खोल देता हूँ खिड़कियों को
बाहर धूप खिल रही है
चारों तरफ हरी मखमल-सी घास
उन पर मोती जैसी ओस की बूँदें
चिड़ियों का कलरव शुरू हो गया
शरीर पर एक शाल डाल
बाहर चला आता हूँ
कुछ दूर तक टहलता हूँ
कितने दिनों बाद
इस सुबह को जी रहा हूँ
कितने एकाकी हो गये हैं हम
बस अपने ही कामों में लगे रहते हैं
शायद इसी तरह किसी दिन
मन की खिड़कियों को भी खोल सकूँ
और फिर देख सकूँ
कि बाहर कितनी धूप है !!
16 टिप्पणियां:
Behad sundar abhivyakti.
शायद इसी तरह किसी दिन
मन की खिड़कियों को भी खोल सकूँ
और फिर देख सकूँ
कि बाहर कितनी धूप है
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लाजवाब लिखा के. के. जी आपने...हर कोई शायद ऐसा ही सोचता है.
शायद इसी तरह किसी दिन
मन की खिड़कियों को भी खोल सकूँ
और फिर देख सकूँ
कि बाहर कितनी धूप है !!
इंतज़ार रहेगा उस दिन का।
सुन्दर अभिव्यक्ति।
शायद इसी तरह किसी दिन
मन की खिड़कियों को भी खोल सकूँ
और फिर देख सकूँ
कि बाहर कितनी धूप है !!
.... बहुत सुन्दर रचना, प्रसंशनीय !!!!
कितने एकाकी हो गये हैं हम
बस अपने ही कामों में लगे रहते हैं
जीवन का एक सच, जिसे आपने कविता के माध्यम से उधृत किया है...प्रशंसनीय है.
कितने एकाकी हो गये हैं हम
बस अपने ही कामों में लगे रहते हैं
जीवन का एक सच, जिसे आपने कविता के माध्यम से उधृत किया है...प्रशंसनीय है.
पोर्टब्लेयर में भले ही धूप खिल रही हो पर इधर तो मौसम अभी भी अलसाया सा है..फ़िलहाल सुन्दर भाव. आपकी सृजनधर्मिता वहां भी कायम रहे.
गंभीर बातों के बाद इतनी सुन्दर कविता पढना सुकून देता है. काश मैं भी पोर्टब्लेयर की तरह यहाँ खूबसूरत मौसम का लुत्फ़ उठा सकती.
सुन्दर सृजन. यहाँ भी-वहां भी. बधाई हमारी भी.
प्रशंशा के योग्य कविता. हमारी बात को निराले अंदाज़ में कहती है.
कवि मन की व्याकुलता झलकती है. प्रस्तुति लाजवाब रही.
शायद इसी तरह किसी दिन
मन की खिड़कियों को भी खोल सकूँ
और फिर देख सकूँ
कि बाहर कितनी धूप है !!
bahut sundar panktiyaan...!!
very much inspiring in very simple way....
आप सभी की टिप्पणियों व स्नेह के लिए आभारी हूँ.
bahut sundar kavita hai thanks
लाजवाब लिखा के. के. जी आपने...हर कोई शायद ऐसा ही सोचता है.
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