आतंकवाद समकालीन युग की सर्वाधिक ज्वलंत अन्तर्राष्ट्रीय समस्या है। कोई भी ऐसा देश नहीं है, जो इसकी पीड़ा से न गुजरा हो। भूमण्डलीकरण के दायरे के साथ ही आतंकवाद का भी दायरा बढ़ता गया और आज यह सुरसा के मुँह की तरह विभिन्न रूपों में फैल रहा है। इसमें लिंग आधारित आतंकवाद, अभिजातवादी आतंकवाद, दलित चेतनावादी आतंकवाद, क्षेत्रीय पृथकतावादी आतंकवाद, सांप्रदायिक आतंकवाद, जातीय आतंकवाद, जेहादी आतंकवाद, विस्तारवादी आतंकवाद से लेकर प्रायोजित आतंकवाद तक शामिल हैं। वस्तुतः आतंकवाद एक ऐसा सिद्धांत है जो भय या त्रास के माध्यम से अपने लक्ष्य की पूर्ति करने में विश्वास करता है।
तमाम विचारक आतंक को मानव की आदिम वृत्ति के रूप में देखते हैं। इस मत के अनुसार जंगलों में रहना, शिकार करना, हिंसक जंतुओं से लड़ना एवं बलपूर्वक अपने जीवनयापन की व्यवस्था करने में कहीं-न-कहीं आतंक परिलक्षित होता है। प्रख्यात नोबेल पुरस्कार विजेता जीव-शास्त्री काॅनराड लाॅरेन्स की मानें तो- ‘‘जीव की अधिकांश प्रजातियों के साथ ही मनुष्य में भी अपनी प्रजाति की दूसरी इकाई के प्रति स्वाभाविक आक्रामक आतंक वृत्ति होती है। एक सीमा पर पहुँचकर यह आक्रामक आतंक बिना किसी वाह्य उत्तेजना के सक्रिय हो सकता है।‘‘ आतंक की चर्चा हमारे पौराणिक ग्रन्थों में भी है। महाकवि तुलसीदास ने इसके विभिन्न रूपों की चर्चा की है-
बाढ़े खल बहु चोर जुआरा। जे लंपट परधन परदारा।।
मानहिं मात-पिता नहीं देवा। साधुन्ह सन करवावहिं सेवा।।
जिन्ह के यह आचरन भवानी। ते जानहु निसिचर सब प्रानी।।
आज आतंकवाद एक संगठित उद्योग का रूप धारण कर चुका है। एक जगह से आतंक खत्म होता नजर आता है, तो दूसरी जगह यह तेजी से सर उठाने लगता है। कभी सम्भ्यताओं के संघर्ष के बहाने तो कभी धर्म की आड़ में रोज तमाम जीवन-लीलाओं का यह लोप कर रहा है। इसका शिकार शिशु से लेकर वृद्धजन तक हैं। आतंक फैलाने वाले लोग अपने आप को राष्ट्रवादी, क्रांतिकारी या निष्ठावान सैनिक कहलाना पसंद करते हैं। ‘इनसाइक्लोपीडिया आॅफ दि सोशल साइंसेज‘ के अनुसार-‘‘आतंकवाद वह पद है जिसका प्रयोग विधि अथवा विधि के पीछे सिद्धांत की व्याख्या के लिए किया जाता है और जिससे एक संगठित समूह या पार्टी अपने स्पष्ट लक्ष्यों की प्राप्ति मुख्य रूप से व्यवस्थित हिंसा के प्रयोग द्वारा करता है।‘‘
यहाँ पर स्पष्ट करना जरूरी है कि आतंकवाद और हिंसा पूर्ण रूप से एक ही नहीं हैं। आतंकवाद मात्र हिंसा नहीं है बल्कि यह आतंक से विवश करने की एक विधि है, जिससे लोगों को उन कार्यों को करने के लिए बाध्य किया जाता है जिसे वे मृत्यु, भय चोट या पीड़ा के बिना नहीं कर पाते। आतंकवाद में एक राजनीतिक उद्देश्य निहित होता है, जो उसे आपराधिक हिंसा से पृथक करता है। वस्तुतः आतंकवाद एक लघु व सीमित संगठन द्वारा संचालित होता है और इसको अपने निश्चित लम्बे प्रोग्राम और लक्ष्य से प्रेरणा मिलती है और उसी के लिए आतंक उत्पन्न किया जाता है। जबकि हिंसा के पीछे कोई संगठित कार्यक्रम व सुनियोजन नहीं होता है एवं इसमें बौद्धिकता का भी पूर्ण अभाव होता है। सबसे बड़ी विडम्बना तो यह है कि वर्तमान में आतंकवाद एक राजनीतिक कार्य की सशक्त पद्धति के रूप में अन्तर्राष्ट्रीय स्तर पर फैला रहा है। तमाम देश अन्य देशों में अपने हितों को साधने के लिए प्रायोजित आतंकवाद को बढ़ावा दे रहे हैं, जिसे किसी भी रूप में उचित नहीं ठहराया जा सकता। यही कारण है कि संयुक्त राष्ट्र संघ जैसी वैश्विक संस्था भी आतंकवाद के समूल उन्मूलन के लिए कड़े कदम नहीं उठा पाती है। मात्र घोषणा पत्र जारी करने, शांति-सैनिक भेजने से आतंक की समस्या खत्म नहीं होती बल्कि इसके लिए समुचित संसाधनों एवं राजनैतिक प्रतिबद्धता की आवश्यकता है।
मर्यादा पुरूषोत्तम श्री राम एवं भगवान श्री कृष्ण का उदाहरण हमारे सामने है। श्री राम ने जहाँ अपने स्वभाव व मर्यादा के दम पर तमाम राक्षस-राक्षसियों का खात्मा किया, वहीं ‘रावण‘ रूपी आतंक को भी बानरों-रीछों की संगठित सेना द्वारा खत्म कर ‘राम राज्य‘ की स्थापना की। श्रीराम का बनवासी होना इस बात का प्रतीक था कि आतंक को खत्म करने के लिए राजसत्ता से ज्यादा प्रतिबद्धता जरूरी है, सैनिकों की बजाय उनकी एकता व सूझबूझ जरूरी है। श्रीराम का आतंकवाद के विरूद्ध अभियान सामूहिक उत्तरदायित्व व सामूहिक नेतृत्व का परिणाम है, जिसमें वे लोकनायक के रूप में उभरते हैं। श्री कृष्ण ने कौरवों की 18 अक्षौहिणी सेना को अपने नेतृत्व, कुशल मार्गदर्शन, एकता एवं सक्षम कूटनीति के चलते ही परास्त किया। रामायण और महाभारत के युद्ध इतिहास का एक नया अध्याय रचते हैं तो सिर्फ इस कारण कि उन्होंने आतातायियों के संगठित आतंक के विरूद्ध जनमानस को न सिर्फ एकत्र किया बल्कि मानवता को यह संदेश भी दिया कि ‘‘सत्य सदैव विजयी होता है।‘‘ कालांतर में महात्मा बुद्ध व महावीर जैन ने अहिंसा को धर्म से परे मानव जीवन की सद्वृत्तियों से जोड़ा। आधुनिक काल में महात्मा गाँधी ने अंग्रेजी राज रूपी आतंक को खत्म करने के लिए सत्याग्रह एवं अहिंसा का सहारा लिया। उन्होंने प्रतिपादित किया कि कोई भी आतंक एक लंबे समय तक नहीं रह सकता, बशर्ते उसके खात्मे के लिए किसी प्रायोजित आतंक का सहारा न लिया जाय। महात्मा गाँधी मानसिक आतंकवाद को ज्यादा बड़ी समस्या मानते थे न कि भौतिक आतंकवाद को। इसी कारण उन्होंने विचारों को खत्म करने की बजाय उसे बदलने पर जो दिया।
निश्चिततः आतंकवाद आज विश्वव्यापी समस्या है। भौतिक आतंकवाद की बजाय ‘मानसिक‘ एवं ‘प्रायोजित‘ आतंकवाद में इजाफा हुआ है। आतंकी गतिविधियों को प्रोत्साहन देने वाले देश यह भूल जाते हैं कि आतंक का कोई जाति, धर्म लिंग या राष्ट्र नहीं होता। अपनी क्षुधा शांत करने के लिए आतंकी अपने जन्मदाता को भी निगल सकता है। ऐसे में जरूरत आतंक के केंद्र बिन्दु पर चोट करने की है। श्री राम भी रावण को तभी खत्म कर पाए जब उन्होंने उसके नाभि स्थल पर बाण भेंदा। आज भी आतंकवाद के खात्मे के लिए इसी नीति को अपनाने की जरूरत है।
21 टिप्पणियां:
आतंकवाद सचमुच आदमी की आदिम वृति है पर उससे बाहर आने की जरूरत है , जरूरी पोस्ट .
आपने आतंकवाद के विभिन्न रूप दिखाए ।
बेशक यह सदियों से रहा है । लेकिन जैसे जैसे कलियुग का प्रकोप बढ़ता जा रहा है , वैसे वैसे आतंकवाद भी बढ़ता जा रहा है। सद्बुद्धि की ज़रुरत है। लेकिन कहाँ से आएगी । आज मानव ही अपने निहित स्वार्थ में डूबकर मानव जाति को ही नष्ट करने पर तुला है।
अच्छा आलेख।
@ सुशीला पुरी जी,
सही कहा आपने. पर मानव की यह आदिम वृत्ति जल्दी जाती नहीं. उस दिन का ही तो इंतजार है.
@ डॉ टी एस दराल जी,
सही कहा आपने.आज मानव ही अपने निहित स्वार्थ में डूबकर मानव जाति को ही नष्ट करने पर तुला है।
बहुत सटीक पोस्ट और बढ़िया विश्लेषण....बिभिन्न रूप का....
जरूरत आतंक के केंद्र बिन्दु पर चोट करने की है। श्री राम भी रावण को तभी खत्म कर पाए जब उन्होंने उसके नाभि स्थल पर बाण भेंदा। आज भी आतंकवाद के खात्मे के लिए इसी नीति को अपनाने की जरूरत है।
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आपने तो मर्म की बात कह दी. लाजवाब विश्लेषण..बधाई.
निश्चित रूप से आतंकवाद पूरे विश्व के लिए एक गंभीर समस्या बन चुका है। जल्द से जल्द इसके उन्मूलन के लिए सभी देशों को कड़े कदम उठाने होंगे।
आतँकवाद की नाभि पर हमला समय की माँग है।राजनेता जब तक गिरगिट की तरह अपना रँग बदलते रहेँगे इसका विनाश नहीँ हो सकता है।
आतंक रूपी विषबेल के खात्मे के लिए राजनैतिक इच्छा शक्ति होना बहुत जरुरी है, अन्यथा सब कुछ गर्त में है...शानदार आलेख की बधाई.
आतंकवाद, नक्सलवाद, माओवाद....पता नहीं कितने रूप हैं. सुरसा की तरह मुंह बाये आतंक की समाप्ति के लिए जड़ पर चोट करना जरुरी है और इसके लिए लोगों को भोजन, शिक्षा और रोजगार देना होगा ताकि वे आतंक की ओर मुंह न मोड़ें. राजनैतिक संरक्षण ख़त्म करना होगा और पुलिस/सेना के हाथ खोलने होंगे. अन्यथा बातें तो खूब होती रहेंगीं. इस ज्वलंत मुद्दे पर ध्यानाकर्षण के लिए साधुवाद !!
Bahut sargarbhit alekh !!
Excellent Article, Sir. You are welcome at http://www.flickr.com/photos/prabhatmisra . Thanks Sir.
Atankvad vakai desh ko sadiyon se jakde huye hai | umda lekh abhar
Atankvad par sundar prastuti..!!
आपका यह आलेख अच्छा लगा.
सुन्दर शब्दों में प्रासंगिक लेख..आभार.
bahut hi accha lekh hai.aatankwad ka khatma karne ke liye sabhi desho ko kade kadam uthane chahiye
atankwad jaruri bhi hai kyonki rawan nahi hota to ram ko kaun pujata, kans nahi hota to krishna ko kaun janata. hussain nahi hota to bush ko kaun manata. baharhal atankwad ek junk ki tarah hai jo puri manavata ko dhwast kar raha hai. apka lekh pad kar accha laga.
atankwad jaruri bhi hai kyonki rawan nahi hota to ram ko kaun pujata, kans nahi hota to krishna ko kaun janata. hussain nahi hota to bush ko kaun manata. baharhal atankwad ek junk ki tarah hai jo puri manavata ko dhwast kar raha hai. apka lekh pad kar accha laga.
mujhe lagta hai bharat ke rajnitigyo ab bhartiy kanoon ko bahaut sakth kar dena chahiye
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