मनुष्य को अपने व्यक्तिगत सम्बन्धों के साथ ही जीवन के विविध क्षेत्रों से प्राप्त हो रही अनुभूतियों का आत्मीकरण तथा उनका उपयुक्त शब्दों में भाव तथा चिन्तन के स्तर पर अभिव्यक्तीकरण ही वर्तमान कविता का आधार है। जगत के नाना रूपों और व्यापारों में जब मनीषी को नैसर्गिक सौन्दर्य के दर्शन होते हंै तथा जब मनोकांक्षाओं के साथ रागात्मक सम्बन्ध स्थापित करने में एकात्मकता का अनुभव होता है, तभी यह सामंजस्य सजीवता के साथ समकालीन सृजन का साक्षी बन पाता है। युवा कवि एवं भारतीय डाक सेवा के अधिकारी कृष्ण कुमार यादव ने अपने प्रथम काव्य संग्रह ‘‘अभिलाषा’’ में अपने बहुरूपात्मक सृजन में प्रकृति के अपार क्षेत्रों में विस्तारित आलम्बनों को विषयवस्तु के रूप में प्राप्त करके ह्नदय और मस्तिष्क की रसात्मकता से कविता के अनेक रूप बिम्बों में संजोने का प्रयास किया है। मुक्त छन्द के इस कविता संग्रह में कुल 88 कविताएं संकलित हैं।
कृष्ण कुमार ने अपने इस संग्रह में विषय-विशेष की कविताओं को अलग-अलग खंडों में रखा है। यथा-माँ, प्रेयसी, नारी, ईश्वर, बचपन, एकाकीपन, दतर, प्रकृति, मूल्य एवं विसंगतियाँ, सम्बन्ध, समकालीन और विविध। इन विषयों को उठाकर कवि ने समग्रता का प्रमाण देने के साथ-साथ कालखंड को भी प्रस्तुत करने का व्यापक प्रयास किया है। बकौल गोपालदास नीरज कृष्ण कुमार व्यक्तिनिष्ठ नहीं समाजनिष्ठ कवि हैं जो वर्तमान परिवेश की विदू्रपताओं, विसंगतियों, षडयन्त्रों और पाखंडों का बड़ी मार्मिकता के साथ उद्घाटन करते हैं।अभिलाषा का संज्ञक संकलन संस्कारवान कवि का इन्हीं विशेषताओं से युक्त कवि कर्म है, जिसमें व्यक्तिगत सम्बन्धों, सामाजिक, राजनैतिक, आर्थिक समस्याओं और विषमताओं तथा जीवन मूल्यों के साथ हो रहे पीढ़ियों के अतीत और वर्तमान के टकरावों और प्रकृति के साथ पर्यावरणीय विक्षोभों का खुलकर भावात्मक अर्थ शब्दों में अनुगुंजित हुआ है। परा और अपरा जीवन दर्शन, विश्व बोध तथा विद्वान बोध से उपजी अनुभूतियों, बाल विमर्श, स्त्री विमर्श एवं जड़ व्यवस्था व प्रशासनिक रवैये ने भी कवि को अनेक रूपों में उद्वेलित किया है। इन उद्वेलनों में जीवन सौन्दर्य के सार्थक और सजीव चित्र शब्दों में अर्थ पा सके हैं।
कृष्ण कुमार यादव ने अपने संकलन में कविता को पारिभाषित किया है- कविता है वेदना की अभिव्यक्ति/कविता है एक विचार/कविता है प्रकृति की सहचरीे/कविता है क्रान्ति की नजीर/कविता है शोषितों की आवाज/कविता है रसिकों का साज/कविता है सृष्टि और प्रलय का निर्माण/कविता है मोक्ष और निर्वाण/कभी यथार्थ, तो कभी कल्पना के आगोश में/कविता इस ब्रह्माण्ड से भी आगे है। निश्चिततः ये पंक्तियाँ कवि की तमाम कविताओं की भाव-भूमि का खुलासा करने में नितांत सक्षम हैं। ‘अभिलाषा’ का प्रथम खंड माँ को समर्पित है। माँ के ममत्व भरे भाव की स्नेहिल अभिव्यक्ति पर कवि ने कुल पाँच कवितायें लिखी हैं, जिसमें ममता की अनुभूति का पवित्र भाव-वात्सल्य, प्यार और दुलार के विविध रूपों में कथन की मर्मस्पर्शी भंगिमा के साथ कथ्य को सीधे-सीधे पाठक तक संप्रेषित करने का प्रयत्न किया है। कवि की जीवन स्मृतियों में माँ अनेक रूपों में प्रकट होती है- कभी पत्र में उत्कीर्ण होकर, तो कभी यादों के झरोखौं से झांकती हुई बचपन से आज तक की उपलब्धियों के बीच एक सफल पुत्र को आशीर्वाद देती हुई। किसी निराश्रिता, अभाव ग्रस्त, क्षुधित माँ और सन्तति की काया को भी कवि की लेखनी का स्पर्श मिला है, जहाँ मजबूरी में छिपी निरीहता को भूखी कामुक निगाहों के स्वार्थी संसार के बीच अर्धानावृत्त आँचल से दूध पिलाती मानवी को अमानवीय नजरों का सामना करना पड़ रहा है। कवि की ष्माँष् के प्रति भावनायंे अभ्यर्थना और अभ्यर्चना बनकर कविता का शाश्वत शब्द सौन्दर्य बन जाती हंै। इन पंक्तियों को देखें- मेरा प्यारा सा बच्चा/गोद में भर लेती है बच्चे को/चेहरे पर नजर न लगे/माथे पर काजल का टीका लगाती है/कोई बुरी आत्मा न छू सके/बाँहों में ताबीज बांध देती है। कवि की माँ को समर्पित एक अन्य रचना की पंक्तियाँ हैं -जो बच्चे अच्छे काम करते हैं/उनके सपनों में परी आती/और देकर चली जाती चाकलेट/मुझे क्या पता था/वो परी कोई और नहीं/माँ ही थी।
अपनी वय के अनुसार बच्चा ज्यों-ज्यों बड़ा होता जाता है वह नारी और प्रेयसी के विभिन्न रुपों को महसूस करता है, यहाँ तक कि प्रकृति भी उसे प्रेयसी लगती है। कवि ने बड़ी ही सहजता और खूबसूरती के साथ भावों को अभिव्यक्त करते हुए अपने प्रकृति प्रेमी होने का प्रमाण दिया है। कवि ने प्रेम व प्रेयसी पर कुल दस कविताएं लिखी हैं-सद्यःस्नात सी लगती हैं/हर रोज सूरज की किरणें/आगोश में भर शरीर को/दिखाती हैं अपनी अल्हड़ता के जलवे/और मजबूर कर देती हैं/अंगड़ाईयाँ लेने के लिए/मानो सज धज कर/तैयार बैठी हों/अपना कौमार्यपन लुटाने के लिए। कवि की कलम सती प्रथा जैसी कुरीति पर चली है तो नारी अधिकारों की माँग के बहाने स्त्री विमर्श को भी उसने छुआ है। ‘बेटी के कर्तव्य’ कविता की इन पंक्तियों पर गौर करें- पर यह क्या/बेटी तो कर्तव्यों के साथ/अपने अधिकार भी पूछ बैठी/पर माँ उसे कैसे समझाये/उसने तो इस शब्द का/अर्थ ही नहीं जाना था/पति ने जो कह दिया/उसे पूरा करना ही/अपना जीवन समझ बैठी/फिर कैसे समझाये उसे/अधिकारों का अर्थ।
कृष्ण कुमार यादव की कविताओं में परा और अपरा जीवन दर्शन की भी चर्चा की गई है। ईश्वर की कल्पना मनुष्य को जब मिली होगी, उसे आशा का आस्थावन विश्वास भी मिला होगा। कवि का मानना है कि धर्म-सम्प्रदाय के नाम पर घरौदों का निर्माण न तो उस अनन्त की आराधना है, और न ही इनमें उसका निवास है। कवि ने ईश्वर के लिए लिखा हैै-मैं किसी मंदिर-मस्जिद गुरूद्वारे में नहीं/मैं किसी कर्मकाण्ड और चढ़ावे का भूखा नहीं/नहीं चाहिए मुझे तुम्हारा ये सब कुछ/मैं सत्य में हूँ, सौन्दर्य में हँू, कर्तव्य में हँू /परोपकार में हूँ, अहिंसा में हूँ, हर जीव में हूँ/अपने अन्दर झांको, मैं तुममें भी हूँ/फिर क्यों लड़ते हो तुम/बाहर कहीं ढँूढते हुए मुझे। कवि ईश्वर की खोज करता है अनेक प्रतीकों में, अनेक आस्थाओं में और अपने अन्दर भी। वह भिखमंगों के ईश्वर को भी देखता है और भक्तों को भिखमंगा होते भी देखता है, बच्चों के भगवान से मिलता है और स्वर्ग-नरक की कल्पनाओं से डरते-डराते मन के अंधेरों में भटकते इन्सानों की भावनाओं में भी खोजता है।
बाल विमर्श कवि की कुछ कविताओं का प्रमुख तत्व है, जिनमें बच्चों के दर्द को मार्मिकता के साथ उभारा गया है। जूतों में पालिश करता बच्चा, दंगों में मृत माँ के स्तनों को मुँह में लगाये बच्चा, क्लोन, दुधमुँहा बच्चा और धर्म के खांचों में बंटते बच्चों पर लिखी कविताएं कवि की बाल मनोविज्ञान पर गहरी पकड़ की परिचायक हैं-खामोश व वीरान सी आंखें/आस-पास कुछ ढूढ़ती हैं/पर हाथ मंे आता है/सिर्फ मांँस का लोथड़ा/माँ की छाती समझ/वह लोथड़े को भी मुंह/लगा लेता है/मुँह में दूध की बजाय/खून भर आता है/लाशों के बीच/खून से सना मुँह लिए/एक मासूम का चेहरा/वह इस देश का भविष्य है।
कवि की रचनाओं का फलक अत्यन्त व्यापक है। वर्तमान समय की ग्राम्य और नगर जीवन स्थितियों में पनप रही आपा-धापी का टिक-टिक-टिक शीर्षक से कार्यालयी दिनचर्या, अधिकारी और कर्मचारी की जीवन दशायें, फाइलें, सुविधा शुल्क तथा फर्ज अदायगी शीर्षकों में निजी अनुभव और दैनिक क्रियाकलापों का स्वानुभूत प्रस्तुत किया गया है। नैतिकता और जीवन मूल्य कवि के संस्कारों में रचे बसे लगते हैं। उसे अंगुलिमाल के रूप में अत्याचारी व अनाचारी का दुश्चरित्र-चित्र भी याद आता और बुद्ध तथा गाँधी का जगत में आदर्श निष्पादन तथा क्षमा, दया, सहानुभूति का मानव धर्म को अनुप्राणित करता चारित्रिक आदर्श भी नहीं भूलता। वर्तमान समय में मनुष्य की सद्वृत्तियों को छल, दंभ, द्वेष, पाखण्ड और झूठ ने कितना ढक लिया है, यह किसी से छिपा नहीं है। इन मानव मूल्यों के अवमूल्यन को कवि ने शब्दों में कविता का रूप दिया है। कवि शहरी परिवेश के वावजूद गाँव एवं उससे जुड़ी स्मृतियों को विस्मृत नही करना चाहता। गाँव, गाँव की गलियाँ, पेड़, किसान, खेत, मेड़, मिट्टी, बादल, गौरैया, तितलियाँ, संगी-साथी इत्यादि कवि की कविताओं में सहज ही उभर आते हैं - खो जाता हूँ उस सोंधी मिट्टी में /वही गलियाँ, वही नीम, वही माँ, वही प्यार/शायद दूर कहीं कोई पुकारता है मुझे। यद्यपि ग्राम्य जीवन से सम्बन्धित अनेकों कविताएं पूर्ववर्ती कवियों द्वारा लिखी गयी हैं मगर यहाँ पर साम्राज्यवादी ताकतों से टक्कर लेती एक ग्रामीण महिला की सोच को कवि की चैंकाने वाली पंक्तियाँ माना जा सकता है-गाँव की एक अनपढ़ महिला/ने मुझसे पूछा/सुना है, अमरीका ने/आटा चक्की का पेटेंट/करा लिया है/ऐसा कैसे हो सकता है/यह तो हमारे पुरखों की अमानत है।
कृष्ण कुमार यादव ने अभिलाषा में कविता को वस्तुमत्ता तथा समग्रता के बोध से साधारण को भी असाधारण के अहसास से यथार्थ दृष्टि प्रदान की है, जो प्रगतिशीलता चेतना की आधुनिकता बोध से युक्त चित्तवृत्ति का प्रतिबिम्ब है। इसमें कवि मन भी है ओर जन मन भी। मनुष्य इस संसार में सामाजिकता की सीमाओं में अकेला नहीं रहता। उसके साथ समाज रहता है, अतः अपने सम्पर्कों से मिली अनुभूति का आभ्यन्तरीकरण करते हुए कवि ने अपनी भावना की संवेदनात्मकता को विवेकजन्य पहचान भी प्रदान की है। मन के सुुकुमार भावों के स्पन्दन, कविता की किलकारियों के रूप में स्वतः ही गूंज उठे हैं। कहीं कोई कृत्रिमता नहीं, कहीं कोई मलाल नहीं और न ही दायित्व-बोध और कवि कर्म में पांडित्य प्रदर्शन का कोई भाव परिलक्षित होता है। अभिलाषा संग्रह की कविताएं वाकई एक नए पथ का निर्माण करती हैं, जहाँ अत्यधिक उपमानों, भौतिकता, व दुरूहता की बजाय स्वाभाविकता, समाजनिष्ठा एवं जागरुक संवेदना है, जो कि कविता की लय बचाने हेतु जरूरी है। कविता समकालीन लेखन और सृजन के समसामयिक बोध की परिणति है सो ‘‘अभिलाषा’’ की रचनाएँ भी इस तथ्य से अछूती नहीं हंै।
वैश्विक जीवन दृष्टि, आधुनिकता बोध तथा सामाजिक सन्दर्भों को विविधता के अनेक स्तरों पर समेटे प्रस्तुत संकलन के अध्ययन से आभासित होता है कि कवि को विपुल साहित्यिक ऊर्जा सम्पन्न कवि ह्नदय प्राप्त है, जिससे वह हिन्दी भाषा के वांगमय को स्मृति प्रदान करेंगे।निश्चितत: कृष्ण कुमार यादव का यह पहला काव्य संग्रह पठनीय एवं संग्रहणीय है।
समालोच्य कृति- अभिलाषा (काव्य संग्रह)/कवि- कृष्ण कुमार यादव/प्रकाशक- शैवाल प्रकाशन, दाऊदपुर, गोरखपुर पृष्ठ- 144, मूल्य- 160 रुपये/ प्रकाशन वर्ष- 2005/समीक्षक-गोवर्धन यादव 103, कावेरी नगर, छिंदवाड़ा (म0प्र0)-480001
(साभार: कथाबिम्ब, त्रैमासिक पत्रिका, मुम्बई, अप्रैल-जून 2006)
7 टिप्पणियां:
कृष्ण कुमार यादव ने अभिलाषा में कविता को वस्तुमत्ता तथा समग्रता के बोध से साधारण को भी असाधारण के अहसास से यथार्थ दृष्टि प्रदान की है, जो प्रगतिशीलता चेतना की आधुनिकता बोध से युक्त चित्तवृत्ति का प्रतिबिम्ब है। इसमें कवि मन भी है ओर जन मन भी।......एक स्तरीय समीक्षा. यह कविवर के.के. की विद्वता का द्योतक है.
कृष्ण कुमार यादव की यह पुस्तक पढ़कर जीवंतता एवं ताजगी का अहसास होता है...बधाई.
आपकी कवितायेँ इस ब्लॉग पर पढ़ती रहती हूँ...अब आप आपका संग्रह...कोटिश: बधाइयाँ.
जब समीक्षा इतनी सुन्दर है तो पुस्तक कितनी रोचक होगी.
आपका संग्रह "अभिलाषा" मैंने पढ़ा है. वाकई सुन्दर कवितायेँ..सुन्दर भाव...सुन्दर शैली...!
लाजवाब संग्रह की लाजवाब समीक्षा.
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