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सोमवार, 4 मार्च 2013

'प्रिय प्रवास' के शताब्दी वर्ष में कवि सम्राट पंडित अयोध्या सिंह उपाध्याय 'हरिऔध' पर विशेष आवरण जारी

पिछले दिनों अपने गृह जनपद आजमगढ़ में था। मौका था आजमगढ़ में 9 साल बाद आयोजित दो दिवसीय आजमगढ़ डाक टिकट प्रदर्शनी” (आजमपेक्स-2013, 2-3 मार्च 2013) का। प्रदर्शनी के साथ-साथ इस अवसर पर पंडित अयोध्या सिंह उपाध्याय 'हरिऔध' और वीर रस के कवि श्याम नारायण पाण्डेय पर विशेष डाक-आवरण भी जारी किया गया।
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आज़मगढ़ ने तमाम साहित्यिक विभूतियों को पल्लवित-पुष्पित किया है। इन्हीं में से एक प्रमुख नाम है- कवि सम्राट पंडित अयोध्या सिंह उपाध्याय 'हरिऔध' का। 'हरिऔध' जी की स्मृति में भारतीय डाक विभाग ने 2 मार्च, 2013 को "आजमगढ़ डाक टिकट प्रदर्शनी” (आजमपेक्स-2013) के दौरान एक विशेष डाक आवरण और विरूपण जारी किया। उत्तर प्रदेश परिमंडल के चीफ पोस्टमास्टर जनरल कर्नल कमलेश चन्द्र ने इलाहाबाद/गोरखपुर परिक्षेत्र के निदेशक डाक सेवाएँ एवं चर्चित साहित्यकार व ब्लागर कृष्ण कुमार यादव की अध्यक्षता में आयोजित एक कार्यक्रम में इस विशेष डाक आवरण का विमोचन किया।

चीफ पोस्टमास्टर जनरल कर्नल कमलेश चन्द्र ने कहा कि पंडित अयोध्या सिंह उपाध्याय 'हरिऔध' जी द्वारा रचित खड़ी बोली के प्रथम महाकाव्य 'प्रिय प्रवास' का इस समय शताब्दी वर्ष भी मनाया जा रहा है, ऐसे में डाक विभाग द्वारा उन पर विशेष आवरण जारी किया जाना एक महत्वपूर्ण कदम माना जाना चाहिए।

चर्चित साहित्यकार एवं ब्लागर व सम्प्रति निदेशक डाक सेवाएँ कृष्ण कुमार यादव ने इस अवसर पर हरिऔध जी के योगदान को रेखांकित करते हुए कहा कि हरिऔध जी ने गद्य और पद्य दोनों ही क्षेत्रों में हिंदी की सेवा की। वे द्विवेदी युग के प्रमुख कवि रहे है। उन्होंने सर्वप्रथम खड़ी बोली में काव्य-रचना करके यह सिद्ध कर दिया कि उसमें भी ब्रजभाषा के समान खड़ी बोली की कविता में भी सरसता और मधुरता आ सकती है।

श्री यादव ने कहा कि हरिऔध जी आधुनिक हिंदी खड़ी बोली के पितामह हैं। उन्होंने खड़ी बोली के प्रथम महाकाव्य 'प्रिय प्रवास' की रचना करके साहित्य-जगत में शीर्ष स्थान प्राप्त किया । आज भी हरिऔध जी का काव्य ग्रंथ 'प्रिय प्रवास' तथा 'वैदेही वनवास' हिंदी खड़ी भाषा के मील के पत्थर के रुप में स्वीकार किये जाते हैं। उन्होंने कहा कि हरिऔध जी ने विविध विषयों पर काव्य रचना की है। यह उनकी विलक्षण विशेषता है कि उन्होंने राम-सीता, कृष्ण-राधा जैसे धार्मिक विषयों के साथ-साथ आधुनिक समस्याओं को भी अपनी रचनाओं में लिया है और उन पर नवीन ढंग से अपने विचार प्रस्तुत किए हैं। वास्तव में देखा जाये तो प्राचीन और आधुनिक भावों के मिश्रण से 'हरिऔध' जी के काव्य में एक अद्भुत चमत्कार उत्पन्न हो गया है।

कार्यक्रम में साहित्यकार डा0 कन्हैया सिंह ने हरिऔध जी के जीवन पर प्रकाश डालते हुए कहा कि अयोध्या सिंह उपाध्याय 'हरिऔध' (15 अप्रैल, 1865-16 मार्च, 1947) हिन्दी के एक सुप्रसिद्ध साहित्यकार है। इनका जन्म उत्तर प्रदेश के आज़मगढ़ जिले के निजामाबाद नामक स्थान में हुआ। सन १८८९ में हरिऔध जी को सरकारी नौकरी मिल गई। वे कानूनगो हो गए। इस पद से सन १९३२ में अवकाश ग्रहण करने के बाद हरिऔध जी ने काशी हिंदू विश्वविद्यालय के हिंदी विभाग में अवैतनिक शिक्षक के रूप से कई वर्षों तक अध्यापन कार्य किया। सन १९४१ तक वे इसी पद पर कार्य करते रहे। उसके बाद यह निजामाबाद वापस चले आए। इस अध्यापन कार्य से मुक्त होने के बाद हरिऔध जी अपने गाँव में रह कर ही साहित्य-सेवा कार्य करते रहे। अपनी साहित्य-सेवा के कारण हरिऔध जी ने काफी ख़्याति अर्जित की। हिंदी साहित्य सम्मेलन ने उन्हें एक बार सम्मेलन का सभापति बनाया और विद्यावाचस्पति की उपाधि से सम्मानित किया। सन १९४५ ई० में निजामाबाद में आपका देहावसान हो गया।

 
                              (साभार : समाचार-पत्रों में प्रकाशित समाचार से )

 

 

 

 

मंगलवार, 26 फ़रवरी 2013

महाकुंभ प्रयाग में गंगा एक्शन परिवार द्वारा डाक निदेशक कृष्ण कुमार यादव सम्मानित


       (फिल्म अभिनेता विवेक ओबॅराय और स्वामी चिदानंद मुनि जी ने दिया सम्मान)

महाकुंभ, प्रयाग-2013 के दौरान उत्कृष्ट विभागीय सेवाओं के साथ-साथ पर्यावरण एवं गंगा-सरंक्षण में समृद्ध योगदान हेतु गंगा एक्शन परिवार द्वारा इलाहाबाद परिक्षेत्र के निदेशक डाक सेवायें श्री कृष्ण कुमार यादव को सम्मानित किया गया।

माघ-पूर्णिमा की पूर्व संध्या पर अरैल, कुंभ क्षेत्र स्थित परमार्थ निकेतन, ऋषिकेश के शिविर मंे आयोजित एक भव्य कार्यक्रम में कृष्ण कुमार यादव को यह सम्मान फिल्म अभिनेता विवेक ओबॅराय, परमार्थ निकेतन के परमाध्यक्ष व गंगा एक्शन परिवार के मुखिया स्वामी चिदानंद सरस्वती ’मुनि जी’ ने दिया। ’ग्रीन एंड क्लीन कुंभ’ की थीम पर आयोजित इस कार्यक्रम में श्री यादव को बॅालीवुड अभिनेता विवेक ओबॅराय ने सम्मान स्वरूप पौधे भेंट किए एवं आशा व्यक्त की कि पर्यावरण संरक्षण के प्रति उनका योगदान यूं ही समाज व राष्ट्र को प्राप्त होता रहेगा। स्वामी चिदानंद सरस्वती ’मुनि जी’ ने कृष्ण कुमार को स्नेहाशीष देते हुए कहा कि देश को युवा पीढ़ी से काफी अपेक्षायें है और श्री यादव इस भाव-भूमि पर उत्कृष्ट कार्य कर रहे हैं।
इस अवसर पर डाक विभाग द्वारा कुंभ की बेला में जारी विशेष आवरणों का सेट निदेशक डाक सेवाएँ, इलाहबाद परिक्षेत्र कृष्ण कुमार यादव ने फिल्म अभिनेता विवेक ओबेराय, परमार्थ निकेतन के स्वामी चिदानंद मुनि और अखिल भारतीय आतंकवाद विरोधी मोर्चा के राष्ट्रीय अध्यक्ष मनिंदरजीत सिंह बिट्टा को भी भेंट किया। विवेक ओबेराय और अन्य गणमान्य व्यक्तियों ने डाक-विभाग की इस पहल को सराहा, जिसके माध्यम से देश-विदेश में भारतीय संस्कृति का प्रचार-प्रसार हो रहा है।
 
(गोआ के पूर्व मुख्यमंत्री श्री दिगंबर कामत व महाराष्ट्र के पूर्व गृह मंत्री कृपाशंकर सिंह के साथ कृष्ण कुमार यादव)
इस अवसर पर गोवा के पूर्व मुख्यमंत्री श्री दिगंबर कामत, महाराष्ट्र के पूर्व गृह मंत्री कृपाशंकर सिंह, अखिल भारतीय आतंकवाद विरोधी मोर्चा के राष्ट्रीय अध्यक्ष मनिंदरजीत सिंह बिट्टा, मेजर जनरल विशंभर दयाल सहित तमाम गणमान्य व्यक्ति मौजूद थे।
डा0 विनय कुमार शर्मा,
सम्पादक - संचार बुलेटिन
448/119/76, कल्याणपुरी, ठाकुरगंज, चैक, लखनऊ-226003

मंगलवार, 19 फ़रवरी 2013

साहित्य अकादमी का अध्यक्ष बनने वाले पहले हिंदी साहित्यकार बने विश्वनाथ प्रसाद तिवारी

साहित्य अकादमी के अध्यक्ष के रूप में प्रसिद्ध कवि, आलोचक व लेखक विश्वनाथ प्रसाद तिवारी जी का चयन और हिन्दी परामर्श मंडल के संयोजक रूप में प्रो0 सूर्य प्रसाद दीक्षित जी का चयन पूरे हिंदी-साहित्य समाज के लिए गौरव की बात है। संयोगवश पिछले दिनों मुझे इन दोनों महानुभावों के साथ सम्मानित होने का सु-अवसर भी प्राप्त हुआ।

 1 नवम्बर, 2012 को विश्वनाथ प्रसाद तिवारी जी के साथ मुझे उत्तर प्रदेश के मुख्यमंत्री द्वारा सपत्नीक 'अवध सम्मान' लेने का गौरव प्राप्त हुआ,

 14 सितम्बर 2012 को प्रो0 सूर्य प्रसाद दीक्षित जी के साथ साहित्यमंडल श्रीनाथद्वारा में मेरा सम्मान हुआ।

दोनों विद्वत जन को इस सु-चयन हेतु मेरी तरफ से हार्दिक बधाइयाँ।आशा है कि हिंदी साहित्य आपके दिशानिर्देशन में नए मुकाम हासिल कर सकेगा - कृष्ण कुमार यादव

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हिन्दी साहित्य के अनवरत साधक एवं प्रसिद्ध कवि, आलोचक व लेखक विश्वनाथ प्रसाद तिवारी को  सोमवार को साहित्य अकादमी का अध्यक्ष बनाया गया है। वह अकादमी के अध्यक्ष बनने वाले हिन्दी के पहले साहित्यकार हैं। इस पद के लिए उनका चयन सर्वसम्मति से हुआ । वे अकादमी के 12वें अध्यक्ष होंगे। इनकी नियुक्ति नियमानुसार पांच वर्ष के लिए है।
 
साहित्य अकादमी की कार्यकारी परिषद की बैठक में प्रसिद्ध साहित्यकार विश्वनाथ प्रसाद तिवारी को अकादमी का 12वां अध्यक्ष चुना गया। इसके अलावा ज्ञानपीठ पुरस्कार से सम्मानित कन्नड के लेखक चंद्रशेखर कंबर को अकादमी का उपाध्यक्ष और सूर्य प्रसाद दीक्षित को हिन्दी परामर्श मंडल का संयोजक चुना गया।

अकादमी के रवीन्द्र सभागार में हुई कार्यकारी परिषद की बैठक में बोर्ड के 86 सदस्यों में से 79 सदस्य उपस्थित थे। सभी का चुनाव निर्विरोध रूप से किया गया। साहित्य अकादमी के तत्कालीन अध्यक्ष और बांग्ला लेखक सुनील गंगोपाध्याय का 23 अक्तूबर 2012 को दक्षिण कोलकाता स्थित उनके आवास में दिल का दौरा पड़ने से निधन हो गया था। इसके बाद उपाध्यक्ष विश्वनाथ प्रसाद तिवारी बतौर कार्यकारी अध्यक्ष काम कर रहे थे।
 
तिवारी को वर्ष 2010 में बिरला फाउंडेशन व्यास सम्मान व उत्तर प्रदेश के हिन्दी गौरव व साहित्य भूषण का सम्मान मिल चुका है। उनकी रचनाओं में सात हिन्दी कविता संग्रह शोध व आलोचना की 11 पुस्तकें शामिल हैं। दस्तावेज जैसी प्रमुख पत्रिका के अलावा इन्होंने 14 पुस्तकों का संपादन भी किया है।
 
उत्तर प्रदेश के कुशीनगर में जन्में तिवारी ने कहा कि भारतीय साहित्य को लेकर विशेष कार्य करने की जरुरत है। इसके तहत भारतीय भाषाओं की कृतियों व लेख को विदेशों में भी लोकप्रिय बनाने की आवश्यकता है। उन्होंने यह भी कहा कि यदि हम नोबेल पुरस्कार प्राप्त कृतियों को देखते हैं तो भारतीय साहित्य उनसे किसी भी मायने में कमतर नहीं हैं।  उन्होंने बताया कि अकादमी का मुख्य कार्य साहित्य का प्रचार-प्रसार करना है। इसके लिए सभी भाषाओं के योग्य लेखकों को मंच पर आमंत्रित किया जाएगा। मालूम हो कि वर्ष 2001 में गोरखपुर विश्वविद्यालय के हिन्दी विभाग के प्रोफेसर व अध्यक्ष पद से सेवानिवृत्त तिवारी वर्ष 2008 में साहित्य अकादमी के हिन्दी संरक्षक व कार्यकारी उपाध्यक्ष के रूप में भी कार्यरत रहे हैं।

गौरतलब है कि साहित्य अकादमी की स्थापना 12 मार्च 1954 में की गयी थी। इसके पहले अध्यक्ष देश के प्रधानमंत्री पंडित जवाहरलाल नेहरू थे, जो 1954 से 1964 तक सर्वाधिक लंबे समय तक अकादमी के अध्यक्ष रहे। पहले उपाध्यक्ष डॉ सर्वपल्ली राधाकृष्णन थे, जो 1954 से 1960 तक इस पद पर रहे।

रविवार, 17 फ़रवरी 2013

दुनिया की पहली हवाई डाक सेवा : 18 फरवरी 1911 को कुम्भ मेले पर इलाहाबाद में हुई थी शुरू

कुम्भ अपने साथ तमाम ऐतिहासिकताओं को भी जोडे हुए है। सिर्फ राष्ट्रीय स्तर  पर ही नहीं बल्कि अंतर्राष्ट्रीय स्तर पर भी। इलाहाबाद को यह सौभाग्य प्राप्त है कि दुनिया की पहली हवाई डाक सेवा यहीं से आरम्भ हुई।  यह ऐतिहासिक घटना 101 वर्ष पूर्व 18 फरवरी 1911 को इलाहाबाद में हुई। संयोग से उस साल कुंभ का मेला भी लगा था। उस दिन दिन  फ्रेंच पायलट मोनसियर हेनरी पिक्वेट ने एक नया इतिहास रचा था। वे अपने विमान में इलाहाबाद से नैनी के लिए 6500 पत्रों को अपने साथ लेकर उडे। विमान था हैवीलैंड एयरक्राफ्ट और इसने दुनिया की पहली सरकारी डाक ढोने का एक नया दौर शुरू किया।

इलाहाबाद में उस दिन डाक की उड़ान देखने के लिए लगभग एक लाख लोग इकट्ठे हुए थे जब एक विशेष विमान ने शाम को साढ़े पांच बजे यमुना नदी के किनारों से उड़ान भरी और वह नदी को पार करता हुआ 15 किलोमीटर का सफर तय कर नैनी जंक्शन के नजदीक उतरा जो इलाहाबाद के बाहरी इलाके में सेंट्रल जेल के नजदीक था। आयोजन स्थल एक कृषि एवं व्यापार मेला था जो नदी के किनारे लगा था और उसका नाम ‘यूपी एक्जीबिशन’ था। इस प्रदर्शनी में दो उड़ान मशीनों का प्रदर्शन किया गया था। विमान का आयात कुछ ब्रिटिश अधिकारियों ने किया था। इसके कलपुर्जे अलग अलग थे जिन्हें आम लोगों की मौजूदगी में प्रदर्शनी स्थल पर जोड़ा गया। इलाहाबाद से नैनी जंक्शन तक का हवाई सफ़र आज से 101 साल पहले मात्र  13 मिनट में पूरा हुआ था।

हालांकि यह उडान महज छह मील की थी, पर इस घटना को लेकर इलाहाबाद में ऐतिहासिक उत्सव सा वातावरण था। ब्रिटिश एवं कालोनियल एयरोप्लेन कंपनी ने जनवरी 1911 में प्रदर्शन के लिए अपना एक विमान भारत भेजा थाए जो संयोग से तब इलाहाबाद आया जब कुम्भ का मेला भी चल रहा था। वह ऐसा दौर था जब जहाज देखना तो दूर लोगों ने उसके बारे में ठीक से सुना भी बहुत कम था। ऐसे में इस ऐतिहासिक मौके पर अपार भीड होना स्वाभाविक ही था। इस यात्रा में हेनरी ने इतिहास तो रचा ही पहली बार आसमान से दुनिया के सबसे बडे प्रयाग कुंभ का दर्शन भी किया।

कर्नल वाई विंधाम ने पहली बार हवाई मार्ग से कुछ मेल बैग भेजने के लिए डाक अधिकारियों से संपर्क किया जिस पर उस समय के डाक प्रमुख ने अपनी सहर्ष स्वीकृति दे दी। मेल बैग पर ‘पहली हवाई डाक’ और ‘उत्तर प्रदेश प्रदर्शनी, इलाहाबाद’ लिखा था। इस पर एक विमान का भी चित्र प्रकाशित किया गया था। इस पर पारंपरिक काली स्याही की जगह मैजेंटा स्याही का उपयोग किया गया था। आयोजक इसके वजन को लेकर बहुत चिंतित थे, जो आसानी से विमान में ले जाया जा सके। प्रत्येक पत्र के वजन को लेकर भी प्रतिबंध लगाया गया था और सावधानीपूर्वक की गई गणना के बाद सिर्फ 6,500 पत्रों को ले जाने की अनुमति दी गई थी। विमान को अपने गंतव्य तक पहुंचने में 13 मिनट का समय लगा।

इस पहली हवाई डाक सेवा का विशेष शुल्क छह आना रखा था और इससे होने वाली आय को आक्सफोर्ड एंड कैंब्रिज हास्टल इलाहाबाद को दान में दिया गया। इस सेवा के लिए पहले से पत्रों के लिए खास व्यवस्था बनाई गई थी। 18 फरवरी को दोपहर तक इसके लिए पत्रों की बुकिंग की गई। पत्रों की बुकिंग के लिए आक्सफोर्ड कैंब्रिज हॉस्टल में ऐसी भीड लगी थी कि उसकी हालत मिनी जीपीओ सरीखी हो गई थी। डाक विभाग ने यहां तीन चार कर्मचारी भी तैनात किए थे। चंद रोज में होस्टल में हवाई सेवा के लिए 3000 पत्र पहुंच गए। एक पत्र में तो 25 रूपये का टिकट लगा था। पत्र भेजने वालों में इलाहाबाद की कई नामी गिरामी हस्तियां तो थी हीं, राजा महाराजे और राजकुमार भी थे।

कृष्ण कुमार यादव
निदेशक डाक सेवायें, इलाहाबाद परिक्षेत्र,  इलाहाबाद 
 

रविवार, 10 फ़रवरी 2013

प्रिया आ ! : अथर्ववेद में समाहित दो प्रेम गीत

वेलेण्टाइन डे का असर अभी से दिखने लगा है. चारों तरफ प्यार की धूम मची है. अब तो यह पूरा व्यवसाय हो गया है. हर कोई इसे अपने ढंग से यादगार बनाना चाह रहा है. फ़िलहाल प्यार की इस फिजा में वसंत के अहसास के बीच वेलेण्टाइन डे पर अथर्ववेद में समाहित दो प्रेम गीतों का हिन्दी अनुवाद प्रस्तुत है-

प्रिया आ !
मत दूर जा
लिपट मेरी देह से
लता लतरती ज्यों पेड़ से
मेरे तन के तने पर
तू आ टिक जा
अंक लगा मुझे
कभी न दूर जा
पंछी के पंख कतर
ज़मीं पर उतार लाते ज्यों
छेदन करता मैं तेरे दिल का
प्रिया आ, मत दूर जा।
धरती और अंबर को
सूरज ढक लेता ज्यों
तुझे अपनी बीज भूमि बना
आच्छादित कर लूंगा तुरंत
प्रिया आ, मन में छा
कभी न दूर जा
आ प्रिया!


हे अश्विन!
ज्यों घोड़ा दौड़ता आता
प्रिया-चित्त आए मेरी
ओर
ज्यों घुड़सवार कस
लगाम
रखता अश्व वश में
रहे तेरा मन
मेरे वश में
करे अनुकरण सर्वदा
मैं खींचता तेरा चित्त
ज्यों राजअश्व खींचता
घुड़सवार
अथित करूं तेरा हृदय
आंधी में भ्रमित तिनके जैसा
कोमल स्पर्श से कर
उबटन तन पर
मधुर औषधियों से
जो बना
थाम लूं मैं हाथ
भाग्य का कस के।

 
( आकांक्षा जी के ब्लॉग 'शब्द-शिखर' से )

शनिवार, 26 जनवरी 2013

जनसत्ता में 'शब्द-सृजन की ओर' की पोस्ट : 'युवा की राह'

'शब्द सृजन की ओर' पर 11 जनवरी, 2013 को प्रकाशित पोस्ट 'उर्जा और आन्दोलन का प्रतीक है युवा वर्ग' को प्रतिष्ठित हिन्दी अख़बार जनसत्ता ने 19 जनवरी , 2013 को अपने नियमित स्तंभ 'समांतर' के तहत 'युवा की राह' शीर्षक से प्रकाशित किया है...आभार ! इस आलेख को पढने के लिए क्लिक करें - 'उर्जा और आन्दोलन का प्रतीक है युवा वर्ग'.
 
इससे पहले 'शब्द सृजन की ओर' पर प्रकाशित ब्लॉग की पोस्टों की चर्चा जनसत्ता, दैनिक जागरण, अमर उजाला, LN स्टार, नभ छोर, जन वाणी, इत्यादि में हो चुकी है. मेरे दूसरे ब्लॉग 'डाकिया डाक लाया' ब्लॉग और इसकी प्रविष्टियों की चर्चा दैनिक हिंदुस्तान, जनसत्ता, राष्ट्रीय सहारा, राजस्थान पत्रिका, उदंती, LN STAR पत्र-पत्रिकाओं में हो चुकी है.इस प्रोत्साहन के लिए आप सभी का आभार !!

रविवार, 20 जनवरी 2013

लघु भारत का अहसास कराता है प्रयाग का महाकुम्भ

भारत के ऐतिहासिक मानचित्र पर इलाहाबाद एक ऐसा प्रकाश स्तम्भ है, जिसकी रोशनी कभी भी धूमिल नहीं हो सकती। इस नगर ने युगों की करवट देखी है, बदलते हुये इतिहास के उत्थान-पतन को देखा है, राष्ट्र की सामाजिक व सांस्कृतिक गरिमा का यह गवाह रहा है तो राजनैतिक एवं साहित्यिक गतिविधियों का केन्द्र भी। पौराणिक मान्यताओं के अनुसार इस नगर का नाम ’प्रयाग’ है। ऐसी मान्यता है कि चार वेदों की प्राप्ति पश्चात ब्रह्म ने यहीं पर यज्ञ किया था, सो सृष्टि की प्रथम यज्ञ स्थली होने के कारण इसे प्रयाग कहा गया। प्रयाग माने प्रथम यज्ञ। कालान्तर में मुगल सम्राट अकबर इस नगर की धार्मिक और सांस्कृतिक ऐतिहासिकता से काफी प्रभावित हुआ। उसने भी इस नगरी को ईश्वर या अल्लाह का स्थान कहा और इसका नामकरण ’इलहवास‘ किया अर्थात जहाँ पर अल्लाह का वास है। परन्तु इस सम्बन्ध में एक मान्यता और भी है कि इला नामक एक धार्मिक सम्राट, जिसकी राजधानी प्रतिष्ठानपुर (अब झूंसी) थी के वास के कारण इस जगह का नाम ’इलावास‘ पड़ा। कालान्तर में अंग्रेजों ने इसका उच्चारण ’इलाहाबाद‘ कर दिया।

इलाहाबाद एक अत्यन्त पवित्र नगर है, जिसकी पवित्रता गंगा, यमुना और अदृश्य सरस्वती के संगम के कारण है। वेद से लेकर पुराण तक और संस्कृत कवियों से लेकर लोकसाहित्य के रचनाकारों तक ने इस संगम की महिमा का गान किया है। इलाहाबाद को संगमनगरी, कुम्भनगरी और तीर्थराज भी कहा गया है। प्रयागशताध्यायी के अनुसार काशी, मथुरा, अयोध्या इत्यादि सप्तपुरियां तीर्थराज प्रयाग की पटरानियां हैं, जिनमें काशी को प्रधान पटरानी का दर्जा प्राप्त है। तीर्थराज प्रयाग की विशालता व पवित्रता के सम्बन्ध में सनातन धर्म में मान्यता है कि एक बार देवताओं ने सप्तद्वीप, सप्तसमुद्र, सप्तकुलपर्वत, सप्तपुरियाँ, सभी तीर्थ और समस्त नदियाँ तराजू के एक पलड़े पर रखीं, दूसरी ओर मात्र तीर्थराज प्रयाग को रखा, फिर भी प्रयागराज ही भारी रहे। वस्तुतः गोमुख से इलाहाबाद तक जहाँ कहीं भी कोई नदी गंगा से मिली है उस स्थान को प्रयाग कहा गया है, जैसे-देवप्रयाग, कर्ण प्रयाग, रूद्रप्रयाग आदि। केवल उस स्थान पर जहाँ गंगा, यमुना और सरस्वती का संगम है प्रयागराज कहा गया। इस प्रयागराज इलाहाबाद के बारे में गोस्वामी तुलसीदास ने लिखा है-’’को कहि सकई प्रयाग प्रभाऊ, कलुष-पुंज कुंजर मृगराऊ। सकल काम प्रद तीरथराऊ, बेद विदित जग प्रगट प्रभाऊ।।’’ इसी प्रयाग की धरा पर हर बारह वर्ष पर कुंभ पर्व का भव्य आयोजन होता है।

कुम्भ पर्व सनातन आस्था का प्रतीक है। शास्त्रों में कुंभ पर्व की महिमा का गुण-गान करते हुए इसके स्नान को समस्त पापों का नाशक एवं अनंत पुण्यदायक बताया गया है। स्कंद पुराण में वर्णित है-

सहस्त्रं कार्तिके स्नानं माघे स्नानशतानि च।
वैशाखे नर्मदा कोटिः कुंभस्नानेन तत्फलम्।।

अर्थात एक हजार बार कार्तिक मास में गंगा में स्नान करने से, सौ बार माघ में संगम-स्नान करने से, वैशाख में एक करोड़ बार नर्मदा-स्नान करने से जो पुण्यफल अर्जित होता है, वह कुंभ में केवल एक बार स्नान करने से प्राप्त होता है। विष्णु पुराण में भी कुंभ-स्नान की प्रशंसा में कहा गया है-

अश्वमेधसहस्त्राणि वाजयशतानि च।
लक्षं प्रदक्षिणा भूमेः कुंभस्नानेन तत्फलम।।

अर्थात् हजार बार अश्वमेध-यज्ञ करने से, सौ बार वाजपेय-यज्ञ करने से और लाख बार पृथ्वी की परिक्रमा करने से जितनी पुण्यराशि संचित होती है, उतनी कुंभ में एक बार स्नान करने से प्राप्त होती है।

कुम्भ पर्व हरिद्वार (गंगा तट), उज्जैन (क्षिप्रा तट) तथा नासिक (गोदावरी तट) में भी लगता है परन्तु प्रयाग कुम्भ की महत्ता इसलिए भी बढ़ जाती है कि लोगों को यहाँ तीन पवित्र नदियों के संगम में स्नान करने का सुअवसर प्राप्त होता है। प्रयाग में गंगा, यमुना और अदृश्य सरस्वती के संगम तट पर प्रत्येक बारह वर्ष के अन्तराल पर यह विश्व प्रसिद्ध पर्व मकर संक्राति से लेकर महाशिवरात्रि तक चलता है, जिसमें देश-विदेश से करोड़ों नर-नारी असीम श्रद्धा के साथ पतित-पावनी त्रिवेणी में स्नान कर न केवल अपने पापों एवं कष्टों को धोते हैं, बल्कि ऐसी मान्यता है कि इसके साथ ही विद्वानों के मुखार बिन्दु से अविरल बह रही गंगा में गोता लगाकर अपने जन्म-जन्मान्तर के पापों को भी नष्ट करते हैं । बीतरागियों, साधु-महात्माओं, संन्यासियों, मठाधीशों और शंकराचार्यों की मौजूदगी मेले को गरिमा देती है। महामंडलेश्वरों, संत-महात्माओं के अतिरिक्त अनेक कथावाचकों, मनीषियों के शिवरों में कथा, कीर्तन, प्रवचन आदि के कार्यक्रम होते है कई शिवरों में रामलीलाएं, रासलीलाएं भी होती हैं । कुंभ की भव्यता और मनमोहकता से आकृष्ट हो हजारों विदेशी पर्यटक इस अवसर पर विशेष रूप से आते हैं और कई तो सदा-सदा के लिए यहाँ की आध्यात्मिक रजकणों से अभिभूत हो अपनी भौतिक सम्पन्नता को त्याग कर भक्ति में लीन हो जाते हैं।

सामान्यतः कुम्भ का अर्थ ’घड़े’ से होता है परन्तु इसका तात्विक अर्थ कुछ और ही है। कुंभ हमारी संस्कृतियों का संगम है। कुंभ एक आध्यात्मिक चेतना, मानवता का प्रवाह एवं शाश्वत जीवन धारा है। भारतीय दर्शन में नदियाँ जल का प्रवाह मात्र नहीं हैं वरन् ये महा चैतन्य रूपी परमात्मा का शाश्वत प्रवाह है। उनका स्वरूप लोक माताआंे के रूप में पूज्यनीय माना गया है। भारतीय संस्कृति में गंगा नदी का प्रमुख स्थान है, जिसके तट पर प्रयाग में कुंभ का आयोजन होता है। वस्तुतः गंगा एक जीवन धारा है। ज्ञान वैराग्य और भक्ति का अमृत संगम में छिपा है जिसमें डुबकी लगाने से इंसान को जीते जी मोक्ष की प्राप्ति होती है। तभी तो कहा गया है-’’गंगे तव दर्शनात् मुक्तिः।’’

कुम्भ का यदि हम ऐतिहासिक दृष्टि से विश्लेषण करें तो हमें सनातन काल से मिलता है। कुंभ-पर्व का वेदों में उल्लेख मिलने से इसकी प्राचीनता का पता चलता है। ऋग्वेद (10-89-7), शुक्लयजुर्वेद (19-87), अथर्ववेद (4-34-7, 16-6-8 एवं 19-53-3) की ऋचाएं कुंभ पर्व पर पर्याप्त प्रकाश डालती है। सनातन आदि और अनादि है। इसी में समष्टि का बोध निहित है। इसी में हिन्दू संस्कृति, इसी में विश्व की संस्कृति एवं सभ्यताओं का संगम निहित है। यही कारण है कि विश्व की सबसे प्राचीन संस्कृतियों में भी कुम्भ का उल्लेख एवं आकार हमें प्राप्त होता है। इतना विशाल पर्व एक दिन में तो होने नहीं लगता, शनैः-शनैः वह महान स्वरूप लेता है। कुछ ऐसा ही कुम्भ पर्व के बारे में हुआ होगा। 644 ईसवी में सम्राट हर्षवर्धन के कार्य काल में प्रयाग का यह महापर्व सर्वाधिक प्रकाश में आया, ऐसी मान्यता है। चीनी यात्री व्हेनसांग ने अपने यात्रा वृतांत का जिस प्रकार से उल्लेख किया है, उससे स्पष्ट है कि उस समय कुम्भ अथवा अर्द्धकुम्भ का ही समय रहा होगा। हर्षवर्धन द्वारा गंगा स्नान करके अपना सर्वस्व दान कर बहन राजश्री से वस्त्र मांग कर पहनने आदि जैसे वृतान्त प्रयाग के कुम्भ अथवा अर्द्धकुम्भ की ओर संकेत करते हैं। नवीं शताब्दी में आदि शंकराचार्य द्वारा दसनामी अखाड़ों का गठन करने, कुम्भ, अर्द्धकुम्भ पर्वों की नींव डालने की बात भी उभर कर सामने आती है। आज भी अखाड़ों की मौजूदगी कंुभ को विशिष्टता प्रदान करती है। अखाड़े कंुभ मेले के सिरमौर माने जाते हैं । मेले में विभिन्न अखाड़ों के साधु, संत, महंत रेती पर धूनी रमाते हैं और वसंत पंचमी के शाही स्नानपर्व के बाद अखाड़ों के साथ ही श्रद्धालु भी विदा लेते हैं।

प्रयाग में संगम की रेती पर लगने वाला कुंभ मेला अनेक मायनों में अद्भुत और अतुलनीय है। इस पर बसने वाली तंबुओं की नगरी में देश और दुनिया से अनेक मत-मतांतर, भाषा-भाषी, रीति-रिवाज, संस्कार प्रथा-परंपरा के श्रद्धालु पुण्य और मोक्ष की कामना से जुटते और संगम में डुबकी लगाते हैं। कुम्भ पर्व अमृत स्नान और अमृतपान की कामना की बेला है। इस समय गंगा की धारा में अमृत का सतत् प्रवाह होता है। कुम्भ पर्व की मूल चेतना पुराणों में वर्णित है। यह पर्व क्षीरसागर के मंथनोपरान्त प्राप्त हुए अमृत कुंभ के लिए हुए देवासुर संग्राम से जुड़ा है। समुद्र मंथन से प्राप्त 14 रत्नों में सबसे अन्त में आयुवर्धिनी शक्ति वाले अमृत कुंभ को लेकर, आयुर्वेद के अधिष्ठाता भगवान धनवंतरि स्वयं प्रकट हुए। अमृतकुम्भ पाने की होड़ ने देव-दानव युद्ध का रूप ले लिया। देवताओं ने दैत्यों से छिपाने के लिए देवराज इन्द्र के पुत्र जंयत को अमृत कुंभ की रक्षा का दायित्व सौंपा । इस दायित्व को पूरा करने में सूर्य, चन्द्र, गुरु और शनि भी सहयोगी बने।
 
दैत्यों ने अमृत कुंभ को पाने के लिए दैत्यगुरू शुक्राचार्य के आदेश पर तीनों लोकों में जयंत का पीछा किया। यह युद्ध 12 दिनों तक चला। देवताओं का एक दिन मानवों के एक वर्ष के बराबर माना जाता है। इस दौरान ’अमृत कुंभ’ की रक्षा के क्रम में विश्राम के दौरान अमृत की बूँदें बारह स्थानों पर गिरीं । इन बारह स्थलों में से आठ पवित्र स्थान देवलोक में हैं और चार (प्रयाग, हरिद्वार, उज्जैन, नासिक) पृथ्वी पर हैं। ये चार स्थान ही अमृत की बूंदों के कारण कुंभ क्षेत्र बने। चूँकि इस अमृत कलश की रक्षा में सूर्य, चन्द्र, गुरु और शनि सहयोगी की भूमिका में थे, अतः कुंभ पर्व के दौरान उन्हीं स्थानों पर इनका दुर्लभ संयोग पड़ने पर कुम्भ पर्व मनाया जाता है। विष्णु याग के अनुसार-
 
माघे मेषगते जीवे, मकरे चन्द्रीभास्करौ।
अमावस्या तदा योगः कुम्भख्यस्तीर्थ नायके।।

अर्थात् माघ में वृहस्पति के मेष में होने तथा सूर्य और चन्द्रमा के मकर में होने पर अमावस्या को प्रयाग में कुंभ पर्व होता है।

मकर संक्रान्ति से लेकर वैशाख पूर्णिमा तक चलने वाले प्रयाग कुंभ पर्व में कुछ खास स्नान पर्व होते हैं और तीन शाही स्नान पर्व होते हैं- मकर संक्राति (प्रथम शाही स्नान, 14 जनवरी 2013), पौष पूर्णिमा (27 जनवरी 2013), मौनी अमावस्या (द्वितीय शाही स्नान, 10 फरवरी 2013), वसंत पंचमी (तृतीय शाही स्नान, 15 फरवरी 2013), माघ पूर्णिमा (25 फरवरी 2013), महाशिवरात्रि (10 मार्च 2013)। विभिन्न अखाड़ों के साधु-संत कुम्भ स्थल में एकत्र होते हैं और प्रमुख स्नान पर्व पर वे एक शानदार शोभा यात्रा निकालते हुए पारम्परिक अनुशासन में बँधकर स्नान हेतु स्नान स्थल पर जाते हैं । इन अखाड़ों के प्रमुख महंतों की सवारी सोने-चाँदी तथा अन्य सजावट से सजे हाथी, भव्य रथों और पालकियों पर निकलती है, जिनके आगे-पीछे आकर्षक सज्जा से आच्छादित ऊँट, घोड़े, हाथी और बैंड भी होते हैं। इन्हें देखकर पुराने जमाने के राजा-महाराजाओं के काफिले का अक्स उभरकर सामने आता है।

 कुम्भ प्रयाग ही नहीं बल्कि संगम की रेती पर लगने वाला विश्व का सबसे बड़ा स्वतः स्फूर्त आयोजन है। कुंभ सिर्फ मानवीय आयोजन नहीं बल्कि एक दैवीय और आध्यात्मिक महोत्सव है। वर्ष 2013 का कुंभ पर्व तकरीबन एक करोड़ 99 लाख वर्ग मीटर के क्षेत्रफल में कुल 14 सेक्टरों में विभाजित है। वाकई, मीलों लंबे चैड़े क्षेत्र में कुंभ पर्व के दौरान जो वातावरण व्याप्त रहता है, वह महीनों और वर्षों में ढले स्वभाव को भी सहज ही बदलने में समर्थ है। यह भी इस अवसर को महत्वपूर्ण बनाता है। कुंभ ऐसा पर्व है जहाँ मानव का देव से सीधे साक्षात्कार होता है, शारीरिक-मानसिक व्याधियों से मुक्ति मिलती है। ग्रह-नक्षत्रों के सहयोग तथा गंगा और संतों पर उमड़ने वाली आस्था कुंभ रूपी सृष्टि जीवनदायी अमृत का बोध कराती है। न कोई दिखावा न आडंबर। अलग भाषा, अलग संस्कृति और अलग पहनावे के बावजूद कुंभ के समागम में सिमटती भावनाएं एक सी दिखती हैं। अनेकता में एकता का उदाहरण लिए प्रयाग कुंभ वाकई लघु भारत का एहसास कराता है।


कृष्ण कुमार यादव
निदेशक डाक सेवाएं
इलाहाबाद परिक्षेत्र, इलाहाबाद (उ.प्र.)-211001
kkyadav.t@gmail.com, http://kkyadav.blogspot.com/

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कृष्ण कुमार यादव : सम्प्रति भारत सरकार में निदेशक. प्रशासन के साथ-साथ साहित्य, लेखन और ब्लागिंग के क्षेत्र में भी प्रवृत्त। जवाहर नवोदय विद्यालय-आज़मगढ़ एवं तत्पश्चात इलाहाबाद विश्वविद्यालय से 1999 में राजनीति-शास्त्र में परास्नातक. देश की प्राय: अधिकतर प्रतिष्ठित पत्र-पत्रिकाओं एवं इंटरनेट पर वेब पत्रिकाओं व ब्लॉग पर रचनाओं का निरंतर प्रकाशन. व्यक्तिश: 'शब्द-सृजन की ओर' और 'डाकिया डाक लाया' एवं युगल रूप में सप्तरंगी प्रेम, उत्सव के रंग और बाल-दुनिया ब्लॉग का सञ्चालन. इंटरनेट पर 'कविता कोश' में भी कविताएँ संकलित. 50 से अधिक पुस्तकों/संकलनों में रचनाएँ प्रकाशित. आकाशवाणी और दूरदर्शन पर प्रसारण. कुल 6 कृतियाँ प्रकाशित -'अभिलाषा' (काव्य-संग्रह, 2005), 'अभिव्यक्तियों के बहाने' व 'अनुभूतियाँ और विमर्श'(निबंध-संग्रह, 2006 व 2007), 'India Post : 150 Glorious Years'(2006),'क्रांति-यज्ञ : 1857-1947 की गाथा' व जंगल में क्रिकेट (बाल-गीत संग्रह,2012).उ.प्र. के मुख्यमंत्री द्वारा न्यू मीडिया ब्लागिंग हेतु जी न्यूज़ का ’’अवध सम्मान’’, परिकल्पना समूह द्वारा ’’दशक के श्रेष्ठ हिन्दी ब्लागर दम्पति’’ सम्मान, विक्रमशिला हिन्दी विद्यापीठ, भागलपुर, बिहार द्वारा डाक्टरेट (विद्यावाचस्पति) की मानद उपाधि, भारतीय दलित साहित्य अकादमी द्वारा ‘डा. अम्बेडकर फेलोशिप राष्ट्रीय सम्मान‘, राष्ट्रीय राजभाषा पीठ इलाहाबाद द्वारा ’भारती ज्योति’, साहित्य मंडल, श्रीनाथद्वारा, राजस्थान द्वारा ”हिंदी भाषा भूषण”, सहित विभिन्न प्रतिष्ठित सामाजिक-साहित्यिक संस्थाओं द्वारा विशिष्ट कृतित्व, रचनाधर्मिता और सतत् साहित्य सृजनशीलता हेतु दर्जनाधिक सम्मान और मानद उपाधियाँ प्राप्त. व्यक्तित्व-कृतित्व पर 'बाल साहित्य समीक्षा'(सं. डा. राष्ट्रबंधु, कानपुर, सितम्बर 2007) और 'गुफ्तगू' (सं. मो. इम्तियाज़ गाज़ी, इलाहाबाद, मार्च 2008 द्वारा विशेषांक जारी. व्यक्तित्व-कृतित्व पर एक पुस्तक 'बढ़ते चरण शिखर की ओर : कृष्ण कुमार यादव' (सं0- दुर्गाचरण मिश्र, 2009) प्रकाशित.

शुक्रवार, 11 जनवरी 2013

ऊर्जा और आन्दोलन का प्रतीक है युवा वर्ग

युवा किसी भी समाज और राष्ट्र के कर्णधार हैं, वे उसके भावी निर्माता हैं। चाहे वह राजनेता या प्रशासक के रूप में हों अथवा डाक्टर, इन्जीनियर, वैज्ञानिक, साहित्यकार व कलाकार के रूप में हों । इन सभी रूपों में उनके ऊपर अपनी सभ्यता, संस्कृति, कला एवम् ज्ञान की परम्पराओं को मानवीय संवेदनाओं के साथ आगे ले जाने का गहरा दायित्व होता है। पर इसके विपरीत अगर वही युवा वर्ग इन परम्परागत विरासतों का वाहक बनने से इन्कार कर दे तो राष्ट्र का भविष्य अन्धकारमय भी हो़ सकता है।
 
युवा शब्द अपने आप में ही ऊर्जा और आन्दोलन का प्रतीक है। युवा को किसी राष्ट्र की नींव तो नहीं कहा जा सकता पर यह वह दीवार अवश्य है जिस पर राष्ट्र की भावी छतों को सम्हालने का दायित्व है। भारत की कुल आबादी में युवाओं की हिस्सेदारी करीब 50 प्रतिशत है जो कि विश्व के अन्य देशों के मुकाबले काफी है। इस युवा शक्ति का सम्पूर्ण दोहन सुनिश्चित करने की चुनौती इस समय सबसे बड़ी है। जब तक यह ऊर्जा और आन्दोलन सकारात्मक रूप में है तब तक तो ठीक है, पर ज्यों ही इसका नकारात्मक रूप में इस्तेमाल होने लगता है वह विध्वंसात्मक बन जाती है। वस्तुतः इसके पीछे जहाँ एक ओर अपनी संस्कृति और जीवन मूल्यों से दूर हटना है, वहीं दूसरी तरफ हमारी शिक्षा व्यवस्था का भी दोष है। आर्थिक उदारीकरण और भूमण्डलीकरण के बाद तो युवा वर्ग के विचार-व्यवहार में काफी तेजी से परिवर्तन आया है। पूँजीवादी बहुराष्ट्रीय कम्पनियों की बाजारी लाभ की अन्धी दौड़ और उपभोक्तावादी विचारधारा के अन्धानुकरण ने उसे ईष्र्या, प्रतिस्पर्धा और शार्टकट के गर्त में धकेल दिया। फिल्मी परदे पर हिंसा, बलात्कार, प्रणय दृश्य, यौन-उच्छश्रंृखलता एवम् रातों-रात अमीर बनने के दृश्यों को देखकर आज का युवा उसी जिन्दगी को वास्तविक रूप में जीना चाहता है। कभी विद्या, श्रम, चरित्रबल और व्यवहारिकता को सफलता के मानदण्ड माना जाता था पर आज सफलता की परिभाषा ही बदल गयी है। आज का युवा अपने सामाजिक उत्तरदायित्वों से परे सिर्फ आर्थिक उत्तरदायित्वों की ही चिन्ता करता है।
 
शिक्षा एक व्यवसाय नहीं संस्कार है, पर जब हम आज की शिक्षा व्यवस्था देखते हैं , तो यह व्यवसाय ही ज्यादा ही नजर आती है। युवा वर्ग स्कूल व कालेजों के माध्यम से ही दुनिया को देखने की नजर पाता है, पर शिक्षा में सामाजिक और नैतिक मूल्यों का अभाव होने के कारण इसका सीधा सरोकार मात्र रोजगार से जुड़ गया है। आज के युवा को राजनीति ने भी प्रभावित किया है। देश की आजादी में युवाओं ने अहम् भूमिका निभाई और जरूरत पड़ने पर नेतृत्व भी किया। कभी विवेकानन्द जैसे व्यक्तित्व ने युवा कर्मठता का ज्ञान दिया तो सन् 1977 में लोकनायक के आहृान पर सारे देश के युवा एक होकर सड़कों पर निकल आये पर आज वही युवा अपनी आन्तरिक शक्ति को भूलकर चन्द लोगों के हाथों का खिलौना बन गये हैं । वे बहार निकलते तो हैं पर उनमें sसे कोई नेत्रित्व नहीं पैदा होता। ऐसे में राजनेताओं से लेकर तमाम लोगों ने युवा भावनाओं को उभारकर उनका अपने पक्ष में इस्तेमाल किया और भविष्य के अच्छे सब्जबाग दिखाकर उनका शोषण किया। ऐसे में अवसरवाद की राजनीति ने युवाओं को हिंसा, हड़ताल व प्रदर्शनों में आगे करके उनकी भावनाओं को भड़काने और गुमराह करने का प्रयास किया है।

आज का युवा संक्रमण काल से गुजर रहा है। वह अपने बलबूते आगे तो बढ़ना चाहता है, पर परिस्थितियाँ और समाज उसका साथ नहीं देते। चाहे वह राजनीति हो, फिल्म व मीडिया जगत हो, शिक्षा हो, उच्च नेतृत्व हो- हर किसी ने उसे सुखद जीवन के सब्ज-बाग दिखाये और फिर उसको भँवर में छोड़ दिया। ऐसे में पीढि़यों के बीच जनरेशन गैप भी बढ़ा है। समाज की कथनी-करनी में भी जमीन आसमान का अन्तर है। एक तरफ वह सभी को डिग्रीधारी देखना चाहता है, पर सभी हेतु रोजगार उपलब्ध नहीं करा पाता, नतीजन- निर्धनता, मँहगाई, भ्रष्टाचार इन सभी की मार सबसे पहले युवाओं पर पड़ती है। इसी प्रकार व्यावहारिक जगत में आरक्षण, भ्रष्टाचार, स्वार्थ, भाई-भतीजावाद और कुर्सी लालसा जैसी चीजों ने युवा हृदय को झकझोर दिया है। जब वह देखता है कि योग्यता और ईमानदारी से कार्य सम्भव नहीं, तो कुण्ठाग्रस्त होकर गलत रास्तों पर चलने को मजबूर हो जाता है। ऐसे में ही समाज के दुश्मन उनकी भावनाओं को भड़काकर व्यवस्था के विरूद्ध विद्रोह के लिए प्रेरित करते हैं, फलतः अपराध और आतंकवाद का जन्म होता है। युवाओं को मताधिकार तो दे दिया गया है पर उच्च पदों पर पहुँचने और निर्णय लेने के उनके स्वप्न को दमित करके उनका इस्तेमाल राजनीतिज्ञों द्वारा सिर्फ अपने स्वार्थ में किया जा रहा है।
 
युवाओं ने आरम्भ से ही इस देश के आन्दोलनों में रचनात्मक भूमिका निभाई है- चाहे वह सामाजिक, शैक्षणिक, राजनैतिक या सांस्कृतिक हो। लेकिन आज युवा आन्दोलनों के पीछे किन्हीं सार्थक उद्देश्यों का अभाव दिखता है। युवा व्यवहार मूलतः एक शैक्षणिक, सामाजिक, संरचनात्मक और मूल्यपरक समस्या है जिसके लिए राजनैतिक, सामाजिक, शैक्षणिक और आर्थिक सभी कारक जिम्मेदार हैं। ऐसे में समाज के अन्य वर्गों को भी अपनी जिम्मेदारियों का अहसास होना चाहिए, सिर्फ युवाओं को दोष देने से कुछ नहीं होगा। आज सवाल सिर्फ युवा शक्ति के भटकाव का नहीं है, बल्कि अपनी संस्कृति, सभ्यता, मूल्यों, कला एवम् ज्ञान की परम्पराओं को भावी पीढि़यों के लिए सुरक्षित रखने का भी है। युवाओं को भी ध्यान देना होगा कि कहीं उनका उपयोग सिर्फ मोहरों के रूप में न किया जाय।
                              
- कृष्ण कुमार यादव

रविवार, 30 दिसंबर 2012

बच्चे की निगाह


कभी देखो समाज को
बच्चे की निगाहों से
पल भर में रोना
पल भर में खिलखिलाना।

अरे! आज लड़ाई हो गई
शाम को दोनों गले मिल रहे हैं
एक दूसरे को चूम रहे हैं।

भीख का कटोरा लिए फिरते
बूढ़े चाचा की दशा देखी नहीं गई
माँ की नजरें चुराकर
अपने हिस्से की दो रोटियाँ
दे आता है उसे।

दीवाली है, ईद है
अपनी मंडली के साथ
मिठाईयाँ खाये जा रहा है
क्या फर्क पड़ता है
कौन हिन्दू है, कौन मुसलमां।

सड़क पर कुचल आता है आदमी
लोग देखते हुए भी अनजान हैं
पापा! पापा! गाड़ी रोको
देखो उन्हें क्या हो गया ?

छत पर देखा
एक कबूतर घायल पड़ा है
उठा लाता है उसे
जख्मों पर मलहम लगाता है
कबूतर उन्मुक्त होकर उड़ता है।

बच्चा जोर से तालियाँ बजाकर
उसके पीछे दौड़ता है
मानों सारा आकाश
उसकी मुट्ठी में है।

- कृष्ण कुमार यादव (अपने काव्य-संग्रह 'अभिलाषा' से)

 
(चित्र में बिटिया अपूर्वा)

मंगलवार, 25 दिसंबर 2012

मेरा भी तो ब्याह रचाओ

 
राजा जी की निकली सवारी,
हाथी-घोड़ा औ' दरबारी।
हाथी दादा रूठ गए,
पीछे-पीछे छूट गए।

रानी बोली हाथी लाओ,
फिर आगे को कदम बढ़ाओ।
सारे सैनिक दौड़ पड़े,
हाथी दादा अडिग खड़े।

पहले मानो मेरी बात,
तब आऊँ मैं सबके साथ।
बोले मेरी हथिनी लाओ,
मेरा भी तो ब्याह रचाओ।

रविवार, 23 दिसंबर 2012

कुँवारी किरणें

 
सद्यःस्नात सी लगती हैं
हर रोज सूरज की किरणें।

खिड़कियों के झरोखों से
चुपके से अन्दर आकर
छा जाती हैं पूरे शरीर पर
अठखेलियाँ करते हुये।

आगोश में भर शरीर को
दिखाती हैं अपनी अल्हड़ता के जलवे
और मजबूर कर देती हैं
अंगड़ाईयाँ लेने के लिए
मानो सज धज कर
तैयार बैठी हों
अपना कौमार्यपन लुटाने के लिए।

- कृष्ण कुमार यादव-
 
 

गुरुवार, 13 दिसंबर 2012

21 दिसंबर 2012 को कुछ ही दिन रह गए हैं...


21 दिसंबर 2012 को कुछ ही दिन रह गए हैं। 21 दिसंबर 2012 को धरती का अंत हो जाएगा, इस बात के कोई सबूत नहीं है लेकिन दुनिया भर में इसको लेकर लोगों में एक डर बना हुआ है कि आखिर 21 दिसंबर को होगा क्या? क्या दुनिया खत्म हो जाएगी? क्या महाप्रलय आएगी। माया कैलेंडर की मानें तो दुनिया में प्रलय आएगी, लेकिन नासा ने माया सभ्यता की इस भविष्यवाणी को गलत साबित कर दिया है। नासा के एक अध्ययन में यह बात सामने आई है कि इतनी जल्दी पृथ्वी का अंत नहीं होगा।
 
प्रलय या कयामत का दिन, शब्द भले ही अलग हों लेकिन दोनों का आशय दुनिया के भयावह अंत से ही है। हिंदू धर्म के अनुसार कलयुग के अंत के बाद प्रलय का दिन आएगा, जब सब कुछ समाप्त हो जाएगा, पूरी दुनिया विनाश के साए में सिमट जाएगी। दूसरी ओर इस्लाम और ईसाई धर्म में भी कयामत या द डे ऑफ जस्टिस (जब सभी लोगों के पाप और पुण्यों का हिसाब किया जाएगा) इस दिन का उल्लेख किया गया है।
 
क्या है माया सभ्यता
 
दुनिया खत्म होने के पीछे माया सभ्यता की भविष्यवाणी को एक बड़ा कारण माना जा रहा था। माया सभ्यता 300 से लेकर 900 ई के बीच मैक्सिको, पश्चिमी होंडूरास और अल सल्वाडोर के बीच चली आ रही पुरानी सभ्यता है, इस सभ्यता के अनुसार चले आ रहे कैलेंडर में 21 दिसंबर 2012 के आगे किसी तारीख का कोई जिक्र नहीं है, जिसकी वजह से माना जा रहा था कि इस दिन पूरी दुनिया समाप्त हो जाएगी। यह कैलेंडर इतना सटीक है कि आज के सुपर कंप्यूटर भी उसकी गणनाओं में सिर्फ 0.06 तक का ही फर्क निकाल सके हैं।
 
प्राचीन माया सभ्यता के काल में गणित और खगोल के क्षेत्र उल्लेखनीय विकास हुआ। अपने ज्ञान के आधार पर माया लोगों ने एक कैलेंडर बनाया था। हजारों साल पहले बनाए माया कैलेंडर में 21 दिसंबर 2012 के बाद की तारीख नहीं दी गई हैं, इसका अर्थ यही समझा जा रहा है कि इस दिन दुनिया पर खतरा मंडरा सकता है।
 
माया कैलेंडर की भविष्यवाणी
 
माया कैलेंडर के मुताबिक 21 दिसंबर 2012 में एक ग्रह पृथ्वी से टकराएगा, जिससे सारी धरती खत्म हो जाएगी। करीब 250 से 900 ईसा पूर्व माया नामक एक प्राचीन सभ्यता स्थापित थी। ग्वाटेमाला, मैक्सिको, होंडूरास तथा यूकाटन प्रायद्वीप में इस सभ्यता के अवशेष खोजकर्ताओं को मिले हैं।
 
समय-समय पर दुनिया के खात्मे के लिए कई प्रकार की भविष्यवाणिया की जा रही हैं। नास्त्रेदमस और माया सभ्यता की दुहाई देकर जहा इस वर्ष दुनिया का अंत होने की भविष्यवाणियां की जा रही थीं, वहीं ग्वाटेमाला के जंगलों में मिले माया कैलेंडर के एक अज्ञात संस्करण से खुलासा हुआ है कि अगले कई अरब वषरें तक पृथ्वी पर मानव सभ्यता के अंत का कारण बनने वाली कोई भी प्रलयकारी आपदा नहीं आएगी। शूलतुन में माया सभ्यता के एक प्राचीन शहर के खंडहर मौजूद हैं। इन खंडहरों में मौजूद एक दीवार पर यह कैलेंडर मौजूद हैं। लगभग आधे वर्ग मीटर आकार के इस कैलेंडर के अच्छी हालात में होने की बात कही जा रही है। वैज्ञानिक इसे अब तक मिला सबसे पुराना माया कैलेंडर करार दे रहे हैं।
 
उनका दावा है कि यह कम से कम 1200 वर्ष पुराना रहा होगा। माया पुरोहितों के जिस पूजा स्थल से इस कैलेंडर को बरामद किया गया है उसमें माया राजाओं की विशालकाय भिती चित्र मौजूद हैं। पुरोहित समय की गणना करके राजाओं को शुभ मुहूर्त के बारे में सूचित किया करते थे। राजा अपने सभी फैसले शुभ मुहूर्त में ही लिया करते थे। प्राकृतिक आपदाओं से बचने और देवताओं को खुश करने के लिए माया सभ्यता में मानव बलि देने की भी प्रथा रही थी और इसके लिए आसपास के जंगलों में निवास करने वाले आदिवासियों को बड़े पैमाने पर बंदी बनाने का रिवाज था।
 
यह नया कैलेंडर पत्थर की एक दीवार में तराशा हुआ है, जबकि 2012 मे दुनिया के अंत की भविष्यवाणी करने वाले सभी माया कैलेंडर पुरानी पाडुलिपियों में मिलते हैं, जिनमें अलग-अलग चित्रों के माध्यम से अलग-अलग भविष्यवाणिया की गई हैं। दुनिया के अंत की घोषणा करने वाले सभी कैलेंडर इस पाषाण कैलेंडर से कई सौ वर्ष बाद तैयार किए गए थे। शूलतुन के खंडहरों के इस पूजा स्थल की एक दीवार पर चंद्र कैलेंडर बना हुआ है जो 13 वषरें की गणना कर सकता है।
 
इसके निकट की ही एक दीवार पर मौजूद तालिकाओं के आधार पर चार युगों की गणना हो सकती है जो वर्ष 935 से लेकर 6700 ईसवी तक हैं। शूलतुन के जंगलों में माया सभ्यता का एक महत्वपूर्ण शहर होने के बारे में पहली बार वर्ष 1915 में पता चला था। इसके बाद यहा खजाना चोरों ने कई बार सेंध लगाने का प्रयास किया लेकिन उनके हाथ कुछ भी नहीं लगा। प्रोफेसर सैर्टनों के छात्र मैक्स चेम्बरिलन ने जब वर्ष 2010 में एक सुरंग से जाकर यहा कुछ भित्तीचित्रों के होने का पता लगाया तो पूरी टीम खुदाई में जुट गई और उन्होंने सदियों से गुमनामी में खोए माया सभ्यता के इस प्राचीन शहर को ढूंढ निकाला। सैटनरे का दावा है कि यह पूरा शहर 16 वर्गमील में फैला हुआ है और इसे पूरी तरह से खोदकर बाहर निकालने के लिए अगले दो दशकों का समय भी कम है।
 
दुनिया के अंत के संबंध में समय-समय पर कई प्रकार की भविष्यवाणिया की जाती रही है। इससे पहले 21 मई, 2011 को दुनिया के विनाश का दिन बताया जा रहा था लेकिन यह बात झूठी साबित हो गई। लेकिन अब माया कैलेंडर के आधार पर 21 दिसंबर, 2012 को दुनिया का आखिरी दिन मान लिया गया है।
 
साभार : जागरण

बुधवार, 12 दिसंबर 2012

12-12-12 : 12 हाइकु


 
1-
नई-नवेली
दुल्हन सी धरती
सजने लगी।

2-
पोषण कर
सुख-समृद्धि देती
पावन धरा।

3-
प्रकृति बंधी
नियमों से अटल
ललकारो ना।

4-
पर्यावरण
प्रदूषित हो रहा
रोकिए इसे।

5-
हर तरफ
कटते जंगलात
धरा रो रही।

6-
स्वच्छ जल
कहाँ से मिले अब
दूषित पानी।

7-
फैलता शोर
कनफोड़ू आवाज
घुटते लोग।

8-
संकटापन्न
विलुप्त होते प्राणी
कहाँ जाएं ये?

9-
घटती आयु
बढ़ता प्रदूषण
संकट आया।

10-
बढ़ते लोग
घटते संसाधन
पिसती धरा।

11-
पूछ रही है
धरती मदहोश
बंधन खोल।

12-
मत छेडि़ए
प्रकृति को यूँ अब
जला देगी ये।
 
-कृष्ण कुमार यादव-
 
 
 
 



 

मंगलवार, 4 दिसंबर 2012

पुस्तकों के बहाने..

पुस्तकें सिर्फ ज्ञान नहीं देतीं, बल्कि व्यक्तित्व का भी विस्तार करती हैं। यही कारण है कि मुझे जब भी मौका मिलता है, ढेर सारी पुस्तकें खरीद कर लाता हूँ। इस बार यह मौका मिला, 23 नवम्बर-2 दिसंबर तक संपन्न इलाहाबाद में राष्ट्रीय पुस्तक मेला में। घर से दूरी भी नहीं, सो आलस्य भी नहीं। ठण्ड का गुनगुना मौसम और पुस्तकें, धूप में बैठकर पुस्तकें पढना मुझे तो बहुत अच्छा लगता है। इलाहाबाद वैसे भी साहित्यकारों-बुद्धिजीवियों का शहर माना जाता है, अत: इसी बहाने कईयों से पुस्तक-मेले में मुलाकात भी हो गई। साहित्य की विभिन्न विधाओं के साथ-साथ कैरियर व मैनेजमेंट संबंधी पुस्तकें, पकवानों की खुशबू सहेजती पुस्तकें, धर्म-अध्यात्म, ज्योतिष, वास्तु का विस्तृत होता क्षितिज, स्वास्थ्य के प्रति सचेत करती पुस्तकें और बच्चों से जुडी पुस्तकें भी दिखीं इस पुस्तक-मेले में।

राजकमल, राधाकृष्ण, लोकभारती, वाणी, प्रभात, भारतीय ज्ञानपीठ, किताबघर, राजपाल एंड संस जैसे साहित्यिक प्रकाशनों के अलावा ओशो, सम्यक प्रकाशन, प्रतियोगिता साहित्य, स्कालर, के स्टालों पर भी खूब भीड़ रही। कौन कहता है कि हिंदी पुस्तकों के प्रति लोगों में पठनीयता घाट रही है, अकेले दस दिनों में ही एक करोड़ से ज्यादा की पुस्तकें इस मेले में बिक गईं। हर आयुवर्ग के लोग पुस्तकों के माध्यम से अपनी-अपनी जिज्ञासाएं शांत कर रहे थे। सम्यक प्रकाशन के स्टाल पर दलितों, पिछड़ों और इस वर्ग से जुड़े महापुरुषों पर आधारित पुस्तकों को लेकर दीवानगी देखते ही बनती थी। साहित्य में दलित-विमर्श का उभार देखना हो तो, इससे बेहतर जगह नहीं हो सकती थी। कुछेक किताबों को मैंने भी उलट-पलट कर देखा, स्थापित प्रतिमानों को ध्वंस करती व्याख्यायें लोगों को लुभाती हैं या और भी जिज्ञासु बनाती हैं। वाणी प्रकाशन द्वारा प्रकाशित 'दलित साहित्य के प्रतिमान' भले ही हिंदी दलित साहित्य के इतिहास और उसके सौंदर्य शास्त्र पर महत्वपूर्ण पुस्तक हो, पर दलितों से सम्बंधित पुस्तकों के लिए भीड़ सम्यक प्रकाशन पर ही दिखी।

इलाहाबाद में कोई साहित्यिक आयोजन हो और 'गुनाहों का देवता' की चर्चा न हो तो अधूरा सा लगता है। धर्मवीर भारती ने जिस तरह से इसमें इलाहाबाद का वर्णन किया है, और उसके बाद इस उपन्यास की भाव-भूमि, वाकई बार-बार पढने को मन करता है। विद्यार्थी जीवन में तो एक रात में ही इस उपन्यास को पढ़कर ख़त्म कर दिया था। वो पहली बार खरीदी गई यह पुस्तक अभी भी मेरी लायब्रेरी में सुरक्षित है। भारतीय ज्ञानपीठ द्वारा प्रकाशित इस उपन्यास के लिए लोगों में यहाँ भी खूब क्रेज़ दिखा। श्रीलाल शुक्ल की 'राग दरबारी' तो अभी भी कई ग्रामीण इलाकों का सच बयां करती है। लगता है जैसे अभी यह उपन्यास जल्द ही लिखा गया हो। इस पुस्तक के प्रति भी लोगों में काफी आकर्षण रहा। भारत सरकार के प्रकाशन विभाग द्वारा प्रकाशित अखिल भारतीय लेखक संदर्शिका भी यहाँ दिखी, पर इसे हर साल अप-डेट करते रहने की जरुरत है।

लाल कृष्ण आडवानी जी के ब्लॉग पर लिखी गई पोस्ट पुस्तकाकार रूप में आ गई हैं, देखकर अच्छा लगा। हम ब्लागर्ज़ के लिए यह एक अच्छा संकेत भी है।

अपनी व्यस्तताओं के मध्य पुस्तकों से संवाद करने का भले ही मुझे कम ही अवसर मिलता है, पर इस बार मैंने कई पुस्तकों को पढने का मन बनाया है। पुस्तक-मेले के बहाने ही सही, कई नई पुस्तकों से रूबरू होने का मौका मिला। इन्हें खरीद कर लाया भी और अब इन्हें पढने की बारी है।