हिंदी साहित्य में आजकल रचनाओं की चोरी धड़ल्ले से हो रही है। इसका सबसे आसान जरिया बना है इंटरनेट, जहाँ आपकी रचना के प्रकाशन या सोशल मीडिया पर आपके मौलिक विचारों के प्रस्फुटन के साथ ही कुछेक साहित्यिक चोर धड़ल्ले से उन्हें कॉपी-पेस्ट कर अपने नाम से अन्यत्र प्रकाशित करवा साहित्यकार और लेखक होने का दम्भ भरने लगते हैं। ऐसे लोग एक जगह पकड़े जाते हैं, उनकी लानत-मलानत होती है...पर अपनी आदत से मजबूर फिर वही कार्य दोहराने लगते हैं।
उज्जैन (मध्यप्रदेश) के एक तथाकथित साहित्यकार डॉ. प्रभु चौधरी ने सितंबर, 2016 में मेरे (कृष्ण कुमार यादव) एक लेख "विदेशों में भी पताका फहरा रही है हिंदी" को शीर्षक में कुछ बदलाव कर "विश्व में भी अपनी पहचान बना रही है हिंदी" शीर्षक से अपने नाम से जबलपुर से प्रकाशित "प्राची" पत्रिका के सितंबर अंक में प्रकाशित कराया था। सबसे रोचक बात तो यह रही कि 'प्राची' पत्रिका में ही 4 वर्ष पूर्व मेरा यह लेख प्रकाशित हो चुका था। खैर, पत्रिका के संपादक श्री राकेश भ्रमर ने अगले महीने ही संपादकीय में इस तथाकथित साहित्यकार डॉ. प्रभु चौधरी की जमकर क्लास ली और यह घोषित भी किया कि उसकी रचनाएँ पत्रिका में अब प्रकाशित नहीं की जाएँगी।
और अब पुनः मेरे (कृष्ण कुमार यादव) उसी लेख "विदेशों में भी पताका फहरा रही है हिंदी" को उक्त डॉ. प्रभु चौधरी ने भारत सरकार के राजभाषा विभाग द्वारा प्रकाशित पत्रिका राजभाषा भारती के अप्रैल-जून 2017 अंक में अपने नाम से प्रकाशित कराया है। ऐसी निर्लज्जता पर क्या कहा जाए ? इस प्रकार के साहित्यिक डॉक्टरों का क्या इलाज है ??
ख़ैर, इस मामले को जब हमने सोशल मीडिया पर शेयर किया और तमाम साहित्यिक मित्रों से भी इसकी चर्चा की व साथ में राजभाषा भारती पत्रिका के संपादक को भी लिखा तो उक्त डॉ. प्रभु चौधरी का माफ़ीनामा आया
..........आप भी देखिए, कहीं प्रभु चौधरी जैसे चोर लेखक आपकी रचनाओं और विचारों को अपने नाम से प्रकाशित करवा अपनी पीठ न थपथपा रहे हों !!
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