भारतीय संस्कृति में कोई भी उत्सव व्यक्तिगत नहीं वरन् सामाजिक होता है। यही कारण है कि उत्सवों को मनोरंजनपूर्ण व शिक्षाप्रद बनाने हेतु एवं सामाजिक सहयोग कायम करने हेतु इनके साथ संगीत, नृत्य, नाटक व अन्य लीलाओं का भी मंचन किया जाता है। यहाँ तक कि भरतमुनि ने भी नाट्यशास्त्र में लिखा है कि- "देवता चंदन, फूल, अक्षत, इत्यादि से उतने प्रसन्न नहीं होते, जितना कि संगीत नृत्य और नाटक से होते हैं।''
सर्वप्रथम राम चरित मानस के रचयिता गोस्वामी तुलसीदास ने भगवान राम के जीवन व शिक्षाओं को जन-जन तक पहुँचाने के निमित्त बनारस में हर साल रामलीला खेलने की परिपाटी आरम्भ की। एक लम्बे समय तक बनारस के रामनगर की रामलीला जग-प्रसिद्ध रही, कालांतर में उत्तर भारत के अन्य शहरों में भी इसका प्रचलन तेजी से बढ़ा और आज तो रामलीला के बिना दशहरा ही अधूरा माना जाता है। यहाँ तक कि विदेशों मे बसे भारतीयों ने भी वहाँ पर रामलीला अभिनय को प्रोत्साहन दिया और कालांतर में वहाँ के स्थानीय देवताओं से भगवान राम का साम्यकरण करके इंडोनेशिया, कम्बोडिया, लाओस इत्यादि देशों में भी रामलीला का भव्य मंचन होने लगा, जो कि संस्कृति की तारतम्यता को दर्शाता है।
5 टिप्पणियां:
पढ़कर बहुत अच्छा लगा । बहुत सारी जानकारी प्राप्त हुयी । आभार
जी हाँ, मानस का हंस में भी यही बात कही गयी है।
-Zakir Ali ‘Rajnish’
{ Secretary-TSALIIM & SBAI }
आप का लेख पढ कर बहुत अच्छा लगा, असल मै राम लीला तो हमारे ग्याण के लिये, हमे अपनी रामायण से जोडने के लिये, उन लोगो के लिये शुरु की गई होगी जो रामायण नही पढ पाते, लेकिन अब राम लीला मै राम की लीला कम ओर काम लीला ज्यादा दिखती है, इस लिये मन उचाट हो जाता है,आप का धन्यवाद
अच्छी प्रस्तुति. लेकिन इसका आरम्भ कब हुआ, ये जानकारी भी दें तो अच्छा लगेगा.
बहुत सुन्दर जानकारी दी आपने.
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