वह फिर से ढालने लगा है
अपने जज्बातों को पन्नों पर
पर जज्बात पन्ने पर आने को
तैयार ही नहीं
पिछली बार उसने भेजा था
अपने जज्बातों को
एक पत्रिका के नाम
पर जवाब में मिला
सम्पादक का खेद सहित पत्र
न जाने ऐसा कब तक चलता रहा
और अब तो
शायद जज्बातों को भी
शर्म आने लगी है
पन्नों पर उतरने में
स्पाॅनसरशिप के इस दौर में
उन्हें भी तलाश है एक स्पाॅन्सर की
जो उन्हें प्रमोट कर सके
और तब सम्पादक समझने में
कोई ऐतराज नहीं हो।
-कृष्ण कुमार यादव
3 टिप्पणियां:
बाजार नहीं समझते हैं ये जज्बात..
पन्नों पर तो उतरते हैं जज़्बात पर छापते नहीं ..बाजार की रीत नहीं जानते ..
sangeeta ji ki baat se poori tarah sehamat hoon....
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