- बाल्यावस्था में कोई भी नाई आपके बाल काटने को तैयार नहीं था सो आप सहित सभी भाईयों का बाल माता जी ही काटा करती थीं।
- बाल्यावस्था में आप जब पूर्व भुगतान करके अपने अग्रज के साथ बैलगाड़ी में बैठकर गोरेगाँव रेलवे स्टेशन जा रहे थे तो रास्ते में बातचीत द्वारा गाड़ीवान को आपकी अछूत जाति का पता चला तो वह अपवित्र होने के भय से गाड़ी से उतर गया और आपके अग्रज बैलगाड़ी चलाकर स्टेशन तक ले गए तथा गाड़ीवान पीछे-पीछे पैदल चलता रहा।
- हाईस्कूल में आपको द्वितीय भाषा के रूप में संस्कृत नहीं वरन् फारसी पढ़नी पड़ी, क्योंकि अछूत बच्चों को संस्कृत की शिक्षा देना पाप समझा जाता था।- अध्ययन-काल के दौरान जब शिक्षक के कहने पर आप ब्लैकबोर्ड पर लिखने के लिए बढ़े तो आपकी कक्षा के सभी बच्चे दौड़कर ब्लैकबोर्ड के पीछे रखे अपने टिफिन को लेकर बाहर भाग गए कि कहीं उनका भोजन अपवित्र न हो जाय।
- अध्ययन काल के दौरान प्यास लगने पर आपको नल छूने की मनाही थी। प्यास लगने पर आप अध्यापक से कहते और उनके आदेश पर चपरासी नल खोलता और तब कहीं आपको पानी पीने को मिलता।
- बड़ौदा राज्य में सेवा-काल के दौरान चपरासी आपके हाथ में पत्रावलियाँ और फाईल सीधे न देकर फेंक जाता था।
- महाराष्ट्र सरकार द्वारा दलितों की सामाजिक, आर्थिक और शैक्षिक दशा का अध्ययन करने हेतु गठित समिति के सदस्य रूप में दौरे के दौरान एक प्राथमिक पाठशाला के हेडमास्टर ने आपको परिसर में घुसने तक नहीं दिया और एक जगह तो तांगा चालक ने आपको तांगे पर बिठाने से इनकार कर दिया।
आधुनिक भारत के निर्माताओं में डाॅ0 भीमराव अम्बेडकर का नाम प्रमुखता से लिया जाता है पर स्वयं डाॅ0 अम्बेडकर को इस स्थिति तक पहुँचने के लिये तमाम सामाजिक कुरीतियों और भेदभाव का सामना करना पड़ा। डाॅ0 अम्बेडकर मात्र एक साधारण व्यक्ति नहीं थे वरन् दार्शनिक, चिंतक, विचारक, शिक्षक, सरकारी सेवक, समाज सुधारक, मानवाधिकारवादी, संविधानविद और राजनीतिज्ञ इन सभी रूपों में उन्होंने विभिन्न भूमिकाओं का निर्वाह किया। 14 अप्रैल, 1891 को इन्दौर के निकट महू कस्बे में अछूत जाति माने जाने वाले महार परिवार में जन्मे अम्बेडकर रामजी अम्बेडकर की 14वीं सन्तान थे। यह संयोग ही कहा जाएगा कि जिस वर्ष डाॅ0 अम्बेडकर का जन्म हुआ, उसी वर्ष महात्मा गाँधी वकालत पास कर लंदन से भारत वापस आए। डाॅ0 अम्बेडकर के पिता रामजी अम्बेडकर सैन्य पृष्ठभूमि के थे एवं विचारों से क्रान्तिकारी थे। उनके संघर्षस्वरूप सेना में महारों के प्रवेश पर लगी पाबन्दी को हटाकर सन् 1914 में प्रथम विश्व युद्ध के दौरान ‘महार बटालियन’ की स्थापना हुयी। 1891 में सेना से सेवानिवृत्ति पश्चात सन् 1894 में रामजी अम्बेडकर रत्नागिरी जिले में पी0 डब्लू0 डी0 विभाग में स्टोरकीपर के रूप में पुनः सेवा नियुक्त हुए, जहाँ से कालान्तर में उनका स्थानान्तरण सतारा हो गया।
यहीं सतारा के सरकारी स्कूल में अम्बेडकर की प्रारम्भिक शिक्षा सन् 1900 में आरम्भ हुई, जहाँ उनका नाम भीवा रामजी अम्बावाडेकर लिखवाया गया, पर शिक्षक द्वारा उच्चारण की दुरूहता ने अम्बावाडेकर को अम्बेडकर में तब्दील कर दिया। वस्तुतः रत्नागिरी जिले के खेड़ा तालुक में अम्बावाडे़ नामक गाँव में पैतृक स्थल होने के कारण आपके परिवार के नाम के साथ अम्बावाडेकर नाम जुड़ा था। सरकारी स्कूल में प्रवेश करते ही अम्बेडकर को जातिगत भेदभाव का सामना करना पड़ा। मसलन अछूत होने के कारण कक्षा में प्रश्न पूछने की मनाही, अछूत बच्चों के सामूहिक रूप से बैठने और खेलने-कूदने पर प्रतिबन्ध, प्यास लगने पर स्वयं नल खोलकर पानी पीने की पाबन्दी इत्यादि। इन सबसे अम्बेडकर का मनोमस्तिष्क काफी आक्रोशित हुआ एवं उनके अन्तर्मन में बचपन से ही इन कुरीतियों का डटकर सामना करने की प्रवृत्ति जगी। 1904 में आपके पिताजी सेवानिवृति पश्चात बम्बई चले आए और अम्बेडकर का प्रवेश एलफिन्स्टन हाईस्कूल में करा दिया एवं अगले वर्ष 1905 में मात्र 14 वर्ष की उम्र में 9 वर्ष की अबोध कन्या रामाबाई के साथ इनका विवाह कर दिया। यद्यपि शहरी माहौल होने के कारण यहाँ पर जाति-पात की भावना उतनी कठोर नहीं थी पर फिर भी इससे पूर्णतया छुटकारा नहीं मिला। उपरोक्त वर्णित ब्लैकबोर्ड वाली घटना यहीं पर घटित हुई थी। पर इससे भी आप विचलित नहीं हुये और 1907 में प्रथम श्रेणी में हाईस्कूल परीक्षा उतीर्ण की। निश्चिततः एक अछूत विद्यार्थी की यह उपलब्धि काफी मायने रखती थी सो सत्यशोधक समाज ने अम्बेडकर को सम्मानित करने का फैसला किया और पुरस्कारस्वरूप बुद्ध के जीवन पर आधारित एक किताब भेंट की। यहीं से अम्बेडकर के मन में बौद्ध धर्म के प्रति खिंचाव पैदा होना आरम्भ हो गया।
अम्बेेडकर की प्रतिभा से प्रभावित होकर बड़ौदा के महाराजा शिवाजी राव ने उन्हें छात्रवृत्ति के रूप में 25 रूपये मासिक देना आरम्भ कर दिया। बी0 ए0 करने के पश्चात अम्बेडकर बड़ौदा राज्य में ही नौकरी करने लगे। इस बीच बड़ौदा के महाराजा द्वारा प्राप्त छात्रवृत्ति की सहायता से उन्होंने 1913 में अमेरिका के कोलम्बिया विश्वविद्यालय में उच्च शिक्षा के लिए प्रवेश ले लिया। अध्ययन के दौरान ही अमेरिका में निर्वासित जीवन व्यतीत कर रहे लाला लाजपत राय से भी आपकी मुलाकात हुयी एवम् इन दोनों महानुभावों में अक्सर समाज सुधार आन्दोलनों और भारतीय स्वतंत्रता संग्राम पर चर्चा होती। इस बीच वर्ष 1916 में अम्बेडकर ने ‘ब्रिटिश भारत में प्रान्तीय वित्त का विकास’ विषय पर अपनी पी0 एच0 डी0 थीसिस प्रस्तुत की और उसी वर्ष ‘लन्दन स्कूल आॅफ इकानामिक्स’ में शिक्षा ग्रहण करने हेतु वे अमेरिका से लन्दन चले आए। इससे पहले कि वे अर्थशास्त्र में अपना अध्ययन पूरा करते उनकी छात्रवृत्ति समाप्त हो गई और मजबूरन उन्हें फिर से बड़ौदा के महाराज के यहाँ उनके मिलिट््री सेक्रेटरी के रूप में नौकरी शुरू करनी पड़ी। यहाँ भी जातिगत विषमता ने उनका पीछा न छोड़ा और अन्त तक वे एक पारसी होटल में किराये पर टिके रहे। अन्ततः जलालत झेलने की बजाय अपने पद से त्यागपत्र देकर वे पुनः बम्बई चले आए।
जब अम्बेडकर बम्बई आए तो वहाँ समाज सुधार के नाम पर दलित आन्दोलन तीव्रता पकड़ रहा था। 1917 में दलितों के दो सम्मेलन व पुनश्च मार्च 1918 में बडौदा के महाराज शिवाजीराव की अध्यक्षता में बम्बई में ‘अखिल भारतीय दलित सम्मेलन’ का आयोजन हुआ। इन सम्मेलनों में छुआछूत मिटाने और दलितों को उनका हक दिलाने हेतु लम्बे-चैड़े वादे किए गए पर अम्बेडकर को इनका नेतृत्व कर रहे द्विज नेताओं पर भरोसा नहीं था। वे अछूतों के लिये पृथक निर्वाचन के पक्ष में थे। बम्बई प्रवास के दौरान ही आजीविका खातिर आपने 1918 में ‘राजनैतिक अर्थशास्त्र’ के प्रोफेसर रूप में पुनः नौकरी आरम्भ कर दी। प्रतिभावान और मेधावी होने के चलते उनकी कक्षा लोकप्रिय तो अवश्य थी पर द्विज वर्ग के विद्यार्थी उन्हें उचित सम्मान नहीं देते थे एवम् अन्य साथी प्रोफेसर भी छुआछूत की भावना से देखते थे, सो पुनः आपने जलालत झेलने की बजाय त्यागपत्र देना बेहतर समझा। अब अम्बेडकर की अन्तरात्मा जाग चुकी थी पर वे हर अछूत की सोई हुई आत्मा को जगाना चाहते थे। ऐसे में दलित भावनाओं की अभिव्यक्ति के लिये 1920 में ‘मूक नायक’ पत्रिका का सम्पादन आरम्भ किया। इससे पूर्व 1919 में साइमन कमीशन के सम्मुख आप दलित वर्ग के प्रतिनिधि रूप में भी गए थे जहाँ आपने दलितों के लिये जनसंख्या के अनुपात में प्रतिनिधि सभाओं में सीटें आरक्षित करने और पृथक निर्वाचन के पक्ष में जोरदार तर्क दिए। उन्होंने स्पष्टतः कहा कि- ‘‘होमरूल केवल ब्राह्मणों का ही नहीं, महारों का भी जन्मसिद्ध अधिकार है। स्वशासन हो जाने पर भी सवर्णांे की गुलामी से यदि दलितों को मुक्ति नहीं मिली तो ऐसे होमरूल या स्वशासन का कोई अर्थ नहीं। होमरूल से पहले सामाजिक एकता कायम करने की जरूरत है।’’ डाॅ0 अम्बेडकर के तर्कांे को साइमन आयोग ने स्वीकारा और अंततः मुस्लिमों के लिये पृथक निर्वाचन के साथ-साथ दलितों के दो-दो प्रतिनिनिधियों को भी धारा सभाओं और केन्द्रीय सभा में मनोनीत करने की बात स्वीकार कर ली। निश्चिततः डाॅ0 अम्बेडकर की यह प्रथम राजनैतिक विजय थी। इस बीच कोल्हापुर में साहू महाराज की अध्यक्षता में आयोजित दलित सम्मेलन में भी अम्बेडकर ने भागीदारी की पर उनकी राय मेें ज्ञान और शक्ति के बिना दलित और अछूत कोई प्रगति नहीं कर सकते। सितम्बर 1920 में कोल्हापुर के महाराज साहूजी छत्रपति द्वारा प्राप्त आर्थिक सहायता से आपने पुनः लन्दन स्कूल आॅफ इकाॅनामिक्स में प्रवेश ले लिया और साथ-ही-साथ वकालत की पढ़ाई भी करने लगे। इस बीच अम्बेडकर ने विश्व के तीन प्रतिष्ठित अमरीकी, अंग्रेजी विश्वविद्यालयों से डिग्री प्राप्त की और एक साथ ही इतिहास, राजनीतिशास्त्र, अर्थशास्त्र, कानून और संविधान के प्रख्यात विद्वान बन गए। कहा जाता है कि अम्बेडकर को अध्ययन में इतनी गहरी रूचि थी कि 1930 के गोलमेज सम्मेलन के दौरान वे 32 बक्से किताबें खरीदकर भारत आए। याद कीजिए राहुल सांकृत्यायन का तिब्बत से खच्चरों पर लादकर बौद्ध साहित्य का लाना।
डाॅ0 अम्बेडकर पर बुद्ध, कबीरदास और ज्योतिबाफुले की अमिट छाप पड़ी थी। बुद्ध से उन्होंने शारीरिक व मानसिक शान्ति का पाठ लिया, कबीर से भक्ति मार्ग तो ज्योतिबाफुले से अथक संघर्ष की प्रेरणा। यही नहीं अमेरिका और लन्दन में अध्ययन के दौरान वहाँ के समाज, परिवेश व संविधान का भी आपने गहन अध्ययन किया और उसे भारतीय परिवेश में उतारने की कल्पना की। अमेरिका के 14वंे संविधान संशोधन जिसके द्वारा काले नीग्रांे को स्वाधीनता के अधिकार प्राप्त हुए, से वे काफी प्रभावित थे और इसी प्रकार दलितों व अछूतों को भी भारत में अधिकार दिलाना चाहते थे। 20 मार्च 1927 को महाड़ में आपने दलितों का एक विशाल सम्मेलन बुलाया और उनकी अन्तरात्मा को झकझोरते हुए अपने पैरों पर खड़ा होने और स्वचेतना से स्वाभिमान व सम्मान पैदा करने की बात कही। उन्होंने दलितों का आह्यन किया कि वे सरकारी नौकरियों में बढ़-चढ़कर भाग लें वहीं दूसरी तरफ यह भी कहा कि- ‘‘अपना घर-बार त्यागो, जंगलों की तरफ भागो और जंगलों पर कब्जा कर उसे कृषि लायक बनाकर अपना अधिकार जमाओ।’’ अम्बेडकर के इस भाषण पश्चात सदियों से दमित दलित चेतना ने हुंकार भरी और वे सार्वजनिक स्थलों पर अपना अधिकार जताने निकल पड़े पर साम्प्रदायिक तत्वों को ये दलित चेतना अच्छी न लगी और उन्होंने वहाँ स्थित वीरेश्वर मंदिर पर अछूतों के कब्जे की बात फैला दी। नतीजन, इस घटना ने चिंगारी की भांति फैलकर पूरे महाराष्ट््र में उग्र रूप धारण कर लिया और लोगों ने पुलिस के सामने दलितों पर जमकर हमले किए और उनकी जमीन इत्यादि छीनने लगे। यहाँ तक कि स्वयं अम्बेडकर ने एक पुलिस स्टेशन में शरण ली। इस घटना के पश्चात अम्बेडकर ने कठोर रूप अख्तियार करते हुए सत्याग्रह की धमकी दी और दलितों से अपने अधिकारों की प्राप्ति हेतु मर मिटने की अपील की। अन्ततः मजबूर होकर महाराष्ट््र में दलितों के सार्वजनिक स्थलों पर प्रवेश में बाधा डालने वालों को दण्डित करने का कानून बना। इस आन्दोलन से रातोंरात डाॅ0 अम्बेडकर दलितों के सर्वमान्य नेता के रूप में उभरकर सामने आए।
डाॅ0 अम्बेडकर का स्पष्ट मानना था कि राजनैतिक स्वतंत्रता से पूर्व सामाजिक एवं आर्थिक समानता जरूरी है। महात्मा गाँधी और डाॅ0 अम्बेडकर दोनों ने ही जाति व्यवस्था की कुरीतियों को समाप्त करने की बात कही पर जहाँ डाॅ0 अम्बेडकर का मानना था कि सम्पूर्ण जाति व्यवस्था को समाप्त करके ही बुराइयों को दूर किया जा सकता है वहीं महात्मा गाँधी के मत में शरीर में एक घाव मात्र हो जाने से पूरे शरीर को नष्ट कर देना उचित नहीं अर्थात पूरी जाति व्यवस्था को खत्म करने की बजाय उसकी बुराईयों मात्र को खत्म करना उचित होता। डाॅ0 अम्बेडकर के मत में मनुस्मृति से पूर्व भी जाति प्रथा थी। मनुस्मृति ने तो मात्र इसे संहिताबद्ध किया और दलितों पर राजनैतिक, सामाजिक, आर्थिक व धार्मिक दासता लाद दी। डाॅ0 अम्बेडकर चातुर्वर्ण व्यवस्था को संकीर्ण सिद्धान्त मानते थे जो कि विकृत रूप में सतहबद्ध गैरबराबरी का रूप है। उन्होंने शूद्रों को आर्यांे का ही अंग मानते हुए प्रतिपादित किया कि इण्डो-आर्यन समाज में ब्राह्मणों ने दण्डात्मक विधान द्वारा कुछ लोगों को शूद्र घोषित कर दिया और उन्हें घृणित सामाजिक जीवन जीने के लिए मजबूर कर दिया। नतीजन, शूद्र चातुर्वर्ण की अन्तिम जाति न रहकर नीची जातियाँ घोषित हो र्गइं। इसीलिए वे हिन्दू समाज के उत्थान हेतु दो तत्व आवश्यक मानते थे- प्रथम, समानता और द्वितीय, जातीयता का विनाश। इसी के अनुरूप उन्होंने प्रथम गोलमेज सम्मेलन में सुझाव दिया कि अछूतों को गैर जातीय हिन्दू अथवा प्रोटेस्टेण्ट हिन्दू के रूप में मान्यता दी जाय। उनका कहना था कि - ‘‘अछूत हिन्दुओं के तत्व नहीं हंै बल्कि भारत की राष्ट््रीय व्यवस्था में एक पृथक तत्व हैं जैसे मुसलमान।’’ डाॅ0 अम्बेडकर गाँधी जी के ‘हरिजन’ शब्द से नफरत करते थे क्योंकि दलितों की स्थिति सुधारे बिना धर्म की चाशनी में उन्हें ईश्वर के बन्दे कहकर मूल समस्याओं की ओर से ध्यान मोड़ने का गाँधी जी का यह नापाक नुस्खा उन्हें कभी नहीं भाया। उन्होंने गाँधी जी के इस कदम पर सवाल भी उठाया कि- ‘‘सिर्फ अछूत या शूद्र या अवर्ण ही हरिजन हुए, अन्य वर्णों के लोग हरिजन क्यों नहीं हुए? क्या अछूत हरिजन घोषित करने से अछूत नहीं रहेगा? क्या मैला नहीं उठायेगा? क्या झाडू़ नहीं लगाएगा? क्या अन्य वर्ण वाले उसे गले लगा लेंगे? क्या हिन्दू समाज उसे सवर्ण मान लेगा? क्या उसे सामाजिक समता का अधिकार मिल जायेगा? हरिजन तो सभी हैं, लेकिन गाँधी ने हरिजन को भी भंगी बना डाला। क्या किसी सवर्ण ने अछूतों को हरिजन माना? सभी ने भंगी, मेहतर माना। जिस प्रकार कोई राष्ट््र अपनी स्वाधीनता खोकर धन्यवाद नहीं दे सकता, कोई नारी अपना शील भंग होने पर धन्यवाद नहीं देती फिर अछूत कैसे केवल नाम के लिए हरिजन कहलाने पर गाँधी को धन्यवाद कर सकता है। यह सोचना फरेब है कि ओस की बूँदांे से किसी की प्यास बुझ सकती है।’’ अम्बेडकर का मानना था कि वर्ण व्यवस्था का सीधा दुष्प्रभाव भले ही दलितों व पिछड़ों मात्र पर दिखता है पर जब इसी सामाजिक विघटन के कारण देश गुलाम हुआ तो सवर्ण भी बिना प्रभावित हुए नहीं रह सके।
डाॅ0 अम्बेडकर अपनी योग्यता की बदौलत सन् 1942 में वायसराय की कार्यकारी परिषद के सदस्य भी बने एवम् कालान्तर में संविधान सभा के सदस्य भी चुने गये। संविधान सभा की प्रारूप समिति के अध्यक्ष रूप में आपने संविधान का पूरा खाका खींचा और उसमें समाज के दलितांे व पिछड़े वर्गांे की बेहतरी के लिए भी संवैधानिक प्रावधान सुनिश्चित किए। स्वतंत्रता पश्चात डाॅ0 अम्बेडकर भारत के प्रथम कानून मंत्री भी बने पर महिलाओं को सम्पति में बराबर का हिस्सा देने के लिये उनके द्वारा संसद में पेश किया गया ‘हिन्दू कोड बिल’ निरस्त हो जाने से वे काफी आहत हुए और 10 अक्टूबर 1951 को मंत्रिमण्डल से त्यागपत्र दे दिया। त्यागपत्र देते समय उन्हांेनेे कहा था कि- ‘‘भारत के प्रधानमंत्री द्वारा मुझे बुलाकर मंत्री पद देने की पेशकश और कानून मंत्री बनाने का निमन्त्रण आश्चर्यजनक था, क्योंकि मै तो विपक्ष में था। मुझे खुद ही संदेह था कि अब तक मैं जिनके विरोध में था, उनके साथ कैसे काम कर सकूगाँ? मुझे अपनी योग्यता के बारे में भी संदेह था कि क्या मैं अपने पूर्ववर्ती कानून मंत्रियों जैसा हूँ? फिर भी मैंने अपने संदेह को ताक पर रखकर प्रधानमंत्री के प्रस्ताव को इसलिए स्वीकार कर लिया कि देश के नवनिर्माण हेतु मुझमें जितनी भी क्षमता है उसके अनुरूप असहयोग करना चाहिए।’’ 1954 में राज्य सभा में अनुसूचित जाति व जनजाति आयुक्त की रिपोर्ट पर उन्होंने कहा था कि- ‘‘आप पुनः नमक के ऊपर टैक्स लगा दें। यह टैक्स बहुत मामूली था। उस समय जब इसे समाप्त किया गया तो इस मद से 10 करोड़ रूपये आते थे। अब यह 20 करोड़ पर पहुँच सकता है। चूँकि गाँधी जी के नेतृत्व में इस टैक्स के खिलाफ लड़ाई लड़ी गई थी इसलिए उनकी याद में इसे समाप्त किया गया। मैं उनकी दिल से इज्जत करता हूँ। इसलिए मेरा सुझाव है कि इस टैक्स को फिर से लगावें और उनकी याद में उसी पैसे से गाँधी ट््रस्ट फण्ड बनाकर दलितों के उद्धार और पुनर्वास पर इसे खर्च करें।’’ डाॅ0 अम्बेडकर दूरदृष्टा और विचारों से क्रांतिकारी थे तथा सभी धर्मों के तुलनात्मक अध्ययन पश्चात वे बौद्ध धर्म की ओर उन्मुख हुए। एक ऐसा धर्म जो मानव को मानव के रूप में देखता था, किसी जाति के खाँचे में नहीं। एक ऐसा धर्म जो धम्म अर्थात नैतिक आधारों पर अवलम्बित था न कि किन्हीं पौराणिक मान्यताओं और अंधविश्वास पर। अम्बेडकर बौद्ध धर्म के ‘आत्मदीपोभव’ से काफी प्रभावित थे और दलितों व अछूतों की प्रगति के लिये इसे जरूरी समझते थे। 1935 में नासिक जिले के भेवले में आयोजित महार सम्मेलन में ही अम्बेडकर ने घोषणा कर दी थी कि- ‘‘आप लोगों को यह जानकर आश्चर्य होगा कि मैं धर्म परिवर्तन करने जा रहा हूँ। मैं हिन्दू धर्म में पैदा हुआ, क्योेंकि यह मेरे वश में नहीं था लेकिन मैं हिन्दू धर्म में मरना नहीं चाहता। इस धर्म से खराब दुनिया में कोई धर्म नहीं है इसलिए इसे त्याग दो। सभी धर्मों में लोग अच्छी तरह रहते हैं पर इस धर्म में अछूत समाज से बाहर हैं। स्वतंत्रता और समानता प्राप्त करने का एक रास्ता है धर्म परिवर्तन। यह सम्मेलन पूरे देश को बतायेगा कि महार जाति के लोग धर्म परिवर्तन के लिये तैयार हैं। महार को चाहिए कि हिन्दू त्यौहारों को मनाना बन्द करें, देवी देवताओं की पूजा बन्द करें, मंदिर में भी न जायें और जहाँ सम्मान न हो उस धर्म को सदा के लिए छोड़ दें।’’ अम्बेडकर की इस घोषणा पश्चात ईसाई मिशनरियों ने उन्हें अपनी ओर खींचने की भरपूर कोशिश की और इस्लाम अपनाने के लिये भी उनके पास प्रस्ताव आये। कहा जाता है कि हैदराबाद के निजाम ने तो इस्लाम धर्म अपनाने के लिये उन्हें ब्लैंक चेक तक भेजा था पर अम्बेडकर ने उसे वापस कर दिया। वस्तुतः अम्बेडकर एक ऐसा धर्म चाहते थे, जिसकी जड़ें भारत में हों। अन्ततः 24 मई 1956 को बुद्ध की 2500 वीं जयन्ती पर अम्बेडकर ने बौद्ध धर्म में दीक्षा लेने की घोषणा कर दी और अक्टूबर 1956 में दशहरा के दिन नागपुर में हजारों शिष्यों के साथ उन्होंने बौद्ध धर्म को स्वीकार कर लिया। उन्होंने बौद्ध धर्म अपनाने के पीछे भगवान बुद्ध के एक उपदेश का हवाला भी दिया- ‘‘हे भिक्षुओं! आप लोग कई देशों और जातियों से आये हुए हैं। आपके देश-प्रदेश में अनेक नदियाँ बहती हैं और उनका पृथक अस्तित्व दिखाई देता है। जब ये सागर में मिलती हंै, तब अपने पृथक अस्तित्व को खो बैठती हैं और समुद्र में समा जाती हैं। बौद्ध संघ भी समुद्र की ही भांति है। इस संघ में सभी एक हैं और सभी बराबर हैं। समुद्र में गंगा या यमुना के मिल जाने पर उसके पानी को अलग पहचानना कठिन है। इसी प्रकार आप लोगों के बौद्ध संघ में आने पर सभी एक हैं, सभी समान हैं।’’ बौद्ध धर्म ग्रहण करने के कुछ ही दिनांे पश्चात 6 दिसम्बर 1956 को डाॅ0 अम्बेडकर ने नश्वर शरीर को त्याग दिया पर ‘आत्मदीपोभव’ की तर्ज पर समाज के शोषित, दलित व अछूतों के लिये विचारों की एक पुंज छोड़ गए। उनके निधन पर तत्कालीन प्रधानमंत्री पं0 जवाहरलाल नेहरू ने लोकसभा में श्रद्धांजलि व्यक्त करते हुए कहा था कि- ‘‘डाॅ0 अम्बेडकर हमारे संविधान निर्माताओं में से एक थे। इस बात में कोई संदेह नहीं कि संविधान को बनाने में उन्होंने जितना कष्ट उठाया और ध्यान दिया उतना किसी अन्य ने नहीं दिया। वे हिन्दू समाज के सभी दमनात्मक संकेतों के विरूद्ध विद्रोह के प्रतीक थे। बहुत मामलों में उनके जबरदस्त दबाव बनाने तथा मजबूत विरोध खड़ा करने से हम मजबूरन उन चीजों के प्रति जागरूक और सावधान हो जाते थे तथा सदियों से दमित वर्ग की उन्नति के लिये तैयार हो जाते थे।’’
- कृष्ण कुमार यादव