भारत आज भौतिक उन्नति के पथ पे है. ये हर्ष और गौरव की बात है. चाहे हम वैज्ञानिक उपलब्धियों की बात कर ले या आर्थिक मोर्चे पर अपनी स्वर्णिम सफलताओ पे नज़र डाल ले तो हम ये पाएंगे कि भारत अपने तमाम विरोधाभासो के बावजूद एक महाशक्ति के रूप में उभर रहा है. ये उस देश के लिए गर्व की बात है जिसने एक लम्बे समय तक दासता झेली हो. पर क्या उस देश को सिर्फ इन उपलब्धियों को ही सर्वस्व मान लेना चाहिए जिस देश में ज्ञान के उच्त्तम सोपानो पे विचरण करना नैसर्गिक माना जाता रहा हो. भौतिक उपलब्धियों पे गर्व करना अलग बात है पर उनको सर्वस्व या अंतिम लक्ष्य मान लेना अलग बात है. दुःख की बात है की जिस देश में ज्ञान की महिमा का बखान होता रहा है आज उसी देश में कंचन और काया की प्रधानता है.
ऐसा क्यों हुआ कि पूंजीपति कि इज्ज़त ज्ञानियो से अधिक हो गयी. ज्ञान का पलड़ा पूँजी से हल्का कैसे हो गया? पाश्चात्य संस्कृति से महज अच्छे गुण लेने के बजाय हमने उसको अपना पथ प्रदर्शक क्यों मान लिया? विश्लेषण करने वाले कह सकते है कि भाई ये तो लॉर्ड मैकाले कि शिक्षा पद्वत्ति का कमाल है . उसने चाहा था कि हमारे न रहने पर भी एक ऐसी नस्ल तैयार हो जो कि सिर्फ तन से भारतीय हो. उसने चाहा कि ऐसी प्रजाति का जन्म हो जिसे अपने प्राचीन श्रेष्ठ गुणों को आत्मसात करने में शर्म महसूस हो, एक ग्लानि बोध का भाव उत्पन्न हो.एक ऐसी नस्ल तैयार हो जिसे अपने ही गौरव को धिक्कारनमें रस का अनुभव हो. मुझे कहने में सकोच नहीं कि मैकाले ने जो चाल चली उसमे वो कामयाब रहा. अगर वो आज जिन्दा होता तो अपनी सफलता पर खुश हो रहा होता. आज आप कही भी नज़र डाल के देखिये सब उसी के चेले आपको नज़र आयेंगे.एक ऐसा देश अस्तित्व में आ गया है जिसमे लोग सरस्वती पूजा को तो लोग सांप्रदायिक मानते है पर वैलेंटाइन डे को अंगीकार करने में कोई हायतौबा नहीं मचती.
इस अजीबोगरीब माहौल में आज जरुरत है उन बुद्धिजीवियों, लेखको कि जो हम भारतीयों को प्रचीन मूल्यों को गर्व के साथ अपनाने का मार्ग प्रशस्त कर सके. अगर ऐसा न हुआ तो हम भी उसी गति को प्राप्त होगे जो उन सभ्यताओ का हुआ जिनमे भौतिक मूल्यो पे ज्यादा आस्था प्रकट की गयी.इसी सोच के साथ सलिल ज्ञवाली ने “भारत क्या है” पुस्तक को लिखा है. आज के युग में गरिमामय मूल्यों को पुनर्स्थापित या फिर प्राचीन सनातन संस्कृति के आदर्शो में लोगो का विश्वास फिर से बहाल करना टेढ़ी खीर है. सलिल जी ने इस चुनौती को स्वीकार करते हुए एक दुष्कर शोध और कठिन मेहनत के उपरान्त “भारत क्या है” की रचना की है. यह पुस्तक विश्वव्यापी हो चुकी हैं जिसका प्रकाशन सिघ्र ही अमेरिका से भी होने जा रही हैं।
इस अनुपम पुस्तक में सलिल जी ने पाश्चात्य विचारको, वैज्ञानिको के साथ ही भारतीय विचारको के कथन का हवाला देते हुए इस बात की पुष्टि की है कि जिस सनातन संस्कृति के ज्ञान को हम श्रद्धा के साथ आत्मसात करने में हिचकते है वही ज्ञान पाश्चात्य जगत के महान वैज्ञानिको, लेखको और इतिहासकारों की नज़रो में अमूल्य और अमृत सामान है. वे हमारे ऋषि मुनियों के ज्ञान को बहुत आदर कि दृष्टि से देखते है. कितने आश्चर्य कि बात है कि हम आज इसी ज्ञान को रौंद कर आगे बढ़ रहे है .
सलिल जी की इस अद्भुत कृति में आप आइन्स्टीन, नोबेल से सम्मानित अमेरिकन कवि और दार्शनिक टी एस इलिएट , दार्शनिक एलन वाट्स, अमेरिकन लेखक मार्क ट्वेन, प्रसिद्ध विचारक एमर्सन, फ्रेंच दार्शनिक वोल्टायर, नोबेल से सम्मानित फ्रेंच लेखक रोमा रोला, ऑक्सफोर्ड के प्रोफ़ेसर पाल रोबर्ट्स, भौतिक शास्त्र में नोबेल से सम्मानित ब्रायन डैविड जोसेफसन, अमेरिकन दार्शनिक हेनरी डेविड थोरू, एनी बेसंट, महान मनोवैज्ञानिक कार्ल जुंग के साथ भारतीय विचारको जैसे अब्दुल कलाम के विचारो को आप पढ़ और समझ सकते है. ये विचार आप को अन्यत्र भी पढने को मिल सकते है पर जो इस किताब को औरो से अलग बनाती है वो बात ये है कि आप को स्थापित विचारको से जुड़े कई महत्वपूर्ण विचार एक ही जगह पढने को मिल जाएगा. थोडा सा किताब के कथ्य पर भी गौर करे. इतना तो स्पष्ट है किताब को पढने के बाद कि भले आज अपने प्राचीन ऋषि मुनियों की संस्कृति से दूरी बनाये रखने को ही हम आधुनिकता का परिचायक मान बैठे हो पर इस आधुनिक जगत के महान विचारको ने अपने ऋषि मुनियों के ज्ञान की मुक्त कंठ से सराहना की है. अब आइन्स्टीन को देखे जो यह कह रहे है कि ” हम भारतीयों के ऋणी है जिन्होंने हमको गणना करना सिखाया जिसके अभाव में महत्वपूर्ण वैज्ञानिक खोजे संभव नहीं थी.” वर्नर हाइजेनबर्ग प्रसिद्ध जर्मन वैज्ञानिक जो क्वांटम सिद्धांत की उत्पत्ति से जुड़े है का यह कहना है कि ”भारतीय दर्शन से जुड़े सिद्धांतो से परिचित होने के बाद मुझे क्वांटम सिद्धांत से जुड़े तमाम पहलु जो पहले एक अबूझ पहेली की तरह थे अब काफी हद तक सुलझे नज़र आ रहे है.” इन सब को पढने के बाद क्या आपको ऐसा नहीं लग रहा कि आज कि शिक्षा पद्वति में कही न कही बहुत बड़ा दोष है जिसके वजह से पढ़े लिखे गधे पैदा हो रहे है जिनको अपने ही देश के ज्ञान को अपनाने में लज्जा महसूस होती है. खैर इस किताब के कुछ और अंश देखे.
ग्रीस की रानी फ्रेडरिका जो कि एडवान्स्ड भौतिक शास्त्र से जुडी रिसर्च स्कालर थी का कहना है कि “एडवान्स्ड भौतिकी से जुड़ने के बाद ही आध्यात्मिक खोज की तरफ मेरा रुझान हुआ. इसका परिणाम ये हुआ की श्री आदि शंकराचार्य के अद्वैतवाद या परमाद्वैत रुपी दर्शन को जीवन और विज्ञान की अभिव्यक्ति मान ली अपने जीवन में “. प्रसिद्ध जर्मन दार्शनिक आर्थर शोपेन हॉवर का यह कहना है कि “ सम्पूर्ण भू-मण्डल पर मूल उपनिषदों के समान इतना अधिक फलोत्पादक और उच्च भावोद्दीपक ग्रन्थ कही नहीं हैं। इन्होंने मुझे जीवन में शान्ति प्रदान की है और मरते समय भी यह मुझे शान्ति प्रदान करेंगे .”
प्रसिद्ध जर्मन लेखक फ्रेडरिक श्लेगल (१७७२-१८२९) ने संस्कृत और भारतीय ज्ञान के बारे में श्रद्धा प्रकट करते हुए ये कहा है कि ” संस्कृत भाषा में निहित भाषाई परिपक्वत्ता और दार्शनिक शुद्धता के कारण ये ग्रीक भाषा से कही बेहतर है. यही नहीं भारत समस्त ज्ञान कि उदयस्थली है. नैतिक , राजनैतिक और दार्शनिक दृष्टिकोण से भारत अन्य सभी से श्रेष्ट है और इसके मुकाबले ग्रीक सभ्यता बहुत फीकी है.” इतना तो यह पढने के बाद समझ में आना चाहिए कि कम से कम हम भारतीय लोग अपनी संस्कृति का उपहास उड़ना बंद कर दे. कम से कम वो लोग तो जो यह मानते है कि पीछे मुड़कर देखने से हम “केव-मेंटालिटी” के शिकार हो जायेगे.
इसके आगे के पन्नो में सलिल जी ने अपने लेखो में इन्ही सब महान पुरुषो के विचारो को अपने तरह से व्याख्या कि है जिसमे आज के नैतिक पतन पे क्षोभ प्रकट किया गया. कुल मिला के हमे सलिल जी के इस पवित्र प्रयास कि सराहना करनी चाहिए कि आज की विषम परिस्थितयो में भी उन्होंने भारतीय संस्कृति के गौरव को पुनर्जीवित करने की कोशिश कि है. उम्मीद है कि ये पुस्तक एक रौशनी की किरण बनेगी और हम सब अब्दुल कलाम की तरह सोचने पे विवश हो जायंगे कि क्यों मीडिया या भारतीय आज नकरात्मक रुख में उलझे हुए है? क्यों हम अपनी उपलब्धियों और मजबूत पहलुओ को नकारने में ही सारी उर्जा खत्म कर देते है. चलिए हम अपनी संस्कृति पे गर्व करना सीखे बिना किसी ग्लानि बोध के. आज से और अभी से!
--अरविन्द पाण्डे,इलाहावाद
ऐसा क्यों हुआ कि पूंजीपति कि इज्ज़त ज्ञानियो से अधिक हो गयी. ज्ञान का पलड़ा पूँजी से हल्का कैसे हो गया? पाश्चात्य संस्कृति से महज अच्छे गुण लेने के बजाय हमने उसको अपना पथ प्रदर्शक क्यों मान लिया? विश्लेषण करने वाले कह सकते है कि भाई ये तो लॉर्ड मैकाले कि शिक्षा पद्वत्ति का कमाल है . उसने चाहा था कि हमारे न रहने पर भी एक ऐसी नस्ल तैयार हो जो कि सिर्फ तन से भारतीय हो. उसने चाहा कि ऐसी प्रजाति का जन्म हो जिसे अपने प्राचीन श्रेष्ठ गुणों को आत्मसात करने में शर्म महसूस हो, एक ग्लानि बोध का भाव उत्पन्न हो.एक ऐसी नस्ल तैयार हो जिसे अपने ही गौरव को धिक्कारनमें रस का अनुभव हो. मुझे कहने में सकोच नहीं कि मैकाले ने जो चाल चली उसमे वो कामयाब रहा. अगर वो आज जिन्दा होता तो अपनी सफलता पर खुश हो रहा होता. आज आप कही भी नज़र डाल के देखिये सब उसी के चेले आपको नज़र आयेंगे.एक ऐसा देश अस्तित्व में आ गया है जिसमे लोग सरस्वती पूजा को तो लोग सांप्रदायिक मानते है पर वैलेंटाइन डे को अंगीकार करने में कोई हायतौबा नहीं मचती.
इस अजीबोगरीब माहौल में आज जरुरत है उन बुद्धिजीवियों, लेखको कि जो हम भारतीयों को प्रचीन मूल्यों को गर्व के साथ अपनाने का मार्ग प्रशस्त कर सके. अगर ऐसा न हुआ तो हम भी उसी गति को प्राप्त होगे जो उन सभ्यताओ का हुआ जिनमे भौतिक मूल्यो पे ज्यादा आस्था प्रकट की गयी.इसी सोच के साथ सलिल ज्ञवाली ने “भारत क्या है” पुस्तक को लिखा है. आज के युग में गरिमामय मूल्यों को पुनर्स्थापित या फिर प्राचीन सनातन संस्कृति के आदर्शो में लोगो का विश्वास फिर से बहाल करना टेढ़ी खीर है. सलिल जी ने इस चुनौती को स्वीकार करते हुए एक दुष्कर शोध और कठिन मेहनत के उपरान्त “भारत क्या है” की रचना की है. यह पुस्तक विश्वव्यापी हो चुकी हैं जिसका प्रकाशन सिघ्र ही अमेरिका से भी होने जा रही हैं।
इस अनुपम पुस्तक में सलिल जी ने पाश्चात्य विचारको, वैज्ञानिको के साथ ही भारतीय विचारको के कथन का हवाला देते हुए इस बात की पुष्टि की है कि जिस सनातन संस्कृति के ज्ञान को हम श्रद्धा के साथ आत्मसात करने में हिचकते है वही ज्ञान पाश्चात्य जगत के महान वैज्ञानिको, लेखको और इतिहासकारों की नज़रो में अमूल्य और अमृत सामान है. वे हमारे ऋषि मुनियों के ज्ञान को बहुत आदर कि दृष्टि से देखते है. कितने आश्चर्य कि बात है कि हम आज इसी ज्ञान को रौंद कर आगे बढ़ रहे है .
सलिल जी की इस अद्भुत कृति में आप आइन्स्टीन, नोबेल से सम्मानित अमेरिकन कवि और दार्शनिक टी एस इलिएट , दार्शनिक एलन वाट्स, अमेरिकन लेखक मार्क ट्वेन, प्रसिद्ध विचारक एमर्सन, फ्रेंच दार्शनिक वोल्टायर, नोबेल से सम्मानित फ्रेंच लेखक रोमा रोला, ऑक्सफोर्ड के प्रोफ़ेसर पाल रोबर्ट्स, भौतिक शास्त्र में नोबेल से सम्मानित ब्रायन डैविड जोसेफसन, अमेरिकन दार्शनिक हेनरी डेविड थोरू, एनी बेसंट, महान मनोवैज्ञानिक कार्ल जुंग के साथ भारतीय विचारको जैसे अब्दुल कलाम के विचारो को आप पढ़ और समझ सकते है. ये विचार आप को अन्यत्र भी पढने को मिल सकते है पर जो इस किताब को औरो से अलग बनाती है वो बात ये है कि आप को स्थापित विचारको से जुड़े कई महत्वपूर्ण विचार एक ही जगह पढने को मिल जाएगा. थोडा सा किताब के कथ्य पर भी गौर करे. इतना तो स्पष्ट है किताब को पढने के बाद कि भले आज अपने प्राचीन ऋषि मुनियों की संस्कृति से दूरी बनाये रखने को ही हम आधुनिकता का परिचायक मान बैठे हो पर इस आधुनिक जगत के महान विचारको ने अपने ऋषि मुनियों के ज्ञान की मुक्त कंठ से सराहना की है. अब आइन्स्टीन को देखे जो यह कह रहे है कि ” हम भारतीयों के ऋणी है जिन्होंने हमको गणना करना सिखाया जिसके अभाव में महत्वपूर्ण वैज्ञानिक खोजे संभव नहीं थी.” वर्नर हाइजेनबर्ग प्रसिद्ध जर्मन वैज्ञानिक जो क्वांटम सिद्धांत की उत्पत्ति से जुड़े है का यह कहना है कि ”भारतीय दर्शन से जुड़े सिद्धांतो से परिचित होने के बाद मुझे क्वांटम सिद्धांत से जुड़े तमाम पहलु जो पहले एक अबूझ पहेली की तरह थे अब काफी हद तक सुलझे नज़र आ रहे है.” इन सब को पढने के बाद क्या आपको ऐसा नहीं लग रहा कि आज कि शिक्षा पद्वति में कही न कही बहुत बड़ा दोष है जिसके वजह से पढ़े लिखे गधे पैदा हो रहे है जिनको अपने ही देश के ज्ञान को अपनाने में लज्जा महसूस होती है. खैर इस किताब के कुछ और अंश देखे.
ग्रीस की रानी फ्रेडरिका जो कि एडवान्स्ड भौतिक शास्त्र से जुडी रिसर्च स्कालर थी का कहना है कि “एडवान्स्ड भौतिकी से जुड़ने के बाद ही आध्यात्मिक खोज की तरफ मेरा रुझान हुआ. इसका परिणाम ये हुआ की श्री आदि शंकराचार्य के अद्वैतवाद या परमाद्वैत रुपी दर्शन को जीवन और विज्ञान की अभिव्यक्ति मान ली अपने जीवन में “. प्रसिद्ध जर्मन दार्शनिक आर्थर शोपेन हॉवर का यह कहना है कि “ सम्पूर्ण भू-मण्डल पर मूल उपनिषदों के समान इतना अधिक फलोत्पादक और उच्च भावोद्दीपक ग्रन्थ कही नहीं हैं। इन्होंने मुझे जीवन में शान्ति प्रदान की है और मरते समय भी यह मुझे शान्ति प्रदान करेंगे .”
प्रसिद्ध जर्मन लेखक फ्रेडरिक श्लेगल (१७७२-१८२९) ने संस्कृत और भारतीय ज्ञान के बारे में श्रद्धा प्रकट करते हुए ये कहा है कि ” संस्कृत भाषा में निहित भाषाई परिपक्वत्ता और दार्शनिक शुद्धता के कारण ये ग्रीक भाषा से कही बेहतर है. यही नहीं भारत समस्त ज्ञान कि उदयस्थली है. नैतिक , राजनैतिक और दार्शनिक दृष्टिकोण से भारत अन्य सभी से श्रेष्ट है और इसके मुकाबले ग्रीक सभ्यता बहुत फीकी है.” इतना तो यह पढने के बाद समझ में आना चाहिए कि कम से कम हम भारतीय लोग अपनी संस्कृति का उपहास उड़ना बंद कर दे. कम से कम वो लोग तो जो यह मानते है कि पीछे मुड़कर देखने से हम “केव-मेंटालिटी” के शिकार हो जायेगे.
इसके आगे के पन्नो में सलिल जी ने अपने लेखो में इन्ही सब महान पुरुषो के विचारो को अपने तरह से व्याख्या कि है जिसमे आज के नैतिक पतन पे क्षोभ प्रकट किया गया. कुल मिला के हमे सलिल जी के इस पवित्र प्रयास कि सराहना करनी चाहिए कि आज की विषम परिस्थितयो में भी उन्होंने भारतीय संस्कृति के गौरव को पुनर्जीवित करने की कोशिश कि है. उम्मीद है कि ये पुस्तक एक रौशनी की किरण बनेगी और हम सब अब्दुल कलाम की तरह सोचने पे विवश हो जायंगे कि क्यों मीडिया या भारतीय आज नकरात्मक रुख में उलझे हुए है? क्यों हम अपनी उपलब्धियों और मजबूत पहलुओ को नकारने में ही सारी उर्जा खत्म कर देते है. चलिए हम अपनी संस्कृति पे गर्व करना सीखे बिना किसी ग्लानि बोध के. आज से और अभी से!
--अरविन्द पाण्डे,इलाहावाद
10 टिप्पणियां:
हमे तो गर्व है अपनी संस्कृ्ति पर।
सलिल जी की पुस्तक के बारे में अच्छी जानकारी मिली ..
क्यों हम अपनी उपलब्धियों और मजबूत पहलुओ को नकारने में ही सारी उर्जा खत्म कर देते है. चलिए हम अपनी संस्कृति पे गर्व करना सीखे बिना किसी ग्लानि बोध के. आज से और अभी से!
आपके ब्लॉग पर इस विषय पर पोस्ट पढ़ कर मन प्रसन्न हो जाता है .. ह्रदय से धन्यवाद देता हूँ आपको इस पोस्ट के लिए और अपने पसंदीदा ब्लोग पर आपकी इस पोस्ट का लिंक भी दे कर आऊँगा
मुझे अपनी संस्कृति पर गर्व था ...है और रहेगा
"जिस देश में ज्ञान के उच्त्तम सोपानो पे विचरण करना नैसर्गिक माना जाता रहा हो. भौतिक उपलब्धियों पे गर्व करना अलग बात है पर उनको सर्वस्व या अंतिम लक्ष्य मान लेना अलग बात है. दुःख की बात है की जिस देश में ज्ञान की महिमा का बखान होता रहा है आज उसी देश में कंचन और काया की प्रधानता है."
इस ग्रंथ में सलिल जी नें निश्चित ही दुर्बोध का आवरण हटानें का शुभ प्रयास किया है। इस लेखन के के लिये अनंत आभार विद्वान लेखक श्री को।
ग्रंथ विवेचन के इस लेख लिए अरविन्द पाण्डे जी का भी आभार्।
इस प्रस्तुति के लिये यादव जी आपका शुक्रिया।
हमें मात्र गर्व ही नहीं सभी को शीघ्र उन बेसीक जीवन-मूल्यों की और लौटना होगा। हमारे पूर्वजों ने स्वपर सभी के लिये धरोहर दी है।
एक बेहतरीन और सार गर्भित लेख, हमने अपनी आध्यामिकता छोड़ कर पाश्चात्य मैकाले अपना लिए और अपनी संस्कृति दकियानूशी और अदाम्बर्युक्त . विद्वानों को आगे आना ही होगा नहीं तो विज्ञान के कुतर्की हमारी संस्कृति को रौंद देंगे. जय भारत
हमें तो पूर्ण गर्व है।
I am also proud of my culture.
क्यों हम अपनी उपलब्धियों और मजबूत पहलुओ को नकारने में ही सारी उर्जा खत्म कर देते है. चलिए हम अपनी संस्कृति पे गर्व करना सीखे बिना किसी ग्लानि बोध के...Wakai aj isi ki jarurat hai.
सारगर्भित समीक्षा..गहरी विवेचना..बधाई.
यह पुस्तक उपलब्ध कहाँ होगी...
एक टिप्पणी भेजें