यह एक सच्चाई है कि स्वतंत्रता से पूर्व हिन्दी ने अंग्रेजी राज के विरूद्ध लोगों को जोड़ने का कार्य किया पर स्वतंत्रता पश्चात उसी अंग्रेजी को हिन्दी का प्रतिद्वंदी बना दिया गया। यदि हम व्यवहारिक धरातल पर बात करें तो हिन्दी सदैव से राजभाषा, मातृभाषा व लोकभाषा रही है पर दुर्भाग्य से हिन्दी कभी भी राजप्रेयसी नहीं रही। स्वतंत्रता आंदोलन में जनभाषा के रूप में लोकप्रियता, विदेशी विद्वानों द्वारा हिन्दी की अहमियत को स्वीकारना, तमाम समाज सुधारकों व महापुरूषों द्वारा हिन्दी को राजभाषा/राष्ट्रभाषा के रूप में प्रतिष्ठित करने की बातें, पर अन्ततः संविधान सभा ने तीन दिनों तक लगातार बहस के बाद 14 सितम्बर 1949 को पन्द्रह वर्ष तक अंग्रेजी जारी रखने के परन्तुक के साथ ही हिन्दी को राजभाषा के रूप में स्वीकार किया।
राष्ट्रभाषा के सवाल पर संविधान सभा में 300 से ज्यादा संशोधन प्रस्ताव आए। जी0 एस0 आयंगर ने मसौदा पेश करते हुए हिन्दी की पैरोकारी की पर अंततः कहा कि - ‘‘हिन्दी आज काफी समुन्नत भाषा नहीं है। अंग्रेजी शब्दों के हिन्दी पर्याय नहीं मिल पाते।’’ यद्यपि हिन्दी के पक्ष में काफी सदस्यों ने विचार व्यक्त किए। पुरूषोतम दास टंडन ने अंग्रेज ध्वनिविज्ञानी इसाक पिटमैन के हवाले से कहा कि विश्व में हिन्दी ही सर्वसम्पन्न वर्णमाला है तो सेठ गोविन्द दास ने कहा कि- ‘‘इस देश में हजारों वर्षों से एक संस्कृति है। अतः यहाँ एक भाषा और एक लिपि ही होनी चाहिए।’’ आर0 वी0 धुलेकर ने काफी सख्त लहजे में हिन्दी की पैरवी करते हुए कहा कि- ‘‘मैं कहता हूँ हिन्दी राजभाषा है, राष्ट्रभाषा है। हिन्दी के राष्ट्रभाषा/राजभाषा हो जाने के बाद संस्कृत विश्व भाषा बनेगी। अंग्रेजों के नाम 15 वर्ष का पट्टा लिखने से राष्ट्र का हित साधन नहीं होगा।’’ स्वयं पं0 नेहरू ने भी हिन्दी की पैरवी में कहा था- ‘‘पिछले एक हजार वर्ष के इतिहास में भारत ही नहीं सारे दक्षिण पूर्वी एशिया में और केन्द्रीय एशिया के कुछ भागों में भी विद्वानों की भाषा संस्कृत ही थी। अंग्रेजी कितनी ही अच्छी और महत्वपूर्ण क्यों न हो किन्तु इसे हम सहन नहीं कर सकते, हमें अपनी ही भाषा (हिन्दी) को अपनाना चाहिए।’’
निश्चिततः इस आधार पर कि हिन्दी भाषा समुन्नत नहीं है, राजकाज की भाषा रूप में पन्द्रह साल तक अंग्रेजी को स्थान दे दिया गया। इस बात पर कालान्तर में काफी बहस हुयी। कुछेक का तो मानना था कि राष्ट्रीय आन्दोलन के अधिकतर नेताओं की दिली इच्छा हिन्दी को राष्ट्रभाषा/राजभाषा के रूप में प्रतिष्ठित करने की थी पर ऐसे सदस्य जो मात्र कानूनविद होने के नाते संविधान सभा से जोड़ दिए गए, वे अंग्रेज भक्त थे और उन्होंने प्रयास करके अंग्रेजी की महत्ता भारत के राजकाज व न्यायालयों पर सदैव हेतु थोप दी। आचार्य हजारी प्रसाद द्विवेदी ने कहा- ‘‘यदि अंग्रेजी अच्छी है और उसे बनाए रखना चाहिए तो अंग्रेज भी अच्छे थे, उन्हें भी राज करने बुला लीजिए।’’
- कृष्ण कुमार यादव
7 टिप्पणियां:
राजभाषा के सफ़र पर बेहद करीने से प्रस्तुत आलेख.
यह एक सच्चाई है कि स्वतंत्रता से पूर्व हिन्दी ने अंग्रेजी राज के विरूद्ध लोगों को जोड़ने का कार्य किया पर स्वतंत्रता पश्चात उसी अंग्रेजी को हिन्दी का प्रतिद्वंदी बना दिया गया....vastav men yahi kadvi sachhai hai.
वाह! अति सुन्दर लिखा...समझ में आ गया कि हिंदी की दुर्दशा के लिए कौन जिम्मेदार हैं.
वाह! अति सुन्दर लिखा...समझ में आ गया कि हिंदी की दुर्दशा के लिए कौन जिम्मेदार हैं.
अजी हमारे यहां सभी काम उलटी बुद्धि से होते है,फ़िर अपने आकाओ की भाषा बोलने मै क्या शर्मा, शर्म तो इन्हे आती है हिन्दी को बोलने मै, मां को मां बोलने मै पिता को पिता बोलने मै, बस जिन्दा पिता को डॆड बोलने मै नही, बस गुलाम गुलाम गुलाम है यह सब मेरी नजर मै, जो अकते है अग्रेजी की पेरवी
सार्थक लेख...
नीरज
बहुत बढ़िया लिखा है आपने! हिन्दी दिवस की हार्दिक बधाइयाँ और शुभकामनायें!
http://ek-jhalak-urmi-ki-kavitayen.blogspot.com
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