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शनिवार, 31 जुलाई 2010

साहित्य से इतर भी प्रासंगिक हैं प्रेमचन्द के विचार

प्रेमचन्द सिर्फ साहित्यिक प्राणी ही नहीं थे बल्कि उनकी कलम सामाजिक विमर्श और तत्कालीन समस्याओं पर भी चली। प्रेमचन्द ने 19वीं सदी के अन्तिम दशक से लेकर 20वीं सदी के लगभग तीसरे दषक तक, भारत में फेैली हुई तमाम सामाजिक समस्याओं पर लेखनी चलायी। देश की स्वतन्त्रता के प्रति उनमें अगाध प्रेम था। चैरी-चैरा काण्ड के ठीक चार दिन बाद 16 फरवरी 1921 को पे्रमचन्द ने भी सरकारी नौकरी से त्यागपत्र दे दिया । इसी प्रकार 11 अगस्त 1908 को जब 15 वर्षीय क्रान्तिकारी खुदीराम बोस को अंग्रेज सरकार ने निर्ममता से फांसी पर लटका दिया तो प्रेमचन्द के अन्दर का देशप्रेम हिलोरें मारने लगा और वे खुदीराम बोस की एक तस्वीर बाजार से खरीदकर अपने घर लाये और कमरे की दीवार पर टांग दिया। खुदीराम बोस को फांसी दिये जाने से एक वर्ष पूर्व ही उन्होंने ‘दुनिया का सबसे अनमोल रतन’ नामक अपनी प्रथम कहानी लिखी थी, जिसके अनुसार- ‘खून की वह आखिरी बूँद जो देश की आजादी के लिये गिरे, वही दुनिया का सबसे अनमोल रतन है।’




प्रेमचन्द ने जिस दौर में सक्रिय रूप से लिखना शुरू किया, वह छायावाद का दौर था। निराला, पंत, प्रसाद और महादेवी जैसे रचनाकार उस समय चरम पर थे पर प्रेमचन्द ने अपने को किसी वाद से जोड़ने की बजाय तत्कालीन समाज में व्याप्त छुआछूत, साम्प्रदायिकता, हिन्दू- मुस्लिम एकता, दलितों के प्रति सामाजिक समरसता जैसे ज्वलंत मुद्दों से जोड़ा। एक लेखक से परे भी उनकी चिन्तायें थीं और उनकी रचनाओं में इसकी मुखर अभिव्यक्ति हुई है। उनकी कहानियों और उपन्यासों के पात्र सामाजिक व्यवस्थाओं से जूझते हंै और अपनी नियति के साथ-साथ भविष्य की इबारत भी गढ़ते हैं। नियति में उन्हें यातना, दरिद्रता व नाउम्मीदी भले ही मिलती हो पर अंततः वे हार नहीं मानते हंै और संघर्षों की जीजिवषा के बीच भविष्य की नींव रखते हैं। अपने वैयक्तिक जीवन के संघर्षों से प्रेमचन्द ने जाना था कि संघर्ष का रास्ता बेहद पथरीला है और मात्र संवेदनाओं व हृदय परिवर्तन से इसे नहीं पार किया जा सकता। यही कारण था कि प्रेमचन्द ऊपर से जितने उद्विग्न थे, अन्दर से उतने ही विचलित। वस्तुतः प्रेमचन्द एक ऐसे राष्ट््र-राज्य की कल्पना करते थे जिसमें किसी भी तरह का भेदभाव न हो- न वर्ण का, न जाति का, न रंग का और न धर्म का। प्रेमचन्द का सपना हर तरह की विषमता, सामाजिक कुरीतियों और साम्प्रदायिक-वैमनस्य से परे एक ऐसे राष्ट््र का निर्माण था जिसमें समता सर्वोपरि हो। प्रेमचन्द इस तथ्य को भली-भाँति जानते थे कि भारतीय समाज में विद्यमान पृथकता ही उपनिवेशवाद की जड़ रहा है। अंग्रेजों ने इस पृथकता व विषमता की खाई को और भी गहरा करने का प्रयास किया और भारत को सामाजिक, आर्थिक, राजनैतिक, धार्मिक व सांस्कृतिक सभी मोर्चों पर क्षति पहुँचायी। यही कारण है कि सन् 1933 में जब संयुक्त प्रान्त के गर्वनर मालकम हेली ने कहा कि- ‘‘ जहाँ तक भारत की मनोवृत्ति का हमंे परिचय है, यह कहना युक्तिसंगत है कि वह आज से 50 वर्ष बाद भी अपने लिये कोई ऐसी व्यवस्था नहीं बना पाएगा, जो स्पष्ट रूप से बहुमत के लिये जवाबदेह हो।’’ प्रेमचन्द ने इसका कड़ा प्रतिवाद किया और लिखा कि- ‘‘जिनका सारा जीवन ही भारत की राष्ट््रीय आकांक्षाओं का दमन करते गुजरा है, उनका यह कथन उचित नहीं प्रतीत होता।’’



प्रेमचन्द ने छुआछूत की समस्या को दूर करना, सामाजिक समता के लिए महत्वपूर्ण बताया। परम्परागत वर्णाश्रम व्यवस्था के सम्बन्ध में उन्होंने लिखा कि- भारतीय राष्ट््र का आदर्श मानव शरीर है जिसके मुख, हाथ, पेट और पाँव- ये चार अंग हैं। इनमें से किसी भी अंग के अभाव या विच्छेदन से देह का अस्तित्व निर्जीव हो जाएगा। वे प्रश्न उठाते हैं कि यदि वर्णाश्रम व्यवस्था के पाँव माने जाने वाले शूद्रों का सामाजिक व्यवस्था से विच्छेदन कर दिया जाय तो इसकी क्या गति होगी? इसी आधार पर वे समाज में किसी भी प्रकार के छुआछूत का सख्त विरोध करते हैं। अपने एक लेख में वे लिखते हैं- ‘‘क्या अब भी हम अपने बड़प्पन का, अपनी कुलीनता का ढिंढोरा पीटते फिरेंगे। यह ऊँच-नीच, छोटे-बड़े का भेद हिन्दू जीवन के रोम-रोम में व्याप्त हो गया है। हम यह किसी तरह नहीं भूल सकते कि हम शर्मा हैं या वर्मा, सिन्हा हैं या चैधरी, दूबे हैं या तिवारी, चैबे हैं या पाण्डे, दीक्षित हैं या उपाध्याय। हम आदमी पीछे हैं, चैबे या तिवारी पहले और यह प्रथा कुछ इतनी भ्रष्ट हो गई है कि आज जो निरक्षर भट्टाचार्य है, वह भी अपने को चतुर्वेदी या त्रिवेदी लिखने में जरा भी संकोच नहीं करता।’’ प्रेमचन्द ने 1932 में महात्मा गाँधी द्वारा मैकडोनाल्ड अवार्ड द्वारा प्रस्तावित पृथक निर्वाचन के विरोध में किये गए आमरण अनशन का समर्थन किया और गाँधी जी के इन विचारों का भी समर्थन किया कि शेष हिन्दू समाज के लिये निर्वाचन की चाहे जितनी कड़ी शर्तंे लगा दी जायें पर दलितांे के लिये शिक्षा और जायदाद की कोई शर्त न रखी जाये और हरेक दलित को निर्वाचन का अधिकार हो। वस्तुतः प्रेमचन्द दलितांे को समाज का एक अभिन्न हिस्सा मानते थे, इसलिये वे उनकी पृथक पहचान के लिए सहमत नहीं थे। यही कारण था कि उन्होंने नागपुर में हरिजनों के लिये स्थापित पृथक छात्रावास व्यवस्था की भी आलोचना की। दलितों के सम्बन्ध में प्रेमचन्द द्वारा दिये गये उद्गारों से उन्हें ब्राह्मण विरोधी भी कहा गया पर प्रेमचन्द इसकी परवाह किये बिना हिन्दू समाज में व्याप्त विषमता की लगातार आलोचना करते रहे। उन्होंने दलितों के लिये काशी विश्वनाथ मंदिर के पट नहीं खोलने पर कहा कि- ‘‘विश्वनाथ किसी एक जाति या सम्प्रदाय के देवता नहीं हंै, वह तो प्राणी मात्र के नाथ हैं। उनपर सबका हक बराबर-बराबर का है।’’ शास्त्रों की आड़ में दलितों के मंदिर प्रवेश को पाप ठहराने वालों को जवाब देते हुए प्रेमचन्द ने ऐसे लोगों की विद्या-बुद्धि व विवेक पर सवाल उठाया और कहा कि- ‘‘विद्या अगर व्यक्ति को उदार बनाती है, सत्य व न्याय के ज्ञान को जगाती है और इंसानियत पैदा करती है तो वह विद्या है और यदि वह स्वार्थपरता व अभिमान को बढ़ावा देती है, तो वह अविद्या से भी बदतर है।’’ वर्णाश्रम व्यवस्था के समर्थकों द्वारा हिन्दू मंदिरों की दलितों से रक्षा करने के सन्दर्भ में वायसराय को सम्बोधित ज्ञापन की तीखी आलोचना करते हुए प्रेमचन्द ने वर्णाश्रम व्यवस्था समर्थकों पर प्रश्नचिन्ह लगाते हुए लिखा कि- ‘‘राष्ट््र की वर्तमान अधोगति हेतु ऐसे ही लोग जिम्मेदार हैं। दक्षिणा में अछूतों द्वारा दिए गये पैसे लेने में इन्हें कोई पाप नहीं दिखता पर किसी अछूत के मंदिर में प्रवेश मात्र से ही इनके देवता अपवित्र हो जाते हैं। यदि इनके देवता ऐसे निर्बल हैं कि दूसरों के स्पर्श से ही अपवित्र हो जाते हैं, तो उन्हें देवता कहना ही मिथ्या है। देवता तो वह है, जिसके सम्मुख जाते ही चांडाल भी पवित्र हो जाये।’’ प्रेमचन्द धर्म का उद्देश्य मानव मात्र की समता मानते थे एवं किसी भी प्रकार के विभेद को राष्ट््र के लिये अहितकर मानते थे। प्रेमचन्द का स्पष्ट मानना था कि- ‘‘हरिजनों की समस्यायें मंदिर प्रवेश मात्र से नहीं हल होने वाली। उनके विकास में धार्मिक बाधाओं से कहीं कठोर आर्थिक बाधायें है।’’

प्रेमचन्द ने साम्प्रदायिकता पर भी कलम चलायी। प्रेमचन्द ने स्पष्ट रूप से कहा कि हिन्दू-मुसलमान की आपसी शिकायतें मसलन- ‘‘मुसलमानों को यह शिकायत है कि हिन्दू उनसे परहेज करते हैं, अछूत समझते हैं, उनके हाथ का पानी नहीं पीना चाहते तो हिन्दुओं को शिकायत है कि मुसलमानों ने उनके मंदिर तोडे़, उनके तीर्थ स्थलों को लूटा, हिन्दू राजाओं की लड़कियाँ अपने महल में डालीं’’, जायज हो सकतीं हैं पर इस आधार पर साम्प्रदायिकता को उचित नहीं ठहराया जा सकता। उन्होंने हिन्दू -मुसलिम एकता को ही स्वराज का दर्जा दिया पर दोनों सम्प्रदायों की विशिष्टताओं के साथ। उन्होने एक दूसरे के धर्म का परस्पर आदर करने पर जोर दिया और कहा कि- ‘‘हिन्दू और मुसलमान न कभी दूध और चीनी थे, न हांेगे और न होने चाहिये। दोनों की पृथक-पृथक सूरतें बनी रहनी चाहिये और बनी रहेंगी।’’ 1931 में मैकडोनाल्ड अवार्ड द्वारा दलितों के लिये पृथक निर्वाचन की व्यवस्था किये जाने पर मुसलमानों में भी पृथक और संयुक्त निर्वाचन पर बहस छिड़ी पर 19 अक्टूबर 1932 को लखनऊ में सम्पन्न हुए मुस्लिम सर्वधर्म सम्मेलन में पृथक निर्वाचन की अवधारणा को अस्वीकार कर दिया गया। इस पर टिप्पणी करते हुए प्रेमचन्द ने कहा कि राष्ट््रीयता ने पूना में प्रथम विजय पायी मगर लखनऊ में उसने जो विजय प्राप्त की है, उसने तो साम्प्रदायिकता को जैसे सुरंग में बारूद लगाकर उड़ा दिया हो।

प्रेमचन्द के राष्ट््र-राज्य में दलितों के साथ स्त्रियाँ और किसान समान भाव से मौजूद हैं, जिनके विकास के बिना भारत के विकास के कल्पना भी बेमानी है। स्त्रियों के साथ समाज में हो रहे दोयम व्यवहार का प्रेमचन्द ने कड़ा विरोध किया और अपनी रचनाओं में उसे स्वतंत्र व्यक्तित्व का दर्जा देते हुये, विकास की धुरी बनाया। इसी प्रकार प्रेमचन्द ने कृषक समुदाय को भारत की प्राणवायु बताया। कर्ज में डूबे किसान, उन पर ढाये जाते जुल्म, उनकी बद से बद्तर होती गरीबी, व्यवस्थागत विक्षोभ और किसानों की समस्याओं को किसी भी साहित्यकार ने उस रूप में नहीं उठाया, जिस प्रकार प्रेमचन्द ने उठाया। प्रेमचन्द का पूरा साहित्य ही दलित, स्त्री और किसान की लड़ाई का साहित्य है जिसमें समता, न्याय और सामाजिक परिवर्तन की घोषणा है। यहाँ धर्म, संस्कृति, रीति-रिवाज, जाति, वर्ण, ऊँच-नीच के लिये कोई जगह नहीं है, जगह है तो सिर्फ मानवता की- जिसके बिना जीवित रहना ही अकारथ है।



प्रेमचन्द एक ऐसे राष्ट््र -राज्य का सपना देखते थे जो समतावादी समाज पर आधारित हो। यहाँ तक कि जब काशी में उन्होंने सरस्वती प्रेस खोला तो कर्मचारियों को रोज कुछ न कुछ देना ही पड़ता पर उतनी आय नहीं होने से सबकी माँग रोज पूरी नहीं हो पाती थी। ऐसे में प्रेमचन्द सबके सामने रोज शाम को आमदनी का हिसाब रख देते और कहते-‘‘इतने पैसों में तुम्हीं लोग अपने और मेरे लिये ब्योंत कर दो, मुझे पान-तम्बाकू और इक्का-भाड़ा-भर देकर बाकी आपस में बाँट लो।’’ वस्तुतः प्रेमचन्द के चिन्तन और व्यवहार में समरसता और साहचर्य महत्वपूर्ण है, केन्द्र-बिन्दु बनना नहीं। यही कारण है कि ऐसे लोग जो आन्दोलनों का केन्द्र-बिन्दु बनकर स्वंय के लिये कुर्सी हथियाना चाहते हैं, प्रेमचन्द उन्हें बाधा नजर आते हैं। उनके उपन्यास ‘रंगभूमि’ की प्रतियाँ जलाने वाले वर्गीय संरचनाओं की जटिलता और यंत्रणादायी व्यवस्था के स्तर को नहीं समझना चाहते, सिर्फ निश्चित फाॅर्मूलों में निबद्ध दलित आत्मकथाओं व घृणित प्रतिक्रियाओं पर आधारित रचनाओं को ही दलित लेखन समझते हैं तो इसमें प्रेमचन्द का क्या दोष? प्रेमचन्द ने राष्ट््रीयता को पारिभाषित करते हुए लिखा कि- ‘‘हम जिस राष्ट््रीयता की परिकल्पना कर रहे हैं, उसमें जन्मगत वर्ण व्यवस्था की गंध तक नहीं होगी। वह हमारे श्रमिकों और किसानों का साम्राज्य होगा, जिसमें न कोई ब्राह्मण होगा, न हरिजन, न क्षत्रिय, न कायस्थ। उसमें सभी भारतवासी हांेगे, सभी ब्राह्मण होंगे या सभी हरिजन होंगे।’’ प्रेमचन्द की समतावादी व्यवस्था में दलित बेहतरी के हकदार हैं, किसी के दयाभावी न्याय के नहीं। प्रेमचन्द ने अपनी कहानियों के पात्रों के बारे में एक बार कहा था कि- ‘‘हमारी कहानियों में आपको पदाधिकारी, महाजन, वकील और पुजारी गरीबों का खून चूसते हुए दिखेंगे और गरीब किसान, मजदूर, अछूत और दरिद्र उनके आघात सहकर भी अपने धर्म और मनुष्यता को हाथ से न जाने देंगे, क्योंकि हमने उन्हीं में सबसे ज्यादा सच्चाई और सेवा भाव पाया है।’’



प्रेमचन्द ने 19वीं सदी के अन्तिम दशक से लेकर 20वीं सदी के लगभग तीसरे दशक तक, भारत में फेैली हुई तमाम सामाजिक समस्याओं पर लेखनी चलायी। चाहे वह किसानों-मजदूरों एवं जमींदारों की समस्या हो, चाहे छुआछूत अथवा नारी-मुक्ति का सवाल हो, चाहे नमक का दरोगा के माध्यम से समाज में फैले इंस्पेक्टर-राज का जिक्र हो, कोई भी अध्याय उनकी निगाहों से बच नहीं सका। प्रेमचन्द ने हिन्दी कथा साहित्य को एक नया मोड़ दिया, जहाँ पहले साहित्य मायावी भूल-भुलैयों में पड़ा स्वप्नलोक और विलासिता की सैर कर रहा था, ऐसे में प्रेमचन्द ने कथा साहित्य में जनमानस की पीड़ा को उभारा। प्रसिद्ध इतिहासकार प्रो0 विपिन चन्द्र ने एक बार टिप्पणी की थी-‘‘यदि कभी बीसवीं शताब्दी में आजादी के पूर्व किसानों की हालत के बारे में इतिहास लिखा जाएगा तो इतिहासकार का प्राथमिक स्त्र्रोत होगा प्रेमचंद का ‘गोदान’, क्योंकि इतिहास कभी भी अपने समय के साहित्य को ओझल नहीं करता।’’ गोदान मात्र किसान की संघर्ष गाथा नहीं है वरन् इसमें स्त्री की बहुरूपात्मक स्थिति को दर्शाते हुए उसकी संघर्ष गाथा को भी चित्रित किया गया है। गोदान में अभिव्यक्त गोबर व झुनिया के बीच अवैध प्रेम और विवाह, सिलिया चमाइन और मातादीन पण्डित का प्रेम-प्रसंग जहाँ परम्परा में सेंध लगाते हैं और स्त्री को मुक्त करते हैं वहीं मेहता से प्रेम करते वाली मालती मलिन बस्तियों में मुफ्त दवा बाँट कर सामाजिक कार्यकत्रीे के रूप में नजर आती है तो क्लब - संस्कृति के बहाने वह जीवन का द्वैत भी जीती है। मेहता और मालती का प्रेम एक प्रकार से लिव - इन - रिलेशनशिप का उदाहरण है। ‘गोदान’ ने प्रेमचन्द को हिन्दी साहित्य में वही स्थान दिया जो रूसी साहित्य में ‘मदर’ लिखकर मैक्सिम गोर्की को मिला। ‘सेवा सदन’ में एक वेश्या के बहाने प्रेमचन्द्र ने धर्म के नाम पर चलने वाले अनाथालयों एवं पाखण्डों का भण्डाफोड़ किया है। ‘कर्मभूमि’ में मुन्नी द्वारा बलात्कारी सिपाही की हत्या स्त्री-मुक्ति के संघर्ष का अनूठा साक्ष्य है। यही कारण है कि पे्रमचन्द को हर शख्स अपने करीब पाता है और अलग-अलग रूप में उनकी व्याख्या करता है । असहयोग आन्दोलन के कारण गाँधी जी से प्रभावित होकर सरकारी नौकरी से इस्तीफा देने के कारण किसी ने उन्हें गाँधीवादी कहा तो अपनी रचनाओं में वर्ग-संघर्ष को प्रमुखता से उभारने के कारण उन्हंे साम्यवादी अथवा वामपंथी कहा गया तो समाज में छुआछूत व दलितों की स्थिति पर लेखनी चलाने के कारण उन्हें दलित समर्थक कहा गया और नारी-मुक्ति को प्रश्रय देने के कारण उन्हंे नारी-समर्थक कहा गया।

साहित्य से इतर सामाजिक विमर्शों पर प्रेमचन्द के विचार आज भी उतने ही प्रासंगिक हैं और उनकी रचनाओं के पात्र आज भी समाज में कहीं न कहीं जिन्दा हैं। प्रेमचन्द जब अपनी रचनाओं में समाज के उपेक्षित व शोषित वर्ग को प्रतिनिधित्व देेते हैं तो निश्चिततः इस माध्यम से वे एक युद्ध लड़ते हैं और गहरी नींद सोये इस वर्ग को जगाने का उपक्रम करते हैं। राष्ट््र आज भी उन्हीं समस्याओं से जूझ रहा है जिन्हें प्रेमचन्द ने काफी पहले रेखांकित कर दिया था, चाहे वह जातिवाद या साम्प्रदायिकता का जहर हो, चाहे कर्ज की गिरफ्त में आकर आत्महत्या करता किसान हो, चाहे नारी की पीड़ा हो, चाहे शोषण और सामाजिक भेद-भाव हो। इन बुराईयों के आज भी मौजूद होने का एक कारण यह है कि राजनैतिक सत्तालोलुपता के समानान्तर हर तरह के सामाजिक, धार्मिक व सांस्कृतिक आन्दोलन की दिशा नेतृत्वकर्ताओं को केन्द्र-बिन्दु बनाकर लड़ी गयी जिससे मूल भावनाओं के विपरीत आन्दोलन गुटों में तब्दील हो गये एवं व्यापक व सक्रिय सामाजिक परिवर्तन की आकांक्षा कुछ लोगों की सत्तालोलुपता की भेंट चढ़ गयी।

शुक्रवार, 30 जुलाई 2010

खुशियों का दिन : जन्मदिन आकांक्षा का





आज का दिन बहुत महत्वपूर्ण है हमारे लिए। आज ही के दिन ईश्वर ने हमारी जीवन साथी आकांक्षा जी को इस दुनिया में भेजा था. वैसे कभी सोचा है कि हर किसी के लिए ईश्वर एक न एक पसंद बनाकर रखते हैं. तभी तो कहते हैं शादियाँ स्वर्ग में तय होती हैं. मैं भी शादी से पहले इसे नहीं मानता था, तब लगता था सफलता मिलेगी, अच्छे रिश्ते आपने आप मिलेंगे. खैर मैं सौभाग्यशाली लोगों में था. सरकारी सेवा में आने के 9 साल बाद , अब भी किस ऐसे मित्रों को देखता हूँ जो सौभाग्यशाली नहीं हैं. 2-3 साल पहले तो अपने एक मित्र जो एक जिला के कलेक्टर भी थे, शादी के लिए बहुत परेशान थे. चूँकि उनकी ऊंचाई थोड़ी कम थी, सो कोई अपनी आगामी पीढियां उस तरह की नहीं देखना चाहता था. भाई जी दिन भर कलेक्टरी करते और शाम को शादी के सपने देखते....जब सलेक्सन हुआ था तो दरवाजे पर लाल-नीली बत्तियों वालों का हुजूम था, पर जनाब तो टरकाते गए अभी दो साल बाद. दो साल बाद दो रिजल्ट निकल चुके थे और कुंवारी लड़कियों की शादी हो गई. भाई साहब फ्लैश-बैक में चले गए. अब जाकर कहीं एक लड़की ढूंढ़ पाए हैं....ऐसे न जाने कितने वाकये समाज में हैं. पर वो लोग नसीब वाले हैं जिन्हें जीवन साथी के रूप में अच्छे लोग मिलते हैं. मैं भी अपने को उनमें से एक समझता हूँ और सौभाग्यवश आज मेरी जीवन-संगिनी आकांक्षा जी का जन्म-दिन भी है. दिन भी बढ़िया है, दो दिन की छुट्टियाँ और हाँ, आज तो सैलरी-डे भी था. फिर क्या सोचना, ईश्वर मेहरबान हैं. पत्नी आकांक्षा और बिटिया अक्षिता को जितनी खुशियाँ दे सकूँ...वही आज की उपलब्धि होगी. वैसे भी खुशियों को सेलिब्रेट करने का बहाना चाहिए और आज तो इतनी बड़ी ख़ुशी का दिन है. दस दिन बाद मेरा भी जन्मदिन है...सो, यह खुशियाँ चलती रहें !!






(हम दोनों का यह चित्र बिटिया अक्षिता (पाखी) ने लिया है)

मंगलवार, 27 जुलाई 2010

सावन आया झूम के....

सावन मास की अपनी महत्ता है। सावन आज 27 जुलाई से आरंभ हो गया और 24 अगस्त तक रहेगा। सावन मास को श्रावण भी कहा जाता है। यह महीना बहुत महत्वपूर्ण है क्योंकि इस दौरान भक्ति, आराधना तथा प्रकृति के कई रंग देखने को मिलते हैं। श्रावण मास त्रिदेव और पंच देवों में प्रधान भगवान शिव की भक्ति को समर्पित है। ऐसा माना जाता है कि इस मास में विधिपूर्वक शिव उपासना करने से मनचाहे फल की प्राप्ति होती है। पौराणिक मान्यता है कि देव-दानव द्वारा किए गए समुद्र मंथन से निकले हलाहल यानि जहर का असर देव-दानव सहित पूरा जगत सहन नहीं कर पाया। तब सभी ने भगवान शंकर से प्रार्थना की। भगवान शंकर ने पूरे जगत की रक्षा और कल्याण के लिए उस जहर को पीना स्वीकार किया। विष पीकर शंकर नीलकंठ कहलाए। मान्यता है कि भगवान शंकर ने विष पान से हुई दाह की शांति के लिए समुद्र मंथन से ही निकले चंद्रमा को अपने सिर पर धारण किया। यह भी धार्मिक मान्यता है कि इस विष के प्रभाव को शांत करने के लिए भगवान शंकर ने गंगा को अपनी जटाओं में स्थान दिया। इसी धारणा को आगे बढ़ाते हुए भगवान शंकराचार्य ने ज्योर्तिलिंग रामेश्वरम पर गंगा जल चढ़ाकर जगत को शिव के जलाभिषेक का महत्व बताया।


शास्त्रों के अनुसार भगवान शंकर ने समुद्र मंथन से निकले विष का पान श्रावण मास में ही किया था। धार्मिक दृष्टि से यही कारण है कि इस मास में शिव आराधना का विशेष महत्व है। यह काल शिव भक्ति का पुण्य काल माना जाता है। शिव भक्तों द्वारा पूरी श्रद्धा, भक्ति और आस्था के साथ भगवान शिव की पूजा-अर्चना, अभिषेक, जलाभिषेक, बिल्वपत्र सहित अनेक प्रकार से की जाती है। इस काल में शिव की उपासना भौतिक सुखों को देने वाली होती है। व्यावहारिक रुप से देखें तो भगवान शंकर द्वारा विष पीकर कंठ में रखना और उससे हुई दाह के शमन के लिए गंगा और चंद्रमा को अपनी जटाओं और सिर पर धारण करना इस बात का प्रतीक है कि मानव को अपनी वाणी पर संयम रखना चाहिए। खास तौर पर कटु वचन से बचना चाहिए, जो कंठ से ही बाहर आते हैं और व्यावहारिक जीवन पर बुरा प्रभाव डालते हैं। किंतु कटु वचन पर संयम तभी हो सकता है, जब व्यक्ति मन को काबू में रखने के साथ ही बुद्धि और ज्ञान का सदुपयोग करे। शंकर की जटाओं में विराजित गंगा ज्ञान की सूचक है और चंद्रमा मन और विवेक का। गंगा और चंद्रमा को भगवान शंकर ने उसी स्थान पर रखा है जहां मानव का भी विचार केन्द्र यानि मस्तिष्क होता है।


सावन मास के दौरान ही कई प्रमुख त्योहार जैसे- हरियाली अमावस्या, नागपंचमी तथा रक्षा बंधन आदि भी आते हैं। सावन में प्रकृति अपने पूरे शबाब पर होती है इसलिए यह भी कहा जाता कि यह महीना प्रकृति को समझने व उसके निकट जाने का है। सावन की रिमझिम बारिश और प्राकृतिक वातावरण बरबस में मन में उल्लास व उमंग भर देती है। सावन में ही महिलाएं कजरी-गायन कर खूब रंग बिखेरती हैं. सावन का महीना पूरी तरह से शिव तथा प्रकृति को समर्पित है. तो आप भी हर-हर महादेव के जयकारे के साथ गाइए- सावन आया झूम के !!

बुधवार, 21 जुलाई 2010

लघु कथा : माँ /तारा निगम

मांमाँमाँ           
माँ ने बच्चे को खाना दिया, और जल्दी-जल्दी काम में लग गयी, बच्चे से बोली- बेटा, जल्दी खाले, मुझे आफिस जाना है।

 चीं चीं चीं की आवाज से बच्चे का ध्यान ट्यूबलाइट पर बैठी चिडिया पर गया, वो मुंह में दाना दबाये थी और घोंसले से बच्चे चोंच निकालकर चीं चीं चीं कर रहे थे, चिडिया ने मुंह का दाना बारी-बारी से बच्चों के मुंह में डाल दिया और फिर से दाना लेने उड गयी।

 बच्चे ने मां को दिखाया, देखो मां, चिडिया कैसे प्यार से अपने बच्चों को दाना ला लाकर खिला रही है। काश! मैं भी चिडिया का बच्चा होता!

((तारा निगम जी की यह लघुकथा पिछले दिनों दैनिक जागरण में पढ़ी थी. पसंद आई, सो यहाँ पर भी प्रस्तुत कर रहा हूँ.)

शुक्रवार, 16 जुलाई 2010

रूपये का चेहरा अब बदला-बदला सा

आपने रूपये का चेहरा देखा. कितना अजीब लगता था कि दुनिया की इतनी बड़ी अर्थव्यवस्था के पास अपने रूपये का कोई चिन्ह तक नहीं है. खैर अमेरिकी डालर, जापानी येन, ब्रिटिश पौंड स्टलि’ग और यूरोपीय संघ के यूरो की तरह अब भारतीय रुपये को भी अपना चिह्न मिल गया है. केबिनेट ने कल रुपये के चिन्ह को मंजूरी दे दी। यह चिह्न भारतीय रुपए को विभिन्न भाषाओं में एक ही तरह से पेश करने में भी सहायक होगा। इससे भारतीय रुपए की पाकिस्तान, नेपाल, श्रीलंका और इंडोनेशिया जैसे देशों की मुद्राओं से अलग पहचान बनेगी, जहाँ रुपया या रुपइया चलता है. भारतीय रूपये के इस इस चिन्ह को ‘यूनीकोड मानक, आईएसओ-आईईसी 10646 और आईएस 13194’ में शामिल करने के बाद इसका इस्तेमाल भारत और भारत के बाहर किया जा सकेगा।
गौरतलब है कि इसके लिए तीन हजार एंट्रीज आई थी, जिसमें पांच को चुना गया था। आईआईटी के पोस्ट ग्रेजुएट डी उदय कुमार द्वारा डिजाइन किये गये चिन्ह को पांच प्रविष्टियों में चुना गया। यह चिन्ह हिन्दी का अक्षर ‘र’ है, जिसमें एक समानान्तर लाइन और डाली गयी है। यह अंग्रेजी के अक्षर ‘आर’ से भी काफी मिलता जुलता है। इसकी खूबसूरती पर हर कोई दंग है. अभिनेत्री सोनम कपूर के शब्दों पर गौर करें-''यह बहुत खूबसूरत है, यह भविष्योन्मुखी और भारतीयता से भरा है, यह आधुनिक भारत की तरह लगता है।’'

रूपये के इस नए चिन्ह को व्यावहारिक रूप में इस्तेमाल करने के लिए काफी तकनिकी पहलुओं से भी गुजरना पड़ेगा. चिह्न की एनकोडिंग के बाद नैसकॉम रुपए को सॉफ्टवेअर में शामिल करने के लिए भारतीय सॉफ्टवेअर विकास कंपनियों से संपर्क साधेगा ताकि दुनिया भर में कंप्यूटर इस्तेमाल करने वाले लोग इसका आसानी से उपयोग कर सकें, भले ही यह चिह्न कीबोर्ड पर न बना हो। गौरतलब है कि यूरो का निशान भारत में इस्तेमाल होने वाले कीबोर्ड में नहीं है लेकिन उसका इस्तेमाल होता है। भारत में बनने वाले कीबोर्ड में इस चिह्न को शामिल करने के लिए सूचना प्रौद्योगिकी निर्माता एसोसिएशन चिह्न की अधिसूचना जारी होने के बाद इसे कीबोर्ड में शामिल करने की पहल भी करेगा।रूपये के इस चिहन के इस्तेमाल के लिए भले ही लोग प्रोत्साहित हो रहे हैं, पर रूपये के निशान को भारतीय मानकों में एन्कोड करने की प्रक्रिया में छह महीने लगेगा जबकि यूनीकोड और अन्य मानकों में ऐसा करने के लिए अभी डेढ से दो साल का वक्त लगेगा । चिह्न को भारतीय मानकों में शामिल करने के लिए भारतीय मानक ब्यूरो की मौजूदा सूची में भी संशोधन करना होगा। इंडियन स्क्रिप्ट कोड फॉर इन्फॉरमेशन इंटरचेंज के तहत रुपए का चिह्न शामिल करना होगा. आईएससीआईआई ही कंप्यूटर प्रोसेसिंग के लिए कीबोर्ड ले-आउट सहित भारतीय भाषाओं के विभिन्न कोड की व्याख्या करता है।फ़िलहाल इंतजार रहेगा इस चिन्ह को वास्तविक रूप में आँखों से देखने और महसूस करने का.

सोमवार, 12 जुलाई 2010

भगवान को पाती

आपने वो वाली कहानी तो सुनी ही होगी, जिसमें एक किसान पैसों के लिए भगवान को पत्र लिखता है और उसका विश्वास कायम रखने के लिए पोस्टमास्टर अपने स्टाफ से पैसे एकत्र कर उसे मनीआर्डर करता है. दुर्भाग्यवश, पूरे पैसे एकत्र नहीं हो पाते और अंतत: किसान डाकिये पर ही शक करता है कि उसने ही पैसे निकाल लिए होंगे, क्योंकि भगवान जी कम पैसे कैसे भेज सकते हैं।



सवाल आस्था से जुड़ा हुआ है. कहते हैं आस्था में बड़ी ताकत होती है. अपनी आस्था प्रदर्शित करने के हर किसी के अपने तरीके हैं. कुछ लोग शांति के साथ पूजा करते हैं, तो कुछ मंत्रोच्चार के साथ अथवा भजन गाकर। लेकिन उड़ीसा के खुर्दा जिले में एक मंदिर ऐसा भी है, जहाँ लोग ईश्वर को पत्र लिखकर अपनी मनोकामनाएं पूरी करने के लिए आराधना करते हैं। भुवनेश्वर से 50 किलोमीटर दूर यह मंदिर हिन्दू-मुस्लिम भाईचारे का भी प्रतीक है। गुंबद पर जहाँ अर्द्धचंद्राकार कृति है, वहीं चक्र भी बना हुआ है।



इस मंदिर में पत्र लिखने की परंपरा की शुरुआत कब हुई, इसकी जानकारी तो किसी को नहीं है, लेकिन ऐसी मान्यता है कि पत्र लिखकर आप कोई इच्छा व्यक्त करते हैं, तो आपकी मनोकामना पूरी होगी। आपकी जो भी मनोकामना हो उसे लिख डालें और फिर उसे मंदिर की दीवार पर लगा दें। 17 वीं शताब्दी के इस बोखारी बाबा के मंदिर में प्रतिदिन हजारों लोग पहुंचते हैं। इसे सत्य पीर मंदिर के नाम से भी जाना जाता है। यहाँ हिन्दू और मुस्लिम दोनों संप्रदाय के लोग पहुंचते हैं।



इस मंदिर की खासियत यह है कि यहाँ का पुजारी मुसलमान है, लेकिन दूध, और केले से बने भोग को हिन्दू तैयार करते हैं। यहाँ के धांदू महापात्र बड़े गर्व से बताए हैं कि हमारा परिवार पीढ़ियों से मंदिर में फूल पहुंचाता रहा है और अब मैं भी उसी परंपरा का निर्वाह कर रहा हूँ. यह स्थल सांप्रदायिक सद्भाव की जीती-जागती मिसाल है। यहाँ मुस्लिम श्रद्धालु चादर चढ़ाते हैं तो हिन्दू श्रद्धालु पुष्प अर्पित करते हैं। मंदिर के पुजारी सतार खान बताते हैं कि इस मंदिर में विभिन्न धर्मों के लोग आतें हैं।वे यहाँ कागज के टुकड़े पर अपनी मनोकामना लिखते हैं और फिर उसे दीवार पर लगा देते हैं। जब उनकी मनोकामना पूर्ण हो जाती है तो दोबारा आते हैं और बोखारी बाबा को चादर अथवा फूल चढ़ाते हैं। उन्होंने कहा कि जो श्रद्धालु यहाँ आने में असमर्थ होते हैं, वे यहाँ पत्र भेज देते हैं और हम उसे दीवार पर लगा देते हैं। वाकई हम 21 वीं सदी में विज्ञानं के बीच भले ही जी रहे हों, पर ईश्वरीय आस्था जस की तस कायम है. यही हमारी परम्परा है, आस्था है, संस्कृति है...!!

गुरुवार, 8 जुलाई 2010

पाश्चात्य नहीं खुद के अन्दर झांकें

भारतीय संस्कृति की एक अक्षुण परम्परा है. दुनिया के प्राचीनतम ग्रन्थ ऋग्वेद, वेदों की एक लाख श्रुतियों, उपनिषदों के ज्ञान, महाभारत के राजनैतिक दर्शन, गीता की समग्रता, रामायण के रामराज्य, पौराणिक जीवन दर्शन एवं भागवत दर्शन से लेकर संस्कृति के तमाम अध्याय और योग जैसी विधाओं के जनक भारत की उसी संस्कृति को आज पाश्चात्य संस्कृति से खतरा बताया जा रहा है. जिस योग की महिमा आज पूरे दुनिया में गई जा रही है, वह भारत की ही देन है. योगासनों का सबसे पहले उल्लेख पतंजलि योग सूत्र में मिलता है जिसकी रचना करीब दो हजार साल पहले हुई थी। हम योग को भले ही भुला बैठे पर पश्चिमी देशों ने उसे लपक लिया. यहाँ तक कि अमेरिका में प्राचीन भारतीय विद्या योग के आसनों के करीब 150 पेटेंट, 2,000 ट्रेडमार्क और 150 काॅपीराइट करा लिए गए हैं। यही नहीं अमेरिकी और यूरोप के पेटेंट कार्यालयों में योगासनों पर पेटेंट कराने के 250 दावे अब भी लंबित हैं।

वस्तुतः हम भारतीय अपनी परम्परा, संस्कृति, ज्ञान और यहाँ तक कि महान विभूतियों को तब तक खास तवज्जो नहीं देते जब तक विदेशों में उसे न स्वीकार किया जाये। यही कारण है कि आज यूरोपीय राष्ट्रों और अमेरिका में योग, आयुर्वेद, शाकाहार, प्राकृतिक चिकित्सा, यूनानी, होम्योपैथी और सिद्धा जैसे उपचार लोकप्रियता पा रहे हैं जबकि हम उन्हें बिसरा चुके हैं। हमें अपनी जड़ी-बूटियों, नीम, हल्दी और गोमूत्र का ख्याल तब आता है जब अमेरिका उन्हें पेटेंट करवा लेता है। योग को हमने उपेक्षित करके छोड़ दिया पर जब वही ‘योगा’ बनकर आया तो हम उसके दीवाने बने बैठे हैं। अब जब योरोप और अमेरिका में योगासनों का धड़धड़ पेटेंट कराया जा रहा है, तो भारत को अपनी धरोहर का ख्याल आया और इसके बाद आरम्भ हुआ योग की संस्कृत भाषा की शब्दावली को विभिन्न विदेशी भाषाओं में अनुवाद करने का ताकि हम जोर देकर कह सकें कि योग विदेशों का नहीं बल्कि हमारी संस्कृति का अंग है। अब डिपार्टमेन्ट आफ आयुर्वेद, योग और नैचुरोपैथी, यूनानी, सिद्ध तथा होम्योपैथी के साथ मिलकर मोरारजी देसाई नेशनल इंस्टीट्यिूट आफ योग एवं पुणे का केवल धाम मिलकर योग के विभिन्न आसनों और योगिक क्रियाओं के संस्कृत नामों का अंग्रेजी, फ्रेंच, जर्मनी सहित पाँच भाषाओं में अनुवाद कर रहे हैं। यही नहीं इससे सतर्क हुई भारत सरकार अब आसनों की वीडियोग्राफी करा रही है जिन्हें अमेरिकी और यूरोप के पेटेंट, कार्यालयों को मुहैया कराया जाएगा ताकि और नुकसान रोका जा सके. पारंपरिक ज्ञान डिजीटल लाइब्रेरी (TKDL) द्वारा 900 योगासनों की वीडियोग्राफी कर उन्हें डिजीटल रूप दिया जा रहा रहा है। इनमें दो हजार वर्ष पुराने पंतजलि योग सूत्र, भगवद् गीता, अष्टांग हृदय, हठ प्रदीपिका, घेरंड संहिता और सांद्र सत्कर्म जैसे प्राचीन ग्रंथों से संदर्भ लिए गए हैं।


गौरतलब है कि हाल ही में मानव संसाधन विकास पर संसद की एक स्थायी समिति ने भी स्कूलों में योग शिक्षा आरम्भ करने पर जोर दिया था. आँकड़ों पर गौर करें तो 2005-06 के एक अनुमान के मुताबिक पश्चिमी देशों में तब योग विद्या विद्या से जुड़ा कारोबार अरबों डालर का था। अमेरिका में करीब 1.65 करोड़ लोग योगाभ्यास करते हैं और वहाँ की जनता हर वर्ष योग पर लगभग तीन अरब डालर का खर्च करती है। इसी तरह विदेशों में दिनों-ब-दिन आयुर्वेदिक दवाओं की माँग बढ़ती जा रही है। मौजूदा समय में प्रतिवर्ष 3000 करोड़ रुपये की आयुर्वेदित दवाइयाँ और इससे सम्बन्धित उत्पादों का भारत द्वारा विदेशों को निर्यात किया जा रहा है। अमेरिका, ब्रिटेन, स्पेन, रूस और आस्ट्रेलिया को किये जाने वाले निर्यात में औसतन 25 फीसदी की बढ़ोत्तरी हो रही है। पाश्चात्य संस्कृति में पले-बसे लोग भारत आकर संस्कार और मंत्रोच्चार के बीच विवाह के बन्धन में बँधना पसन्द कर रहे हैं और हमें अपने ही संस्कार दरियाकनूसी और बकवास लगते हैं। वर्ष 2007 में अमेरिका के तमाम प्रान्तों की विधानसभाओं का सत्र और अमेरिकी सीनेट का सत्र हिन्दू वैदिक मंत्रोच्चार की गूँज के साथ आरम्भ हुआ। यही नहीं अमेरिकी गिरजाघरों में भी ऋग्वेद के मंत्र और भगवद्गीता के श्लोक गूंजने लगे हैं. इन सबसे प्रभावित होकर अमेरिका के रूट्जर्स विश्वविद्यालय ने हिन्दू धर्म से सम्बन्धित छः पाठ्यक्रम आरम्भ करने का फैसला लिया , जिसमें वाचन परम्परा, हिन्दू संस्कार महोत्सव, हिन्दू प्रतीक, हिन्दू दर्शन एवं हिन्दुत्व तथा आधुनिकता जैसे पाठ्यक्रम शामिल हैं तथा नान क्रेडिट कोर्स में योग और ध्यान तथा हिन्दू शास्त्रीय और लोकनृत्य शामिल किये गए हैं. और-तो-और अमेरिका में ‘रामायण रिबोर्न’ श्रृंखला वाली कामिक्स ने बैटमैन, सुपरमैन और स्पाइडरमैन को पीछे छोड़कर धूम मचा रखी है। अमेरिका की वरजिन कामिक्स द्वारा गाथम कामिक्स के साथ मिलकर 30 हिस्सों वाली इस श्रृखंला के प्रकाशन में सिर्फ रामायण आधारित कामिक्स ही नहीं अपितु भारतीय पात्रों जैसे साधू और देवी तथा नागिन को लेकर बनी कामिक्स भी धूम मचा रही हैं। निश्चिततः कर्म, भाग्य और समय जैसी भारतीय अवधारणाओं ने फन्तासियों पर आधारित अमेरिकी कामिक्स बाजार में भूचाल पैदा कर दिया।


पश्चिमी विज्ञान भी अब यह स्वीकारने लगा है कि भारतीय जीवन प्रतीको में दम है. एक दौर में पश्चिमी देशों के लोग भारत को सपेरों व जादूगरों के देश के रूप में पहचानते थे। धर्म व अध्यात्म के रस में लिपटे प्रतीकों को वे उपहास की वस्तु समझते थे। पर अब चीजें बदल रही हैं. वे हमारे अध्यात्म की तरफ उन्मुख हो रहे हैं. हाल ही में अमेरिका के रिसर्च ऐंड एक्सपेरीमेंटल इंस्टीट्यूट आॅफ न्यूरो साइंसेज के वैज्ञानिकों ने ऊँ के उच्चारण से शरीर में होने वाले परिवर्तनों का अध्ययन किया और पाया कि इसके नियमित प्रयोग से अनेक असाध्य रोग दूर हो गए।......अब जरुरत है कि हम भी अपनी संस्कृति को समझें और पश्चिम कि तरफ मुँह करके देखने की बजाय खुद के अन्दर झांकें !!

सोमवार, 5 जुलाई 2010

भारत बंद की दुहाई


मुट्ठियाँ ताने चंद लोग
हवाओं में नारेबाजी करते
बड़े-बड़े बैनर और दफ्तियाँ संभाले
पल भर में
पूरा भारत बंद कर देते हैं
वे दुहाई देते हैं
जनता के हितों की
आश्वासन देते हैं
एक सुखद भविष्य का
पर नहीं दिखता उन्हें
इस बंद में फंसे लोगों का हित
जिनका आज का भविष्य
शायद यही होगा कि
बच्चों की कक्षायें
छूट गयी होंगी
आॅफिस लेट पहुँचने वालों को
बाॅस की डाँट सुननी होगी
कोई मरीज अस्पताल न पहुँचने पर
दम तोड़ रहा होगा
या कोई बेरोजगार युवा
साक्षात्कार में शामिल न हो पाने पर
अपना सिर पीट रहा होगा !!
(आज भारत-बंद की घोषणा की गई है. पर क्या वाकई इसका कोई अर्थ है. इस कविता के माध्यम से महसूस कीजिये उन लोगों का दर्द जो आज इसके शिकार होने जा रहे हैं )