साहित्य की सदैव से समाज में प्रमुख भूमिका रही है। स्वाधीनता आन्दोलन के दौरान पत्र-पत्रिकाओं में विद्यमान क्रान्ति की ज्वाला क्रान्तिकारियों से कम प्रखर नहीं थी। इनमें प्रकाशित रचनायें जहाँ स्वतन्त्रता आन्दोलन को एक मजबूत आधार प्रदान करती थीं, वहीं लोगों में बखूबी जन जागरण का कार्य भी करती थीं। गणेश शंकर ‘विद्यार्थी‘ साहित्य और पत्रकारिता के ऐसे ही शीर्ष स्तम्भ थे, जिनके अखबार ‘प्रताप‘ ने स्वाधीनता आन्दोलन में प्रमुख भूमिका निभायी। प्रताप के जरिये न जाने कितने क्रान्तिकारी स्वाधीनता आन्दोलन से रूबरू हुए, वहीं समय-समय पर यह अखबार क्रान्तिकारियों हेतु सुरक्षा की ढाल भी बना।
गणेश शंकर ‘विद्यार्थी‘ का जन्म 26 अक्टूबर 1890 को अपने ननिहाल अतरसुइया, इलाहाबाद में हुआ था। उनके नाना सूरज प्रसाद श्रीवास्तव सहायक जेलर थे, अतः अनुशासन उन्हें विरासत में मिला। गणेश शंकर के नामकरण के पीछे भी एक रोचक वाकया है- उनकी नानी ने सपने में अपनी पुत्री गोमती देवी के हाथ गणेश जी की प्रतिमा दी थी, तभी से उन्होंने यह माना था कि यदि गोमती देवी का कोई पुत्र होगा तो उसका नामकरण गणेश शंकर किया जायेगा। मूलतः फतेहपुर जनपद के हथगाँव क्षेत्र के निवासी गणेश शंकर के पिता मुंशी जयनारायण श्रीवास्तव ग्वालियर राज्य में मुंगावली नामक स्थान पर अध्यापक थे। गणेश शंकर आरम्भ से ही किताबें पढ़ने के काफी शौकीन थे, इसी कारण मित्रगण उन्हें ‘विद्यार्थी‘ कहते थे। बाद में उन्होंने यह उपनाम अपने नाम के साथ लिखना आरम्भ कर दिया। विद्यार्थी जी की प्रारम्भिक शिक्षा पिता जी के स्कूल मुंगावली, जहाँ वे एंग्लो-वर्नाकुलर मिडिल स्कूल में अध्यापक थे, में हुई। विद्यार्थी जी उर्दू, फारसी एवं अंग्रेजी के अच्छे जानकार थे। 1904 में उन्होंने भलेसा से अंग्रेजी मिडिल की परीक्षा पास किया, जिसमें पहली बार हिंदी द्वितीय भाषा के रूप में मिली थी। तत्पश्चात पिताजी ने विद्यार्थी जी को पढ़ाई के साथ-साथ नौकरी करने के लिए बड़े भाई शिवव्रत नारायण के पास कानपुर भेज दिया। कानपुर में आकर विद्यार्थी जी ने क्राइस्ट चर्च कालेज की प्रवेश परीक्षा दी पर भाई का तबादला मुंगावली हो जाने से आगे की पढ़ाई फिर वहीं हुई। वर्ष 1907 में विद्यार्थी जी आगे की पढ़ाई के लिए कायस्थ पाठशाला गये। इलाहाबाद प्रवास के दौरान विद्यार्थी जी की मुलाकात ‘कर्मयोगी‘ साप्ताहिक के सम्पादक सुन्दर लाल से हुई एवं इसी दौरान वे उर्दू पत्र ‘स्वराज्य‘ के संपर्क में भी आये। गौरतलब है कि अपनी क्रान्तिधर्मिता के चलते ‘स्वराज्य‘ पत्र के आठ सम्पादकों को सजा दी गई थी, जिनमें से तीन को कालापानी की सजा मुकर्रर हुई थी। सुन्दरलाल उस दौर के प्रतिष्ठित संपादकों में से थे। लोकमान्य तिलक को इलाहाबाद बुलाने के जुर्म में उन्हें कालेज से निष्कासित कर दिया गया था एवं इसी कारण उनकी पढ़ाई भी भंग हो गई थी। सुन्दरलाल के संपर्क में आकर विद्यार्थी जी ने ‘स्वराज्य‘ एवं ‘कर्मयोगी‘ के लिए लिखना आरम्भ किया। यहीं से पत्रकारिता एवं क्रान्तिकारी आन्दोलन के प्रति उनकी आस्था भी बढ़ती गई।
इलाहाबाद से गणेश शंकर ‘विद्यार्थी’ कानपुर आये एवं इसे अपनी कर्मस्थली बनाया। कानपुर में कलकत्ता से अरविंद घोष द्वारा सम्पादित ‘वन्देमातरम्‘ ने विद्यार्थी जी को आकृष्ट किया एवं इसी दौरान उनकी मुलाकात पं0 पृथ्वीनाथ मिडिल स्कूल के अध्यापक नारायण प्रसाद अरोड़ा से हुई। अरोड़ा जी की सिफारिश पर विद्यार्थी जी को उसी स्कूल में अध्यापक की नौकरी मिल गई। पर पत्रकारिता की ओर मन से प्रवृत्त विद्यार्थी जी का मन यहाँ भी नहीं लगा और नौकरी अन्ततः छोड़ दी। उस समय महावीर प्रसाद द्विवेदी कानपुर में ही रहकर ‘सरस्वती‘ का सम्पादन कर रहे थे। विद्यार्थी जी इस पत्र से भी सहयोगी रूप में जुड़े रहे। एक तरफ पराधीनता का दौर, उस पर से अंग्रेजी हुकूमत के अत्याचार ने विद्यार्थी जी को झकझोर कर रख दिया। उन्होंने पत्रकारिता को राजनैतिक चेतना को जोड़कर कार्य करना आरम्भ किया। इसी दौरान वे इलाहाबाद लौटकर वहाँ से प्रकाशित साप्ताहिक ‘अभ्युदय‘ के सहायक संपादक भी रहे। पर विद्यार्थी जी का मनोमस्तिष्क तो कानपुर में बस चुका था, अतः वे पुनः कानपुर लौट आये। कानपुर में विद्यार्थी जी ने 1913 से साप्ताहिक ‘प्रताप’ के माध्यम से न केवल क्रान्ति का नया प्राण फूँका बल्कि इसे एक ऐसा समाचार पत्र बना दिया जो सारी हिन्दी पत्रकारिता की आस्था और शक्ति का प्रतीक बन गया। प्रताप प्रेस में कम्पोजिंग के अक्षरों के खाने में नीचे बारूद रखा जाता था एवं उसके ऊपर टाइप के अक्षर। ब्लाक बनाने के स्थान पर नाना प्रकार के बम बनाने का सामान भी रहता था। पर तलाशी में कभी भी पुलिस को ये चीजें हाथ नहीं लगीं। विद्यार्थी जी को 1921-1931 तक पाँच बार जेल जाना पड़ा और यह प्रायः ‘प्रताप‘ में प्रकाशित किसी समाचार के कारण ही होता था। विद्यार्थी जी ने सदैव निर्भीक एवं निष्पक्ष पत्रकारिता की। उनके पास पैसा और समुचित संसाधन नहीं थे, पर एक ऐसी असीम ऊर्जा थी, जिसका संचरण स्वतंत्रता प्राप्ति के निमित्त होता था। ‘प्रताप‘ प्रेस के निकट तहखाने में ही एक पुस्तकालय भी बनाया गया, जिसमें सभी जब्तशुदा क्रान्तिकारी साहित्य एवं पत्र-पत्रिकाएं उपलब्ध थी। यह ‘प्रताप’ ही था जिसने दक्षिण अफ्रीका से विजयी होकर लौटे तथा भारत के लिये उस समय तक अनजान महात्मा गाँधी की महत्ता को समझा और चम्पारण-सत्याग्रह की नियमित रिपोर्टिंग कर राष्ट्र को गाँधी जी जैसे व्यक्तित्व से परिचित कराया। चैरी-चैरा तथा काकोरी काण्ड के दौरान भी विद्यार्थी जी ‘प्रताप’ के माध्यम से प्रतिनिधियों के बारे में नियमित लिखते रहे। स्वतंत्रता आन्दोलन के दौरान माखनलाल चतुर्वेदी द्वारा रचित सुप्रसिद्ध देशभक्ति कविता ’पुष्प की अभिलाषा’ प्रताप अखबार में ही मई 1922 में प्रकाशित हुई। बालकृष्ण शर्मा नवीन, सोहन लाल द्विवेदी, सनेहीजी, प्रताप नारायण मिश्र इत्यादि ने प्रताप के माध्यम से अपनी देशभक्ति को मुखर आवाज दी।
विद्यार्थी जी एक पत्रकार के साथ-साथ क्रान्तिधर्मी भी थे। वे पहले ऐसे राष्ट्रीय नेता थे जिन्होंने काकोरी षडयंत्र केस के अभियुक्तों के मुकदमे की पैरवी करवायी और जेल में क्रान्तिकारियों का अनशन तुड़वाया। कानपुर को क्रान्तिकारी गतिविधियों का केन्द्र बनाने में विद्यार्थी जी का बहुत बड़ा योगदान रहा है। सरदार भगत सिंह, चन्द्रशेखर आजाद, विजय कुमार सिन्हा, राजकुमार सिन्हा जैसे तमाम क्रान्तिकारी विद्यार्थी जी से प्रेरणा पाते रहे। वस्तुतः प्रताप प्रेस की बनावट ही कुछ ऐसी थी कि जिसमें छिपकर रहा जा सकता था तथा फिर सघन बस्ती में तलाशी होने पर एक मकान से दूसरे मकान की छत पर आसानी से जाया जा सकता था। बनारस षडयंत्र से भागे सुरेश चन्द्र भट्टाचार्य प्रताप अखबार में उपसम्पादक थे। बाद में भट्टाचार्य और प्रताप अखबार से ही जुड़े पं0 राम दुलारे त्रिपाठी को काकोरी काण्ड में सजा मिली। भगत सिंह ने तो ‘प्रताप‘ अखबार में बलवन्त सिंह के छद्म नाम से लगभग ढाई वर्ष तक कार्य किया। सर्वप्रथम दरियागंज, दिल्ली में हुये दंगे का समाचार एकत्र करने के लिए भगत सिंह ने दिल्ली की यात्रा की और लौटकर ‘प्रताप’ के लिए सचिन दा के सहयोग से दो कालम का समाचार तैयार किया। चन्द्रशेखर आजाद से भगत सिंह की मुलाकात विद्यार्थी जी ने ही कानपुर में करायी थी, फिर तो शिव वर्मा सहित तमाम क्रान्तिकारी जुड़ते गये। यह विद्यार्थी जी ही थे कि जेल में भंेट करके क्रान्तिकारी राम प्रसाद बिस्मिल की आत्मकथा छिपाकर लाये तथा उसे ‘प्रताप‘ प्रेस के माध्यम से प्रकाशित करवाया। जरूरत पड़ने पर विद्यार्थी जी ने राम प्रसाद बिस्मिल की माँ की मदद की और रोशन सिंह की कन्या का कन्यादान भी किया। यही नहीं अशफाकउल्ला खान की कब्र भी विद्यार्थी जी ने ही बनवाई।
विद्यार्थी जी का ‘प्रताप‘ तमाम महापुरूषों को भी आकृष्ट करता था। 1916 में लखनऊ कांग्रेस के बाद महात्मा गाँधी और लोकमान्य तिलक इक्के पर बैठकर प्रताप प्रेस आये एवं वहाँ दो दिन रहे। 1925 के कानपुर कांग्रेस अधिवेशन के दौरान विद्यार्थी जी स्वागत मंत्री रहे और जवाहर लाल नेहरू के साथ-साथ घोड़े पर चढ़कर अधिवेशन स्थल का भ्रमण करते थे। यह विद्यार्थी जी ही थे जिन्होंने श्यामलाल गुप्त ‘पार्षद‘ को प्रताप प्रेस में रखा एवं उनके गान ‘राष्ट्र पताका नमो-नमो‘ को ‘झण्डा ऊँचा रहे हमारा‘ में तब्दील कर दिया। विद्यार्थी जी सिद्धांतप्रिय व्यक्ति थे। एक बार जब ग्वालियर नरेश ने उन्हें सम्मानित किया और कहा कि मुझे खुशी है कि आपके पिताजी मेरे अंतर्गत मुंगावली में कार्यरत रहे हैं, परन्तु आप मेरे बारे में अपने अखबार में लगातार विरोधी खबरें छाप रहे हैं। तो विद्यार्थी जी ने निडरता से कहा कि मैं आपका और पिताजी के आपसे सम्बन्धों का सम्मान करता हूँ, परन्तु इसके चलते अखबार के साथ अन्याय नहीं कर सकता। हाँ, यदि आप इन खबरों का प्रतिवाद लिखकर भेजेंगे तो अवश्य प्रकाशित करूँगा।
कालान्तर में विद्यार्थी जी गाँधीवादी विचारधारा से काफी प्रभावित हुए एवं यह उनकी लोकप्रियता का भी सबब बना। वे क्रान्तिकारियों एवं गाँधीवादी विचारधारा के अनुयायियों के लिए समान रूप से प्रिय थे। इस बीच अंग्रेजी हुकूमत ने 23 मार्च 1931 को भगत सिंह को फांसी पर चढ़ा दिया तो भारतीय जनमानस आगबबूला हो उठा। अंगे्रजी निर्दयता के विरूद्ध जनमानस सड़कों पर उतर आया। निडर एवं साहसी व्यक्तित्व के धनी तथा साम्प्रदायिकता विरोधी विद्यार्थी जी इस दौरान भड़के हिन्दू-मुस्लिम दंगों को शान्त कराने के लिए लोगों के बीच उतर पड़े। उधर विद्यार्थी जी के प्रताप से अंग्रेजी हुकूमत भी भयभीत थी। रायबरेली में मुंशीगंज गोली काण्ड के तहत ‘प्रताप‘ पर मानहानि का केस चल रहा था और अंग्रेज बार-बार यह संदेश दे रहे थे कि जब तक कानपुर में ‘प्रताप‘ जीवित है, तब तक प्रदेश में शान्ति स्थापना मुश्किल है। भड़की हिंसा को काबू करने के दौरान 25 मार्च 1931 को विद्यार्थी जी साम्प्रदायिकता की भेंट चढ़ गए। उनका शव अस्पताल की लाशों के मध्य पड़ा मिला। वह इतना फूल गया था कि उसे पहचानना तक मुश्किल था। नम आँखों से 29 मार्च को विद्यार्थी जी का अन्तिम संस्कार कर दिया गया पर ‘प्रताप‘ के माध्यम से ‘विद्यार्थी‘ जी ने राजनैतिक आन्दोलन, क्रान्तिकारी चेतना, क्रान्तिधर्मी पत्रकारिता एवं साहित्य को जो ऊँचाईयाँ दीं, उसने उन्हें अमर कर दिया एवं इसकी आंच में ही अन्ततः स्वाधीनता की लौ प्रज्जवलित हुई।
26 टिप्पणियां:
विद्यार्थी जी के व्यक्तित्व और कृतित्व पर बहुत उम्दा आलेख. पुण्यतिथि पर नमन.
विद्यार्थी जी ने सदैव निर्भीक एवं निष्पक्ष पत्रकारिता की। उनके पास पैसा और समुचित संसाधन नहीं थे, पर एक ऐसी असीम ऊर्जा थी, जिसका संचरण स्वतंत्रता प्राप्ति के निमित्त होता था।......आज के पत्रकारों को विद्यार्थी जी से सीख लेनी चाहिए, यही उनके प्रति सच्ची श्रद्धांजलि होगी.
शीर्षक स्वयं में बहुत कुछ कह जाता है....पुण्य तिथि पर प्रणाम !!
विद्यार्थी जी के बारे में बहुत सुना था पर इतना विस्तृत पहली बार जाना.इस अमूल्य जानकारी के लिए के.के. जी को साधुवाद.
Very Informative & Interesting Article.
यह ‘प्रताप’ ही था जिसने दक्षिण अफ्रीका से विजयी होकर लौटे तथा भारत के लिये उस समय तक अनजान महात्मा गाँधी की महत्ता को समझा और चम्पारण-सत्याग्रह की नियमित रिपोर्टिंग कर राष्ट्र को गाँधी जी जैसे व्यक्तित्व से परिचित कराया।
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वाकई बहुत नवीनता भरा आलेख है.जानकारियों का अथाह समुद्र है...बधाई.
चन्द्रशेखर आजाद से भगत सिंह की मुलाकात विद्यार्थी जी ने ही कानपुर में करायी थी, फिर तो शिव वर्मा सहित तमाम क्रान्तिकारी जुड़ते गये। यह विद्यार्थी जी ही थे कि जेल में भंेट करके क्रान्तिकारी राम प्रसाद बिस्मिल की आत्मकथा छिपाकर लाये तथा उसे ‘प्रताप‘ प्रेस के माध्यम से प्रकाशित करवाया। जरूरत पड़ने पर विद्यार्थी जी ने राम प्रसाद बिस्मिल की माँ की मदद की और रोशन सिंह की कन्या का कन्यादान भी किया। यही नहीं अशफाकउल्ला खान की कब्र भी विद्यार्थी जी ने ही बनवाई।..........आज विद्यार्थी जी के कार्यों के सम्यक मूल्यांकन और उनके समुचित प्रसार की जरुरत है.पुण्य तिथि पर नमन.
kk ji apne bahut sahi likha ki-स्वाधीनता आन्दोलन के दौरान पत्र-पत्रिकाओं में विद्यमान क्रान्ति की ज्वाला क्रान्तिकारियों से कम प्रखर नहीं थी। इनमें प्रकाशित रचनायें जहाँ स्वतन्त्रता आन्दोलन को एक मजबूत आधार प्रदान करती थीं, वहीं लोगों में बखूबी जन जागरण का कार्य भी करती थीं।
विद्यार्थी जी के कलम की धार को आप जैसे लोग जिन्दा रखें...यही क्या कम है.
विद्यार्थी जी के व्यक्तित्व और कृतित्व पर बहुत उम्दा आलेख.....!!
विद्यार्थी जी के अवदान को नमन।
आपका यह लेख हिन्दी-भारत याहूसमूह ( http://groups.yahoo.com/group/HINDI-BHARAT/ ) पर सदयों को पठनार्थ भेज रही हूँ।
कृपया ‘सदयों’ को ‘सदस्यों’ पढ़ें।
Ek bhaut hi achha lekh
Krihn ji aapki lekhni ki taqat ka bhrpur pata chalta hai
shabdon ka chayan bhaut achha laga
YADAV SAHIB NAMASKAR,
AB GANESH JI JAISE MAHAAN HASTI KE BAARE ME YE ADANA KYA KAHE... SHABDO KI KAMI HAI MERE PAAS... SIRF INHE SALAAM KARTA HUN...
SAMBHAVTAH AAPKE BLOG PE PAHALI DAFA AANA HUA HAI MAGAR AAPKO KALAM KE JAADUGAR NIKLE.. LEKHANI KI AAP PE ASIM KRIPA HAI..
AAP MERE BLOG PE AAYE AUR MERI GAZALEN AAPKO PASAND AAEE AAPKA SHUKRIYA AUR AABHAAR...AAPSE KRAMASAH MULAAKAAT HOTI RAHEGI ISI UMMID ME...
ARSH
aapaka blog bahut hi umda hai.
vidhyarthi ji par aapane bahut mehanat ke sath behatarin likha.
bahut-bahut aabhar.
आपने अपने आलेख में लिखा कि
"गणेश शंकर ‘विद्यार्थी‘ का जन्म 26 अक्टूबर 1890 को अपने ननिहाल अतरसुइया, इलाहाबाद में हुआ था।"
यह जानकर अति प्रसन्नता हुई कि वह हमारे अति ही पड़ोस के थे. मैं स्वयं नेहरू नगर, मीरापुर का मूलतः निवासी रहा हूँ और अतरसुइया तथा मीरापुर के ठीक बीच के (मुश्किल से १०० मीटर के दूरी) खत्री पाठशाला स्कूल से ही सम्पूर्ण स्कूली शिक्षा प्राप्त की थी.
यह इलाहबाद की मिटटी की रची-बसी संस्कारिकता का ही प्रभाव था कि विद्यार्थी जी ने सदैव निर्भीक एवं निष्पक्ष पत्रकारिता की। उनके पास पैसा और समुचित संसाधन नहीं थे, पर एक ऐसी असीम ऊर्जा थी, जिसका संचरण स्वतंत्रता प्राप्ति के निमित्त होता था।......आज के पत्रकारों को विद्यार्थी जी से सीख लेनी चाहिए, यही उनके प्रति सच्ची श्रद्धांजलि होगी.
सुन्दर , ज्ञानवर्धक लेख प्रस्तुति पर हार्दिक आभार.
चन्द्र मोहन गुप्त
Vidyarthi ji ke jeevan ke kai anchue pahluon ko ujagar karne ke liye aabhar.
विद्यार्थी जी के बारे में इतनी विस्तार में जानकारी देने के लिए आभार। समय समय पर ऐसे लोगों के बारे में पढ़ने से इतनी कठिनाई से मिली स्वतन्त्रता का मूल्य याद रहता है।
घुघूती बासूती
bahut khoob... aapne achchhi jankari di... vidyarthi ji ko naman...
sundar likha mitra....badhai....
आपने तो बहुत सारी जानकारी जुटाई है। बहुत मेहनत से लिखा गया आलेख है। बहुत बहुत बधाई। आगे भी जुडे़ रहे।
बहुत सारी जानकारी दे दी आपने। अच्छा लगा पढ़कर। काफी पहले मैंने विद्यार्थी जी की जेल डायरी पढ़ी थी। उसके बाद आज ही विद्यार्थी जी के बारे में इतना कुछ पढ़ने को मिला है। शुक्रिया आपका।
विद्यार्थी जी के बारे में थोड़ा सा पढ़ा था। आपने उनके संपूर्ण व्यकि्तत्व के दशर्न करा दिए हैं। कृपया मेरा साधुवाद स्वीकार करें।
ड़ॉ. भानु प्रताप सिंह
हिन्दुस्तान, आगरा
विद्यार्थी जी के बारे में थोड़ा सा पढ़ा था। आपने उनके संपूर्ण व्यकि्तत्व के दशर्न करा दिए हैं। कृपया मेरा साधुवाद स्वीकार करें।
ड़ॉ. भानु प्रताप सिंह
हिन्दुस्तान, आगरा
नव संवत्सर २०६६ विक्रमी और नवरात्र पर्व की हार्दिक शुभकामनायें
हार्दिक श्रद्धांजलि।
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तस्लीम
साइंस ब्लॉगर्स असोसिएशन
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