चला कि अधूरे अहसास और टूटे सपने से अच्छा अधूरे होमवर्क और टूटे खिलौने थे !!

शनिवार, 3 अप्रैल 2010

आतंकवाद : एक विश्वव्यापी समस्या

आतंकवाद समकालीन युग की सर्वाधिक ज्वलंत अन्तर्राष्ट्रीय समस्या है। कोई भी ऐसा देश नहीं है, जो इसकी पीड़ा से न गुजरा हो। भूमण्डलीकरण के दायरे के साथ ही आतंकवाद का भी दायरा बढ़ता गया और आज यह सुरसा के मुँह की तरह विभिन्न रूपों में फैल रहा है। इसमें लिंग आधारित आतंकवाद, अभिजातवादी आतंकवाद, दलित चेतनावादी आतंकवाद, क्षेत्रीय पृथकतावादी आतंकवाद, सांप्रदायिक आतंकवाद, जातीय आतंकवाद, जेहादी आतंकवाद, विस्तारवादी आतंकवाद से लेकर प्रायोजित आतंकवाद तक शामिल हैं। वस्तुतः आतंकवाद एक ऐसा सिद्धांत है जो भय या त्रास के माध्यम से अपने लक्ष्य की पूर्ति करने में विश्वास करता है।

तमाम विचारक आतंक को मानव की आदिम वृत्ति के रूप में देखते हैं। इस मत के अनुसार जंगलों में रहना, शिकार करना, हिंसक जंतुओं से लड़ना एवं बलपूर्वक अपने जीवनयापन की व्यवस्था करने में कहीं-न-कहीं आतंक परिलक्षित होता है। प्रख्यात नोबेल पुरस्कार विजेता जीव-शास्त्री काॅनराड लाॅरेन्स की मानें तो- ‘‘जीव की अधिकांश प्रजातियों के साथ ही मनुष्य में भी अपनी प्रजाति की दूसरी इकाई के प्रति स्वाभाविक आक्रामक आतंक वृत्ति होती है। एक सीमा पर पहुँचकर यह आक्रामक आतंक बिना किसी वाह्य उत्तेजना के सक्रिय हो सकता है।‘‘ आतंक की चर्चा हमारे पौराणिक ग्रन्थों में भी है। महाकवि तुलसीदास ने इसके विभिन्न रूपों की चर्चा की है-

बाढ़े खल बहु चोर जुआरा। जे लंपट परधन परदारा।।
मानहिं मात-पिता नहीं देवा। साधुन्ह सन करवावहिं सेवा।।
जिन्ह के यह आचरन भवानी। ते जानहु निसिचर सब प्रानी।।

आज आतंकवाद एक संगठित उद्योग का रूप धारण कर चुका है। एक जगह से आतंक खत्म होता नजर आता है, तो दूसरी जगह यह तेजी से सर उठाने लगता है। कभी सम्भ्यताओं के संघर्ष के बहाने तो कभी धर्म की आड़ में रोज तमाम जीवन-लीलाओं का यह लोप कर रहा है। इसका शिकार शिशु से लेकर वृद्धजन तक हैं। आतंक फैलाने वाले लोग अपने आप को राष्ट्रवादी, क्रांतिकारी या निष्ठावान सैनिक कहलाना पसंद करते हैं। ‘इनसाइक्लोपीडिया आॅफ दि सोशल साइंसेज‘ के अनुसार-‘‘आतंकवाद वह पद है जिसका प्रयोग विधि अथवा विधि के पीछे सिद्धांत की व्याख्या के लिए किया जाता है और जिससे एक संगठित समूह या पार्टी अपने स्पष्ट लक्ष्यों की प्राप्ति मुख्य रूप से व्यवस्थित हिंसा के प्रयोग द्वारा करता है।‘‘

यहाँ पर स्पष्ट करना जरूरी है कि आतंकवाद और हिंसा पूर्ण रूप से एक ही नहीं हैं। आतंकवाद मात्र हिंसा नहीं है बल्कि यह आतंक से विवश करने की एक विधि है, जिससे लोगों को उन कार्यों को करने के लिए बाध्य किया जाता है जिसे वे मृत्यु, भय चोट या पीड़ा के बिना नहीं कर पाते। आतंकवाद में एक राजनीतिक उद्देश्य निहित होता है, जो उसे आपराधिक हिंसा से पृथक करता है। वस्तुतः आतंकवाद एक लघु व सीमित संगठन द्वारा संचालित होता है और इसको अपने निश्चित लम्बे प्रोग्राम और लक्ष्य से प्रेरणा मिलती है और उसी के लिए आतंक उत्पन्न किया जाता है। जबकि हिंसा के पीछे कोई संगठित कार्यक्रम व सुनियोजन नहीं होता है एवं इसमें बौद्धिकता का भी पूर्ण अभाव होता है। सबसे बड़ी विडम्बना तो यह है कि वर्तमान में आतंकवाद एक राजनीतिक कार्य की सशक्त पद्धति के रूप में अन्तर्राष्ट्रीय स्तर पर फैला रहा है। तमाम देश अन्य देशों में अपने हितों को साधने के लिए प्रायोजित आतंकवाद को बढ़ावा दे रहे हैं, जिसे किसी भी रूप में उचित नहीं ठहराया जा सकता। यही कारण है कि संयुक्त राष्ट्र संघ जैसी वैश्विक संस्था भी आतंकवाद के समूल उन्मूलन के लिए कड़े कदम नहीं उठा पाती है। मात्र घोषणा पत्र जारी करने, शांति-सैनिक भेजने से आतंक की समस्या खत्म नहीं होती बल्कि इसके लिए समुचित संसाधनों एवं राजनैतिक प्रतिबद्धता की आवश्यकता है।

मर्यादा पुरूषोत्तम श्री राम एवं भगवान श्री कृष्ण का उदाहरण हमारे सामने है। श्री राम ने जहाँ अपने स्वभाव व मर्यादा के दम पर तमाम राक्षस-राक्षसियों का खात्मा किया, वहीं ‘रावण‘ रूपी आतंक को भी बानरों-रीछों की संगठित सेना द्वारा खत्म कर ‘राम राज्य‘ की स्थापना की। श्रीराम का बनवासी होना इस बात का प्रतीक था कि आतंक को खत्म करने के लिए राजसत्ता से ज्यादा प्रतिबद्धता जरूरी है, सैनिकों की बजाय उनकी एकता व सूझबूझ जरूरी है। श्रीराम का आतंकवाद के विरूद्ध अभियान सामूहिक उत्तरदायित्व व सामूहिक नेतृत्व का परिणाम है, जिसमें वे लोकनायक के रूप में उभरते हैं। श्री कृष्ण ने कौरवों की 18 अक्षौहिणी सेना को अपने नेतृत्व, कुशल मार्गदर्शन, एकता एवं सक्षम कूटनीति के चलते ही परास्त किया। रामायण और महाभारत के युद्ध इतिहास का एक नया अध्याय रचते हैं तो सिर्फ इस कारण कि उन्होंने आतातायियों के संगठित आतंक के विरूद्ध जनमानस को न सिर्फ एकत्र किया बल्कि मानवता को यह संदेश भी दिया कि ‘‘सत्य सदैव विजयी होता है।‘‘ कालांतर में महात्मा बुद्ध व महावीर जैन ने अहिंसा को धर्म से परे मानव जीवन की सद्वृत्तियों से जोड़ा। आधुनिक काल में महात्मा गाँधी ने अंग्रेजी राज रूपी आतंक को खत्म करने के लिए सत्याग्रह एवं अहिंसा का सहारा लिया। उन्होंने प्रतिपादित किया कि कोई भी आतंक एक लंबे समय तक नहीं रह सकता, बशर्ते उसके खात्मे के लिए किसी प्रायोजित आतंक का सहारा न लिया जाय। महात्मा गाँधी मानसिक आतंकवाद को ज्यादा बड़ी समस्या मानते थे न कि भौतिक आतंकवाद को। इसी कारण उन्होंने विचारों को खत्म करने की बजाय उसे बदलने पर जो दिया।

निश्चिततः आतंकवाद आज विश्वव्यापी समस्या है। भौतिक आतंकवाद की बजाय ‘मानसिक‘ एवं ‘प्रायोजित‘ आतंकवाद में इजाफा हुआ है। आतंकी गतिविधियों को प्रोत्साहन देने वाले देश यह भूल जाते हैं कि आतंक का कोई जाति, धर्म लिंग या राष्ट्र नहीं होता। अपनी क्षुधा शांत करने के लिए आतंकी अपने जन्मदाता को भी निगल सकता है। ऐसे में जरूरत आतंक के केंद्र बिन्दु पर चोट करने की है। श्री राम भी रावण को तभी खत्म कर पाए जब उन्होंने उसके नाभि स्थल पर बाण भेंदा। आज भी आतंकवाद के खात्मे के लिए इसी नीति को अपनाने की जरूरत है।