चिट्ठियाँ लिखना और पढना किसे नहीं भाता। शब्दों के विस्तार के साथ बहुत सी अनकही भावनाएं मानो इन चिट्ठियों में सिमटती जाती थीं। पहले लोग चिट्ठियाँ लिखते थे, अब चिटठा (ब्लॉग) लिखने लगे हैं। चिटठा के साथ भी अन-सेंसर्ड सुविधा प्राप्त है। शब्दों और भावनाओं का कोई ओर-छोर नहीं। चिटठा लिखना और टिप्पणियाना चिट्ठियों की ही देन है। आज भी पत्र-पत्रिकाओं में पाठकों की चिट्ठियां प्रमुखता से छापी जाती हैं। अब तो चिट्ठे भी पत्र-पत्रिकाओं में ससम्मान स्थान पा रहे हैं।
जब संचार के अन्य साधन न थे, तो चिट्ठियाँ ही संवाद का एकमात्र माध्यम था। ये चिट्ठियाँ सिर्फ व्यक्तिगत नहीं होतीं, बल्कि उनमें हमारा परिवेश, सरोकार और संवेदनाएं भी शामिल होती हैं। ठीक यही बात चिट्ठों (ब्लॉग) पर भी लागू होती हैं। हर चिटठा कुछ-न-कुछ कह्ता लिखता नजर आता है। इन चिट्ठों में अपने गाँव-जंवार की बात होती है, जहाँ तक मुख्य मीडिया नहीं पहुँच पाता तो तमाम ऐसी जानकारियाँ भी होती हैं जो हम एक-दूसरे से साझा करना चाहते हैं। चिट्ठियों की भी तो यही अदा थी। पं0 जवाहर लाल नेहरू अपनी पुत्री इन्दिरा गाँधी को जेल से भी चिट्ठियाँ लिखते रहे। ये चिट्ठियाँ सिर्फ पिता-पुत्री के रिश्तों तक सीमित नहीं हैं, बल्कि इनमें तात्कालिक राजनैतिक एवं सामाजिक परिवेश का भी सुन्दर चित्रण है। इन्दिरा गाँधी के व्यक्तित्व को गढ़ने में इन चिट्ठियों का बहुत बड़ा हाथ रहा है। आज ये किताब के रूप में प्रकाशित होकर ऐतिहासिक दस्तावेज बन चुके हैं। इन्दिरा गाँधी ने इस परम्परा को जीवित रखा एवं दून में अध्ययनरत अपने बेटे राजीव गाँधी को घर की छोटी-छोटी चीजों और तात्कालिक राजनैतिक-सामाजिक परिस्थितियों के बारे में लिखती रहीं। एक चिट्ठी में तो वे राजीव गाँधी को रीवा के महाराज से मिले सौगातों के बारे में भी बताती हैं।
चिट्ठी और चिट्ठा इन दोनों के बारे में प्रमुख समानता है कि इनका काम मात्र सूचना देना ही नहीं बल्कि इनमें एक अपनापन, संग्रहणीयता, लेखन कला, संवेदना एवं समाज को जानने का भाव भी छुपा होता है। चिट्ठी और चिट्ठा दोनों की खूबसूरती दूसरे द्वारा पढ़े जाने में है। यह सही है कि संचार क्रान्ति ने चिठ्ठियों की संस्कृति को खत्म करने का प्रयास किया है और पूरी दुनिया को बहुत करीब ला दिया है। पर इसका एक पहलू यह भी है कि इसने दिलों की दूरियाँ इतनी बढ़ा दी हैं कि बिल्कुल पास में रहने वाले अपने इष्ट मित्रों और रिश्तेदारों की भी लोग खोज-खबर नहीं रखते। ऐसे में लोगों के अंदर संवेदनाओं को बचा पाना कठिन हो गया है।
हाल ही में एक रिपोर्ट पर जाकर निगाह अटकी कि, जज़्बातों को अल्फाज़ देती, कागज़ के कुछ पन्नों में सिमटी चिट्ठी और चिट्ठी लिखने की कला मानो ख़त्म सी होती जा रही है.ब्रिटेन में चैरिटी वर्ल्ड विज़न द्वारा हुए एक सर्वेक्षण के अनुसार प्राइमरी स्कूल में पढ़ने वाले करीब 50 फ़ीसदी बच्चे ठीक से नहीं जानते कि चिट्ठी कैसे लिखी जाती है. सात से लेकर 14 साल के बच्चों से पूछा गया कि क्या उन्होंने पिछले एक साल में चिट्ठियाँ लिखने की कोशिश की है तो चार में से एक बच्चे का जवाब था, नहीं. जबकि पिछले एक हफ़्ते में इनमें से 50 फ़ीसदी से ज़्यादा बच्चों ने ईमेल किया है या सोशल नेटवर्किंग साइट पर संदेश भेजे हैं. अध्ययन से पता चलता है कि बहुत से बच्चे न तो चिट्ठियाँ लिखते हैं, न ही उन्हें किसी की चिट्ठी मिलती है. आँकड़ों के मुताबिक पाँच में एक बच्चे को कभी किसी ने चिट्ठी नहीं लिखी.करीब 45 फ़ीसदी बच्चों ने कहा कि या तो उन्हें चिट्ठी लिखनी बिल्कुल नहीं आती या वे पक्के तौर पर नहीं कह सकते. ये सर्वेक्षण ब्रिटेन के 1188 बच्चों में किया गया.
वाकई यह स्थिति सोचनीय है। बच्चों की शिक्षा से जुड़े मामले की विशेषज्ञ सू पामर कहती हैं, "जब आप ख़ुद कलम से कुछ लिखते हैं तो इसके ज़रिए लिखने वाला ये दर्शाता है कि वे उस रिश्ते को अपना वक़्त दे रहा है. तभी तो हम पुरानी चिट्ठियों को संभाल कर रखते हैं."
आर. के. नारायण की एक कहानी है - पोस्टमैन। उसमें एक डाकिया किसी की मृत्यु के बारे में आई एक चिट्ठी लंबे समय तक अपने पास रोके रखता है क्योंकि गांव में एक लड़की की शादी की तैयारियां चल रही हैं। चिट्ठियों से हमारे समाज के भावनात्मक संबंध ने उसे हमारे साहित्य और सिनेमा में बखूबी स्थान दिया है। लेकिन भावनाओं के विलोपन के साथ-साथ अब वास्तविक जीवन से धीरे-धीरे चिट्ठियाँ लुप्त हो रही है। कभी डाकिया की राह ताकते रहने वाला समाज आज अपने प्रियजनों का हाल जानने के लिए मोबाईल फोन के एस.एम्.एस., ई - मेल के इनबॉक्स और फेसबुक पर क्लिक कर रहा है।
'इंस्टेंट' के इस दौर में रिश्ते-नाते, सम्बन्ध, भावनाएं सब कुछ 'इंस्टेंट' हो गए हैं। जिस तरह से फेसबुक की इंस्टेंट बातों ने हिन्दी ब्लागिंग को अधर में छोड़ दिया, ठीक वैसे ही चिट्ठियाँ भी अधर में चली गईं। कट-पेस्ट, लाइक, शेयर, के इस दौर में भला किसे फुर्सत है लम्बी चिट्ठियों या चिट्ठों को पढने की। भला हो उन कुछेक लोगों का, जिन्होंने इन विधाओं को जिन्दा रखा है। चिट्ठियाँ गईं तो चिट्ठे आ गए। ये चिट्ठे भी चिट्ठियों की तरह करामाती हैं। डूबो तो डूबते ही जाओ, भागो तो भागते ही जाओ।
हाई-टेक होते इस दौर में कलम का स्थान की-बोर्ड ने ले लिया है। शब्दों के भावार्थ बदलने लगे हैं, उनमें शुद्धता नहीं बल्कि चलताऊपन आ गया है। पर जब यही बात रिश्तों-संवेदनाओं पर लागू होती है तो असहजता महसूस होती है। चिट्ठियाँ लिखना कम हुआ तो लिफाफा देख मजमून भांपने वाली पूरी जमात का अस्तित्व खतरे में है। मोबाइल फोन और कम्प्यूटर से कुछ भांपा नहीं जा सकता।
चिट्ठियों से चिट्ठों तक के इस सफ़र में बहुत कुछ बदला है, आगे भी बदलेगा। पर इन सबके बीच यह बेहद जरुरी है कि संवेदनाएं अपना रूप न परिवर्तित करें। जब परंपरागत मीडिया पेड न्यूज और टीआरपी की आड़ में सब कुछ सही ठहराने लगता है तो वहां न्यू-मीडिया की जरुरत होती है। कभी चिट्ठियों ने इस भूमिका का निर्वाह किया था, आज चिट्ठा (ब्लॉग) इस भूमिका का निर्वाह कर रहा है। ख़त्म होना तो हर किसी की नियति है, पर अपने दौर में परिवेश को कोई भी व्यक्ति या विधा कितना प्रभावित कर पाई, यह महत्वपूर्ण है।
सौभाग्यवश अप्रैल-2013 में हिंदी ब्लागिंग अपने एक दशक पूरा कर रहा है, ऐसे में यह सवाल और भी महत्वपूर्ण हो जाता है कि इसने राजनीति-समाज-साहित्य-संस्कृति से लेकर विभिन्न विमर्शों और आंदोलनों को कहाँ तक प्रभावित किया.....!!