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बुधवार, 30 अप्रैल 2014

लोकतंत्र का यह त्यौहार




वोट आपकी ताकत है, 
वोट देश की चाहत है। 
वोट सबका अधिकार है, 
बनाता यह सरकार है। 

लोकतंत्र का यह त्यौहार,
मनाओ जैसे उत्सव-मेला।
करो न इसमें कोई कोताही, 
पाँच साल में आती यह बेला।

बंद करो अब शोर मचाना, 
मतदान केंद्र, सुबह पहुँच जाना।
अपनी पसन्द का बटन दबाना, 
किसी के भुलावे में नहीं आना। 


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कृष्ण कुमार यादव

गुरुवार, 24 अप्रैल 2014

लोकतंत्र का महापर्व : खुद वोट दें और दूसरों को भी प्रेरित करें


दान भारतीय संस्कृति की पहचान है। इसे जीवन मुक्ति का मार्ग माना जाता है। मान्यता है कि इससे इहलोक और परलोक दोनों सुधर जाता है। लेकिन  जब यही बात लोकतंत्र के महापर्व के लिए ’मत’दान की आती है, तब  लोग अपने विवेक का इस्तेमाल नहीं करते या मतदान करने ही नहीं जाते । मतदान अधिकार ही नहीं पुनीत कर्तव्य  है। इसके माध्यम से हम अपने जन प्रतिनिधियों को न सिर्फ चुनते और सचेत करते हैं, बल्कि देश के नीति निर्धारण में अपनी भागीदारी सुनिश्चित करते हैं। युवा देश के कर्णधार हैं, उनकी इस चुनाव में अहम भूमिका है। यदि हम घरों, चौपालों में बैठकर या  सोशल मीडिया के माध्यम से व्यवस्था को कोसते रहेंगे तो इससे भला नहीं होगा। इसलिए खुद वोट दें और दूसरों को भी प्रेरित करें !!

कृष्ण कुमार यादव
निदेशक डाक सेवाएं
इलाहाबाद परिक्षेत्र, इलाहाबाद (उ.प्र.)-211001

( साभार : हिन्दुस्तान, 24 अप्रैल 2014)

रविवार, 20 अप्रैल 2014

Solah Aane Solah Log : A selective chronicle of Who’s Who in Indian literature



"Solah Aane Solah Log by Krishna Kumar Yadav is a selective chronicle of Who’s Who in Indian literature (Hindi & regional). Selective because it resorts to a limited list of 16 luminaries in Hindi Sahitya and thus conceiving upon the title – Solah Aane Solah Log (Solah Aana among Hindi dialect means complete, cent percent or unquestionable being). What sets apart this book from others in the category is that ..."

                               

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शनिवार, 19 अप्रैल 2014

हिंदी एक वैज्ञानिक भाषा : हिंदी भाषियों का दिमाग ज्यादा तंदुरुस्त


हिंदी एक वैज्ञानिक भाषा है, और कोई भी अक्षर वैसा क्यूँ है उसके पीछे कुछ कारण हैं। अंग्रेजी भाषा में ये बात देखने में नहीं आती। गौर कीजियेगा -
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क, ख, ग, घ, ङ- कंठव्य कहे गए,
क्योंकि इनके उच्चारण के समय 
ध्वनि 
कंठ से निकलती है। 
एक बार बोल कर देखिये।

च, छ, ज, झ,ञ- तालव्य कहे गए, 
क्योंकि इनके उच्चारण के 
समय जीभ 
तालू से लगती है।
एक बार बोल कर देखिये।

ट, ठ, ड, ढ , ण- मूर्धन्य कहे गए, 
क्योंकि इनका उच्चारण जीभ के 
मूर्धा से लगने पर ही सम्भव है। 
एक बार बोल कर देखिये।


त, थ, द, ध, न- दंतीय कहे गए, 
क्योंकि इनके उच्चारण के 
समय 
जीभ दांतों से लगती है। 
एक बार बोल कर देखिये।

प, फ, ब, भ, म,- ओष्ठ्य कहे गए, 
क्योंकि इनका उच्चारण ओठों के 
मिलने 
पर ही होता है। एक बार बोल 
कर देखिये ।
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हम अपनी भाषा पर गर्व करते हैं, ये सही है परन्तु लोगो को इसका कारण भी बताईये।इतनी वैज्ञानिकता दुनिया की किसी भाषा में नहीं है !!


वैसे हिंदी स्वास्थ्य और मानसिक विकास के लिए भी अहम् है।  
पढ़िए यह रिपोर्ट -हिंदी भाषियों का दिमाग ज्यादा तंदुरुस्त.


- कृष्ण कुमार यादव 



मंगलवार, 1 अप्रैल 2014

मुंशी प्रेमचंद के 'लमही' में



मुंशी प्रेमचंद को पढ़ते हुए हम  सब बड़े हो  गए।  उनकी रचनाओं से बड़ी  आत्मीयता महसूस होती है।  ऐसा लगता है जैसे इन रचनाओं के  पात्र हमारे आस-पास ही मौजूद हैं। पिछले दिनों बनारस गया तो मुंशी प्रेमचंद की जन्मस्थली लमही भी जाने का सु-अवसर प्राप्त हुआ। मुंशी प्रेमचंद स्मारक लमही, वाराणसी के पुस्तकालय हेतु हमने अपनी पुस्तक '16 आने 16 लोग' भी भेंट की, संयोगवश इसमें एक लेख प्रेमचंद के कृतित्व पर भी शामिल है। 

लमही गॉंव में एक ऊंचा प्रवेश द्वार और अगल-बगल खडे़ प्रेमचंद की रचनाओं को इंगित करते पत्‍थर के बैल, होरी जैसे किसान और बूढ़ी काकी जैसी कुछ पथरीली मूर्तियाँ बताती हैं कि यह उपन्यास सम्राट प्रेमचंद का गाँव है।  वही गाँव जहाँ से प्रेमचंद ने साहित्य को नए  दिए और अपने आस-पास के परिवेश से पात्रों को उठाकर हमेशा के लिए जिन्दा कर दिया। अभी भी प्रेमचंद के खानदान के कुछेक लोग यहाँ रहते हैं, पर उनकी परम्परा से उनका कोई लेना-देना नहीं। प्रेमचंद के परिवारीजन लमही को कब का छोड़ चुके हैं।  हाँ, वे 'लमही'  नाम से एक पत्रिका का प्रकाशन जरुर करते हैं। लमही की मुंशी प्रेमचंद स्मारक भवन एवं विकासीय योजना समिति उनकी जयंती को 1978 से लगातार मनाती आ रही है।

बहुत पहले अख़बारों में पढ़ा था कि, वह दिन दूर नहीं जब आप लमही में बैठकर कथा सम्राट मुंशी प्रेमचंद को पढ़ सकेंगे बल्कि उनके व्यक्तित्व व कृतित्व पर शोध भी कर सकेंगे। यहां उपलब्ध होंगी कथा सम्राट की रचनाओं संग अन्य विद्वानों की भी रचनाएं। दरअसल लमही में मुंशी प्रेमचंद की स्मृति में 'मुंशी प्रेमचंद स्मारक शोध एवं अध्ययन केंद्र' भवन के निर्माण की कवायद शुरू हो गई है। नींव की खोदाई केंद्रीय सार्वजनिक निर्माण विभाग (सीपीडब्ल्यूडी) ने शुरू कर दी है। शोध संस्थान की रूपरेखा बीएचयू के जिम्मे है और इस निमित्त दो करोड़ रुपये भी मिले हैं। मुंशीजी के नाम पर 2.49 हेक्टेयर (2490 वर्ग मीटर) पर संस्थान प्रस्तावित है। जानकारी के मुताबिक इसमें दो तल होंगे। एक कांफ्रेस हाल, अनुसंधान कक्ष, ग्रंथालय व निदेशक कक्ष आदि बनाया जाना प्रस्तावित है। कहा गया कि संस्थान निर्माण से मुंशीजी के वे पहलू भी सामने आ सकेंगे जो अब तक लोगों से दूर हैं। इस सब हेतु मुंशीजी की 131वीं जयंती पर 29 जुलाई 2011 को लमही में आयोजित समारोह राज्य सरकार की ओर से औपचारिक रूप से भूमि बीएचयू को हस्तांतरित की गई थी। 

पर हालात तो कुछ दूसरे ही हैं। मुंशी प्रेमचंद का लमही, बनारस स्थित पैतृक निवास स्थल का बोर्ड लगाकर  भवन भले ही भव्य बन गया हो, पर अंदर पूरा सन्नाटा है। यहाँ प्रेमचंद स्मारक तथा अध्ययन केंद्र एवं शोध संस्थान बनाने के लिए शिलान्यास 31 जुलाई 2005 को ही हो चुका है, पर स्थिति सिवाय भवन निर्माण के अलावा शून्य है। इसके  बगल में ही मुंशी प्रेमचंद स्मारक लमही लिखा गेट दिखता है। इसका पूरा दारोमदार सामाजिक संस्था प्रेमचंद स्मारक न्यास लमही के अध्यक्ष सुरेशचंद्र दुबे पर है, जो इसकी साफ-सफाई से लेकर आगंतुकों को अटेंड करने और फिर उन्हें प्रेमचंद के बारे में बताने का कार्य करते हैं।  एक कमरे को पुस्तकालय का रूप देते हुए उन्होंने  प्रेमचंद की अनेक प्रकाशित किताबें सहेजी हैं, और इसके साथ ही उनकी तस्‍वीरें और तरह-तरह की चीजें जिससे प्रेमचंद की जीवन शैली प्रतिबिंबित हो सके।  यहाँ पर प्रेमचंद के हुक्के से लेकर उनका चरखा तक रखा हुआ है। सुरेशचंद्र दुबे बड़ी तल्लीनता से एक-एक चीजें दिखाते हैं - तमाम साहित्यकारों पर जारी  डाक-टिकट, प्रेमचंद के साथ साहित्यकारों के यादगार फोटो, और फिर वर्त्तमान में चल रही गतिविधियों को संजोते चित्र।  मुंशी प्रेमचंद की वंशावली उन्होंने सहेज कर रखी है। वे बताते हैं कि प्रेमचंद के पिताजी डाक-मुंशी थे और इसके अलावा उनके पिताजी के अन्य दो भाई भी डाक विभाग में ही कार्यरत थे।  

प्रेमचंद ने खूब लेखनी चलाई और समाज को एक नई  दिशा भी दिखाई। पर जिस तरह से उनके नाम पर बन रहे स्मारक में लेट-लतीफी दिखती है , वह चिंताजनक है।  आखिर हम  कब अपने साहित्यकारों और कलाकारों की स्मृतियों को करीने से सहेजना  शुरू करेंगे। सुरेशचंद्र दुबे वहाँ तमाम पत्रिकाओं के अंक भी प्रदर्शित करने की कोशिश करते हैं, पर उनकी आर्थिक स्थिति इसमें आड़े आती है। हमने उनसे वादा किया कि अपने संग्रह से तमाम पत्र -पत्रिकाओं की प्रतियां और कुछेक पुस्तकें उनके पास भिजवाएंगे और अन्य लोगों को भी प्रेरित करेंगें !!