प्रेमचन्द सिर्फ साहित्यिक प्राणी ही नहीं थे बल्कि उनकी कलम सामाजिक विमर्श और तत्कालीन समस्याओं पर भी चली। प्रेमचन्द ने 19वीं सदी के अन्तिम दशक से लेकर 20वीं सदी के लगभग तीसरे दषक तक, भारत में फेैली हुई तमाम सामाजिक समस्याओं पर लेखनी चलायी। देश की स्वतन्त्रता के प्रति उनमें अगाध प्रेम था। चैरी-चैरा काण्ड के ठीक चार दिन बाद 16 फरवरी 1921 को पे्रमचन्द ने भी सरकारी नौकरी से त्यागपत्र दे दिया । इसी प्रकार 11 अगस्त 1908 को जब 15 वर्षीय क्रान्तिकारी खुदीराम बोस को अंग्रेज सरकार ने निर्ममता से फांसी पर लटका दिया तो प्रेमचन्द के अन्दर का देशप्रेम हिलोरें मारने लगा और वे खुदीराम बोस की एक तस्वीर बाजार से खरीदकर अपने घर लाये और कमरे की दीवार पर टांग दिया। खुदीराम बोस को फांसी दिये जाने से एक वर्ष पूर्व ही उन्होंने ‘दुनिया का सबसे अनमोल रतन’ नामक अपनी प्रथम कहानी लिखी थी, जिसके अनुसार- ‘खून की वह आखिरी बूँद जो देश की आजादी के लिये गिरे, वही दुनिया का सबसे अनमोल रतन है।’
प्रेमचन्द ने जिस दौर में सक्रिय रूप से लिखना शुरू किया, वह छायावाद का दौर था। निराला, पंत, प्रसाद और महादेवी जैसे रचनाकार उस समय चरम पर थे पर प्रेमचन्द ने अपने को किसी वाद से जोड़ने की बजाय तत्कालीन समाज में व्याप्त छुआछूत, साम्प्रदायिकता, हिन्दू- मुस्लिम एकता, दलितों के प्रति सामाजिक समरसता जैसे ज्वलंत मुद्दों से जोड़ा। एक लेखक से परे भी उनकी चिन्तायें थीं और उनकी रचनाओं में इसकी मुखर अभिव्यक्ति हुई है। उनकी कहानियों और उपन्यासों के पात्र सामाजिक व्यवस्थाओं से जूझते हंै और अपनी नियति के साथ-साथ भविष्य की इबारत भी गढ़ते हैं। नियति में उन्हें यातना, दरिद्रता व नाउम्मीदी भले ही मिलती हो पर अंततः वे हार नहीं मानते हंै और संघर्षों की जीजिवषा के बीच भविष्य की नींव रखते हैं। अपने वैयक्तिक जीवन के संघर्षों से प्रेमचन्द ने जाना था कि संघर्ष का रास्ता बेहद पथरीला है और मात्र संवेदनाओं व हृदय परिवर्तन से इसे नहीं पार किया जा सकता। यही कारण था कि प्रेमचन्द ऊपर से जितने उद्विग्न थे, अन्दर से उतने ही विचलित। वस्तुतः प्रेमचन्द एक ऐसे राष्ट््र-राज्य की कल्पना करते थे जिसमें किसी भी तरह का भेदभाव न हो- न वर्ण का, न जाति का, न रंग का और न धर्म का। प्रेमचन्द का सपना हर तरह की विषमता, सामाजिक कुरीतियों और साम्प्रदायिक-वैमनस्य से परे एक ऐसे राष्ट््र का निर्माण था जिसमें समता सर्वोपरि हो। प्रेमचन्द इस तथ्य को भली-भाँति जानते थे कि भारतीय समाज में विद्यमान पृथकता ही उपनिवेशवाद की जड़ रहा है। अंग्रेजों ने इस पृथकता व विषमता की खाई को और भी गहरा करने का प्रयास किया और भारत को सामाजिक, आर्थिक, राजनैतिक, धार्मिक व सांस्कृतिक सभी मोर्चों पर क्षति पहुँचायी। यही कारण है कि सन् 1933 में जब संयुक्त प्रान्त के गर्वनर मालकम हेली ने कहा कि- ‘‘ जहाँ तक भारत की मनोवृत्ति का हमंे परिचय है, यह कहना युक्तिसंगत है कि वह आज से 50 वर्ष बाद भी अपने लिये कोई ऐसी व्यवस्था नहीं बना पाएगा, जो स्पष्ट रूप से बहुमत के लिये जवाबदेह हो।’’ प्रेमचन्द ने इसका कड़ा प्रतिवाद किया और लिखा कि- ‘‘जिनका सारा जीवन ही भारत की राष्ट््रीय आकांक्षाओं का दमन करते गुजरा है, उनका यह कथन उचित नहीं प्रतीत होता।’’
प्रेमचन्द ने छुआछूत की समस्या को दूर करना, सामाजिक समता के लिए महत्वपूर्ण बताया। परम्परागत वर्णाश्रम व्यवस्था के सम्बन्ध में उन्होंने लिखा कि- भारतीय राष्ट््र का आदर्श मानव शरीर है जिसके मुख, हाथ, पेट और पाँव- ये चार अंग हैं। इनमें से किसी भी अंग के अभाव या विच्छेदन से देह का अस्तित्व निर्जीव हो जाएगा। वे प्रश्न उठाते हैं कि यदि वर्णाश्रम व्यवस्था के पाँव माने जाने वाले शूद्रों का सामाजिक व्यवस्था से विच्छेदन कर दिया जाय तो इसकी क्या गति होगी? इसी आधार पर वे समाज में किसी भी प्रकार के छुआछूत का सख्त विरोध करते हैं। अपने एक लेख में वे लिखते हैं- ‘‘क्या अब भी हम अपने बड़प्पन का, अपनी कुलीनता का ढिंढोरा पीटते फिरेंगे। यह ऊँच-नीच, छोटे-बड़े का भेद हिन्दू जीवन के रोम-रोम में व्याप्त हो गया है। हम यह किसी तरह नहीं भूल सकते कि हम शर्मा हैं या वर्मा, सिन्हा हैं या चैधरी, दूबे हैं या तिवारी, चैबे हैं या पाण्डे, दीक्षित हैं या उपाध्याय। हम आदमी पीछे हैं, चैबे या तिवारी पहले और यह प्रथा कुछ इतनी भ्रष्ट हो गई है कि आज जो निरक्षर भट्टाचार्य है, वह भी अपने को चतुर्वेदी या त्रिवेदी लिखने में जरा भी संकोच नहीं करता।’’ प्रेमचन्द ने 1932 में महात्मा गाँधी द्वारा मैकडोनाल्ड अवार्ड द्वारा प्रस्तावित पृथक निर्वाचन के विरोध में किये गए आमरण अनशन का समर्थन किया और गाँधी जी के इन विचारों का भी समर्थन किया कि शेष हिन्दू समाज के लिये निर्वाचन की चाहे जितनी कड़ी शर्तंे लगा दी जायें पर दलितांे के लिये शिक्षा और जायदाद की कोई शर्त न रखी जाये और हरेक दलित को निर्वाचन का अधिकार हो। वस्तुतः प्रेमचन्द दलितांे को समाज का एक अभिन्न हिस्सा मानते थे, इसलिये वे उनकी पृथक पहचान के लिए सहमत नहीं थे। यही कारण था कि उन्होंने नागपुर में हरिजनों के लिये स्थापित पृथक छात्रावास व्यवस्था की भी आलोचना की। दलितों के सम्बन्ध में प्रेमचन्द द्वारा दिये गये उद्गारों से उन्हें ब्राह्मण विरोधी भी कहा गया पर प्रेमचन्द इसकी परवाह किये बिना हिन्दू समाज में व्याप्त विषमता की लगातार आलोचना करते रहे। उन्होंने दलितों के लिये काशी विश्वनाथ मंदिर के पट नहीं खोलने पर कहा कि- ‘‘विश्वनाथ किसी एक जाति या सम्प्रदाय के देवता नहीं हंै, वह तो प्राणी मात्र के नाथ हैं। उनपर सबका हक बराबर-बराबर का है।’’ शास्त्रों की आड़ में दलितों के मंदिर प्रवेश को पाप ठहराने वालों को जवाब देते हुए प्रेमचन्द ने ऐसे लोगों की विद्या-बुद्धि व विवेक पर सवाल उठाया और कहा कि- ‘‘विद्या अगर व्यक्ति को उदार बनाती है, सत्य व न्याय के ज्ञान को जगाती है और इंसानियत पैदा करती है तो वह विद्या है और यदि वह स्वार्थपरता व अभिमान को बढ़ावा देती है, तो वह अविद्या से भी बदतर है।’’ वर्णाश्रम व्यवस्था के समर्थकों द्वारा हिन्दू मंदिरों की दलितों से रक्षा करने के सन्दर्भ में वायसराय को सम्बोधित ज्ञापन की तीखी आलोचना करते हुए प्रेमचन्द ने वर्णाश्रम व्यवस्था समर्थकों पर प्रश्नचिन्ह लगाते हुए लिखा कि- ‘‘राष्ट््र की वर्तमान अधोगति हेतु ऐसे ही लोग जिम्मेदार हैं। दक्षिणा में अछूतों द्वारा दिए गये पैसे लेने में इन्हें कोई पाप नहीं दिखता पर किसी अछूत के मंदिर में प्रवेश मात्र से ही इनके देवता अपवित्र हो जाते हैं। यदि इनके देवता ऐसे निर्बल हैं कि दूसरों के स्पर्श से ही अपवित्र हो जाते हैं, तो उन्हें देवता कहना ही मिथ्या है। देवता तो वह है, जिसके सम्मुख जाते ही चांडाल भी पवित्र हो जाये।’’ प्रेमचन्द धर्म का उद्देश्य मानव मात्र की समता मानते थे एवं किसी भी प्रकार के विभेद को राष्ट््र के लिये अहितकर मानते थे। प्रेमचन्द का स्पष्ट मानना था कि- ‘‘हरिजनों की समस्यायें मंदिर प्रवेश मात्र से नहीं हल होने वाली। उनके विकास में धार्मिक बाधाओं से कहीं कठोर आर्थिक बाधायें है।’’
प्रेमचन्द ने साम्प्रदायिकता पर भी कलम चलायी। प्रेमचन्द ने स्पष्ट रूप से कहा कि हिन्दू-मुसलमान की आपसी शिकायतें मसलन- ‘‘मुसलमानों को यह शिकायत है कि हिन्दू उनसे परहेज करते हैं, अछूत समझते हैं, उनके हाथ का पानी नहीं पीना चाहते तो हिन्दुओं को शिकायत है कि मुसलमानों ने उनके मंदिर तोडे़, उनके तीर्थ स्थलों को लूटा, हिन्दू राजाओं की लड़कियाँ अपने महल में डालीं’’, जायज हो सकतीं हैं पर इस आधार पर साम्प्रदायिकता को उचित नहीं ठहराया जा सकता। उन्होंने हिन्दू -मुसलिम एकता को ही स्वराज का दर्जा दिया पर दोनों सम्प्रदायों की विशिष्टताओं के साथ। उन्होने एक दूसरे के धर्म का परस्पर आदर करने पर जोर दिया और कहा कि- ‘‘हिन्दू और मुसलमान न कभी दूध और चीनी थे, न हांेगे और न होने चाहिये। दोनों की पृथक-पृथक सूरतें बनी रहनी चाहिये और बनी रहेंगी।’’ 1931 में मैकडोनाल्ड अवार्ड द्वारा दलितों के लिये पृथक निर्वाचन की व्यवस्था किये जाने पर मुसलमानों में भी पृथक और संयुक्त निर्वाचन पर बहस छिड़ी पर 19 अक्टूबर 1932 को लखनऊ में सम्पन्न हुए मुस्लिम सर्वधर्म सम्मेलन में पृथक निर्वाचन की अवधारणा को अस्वीकार कर दिया गया। इस पर टिप्पणी करते हुए प्रेमचन्द ने कहा कि राष्ट््रीयता ने पूना में प्रथम विजय पायी मगर लखनऊ में उसने जो विजय प्राप्त की है, उसने तो साम्प्रदायिकता को जैसे सुरंग में बारूद लगाकर उड़ा दिया हो।
प्रेमचन्द के राष्ट््र-राज्य में दलितों के साथ स्त्रियाँ और किसान समान भाव से मौजूद हैं, जिनके विकास के बिना भारत के विकास के कल्पना भी बेमानी है। स्त्रियों के साथ समाज में हो रहे दोयम व्यवहार का प्रेमचन्द ने कड़ा विरोध किया और अपनी रचनाओं में उसे स्वतंत्र व्यक्तित्व का दर्जा देते हुये, विकास की धुरी बनाया। इसी प्रकार प्रेमचन्द ने कृषक समुदाय को भारत की प्राणवायु बताया। कर्ज में डूबे किसान, उन पर ढाये जाते जुल्म, उनकी बद से बद्तर होती गरीबी, व्यवस्थागत विक्षोभ और किसानों की समस्याओं को किसी भी साहित्यकार ने उस रूप में नहीं उठाया, जिस प्रकार प्रेमचन्द ने उठाया। प्रेमचन्द का पूरा साहित्य ही दलित, स्त्री और किसान की लड़ाई का साहित्य है जिसमें समता, न्याय और सामाजिक परिवर्तन की घोषणा है। यहाँ धर्म, संस्कृति, रीति-रिवाज, जाति, वर्ण, ऊँच-नीच के लिये कोई जगह नहीं है, जगह है तो सिर्फ मानवता की- जिसके बिना जीवित रहना ही अकारथ है।
प्रेमचन्द एक ऐसे राष्ट््र -राज्य का सपना देखते थे जो समतावादी समाज पर आधारित हो। यहाँ तक कि जब काशी में उन्होंने सरस्वती प्रेस खोला तो कर्मचारियों को रोज कुछ न कुछ देना ही पड़ता पर उतनी आय नहीं होने से सबकी माँग रोज पूरी नहीं हो पाती थी। ऐसे में प्रेमचन्द सबके सामने रोज शाम को आमदनी का हिसाब रख देते और कहते-‘‘इतने पैसों में तुम्हीं लोग अपने और मेरे लिये ब्योंत कर दो, मुझे पान-तम्बाकू और इक्का-भाड़ा-भर देकर बाकी आपस में बाँट लो।’’ वस्तुतः प्रेमचन्द के चिन्तन और व्यवहार में समरसता और साहचर्य महत्वपूर्ण है, केन्द्र-बिन्दु बनना नहीं। यही कारण है कि ऐसे लोग जो आन्दोलनों का केन्द्र-बिन्दु बनकर स्वंय के लिये कुर्सी हथियाना चाहते हैं, प्रेमचन्द उन्हें बाधा नजर आते हैं। उनके उपन्यास ‘रंगभूमि’ की प्रतियाँ जलाने वाले वर्गीय संरचनाओं की जटिलता और यंत्रणादायी व्यवस्था के स्तर को नहीं समझना चाहते, सिर्फ निश्चित फाॅर्मूलों में निबद्ध दलित आत्मकथाओं व घृणित प्रतिक्रियाओं पर आधारित रचनाओं को ही दलित लेखन समझते हैं तो इसमें प्रेमचन्द का क्या दोष? प्रेमचन्द ने राष्ट््रीयता को पारिभाषित करते हुए लिखा कि- ‘‘हम जिस राष्ट््रीयता की परिकल्पना कर रहे हैं, उसमें जन्मगत वर्ण व्यवस्था की गंध तक नहीं होगी। वह हमारे श्रमिकों और किसानों का साम्राज्य होगा, जिसमें न कोई ब्राह्मण होगा, न हरिजन, न क्षत्रिय, न कायस्थ। उसमें सभी भारतवासी हांेगे, सभी ब्राह्मण होंगे या सभी हरिजन होंगे।’’ प्रेमचन्द की समतावादी व्यवस्था में दलित बेहतरी के हकदार हैं, किसी के दयाभावी न्याय के नहीं। प्रेमचन्द ने अपनी कहानियों के पात्रों के बारे में एक बार कहा था कि- ‘‘हमारी कहानियों में आपको पदाधिकारी, महाजन, वकील और पुजारी गरीबों का खून चूसते हुए दिखेंगे और गरीब किसान, मजदूर, अछूत और दरिद्र उनके आघात सहकर भी अपने धर्म और मनुष्यता को हाथ से न जाने देंगे, क्योंकि हमने उन्हीं में सबसे ज्यादा सच्चाई और सेवा भाव पाया है।’’
प्रेमचन्द ने 19वीं सदी के अन्तिम दशक से लेकर 20वीं सदी के लगभग तीसरे दशक तक, भारत में फेैली हुई तमाम सामाजिक समस्याओं पर लेखनी चलायी। चाहे वह किसानों-मजदूरों एवं जमींदारों की समस्या हो, चाहे छुआछूत अथवा नारी-मुक्ति का सवाल हो, चाहे नमक का दरोगा के माध्यम से समाज में फैले इंस्पेक्टर-राज का जिक्र हो, कोई भी अध्याय उनकी निगाहों से बच नहीं सका। प्रेमचन्द ने हिन्दी कथा साहित्य को एक नया मोड़ दिया, जहाँ पहले साहित्य मायावी भूल-भुलैयों में पड़ा स्वप्नलोक और विलासिता की सैर कर रहा था, ऐसे में प्रेमचन्द ने कथा साहित्य में जनमानस की पीड़ा को उभारा। प्रसिद्ध इतिहासकार प्रो0 विपिन चन्द्र ने एक बार टिप्पणी की थी-‘‘यदि कभी बीसवीं शताब्दी में आजादी के पूर्व किसानों की हालत के बारे में इतिहास लिखा जाएगा तो इतिहासकार का प्राथमिक स्त्र्रोत होगा प्रेमचंद का ‘गोदान’, क्योंकि इतिहास कभी भी अपने समय के साहित्य को ओझल नहीं करता।’’ गोदान मात्र किसान की संघर्ष गाथा नहीं है वरन् इसमें स्त्री की बहुरूपात्मक स्थिति को दर्शाते हुए उसकी संघर्ष गाथा को भी चित्रित किया गया है। गोदान में अभिव्यक्त गोबर व झुनिया के बीच अवैध प्रेम और विवाह, सिलिया चमाइन और मातादीन पण्डित का प्रेम-प्रसंग जहाँ परम्परा में सेंध लगाते हैं और स्त्री को मुक्त करते हैं वहीं मेहता से प्रेम करते वाली मालती मलिन बस्तियों में मुफ्त दवा बाँट कर सामाजिक कार्यकत्रीे के रूप में नजर आती है तो क्लब - संस्कृति के बहाने वह जीवन का द्वैत भी जीती है। मेहता और मालती का प्रेम एक प्रकार से लिव - इन - रिलेशनशिप का उदाहरण है। ‘गोदान’ ने प्रेमचन्द को हिन्दी साहित्य में वही स्थान दिया जो रूसी साहित्य में ‘मदर’ लिखकर मैक्सिम गोर्की को मिला। ‘सेवा सदन’ में एक वेश्या के बहाने प्रेमचन्द्र ने धर्म के नाम पर चलने वाले अनाथालयों एवं पाखण्डों का भण्डाफोड़ किया है। ‘कर्मभूमि’ में मुन्नी द्वारा बलात्कारी सिपाही की हत्या स्त्री-मुक्ति के संघर्ष का अनूठा साक्ष्य है। यही कारण है कि पे्रमचन्द को हर शख्स अपने करीब पाता है और अलग-अलग रूप में उनकी व्याख्या करता है । असहयोग आन्दोलन के कारण गाँधी जी से प्रभावित होकर सरकारी नौकरी से इस्तीफा देने के कारण किसी ने उन्हें गाँधीवादी कहा तो अपनी रचनाओं में वर्ग-संघर्ष को प्रमुखता से उभारने के कारण उन्हंे साम्यवादी अथवा वामपंथी कहा गया तो समाज में छुआछूत व दलितों की स्थिति पर लेखनी चलाने के कारण उन्हें दलित समर्थक कहा गया और नारी-मुक्ति को प्रश्रय देने के कारण उन्हंे नारी-समर्थक कहा गया।
साहित्य से इतर सामाजिक विमर्शों पर प्रेमचन्द के विचार आज भी उतने ही प्रासंगिक हैं और उनकी रचनाओं के पात्र आज भी समाज में कहीं न कहीं जिन्दा हैं। प्रेमचन्द जब अपनी रचनाओं में समाज के उपेक्षित व शोषित वर्ग को प्रतिनिधित्व देेते हैं तो निश्चिततः इस माध्यम से वे एक युद्ध लड़ते हैं और गहरी नींद सोये इस वर्ग को जगाने का उपक्रम करते हैं। राष्ट््र आज भी उन्हीं समस्याओं से जूझ रहा है जिन्हें प्रेमचन्द ने काफी पहले रेखांकित कर दिया था, चाहे वह जातिवाद या साम्प्रदायिकता का जहर हो, चाहे कर्ज की गिरफ्त में आकर आत्महत्या करता किसान हो, चाहे नारी की पीड़ा हो, चाहे शोषण और सामाजिक भेद-भाव हो। इन बुराईयों के आज भी मौजूद होने का एक कारण यह है कि राजनैतिक सत्तालोलुपता के समानान्तर हर तरह के सामाजिक, धार्मिक व सांस्कृतिक आन्दोलन की दिशा नेतृत्वकर्ताओं को केन्द्र-बिन्दु बनाकर लड़ी गयी जिससे मूल भावनाओं के विपरीत आन्दोलन गुटों में तब्दील हो गये एवं व्यापक व सक्रिय सामाजिक परिवर्तन की आकांक्षा कुछ लोगों की सत्तालोलुपता की भेंट चढ़ गयी।