पुस्तकें सिर्फ ज्ञान नहीं देतीं, बल्कि व्यक्तित्व का भी विस्तार करती हैं। यही कारण है कि मुझे जब भी मौका मिलता है, ढेर सारी पुस्तकें खरीद कर लाता हूँ। इस बार यह मौका मिला, 23 नवम्बर-2 दिसंबर तक संपन्न इलाहाबाद में राष्ट्रीय पुस्तक मेला में। घर से दूरी भी नहीं, सो आलस्य भी नहीं। ठण्ड का गुनगुना मौसम और पुस्तकें, धूप में बैठकर पुस्तकें पढना मुझे तो बहुत अच्छा लगता है। इलाहाबाद वैसे भी साहित्यकारों-बुद्धिजीवियों का शहर माना जाता है, अत: इसी बहाने कईयों से पुस्तक-मेले में मुलाकात भी हो गई। साहित्य की विभिन्न विधाओं के साथ-साथ कैरियर व मैनेजमेंट संबंधी पुस्तकें, पकवानों की खुशबू सहेजती पुस्तकें, धर्म-अध्यात्म, ज्योतिष, वास्तु का विस्तृत होता क्षितिज, स्वास्थ्य के प्रति सचेत करती पुस्तकें और बच्चों से जुडी पुस्तकें भी दिखीं इस पुस्तक-मेले में।
राजकमल, राधाकृष्ण, लोकभारती, वाणी, प्रभात, भारतीय ज्ञानपीठ, किताबघर, राजपाल एंड संस जैसे साहित्यिक प्रकाशनों के अलावा ओशो, सम्यक प्रकाशन, प्रतियोगिता साहित्य, स्कालर, के स्टालों पर भी खूब भीड़ रही। कौन कहता है कि हिंदी पुस्तकों के प्रति लोगों में पठनीयता घाट रही है, अकेले दस दिनों में ही एक करोड़ से ज्यादा की पुस्तकें इस मेले में बिक गईं। हर आयुवर्ग के लोग पुस्तकों के माध्यम से अपनी-अपनी जिज्ञासाएं शांत कर रहे थे। सम्यक प्रकाशन के स्टाल पर दलितों, पिछड़ों और इस वर्ग से जुड़े महापुरुषों पर आधारित पुस्तकों को लेकर दीवानगी देखते ही बनती थी। साहित्य में दलित-विमर्श का उभार देखना हो तो, इससे बेहतर जगह नहीं हो सकती थी। कुछेक किताबों को मैंने भी उलट-पलट कर देखा, स्थापित प्रतिमानों को ध्वंस करती व्याख्यायें लोगों को लुभाती हैं या और भी जिज्ञासु बनाती हैं। वाणी प्रकाशन द्वारा प्रकाशित 'दलित साहित्य के प्रतिमान' भले ही हिंदी दलित साहित्य के इतिहास और उसके सौंदर्य शास्त्र पर महत्वपूर्ण पुस्तक हो, पर दलितों से सम्बंधित पुस्तकों के लिए भीड़ सम्यक प्रकाशन पर ही दिखी।
इलाहाबाद में कोई साहित्यिक आयोजन हो और 'गुनाहों का देवता' की चर्चा न हो तो अधूरा सा लगता है। धर्मवीर भारती ने जिस तरह से इसमें इलाहाबाद का वर्णन किया है, और उसके बाद इस उपन्यास की भाव-भूमि, वाकई बार-बार पढने को मन करता है। विद्यार्थी जीवन में तो एक रात में ही इस उपन्यास को पढ़कर ख़त्म कर दिया था। वो पहली बार खरीदी गई यह पुस्तक अभी भी मेरी लायब्रेरी में सुरक्षित है। भारतीय ज्ञानपीठ द्वारा प्रकाशित इस उपन्यास के लिए लोगों में यहाँ भी खूब क्रेज़ दिखा। श्रीलाल शुक्ल की 'राग दरबारी' तो अभी भी कई ग्रामीण इलाकों का सच बयां करती है। लगता है जैसे अभी यह उपन्यास जल्द ही लिखा गया हो। इस पुस्तक के प्रति भी लोगों में काफी आकर्षण रहा। भारत सरकार के प्रकाशन विभाग द्वारा प्रकाशित अखिल भारतीय लेखक संदर्शिका भी यहाँ दिखी, पर इसे हर साल अप-डेट करते रहने की जरुरत है।
लाल कृष्ण आडवानी जी के ब्लॉग पर लिखी गई पोस्ट पुस्तकाकार रूप में आ गई हैं, देखकर अच्छा लगा। हम ब्लागर्ज़ के लिए यह एक अच्छा संकेत भी है।
अपनी व्यस्तताओं के मध्य पुस्तकों से संवाद करने का भले ही मुझे कम ही अवसर मिलता है, पर इस बार मैंने कई पुस्तकों को पढने का मन बनाया है। पुस्तक-मेले के बहाने ही सही, कई नई पुस्तकों से रूबरू होने का मौका मिला। इन्हें खरीद कर लाया भी और अब इन्हें पढने की बारी है।
राजकमल, राधाकृष्ण, लोकभारती, वाणी, प्रभात, भारतीय ज्ञानपीठ, किताबघर, राजपाल एंड संस जैसे साहित्यिक प्रकाशनों के अलावा ओशो, सम्यक प्रकाशन, प्रतियोगिता साहित्य, स्कालर, के स्टालों पर भी खूब भीड़ रही। कौन कहता है कि हिंदी पुस्तकों के प्रति लोगों में पठनीयता घाट रही है, अकेले दस दिनों में ही एक करोड़ से ज्यादा की पुस्तकें इस मेले में बिक गईं। हर आयुवर्ग के लोग पुस्तकों के माध्यम से अपनी-अपनी जिज्ञासाएं शांत कर रहे थे। सम्यक प्रकाशन के स्टाल पर दलितों, पिछड़ों और इस वर्ग से जुड़े महापुरुषों पर आधारित पुस्तकों को लेकर दीवानगी देखते ही बनती थी। साहित्य में दलित-विमर्श का उभार देखना हो तो, इससे बेहतर जगह नहीं हो सकती थी। कुछेक किताबों को मैंने भी उलट-पलट कर देखा, स्थापित प्रतिमानों को ध्वंस करती व्याख्यायें लोगों को लुभाती हैं या और भी जिज्ञासु बनाती हैं। वाणी प्रकाशन द्वारा प्रकाशित 'दलित साहित्य के प्रतिमान' भले ही हिंदी दलित साहित्य के इतिहास और उसके सौंदर्य शास्त्र पर महत्वपूर्ण पुस्तक हो, पर दलितों से सम्बंधित पुस्तकों के लिए भीड़ सम्यक प्रकाशन पर ही दिखी।
इलाहाबाद में कोई साहित्यिक आयोजन हो और 'गुनाहों का देवता' की चर्चा न हो तो अधूरा सा लगता है। धर्मवीर भारती ने जिस तरह से इसमें इलाहाबाद का वर्णन किया है, और उसके बाद इस उपन्यास की भाव-भूमि, वाकई बार-बार पढने को मन करता है। विद्यार्थी जीवन में तो एक रात में ही इस उपन्यास को पढ़कर ख़त्म कर दिया था। वो पहली बार खरीदी गई यह पुस्तक अभी भी मेरी लायब्रेरी में सुरक्षित है। भारतीय ज्ञानपीठ द्वारा प्रकाशित इस उपन्यास के लिए लोगों में यहाँ भी खूब क्रेज़ दिखा। श्रीलाल शुक्ल की 'राग दरबारी' तो अभी भी कई ग्रामीण इलाकों का सच बयां करती है। लगता है जैसे अभी यह उपन्यास जल्द ही लिखा गया हो। इस पुस्तक के प्रति भी लोगों में काफी आकर्षण रहा। भारत सरकार के प्रकाशन विभाग द्वारा प्रकाशित अखिल भारतीय लेखक संदर्शिका भी यहाँ दिखी, पर इसे हर साल अप-डेट करते रहने की जरुरत है।
लाल कृष्ण आडवानी जी के ब्लॉग पर लिखी गई पोस्ट पुस्तकाकार रूप में आ गई हैं, देखकर अच्छा लगा। हम ब्लागर्ज़ के लिए यह एक अच्छा संकेत भी है।
अपनी व्यस्तताओं के मध्य पुस्तकों से संवाद करने का भले ही मुझे कम ही अवसर मिलता है, पर इस बार मैंने कई पुस्तकों को पढने का मन बनाया है। पुस्तक-मेले के बहाने ही सही, कई नई पुस्तकों से रूबरू होने का मौका मिला। इन्हें खरीद कर लाया भी और अब इन्हें पढने की बारी है।
6 टिप्पणियां:
बेहतर लेखन !!
पुस्तकें लुभाती हैं...
अपनी व्यस्तताओं के मध्य पुस्तकों से संवाद करने का भले ही मुझे कम ही अवसर मिलता है, पर इस बार मैंने कई पुस्तकों को पढने का मन बनाया है। पुस्तक-मेले के बहाने ही सही, कई नई पुस्तकों से रूबरू होने का मौका मिला..Ab is mauke ka fayda uthayen.
हमें भी जाना था मिस कर गए। सुन्दर प्रस्तुति के लिए बधाई।
Books are so precious..Nice Post.
पुस्तकें सिर्फ ज्ञान नहीं देतीं, बल्कि व्यक्तित्व का भी विस्तार करती हैं।..KHub padho.
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