स्कूल के दिनों में मास्टर जी की छड़ी याद है न। आज का परिवेश भले ही बदल गया हो, पर हमारे दौर में मास्टर जी की छड़ी बड़ी अहमियत रखती थी। कभी इस छड़ी को लेकर एक कविता लिखी थी, जिसे आप सभी के साथ शेयर कर रहा हूँ। संयोगवश कल 'शिक्षक दिवस' भी है -
बचपन में खींच दी थी
मास्टर जी ने हाथों में लकीर
बाँस की ताजी टहनियों से बनी
उस दुबली-पतली छड़ी का साया
चुप कराने के लिए काफी था
जब कभी पड़ती वो किसी के हाथों पर
तो बन जाती लकीरें आड़ी-तिरछी
शाम को घर लौटते हुये
ढूँढ़ने की कोशिश करते
उन लकीरों में अपना भविष्य
कुछ की लकीरें तो
रात भर में ही गायब हो जातीं
कुछ की लकीरें
दे जातीं जिंदगी का एक अर्थ
जो कि उस लकीर की कडि़याँ बना
रचते जिंदगी का एक फलसफाँ।
( यह चित्र जवाहर नवोदय विद्यालय, जीयनपुर-आजमगढ़ में कक्षा 6 में पढाई के दौरान का है। इसमें हम भी हैं, कोशिश करिये, शायद पहचान पाएँ)
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