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मंगलवार, 2 अक्तूबर 2012
आज भी प्रासंगिक हैं महात्मा गाँधी के विचार
विश्व पटल पर महात्मा गाँधी सिर्फ एक नाम नहीं अपितु शान्ति और अहिंसा का प्रतीक है। महात्मा गाँधी के पूर्व भी शान्ति और अहिंसा की अवधारणा फलित थी, परन्तु उन्होंने जिस प्रकार सत्याग्रह एवं शान्ति व अहिंसा के रास्तों पर चलते हुये अंगे्रेजों को भारत छोड़ने पर मजबूर कर दिया, उसका कोई दूसरा उदाहरण विश्व इतिहास में देखने को नहीं मिलता। तभी तो प्रख्यात वैज्ञानिक आइंस्टीन ने कहा था कि -‘‘हजार साल बाद आने वाली नस्लें इस बात पर मुश्किल से विश्वास करेंगी कि हाड़-मांस से बना ऐसा कोई इन्सान धरती पर कभी आया था।’’ संयुक्त राष्ट्र संघ ने वर्ष 2007 से गाँधी जयन्ती को ‘विश्व अहिंसा दिवस’ के रूप में मनाये जाने की घोषणा करके शान्ति व अहिंसा के पुजारी महात्मा गाँधी के विचारों की प्रासंगिकता को एक बार पुनः सिद्ध कर दिया है।
जब गाँधी जी दक्षिण अफ्रीका से सत्याग्रह का अभ्युदय करके भारत लौटे तो वे इंग्लैड से बैरिस्टरी पास कर लौटे ऐसे ऐसे धनी व्यक्ति थे, जिसकी सालाना आय करीब 5,000 पाउण्ड थी। भारत की धरती पर प्रवेश करते ही उन्हें लगा कि अंग्रेजों के दमन का शिकार भारतीयों को काला कोट पहने फर्राटे से कोर्ट में अंग्रेजी बोलने वाले मोहनदास करमचंद गाँधी की नहीं वरन् एक ऐसे व्यक्ति की जरूरत है जो उन्हीं के पहनावे में, उन्हीं की बोली में, उन्हीं के बीच रहकर, उनके लिए संघर्ष कर सके। ऐसे में गाँधी जी ने अपनी पहली उपस्थिति अप्रैल 1917 में चम्पारन, बिहार में नील के खेतों में काम करने वाले किसानों हेतु सत्याग्रह करके दर्ज करायी पर अखिल भारतीय स्तर पर उनका उद्भव 1919 के खिलाफत आन्दोलन व फिर असहयोग आन्दोलन से हुआ। 1919 से आरम्भ इस दौर को भारतीय राष्ट्रीय स्वाधीनता आन्दोलन में ‘गाँधी युग’ के नाम से जाना जाता है। गाँधी जी ने न केवल उस समय चल रही उदार व उग्र विचारधाराओं के उत्तम भागों का समन्वय किया बल्कि दोनों को एक अधिक गतिशील और व्यावहारिक मोड़ दिया। 5 फरवरी 1922 को चैरीचैरा काण्ड के बाद बीच में ही असहयोग आन्दोलन वापस लेकर गाँधी जी ने यह जता दिया कि वे हिंसा की बजाय अहिंसक तरीकों से भारत की आजादी चाहते हैं। असहयोग आन्दोलन से जहाँ जनमानस में अंग्रेजी हुकूमत का खौफ खत्म हो गया वहीं जनसमूह गाँधी जी के पीछे उमड़ पड़ा। इसके बाद तो सिलसिला चल निकल पड़ा, आगे-आगे गाँधी जी और उनके पीछे पूरा कारवां। जाति-धर्म-भाषा-क्षेत्र से परे इस कारवां में पुरुष व महिलायें एक स्वर से जुड़ते गये। 1920-22 के असहयोग आन्दोलन, 1930-34 के सविनय अवज्ञा आन्दोलन, 1940-41 के व्यक्तिगत सविनय अवज्ञा आन्दोलन और 1942 के भारत छोड़ो आन्दोलन द्वारा गाँधी जी ने अंग्रेजी हुकूमत को जता दिया कि भारत की स्वतंत्रता न्यायपूर्ण है और भारत में अंग्रेजी राज्य की समाप्ति आवश्यक है। 1942 के भारत छोड़ो आन्दोलन ने तो अंग्रेजी हुकूमत की चूलें हिला दीं। उस दौरान ब्रिटिश प्रधानमंत्री विन्स्टन चर्चिल से वार्ता पश्चात सम्राट जार्ज षष्ठम् ने अपनी डायरी में दर्ज किया था कि-‘‘ विन्स्टन चर्चिल ने मुझे यह कहकर आश्चर्यचकित कर दिया है कि उनके सभी सहयोगी और संसद के तीनों दल युद्ध के पश्चात् भारत को भारतीयों के हाथों में छोड़ने को उद्यत हैं। क्रिप्स, समाचार पत्र और अमरीकी लोकमत- सभी ने उनके मन में यह भावना भर दी है कि हमारा भारत पर राज्य करना गलत है और सदैव से भारत के लिए भी गलत रहा है।’’ इस प्रकार 15 अगस्त 1947 को आजादी प्राप्त कर गाँधी जी ने समूचे विश्व को दिखा दिया कि हिंसा जो सभ्य समाज के अस्तित्व को नष्ट करने का खतरा उत्पन्न करती है, का विकल्प ढूँढ़ने के लिए स्वयं की पड़ताल करने का भी एक प्रयास होना चाहिए।
आज गाँधी जी सिर्फ भारत की भूमि तक ही सीमित नहीं बल्कि समग्र विश्व-धारा में व्याप्त हैं। उनके दिखाये गये रास्ते पर चलकर न जाने कितने राष्ट्रों ने अपनी स्वाधीनता पायी है। यह अनायास ही नहीं है कि गाँधी जी को पाँच बार 1937, 1938, 1939, 1947 व 1948 में नोबेल शान्ति पुरस्कार के लिये नामित किया गया। यह एक अलग बहस का विषय है कि किन कारणों से उन्हें नोबेल पुरस्कार नहीं दिया गया पर कालान्तर में गाँधी जी के सिद्धान्तों पर चलकर उन्हें अपना प्रेरणास्रोत मानने वाले कई लोगों को नोबेल शान्ति पुरस्कार से सम्मानित किया गया। 1989 में नोबेल शान्ति सम्मान के लिए दलाई लामा के नाम की घोषणा करते हुये नोबेल कमेटी के सदस्यों ने गाँधी जी को नोबेल सम्मान नहीं देने पर अफसोस जताया और कमेटी के अध्यक्ष ने कहा कि दलाई लामा को यह सम्मान दिया जाना गाँधी जी की स्मृति को श्रद्धांजलि देने का प्रयास है। इसी प्रकार 1984 व 1993 में क्रमशः डेसमण्ड टूटू व नेल्सन मण्डेला को नोबेल शान्ति पुरस्कार से सम्मानित किया गया, जिन्होंने गाँधी जी को प्रेरणास्रोत मानते हुये दक्षिण अफ्रीका में वर्णभेद व रंगभेद की खिलाफत की थी।
आज गाँधी जी के विचार पूरे विश्व में सर्वग्राह्य हैं। कभी आर्नल्ड टाॅयनबी ने कहा था - ‘‘मैं जिस पीढ़ी में पैदा हुआ, वह पीढ़ी पश्चिम में केवल हिटलर अथवा स्तालिन की ही पीढ़ी नहीं थी अपितु भारत में गाँधी जी की भी पीढ़ी थी। हम निश्चयपूर्वक यह भविष्यवाणी कर सकते हैं कि मानव इतिहास पर गाँधी जी का प्रभाव हिटलर और स्तालिन के प्रभाव से अधिक होगा।’’ आज की नयी पीढ़ी गाँधी जी को एक नए रूप में देखना चाहती है। वह उन्हें एक सन्त के रूप में नहीं वरन् व्यवहारिक आदर्शवादी के रूप में प्रस्तुत कर रही है। ‘लगे रहो मुन्ना भाई’ जैसी फिल्मों की सफलता कहीं-न-कहीं युवाओं का उनसे लगाव प्रतिबिम्बित करती है। आज भी दुनिया भर के सर्वेक्षणों में गाँधी जी को शीर्ष पुरूष घोषित किया जाता है। हाल ही में हिन्दू-सी0 एन0 एन0- आई0 वी0 एन0 द्वारा 30 वर्ष से कम आयु के भारतीय युवाओं के बीच कराए गए एक सर्वेक्षण में 76 प्रतिशत लोगों ने गाँधी जी को अपना सर्वोच्च रोल माॅडल बताया। बी0बी0सी0 द्वारा भारत की स्वतंत्रता के 60 वर्ष पूरे होने पर किये गये एक सर्वेक्षण के मुताबिक आज भी पाश्चात्य देशों में भारत की एक प्रमुख पहचान गाँधी जी हैं। यही नहीं तमाम पाश्चात्य देशों में गाँधीवाद पर विस्तृत अध्ययन हो रहे हैं, तो भारत में सुन्दरलाल बहुगुणा, मेघा पाटेकर, अरूणा राय से लेकर संदीप पाण्डे तक तमाम ऐसे समाजसेवियों की प्रतिष्ठा कायम है, जिन्होंने गाँधीवादी मूल्यों द्वारा सामाजिक आन्दोलन खड़ा करने की कोशिशें कीं। आँकड़े गवाह हैं कि विश्व भर में हर साल गाँधी जी व उनके विचारों पर आधारित लगभग दो हजार पुस्तकों का प्रकाशन हो रहा है एवम् हाल के वर्षांे में गाँधी जी की कृतियों का अधिकार हासिल करने के लिये प्रकाशकों व लेखकों के आवेदनों की संख्या दो गुनी हो गई है। वस्तुतः आज जरूरत गाँधीवाद को समझने की है न कि उसे आदर्श मानकर पिटारे में बन्द कर देने की। स्वयं गाँधी जी का मानना था कि आदर्श एक ऐसी स्थिति है जिसे कभी भी प्राप्त नहीं किया जा सकता बल्कि उसके लिए मात्र प्रयासरत रहा जा सकता है।
संयुक्त राष्ट्र संघ ने गाँधी जयन्ती को ‘विश्व अहिंसा दिवस’ के रूप में मनाये जाने की घोषणा करके शान्ति व अहिंसा के पुजारी महात्मा गाँधी के विचारों की प्रासंगिकता को एक बार पुनः सिद्ध कर दिया है। सत्य, प्रेम व सहिष्णुता पर आधारित गाँधी जी के सत्याग्रह, अहिंसा व रचनात्मक कार्यक्रम के अचूक मार्गों पर चलकर ही विश्व में व्याप्त असमानता, शोषण, अन्याय, भ्रष्टाचार, आतंकवाद, दुराचार, नक्सलवाद, पर्यावरण असन्तुलन व दिनों-ब-दिन बढ़ते सामाजिक अपराध को नियंत्रित किया जा सकता है। गाँधी जी द्वारा रचनात्मक कार्यक्रम के जरिए विकल्प का निर्माण आज पूर्वोत्तर भारत व जम्मू-कश्मीर जैसे क्षेत्रों की समस्याओं, नक्सलवाद व घरेलू आतंकवाद से निपटने में जितने कारगार हो सकते हैं उतना बल-प्रयोग नहीं हो सकता। गाँधी जी दुनिया के एकमात्र लोकप्रिय व्यक्ति थे जिन्होंने सार्वजनिक रूप से स्वयं को लेकर अभिनव प्रयोग किए और आज भी सार्वजनिक जीवन में नैतिकता, आर्थिक मुद्दों पर उनकी नैतिक सोच व धर्म-सम्प्रदाय पर उनके विचार प्रासंगिक हंै। तभी तो भारत के अन्तिम वायसराय लार्ड माउण्टबेन ने कहा था - ‘‘गाँधी जी का जीवन खतरों से भरी इस दुनिया को हमेशा शान्ति और अहिंसा के माध्यम से अपना बचाव करने की राह दिखाता रहेगा।’’
-- कृष्ण कुमार यादव
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2 टिप्पणियां:
गांधीजी का नाम विश्वपटल पर भारत की पहचान है।
गाँधी जी सदैव प्रासंगिक रहेंगें..सुन्दर आलेख..बधाई.
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