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रविवार, 17 जून 2012

पिता जी के लिए...

(आज फादर्स-डे है. इसी बहाने मैंने अपने पिता जी से जुडी बातों को सहेजने का प्रयास किया है. पिता जी उत्तर प्रदेश सरकार में वर्ष 2003 में स्वास्थ्य शिक्षा अधिकारी पद से सेवानिवृत्ति पश्चात सम्प्रति रचनात्मक लेखन व अध्ययन, बौद्धिक विमर्श एवं सामाजिक कार्यों में रचनात्मक भागीदारी में प्रवृत्त हैं. मुझे इस मुकाम तक पहुँचाने में उनका बहुत बड़ा योगदान है.)

बचपन में पिता जी के साथ न रहने की कसक-

किसी भी व्यक्ति के जीवन में पिता का बहुत महत्वपूर्ण स्थान होता है. माँ की ममता और पिता की नसीहत..दोनों ही जीवन को एक दिशा देते हैं. मेरा अधिकतर बचपन ननिहाल में गुजरा, बमुश्किल चार साल मैंने अपने पिताजी के साथ लगातार गुजारे होंगें. मेरे जन्म के बाद पिता जी का स्थानांतरण प्रतापगढ़ के लिए हो गया, तो हम मम्मी के साथ ननिहाल में रहे. पुन: पिता जी का स्थानान्तरण आजमगढ़ हुआ तो हम ननिहाल से पिता जी के पास लौट कर आए. कक्षा 2 से कक्षा 5 तक हम पिता जी के साथ रहे, फिर नवोदय विद्यालय में चयन हो गया तो वहां चले गए. कक्षा 6 से 12 तक जवाहर नवोदय विद्यालय, जीयनपुर, आजमगढ़ के हास्टल में रहे और फिर इलाहाबाद. इलाहाबाद से ही सिविल-सर्विसेज में सफलता प्राप्त हुई, फिर तो वो दिन ही नहीं आए कि कभी पिता जी के साथ कई दिन गुजारने का अवसर मिला हो...हम घर जाते या पिता जी हमारे पास आते..दसेक दिन रहते, फिर अपनी-अपनी जिंदगी में व्यस्त और मस्त. फोन पर लगभग हमेशा संवाद बना रहता है. पर मुझे आज भी कसक होती है कि मैं उन भाग्यशाली लोगों में नहीं रहा , जिन्होंने अपनी पिता जी के साथ लम्बा समय गुजारा हो.

लेखनी पर पिता जी का प्रभाव-

मैंने पिता जी को बचपन से ही किताबों और पत्र-पत्रिकाओं में तल्लीन देखा. वो पत्र-पत्रिकाओं से कुछ कटिंग करते और फिर उनमें से तथ्य और विचार लेकर कुछ लिखते. पर यह लिखना सदैव उनकी डायरी तक ही सीमित रहा. पिता जो को लिखते देखकर मुझे यह लगता था कि मैं भी उनकी तरह कुछ न कुछ लिखूंगा. छुट्टियों में घर आने पर पिताजी की नजरें चुराकर उनके बुकशेल्फ से किताबें और पत्र-पत्रिकायें निकालकर मैं मनोयोग से पढता था. पिताजी के आदर्शमय जीवन, ईमानदारी व उदात्त व्यक्तित्व का मुझ पर गहरा प्रभाव पड़ा और मेरे चरित्र निर्माण में पिताजी की अत्यन्त महत्वपूर्ण भूमिका रही। अध्ययन और लेखन के क्षेत्र में भी मुझ पर पिताजी का प्रभाव पड़ा। पिताजी के अध्ययन प्रेमी स्वभाव एवम् लेखन के प्रति झुकाव को सरकारी सेवा की आचरण संहिताओं व समुचित वातावरण के अभाव में मैंने डायरी में ही कैद होते देखा है। वर्ष 1990 में पिताजी ने आर0 एस0 ‘अनजाने‘ नाम से एक पुस्तक ‘‘सामाजिक व्यवस्था और आरक्षण‘‘ लिखी, पर सरकारी सेवा की आचरण संहिताओं के भय के चलते खुलकर इसका प्रसार नहीं हो सका। फिलहाल पिताजी के सेवानिवृत्त होने के पश्चात उनके लेख देश की तमाम प्रतिष्ठित पत्र-पत्रिकाओं में स्थान पा रहे हैं, पर किशोरावस्था में जब भी मैं पिताजी को नियमित रूप से अखबार की कतरनें काटते देखते और फिर कुछ समय बाद उन्हें पढ़कर जब वे फेंक देते, तो आप काफी उद्वेलित होता थे। ‘अखबार की कतरनें’ नामक अपनी कविता में इस भाव को मैंने बखूबी अभिव्यक्त किया है- ”मैं चोरी-चोरी पापा की फाइलों से/उन कतरनों को लेकर पढ़ता/पर पापा का एक समय बाद/उन कतरनों को फाड़कर फेंक देना/मुझमें कहीं भर देता था एक गुस्सा/ऐसा लगता मानो मेरा कोई खिलौना/तोड़कर फेंक दिया गया हो/उन चिंदियों को जोड़कर मैं/उनके मजमून को समझने की कोशिश करता/शायद कहीं कुछ मुझे उद्वेलित करता था।” जो भी हो पिताजी के चलते ही मेरे मन में यह भाव पैदा हुआ कि भविष्य में मैं रचनात्मक लेखन के क्षेत्र में सक्रिय हूँगा और अपने विचारों व भावनाओं को डायरी में कैद करने की बजाय किताब के रूप में प्रकाशित कर रचना संसार में अपनी सशक्त उपस्थित दर्ज कराऊंगा.

पिता जी की सीख बनी सिविल- सर्विसेज में सफलता का आधार
वर्ष 1994 में मैं जवाहर नवोदय विद्यालय जीयनपुर, आजमगढ़ से प्रथम श्रेणी में 12वीं की परीक्षा उतीर्ण हुआ एवम् अन्य मित्रों की भांति आगे की पढ़ाई हेतु इलाहाबाद विश्वविद्यालय में दाखिला लेने का निर्णय लिया। जैसा कि 12वीं की परीक्षा उत्तीर्ण करने के बाद कैरियर बनाने की जद्दोजहद आरम्भ होती है, मैंने भी अपने मित्रों के साथ सी0बी0एस0ई0 मेडिकल की परीक्षा दी और पिताजी से डाॅक्टर बनने की इच्छा जाहिर की। पिताजी स्वयं स्वास्थ्य विभाग में थे, पर उन्होंने मुझे सिविल सर्विसेज परीक्षा उत्तीर्ण कर आई0 ए0 एस0 इत्यादि हेतु प्रयत्न करने को कहा। इस पर मैंने कहा कि- ‘‘पिताजी! यह तो बहुत कठिन परीक्षा होती है और मुझे नहीं लगता कि मैं इसमें सफल हो पाऊँगा।’’ पिताजी ने धीर गम्भीर स्वर में कहा-‘‘बेटा! इस दुनिया में जो कुछ भी करता है, मनुष्य ही करता है। कोई आसमान से नहीं पैदा होता।’’ पिताजी के इस सूत्र वाक्य को गांठकर मैंने वर्ष 1994 में इलाहाबाद विश्वविद्यालय में कला संकाय में प्रवेश ले लिया और दर्शनशास्त्र, राजनीति शास्त्र व प्राचीन इतिहास विषय लेकर मनोयोग से अध्ययन में जुट गया । चूँकि छात्रावासों के माहौल से मैं पूर्व परिचित था, सो किराए पर कमरा लेकर ही रहना उचित समझा और ममफोर्डगंज में रहने लगा। जहाँ अन्य मित्र मेडिकल व इंजीनियरिंग की कोचिंग में व्यस्त थे, वहीं मैं अर्जुन की भांति सीधे आई0ए0एस0-पी0सी0एस0 रूपी कैरियर को चिडि़या की आँख की तरह देख रहा था. कभी-कभी दोस्त व्यंग्य भी कसते कि-‘‘क्या अभी से सिविल सर्विसेज की रट लगा रखी है? यहाँ पर जब किसी का कहीं चयन नहीं होता तो वह सिविल सर्विसेज की परीक्षा अपने घर वालों को धोखे में रखने व शादी के लिए देता है।’’ इन सबसे बेपरवाह मैं मनोयोग से अध्ययन में जुटा रहा. पिताजी ने कभी पैसे व सुविधाओं की कमी नहीं होने दी और मैंने कभी उनका सर नीचे नहीं होने दिया और अपने प्रथम प्रयास में ही सिविल- सर्विसेज की परीक्षा में चयनित हुआ !!

मेरी यह सफलता इस रूप में भी अभूतपूर्व रही कि नवोदय विद्यालय संस्था से आई0ए0एस0 व एलाइड सेवाओं में चयनित मैं प्रथम विद्यार्थी था और यही नहीं अपने पैतृक स्थान सरांवा, जौनपुर व तहबरपुर, आजमगढ़ जैसे क्षेत्र से भी इस सेवा में चयनित मैं प्रथम व्यक्ति था । मेरा चयन पिता जी के लिए भी काफी महत्वपूर्ण था क्योंकि उस समय उत्तर प्रदेश की राजकीय सेवाओं में सेवानिवृत्ति की आयु सीमा 58 वर्ष थी और पिताजी वर्ष 2001 में ही सेवानिवृत्त होने वाले थे। पर यह सुखद संयोग रहा कि मेरे चयन पश्चात ही उत्तर प्रदेश सरकार ने सेवानिवृत्ति की आयु सीमा 60 वर्ष कर दी और पिताजी को इसके चलते दो साल का सेवा विस्तार मिल गया।

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पिता श्री राम शिव मूर्ति यादव जी का संक्षिप्त परिचय :

20 दिसम्बर 1943 को सरांवा, जौनपुर (उ0प्र0) में जन्म। काशी विद्यापीठ, वाराणसी (उ0प्र0) से 1964 में समाज शास्त्र में एम.ए.। वर्ष 1967में खण्ड प्रसार शिक्षक (कालांतर में ‘स्वास्थ्य शिक्षा अधिकारी’ पदनाम परिवर्तित) के पद पर चयन। आरंभ से ही अध्ययन-लेखन में अभिरुचि। उत्तर प्रदेश सरकार में वर्ष 2003 में स्वास्थ्य शिक्षा अधिकारी पद से सेवानिवृत्ति पश्चात सम्प्रति रचनात्मक लेखन व अध्ययन, बौद्धिक विमर्श एवं सामाजिक कार्यों में रचनात्मक भागीदारी। सामाजिक व्यवस्था एवं आरक्षण (1990) नामक पुस्तक प्रकाशित। लेखों का एक अन्य संग्रह प्रेस में। भारतीय विचारक, नई सहस्राब्दि का महिला सशक्तीकरणः अवधारणा, चिंतन एवं सरोकार, नई सहस्राब्दि का दलित आंदोलनः मिथक एवं यथार्थ सहित कई चर्चित पुस्तकों में लेख संकलित।

देश की शताधिक प्रतिष्ठित पत्र-पत्रिकाओं: युगतेवर, समकालीन सोच, संवदिया, रचना उत्सव, नव निकष, गोलकोण्डा दर्पण, समय के साखी, सोच विचार, इंडिया न्यूज, सेवा चेतना, प्रतिश्रुति, झंकृति, हरसिंगार, शोध प्रभांजलि, शब्द, साहित्य क्रान्ति, साहित्य परिवार, साहित्य अभियान, सृजन से, प्राची प्रतिभा, संवदिया, अनीश, सांवली, द वेक, सामथ्र्य, सामान्यजन संदेश, समाज प्रवाह, जर्जर कश्ती, प्रगतिशील उद्भव, प्रेरणा अंशु, यू0एस0एम0 पत्रिका, नारायणीयम, तुलसी प्रभा, राष्ट्र सेतु, पगडंडी, आगम सोची, शुभ्र ज्योत्स्ना, दृष्टिकोण, बुलंद प्रभा, सौगात, हम सब साथ-साथ, जीवन मूल्य संरक्षक न्यूज, श्रुतिपथ, मंथन, पंखुड़ी, सुखदा, सबलोग, बाबू जी का भारत मित्र, बुलंद इण्डिया, टर्निंग इण्डिया, इसमासो, नारी अस्मिता, अनंता, उत्तरा, अहल्या, कर्मश्री, अरावली उद्घोष, युद्धरत आम आदमी, अपेक्षा, बयान, आश्वस्त, अम्बेडकर इन इण्डिया, अम्बेडकर टुडे, दलित साहित्य वार्षिकी, दलित टुडे, बहुरि नहीं आवना, हाशिये की आवाज, आधुनिक विप्लव, मूक वक्ता, सोशल ब्रेनवाश, आपका आइना, कमेरी दुनिया, आदिवासी सत्ता, बहुजन ब्यूरो, वैचारिक उदबोध, प्रियंत टाइम्स, शिक्षक प्रभा, विश्व स्नेह समाज, विवेक शक्ति, हिन्द क्रान्ति, नवोदित स्वर, ज्ञान-विज्ञान बुलेटिन, पब्लिक की आवाज, समाचार सफर, सत्य चक्र, दहलीज, दि माॅरल, अयोध्या संवाद, जीरो टाइम्स, तख्तोताज, दिनहुआ, यादव ज्योति, यादव कुल दीपिका, यादव साम्राज्य, यादव शक्ति, यादव निर्देशिका सह पत्रिका, इत्यादि में विभिन्न विषयों पर लेख प्रकाशित।

इंटरनेट पर विभिन्न वेब पत्रिकाओं: सृजनगाथा, रचनाकार, साहित्य कुंज, साहित्य शिल्पी, हिन्दीनेस्ट, हमारी वाणी, परिकल्पना ब्लाॅगोत्सव, स्वतंत्र आवाज डाॅट काम, नवभारत टाइम्स, वांग्मय पत्रिका, समय दर्पण, युगमानस इत्यादि पर लेखों का प्रकाशन। ”यदुकुल” ब्लॉग (http://www.yadukul.blogspot..in/) का 10 नवम्बर 2008 से सतत् संचालन।

सामाजिक न्याय सम्बन्धी लेखन, विशिष्ट कृतित्व एवं समृद्ध साहित्य-साधना हेतु राष्ट्रीय राजभाषा पीठ, इलाहाबाद द्वारा ’भारती ज्योति’ (2006), भारतीय दलित साहित्य अकादमी, नई दिल्ली द्वारा ‘ज्योतिबा फुले फेलोशिप सम्मान‘ (2007) व डाॅ0 अम्बेडकर फेलोशिप राष्ट्रीय सम्मान (2011), आसरा समिति, मथुरा द्वारा ‘बृज गौरव‘ (2007), समग्रता शिक्षा साहित्य एवं कला परिषद, कटनी, म0प्र0 द्वारा ‘भारत-भूषण‘ (2010), रिपब्लिकन पार्टी ऑफ इण्डिया द्वारा ‘अम्बेडकर रत्न अवार्ड 2011‘ से सम्मानित।
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( पिता श्री राम शिव मूर्ति यादव जी, माँ श्रीमती बिमला यादव जी, कृष्ण कुमार यादव, पत्नी श्रीमती आकांक्षा और बेटियाँ अक्षिता और अपूर्वा)
(पिता जी और मम्मी जी )
(बहन किरन यादव के शुभ-विवाह पर आशीर्वाद देते पिता श्री राम शिव मूर्ति यादव जी, श्वसुर श्री राजेंद्र प्रसाद जी, MLC श्री कमला प्रसाद यादव जी और श्री समीर सौरभ जी (उप पुलिस अधीक्षक)
(बहन किरन यादव की शादी के दौरान रस्म निभाते मम्मी-पापा)
(पिता श्री राम शिव मूर्ति यादव जी और वरिष्ठ बाल-साहित्यकार डा. राष्ट्रबंधु जी)
(पिता श्री राम शिव मूर्ति यादव जी)
(पिता श्री राम शिव मूर्ति यादव जी, नाना स्वर्गीय श्री दलजीत यादव जी, श्री वैदेही यादव जी)




शनिवार, 16 जून 2012

अमवा त खइला हो, कोसिलिया खींच मरला - कैलाश गौतम

(आजकल आम का सीजन चल रहा है. कभी भरी दोपहरी में बैग में बैठकर आम खाने का आनंद ही कुछ और था, पर वक़्त के साथ ये आम भी 'खास' हो गया. एक तो महंगाई, ऊपर से आम के नखरे कि इस साल अमुक पेड़ पर ही दिखूंगा. वाकई आम आज 'आम' नहीं रहा बल्कि 'खास' हो गया है. इसीलिए उसकी प्रशस्ति में बहुत कुछ लिखा जा रहा है. कभी कैलाश गौतम जी ने आम पर यह खास लेख लिखा था. आज वो हमारे बीच नहीं हैं, पर अपनी रचनाओं में जरुर जीवंत हैं)

कभी आम का नाम सुनते ही आदमी के मुंह में पानी आ जाता था, लेकिन आज आम का नाम सुनते ही आदमी के मुंह में गाली आ रही है-स्साला आम। आदमी ताव खा जा रहा है। ताव आदमी इसलिए खा रहा है कि ताव खाना आसान है, आम खाना मुश्किल। देख रहे हैं औसत आदमी आज किस निगाह से आज आम को देख रहा है। मुफ्त मिले तो कच्चे का अचार डाल दें और पक्का मिले तो चूस-चूसकर भूंसी छुड़ा दें। लेकिन ऐसा संयोग बन कहां रहा है? दरअसल आम नंबर एक का धोखेबाज फल है, बड़े-बड़े बाग वाले राह देखते रह गए लेकिन पट्ठा आम बाग में नहीं आया तो नहीं आया। और यह अचरज़ देखिए कि बगि में बिल्कुल ही नहीं आया, लेकिन देशभर की सट्टियां आमों से पटी पड़ी हैं। दरबे में एक भी मुर्गी नहीं पर बाज़ार में अंडे ही अंडे, वहीं हाल आम का। वैसे इस समस्या प्रधान देश में इस तरह का आश्चर्य चुनाव के दिनों में ही दिखाई देता है जहां चिरई का पूत कहा जाने वाला सिंगल मतदाता भी नहीं होता, वहां भी मतपेटियां मतपत्रों से भरी मिलती हैं। औसत भारतीय पत्नियां आम की ओर फूटी आंखों से भी नहीं देख रही हैं, क्यों देखें ? जब स्वभाविक मचली जैसे संकट के समय आम उनके काम नहीं आया, तो वह संकट मुक्त होने पर आम की ओर बिल्कुल नहीं देखेंगी। वह आभारी हैं इमली की, मचली के दिनों में उनका साथ इमली ने दिया आम ने नहीं।

आम ने सचमुच अपना विश्वास खो दिया है और सुना तो यहां तक गया है कि भीतर-भीतर अविश्वास प्रस्ताव की तैयारी भी फलों में चल रही है। लेकिन होगी वही जो होता आया है, ऐन मौके पर कुछ फल गायब हो जाएंगे या कुछ फल कैद कर लिए जाएंगे और अविश्वास प्रस्ताव पास नहीं होगा। आम फलों का राजा बना रहेगा। आम जब देशी था तब बहुत अच्छा था लेकिन कलमी हुआ है तब से हिलमी और इलमी तो हुआ ही हुआ और जुल्मी भी हुआ है। देशी में ऐसी बनावट नहीं थी तो ऐसी गिरावट भी नहीं थी, कलमी आम नागा बहुत करता है। एक दिन मेहरी न आए तो हाय-तौबा मच जाती है, एक दिन अख़बार न आए तो हाय-तौबा मच जाती है, एक दिन पानी न आए, बिजली न आए तो हाय-तौबा मच जाती है। जबकि आम साल का साल नागा मारता है लेकिन आदमी इसका कुछ नहीं बिगाड़ पाता। किसी राजा का अपने राज्य से साल साल भर गायब रहना क्या कोई अच्छी बात है। अरे ऐसी हरकत तो उम्मीदवारों को ही शोभा देती है, जो केवल चुनाव में ही दिखाई देते हैं। कुछ परिवारों में आम से कहीं से ज़्यादा महत्व आम की गुठली का होता है शायद इसीलिए कहा गया है कि आम के आम गुठलियों के दाम। सचमुच जिन परिवारों में कुंवारे लड़के-लड़कियां चूसे हुए आम की गुठली उछालकर परस्पर एक-दूसरे के ब्याह की दिशा बताते हैं, वहां आम न होने से इन दिनों शून्य बटा सन्नाटा चल रहा है। मेरे क्रोनिक बैचलर पैसठ वर्षीय मित्र सेठी साहब आम का रोना उतना नहीं रो रहे हैं, जितना रो रहे हैं आम की गुठली का रोना। सेठी साहब, आजकल हर मीटिंग सोसाइटी में दिखाई देते हैं, जहां किसी न किसी बहाने आम की चर्चा की हो रही होती है। भोजपुरी लोकगीतों में एक ऐसा उदाहरण मिलता है जिसमें आम की ताज़ा चूसी गई गुठली से बड़ा महत्वपूर्ण काम लिया गया है। अरे गुठली न सही गुठली की चर्चा ही सही-

‘अमवा त खइला हो, कोसिलिया खींच मरला
दागी नउला दुलहा
हमरी चटकी चुनरिया दागी नउला दुलहा’

दरअसल, तब अमूमन शादियां गर्मियों में ही होती थीं। एक तो मौसम गर्मी का दूसरे शादी की गर्मी। इसीलिए एक-दूसरे को डायरेक्ट छूने में समझदार दंपति हिचकता था। नई नवेली पत्नी को दूल्हा हाथ नहीं लगाता था। पहले वह आम खाता था फिर वह उसकी गुठली से पत्नी को छेड़ता था। आज दूल्हे भी हैं, पत्नियां भी हैं, आम का सीजन भी है, लेकिन नहीं है तो सिर्फ़ आम नहीं है, आम की गुठली नहीं है। वैसे अगर जगह-जगह ‘गुठली मारो’ मेले का आयोजन किया जाए तो निश्चित ही इस मेले से सरकार को करोड़ों का अरबों की आमदनी होगी। भला सोचिए जहां हाल में ब्याहे सैकड़ों हजारों नए जोड़े इकट्ठे किए जाएंगे और हर दूल्हे को दस-दस पके आम दिए जाएंगे कि आम खाये और चूसी हुई गुठली से नई नवेेली पत्नी को गेंद की तरह फेंक कर मारे। मैं सच कहता हूं देखने वालों का तांता लग जाएगा, आम आदमी भले न देख पाए लेकिन ख़ास-ख़ास लोग तो हवाई जहाज या हेलिकप्टर से भागकर आएंगे। मैं एक ऐसा प्रस्ताव भारत सरकार के आमदनी बढ़ाओ विभाग के पास भेजने वाला हूं।

एक आम के चलते न जाने कैसे-कैसे लोग हाई-लाईट हो जाते हैं, अब सरौता को ही देखिए। बड़की भौजी का जो आम फाड़ने वाला बड़का सरौता है ना, उसे इस साल कोई घास नहीं डाल रहा है, वर्ना हर साल बड़की भौजी का सरौता बिजी रहता था। कोई-कोई उसे देखने को तरस जाता था। कभी चैबाइन के पास है, तो कभी ठकुराइन के पास है। इस साल सरौते के लिए बड़की भौजी के यहां कोई झांकने भी नहीं आया। बड़की भौजी रोज़ एक बार अपने सरौत पर हाथ फेरती हैं फिर रख देता हैं- वेट माई डियर सरौता वेड। जब नीके दिन आइहैं बनत न लगिहैं देर। अपना राजपाट फिर लौटेगा प्यारे! तुम्हारी तरह न जाने कितने लोग बदलाव के इंतज़ार में बैठे हुए हैं। इस समय मुझे एक भोजपुरी कहावत याद आ रही है। कहावत इस प्रकार है-

‘झरल आम अब झरल पताई
श्रोवा लइको बप्पा माई’

ऐसी नौबत बस आने ही वाली है। आम भी बस जाने ही वाला है। वैसे इस आम ने इस साल मेरे दफ्तर के रामदास केजुएल को जितना रूलाया, उतना शायद ही किसी को रूलाया हो। रामदास की घरवाली मां होने वाली है। वह बार-बार रामदास से कहती है-हे एक पक्का आम खिला दो वरना पैदा होने वाले बच्चे की जि़न्दगीभर लार गिरेगी। रामदास ने बहुत कहा- तू केला खा ले, संतरा खा ले, जामुन खा ले लेकिन आम का नाम मत ले। इसे सर्वहारा ने हमेशा के लिए त्याग दिया है। यहि तन सती भेंट नाहि। लेकिन रामदास की पत्नी ऐसा ताना दिया कि रामदास तिलमिला उठा- लानत है तुम्हारे जैसे पति पर, अरे उन्हें देखों जिन्होंने अपनी जगह अपनी पत्नी को मुख्यमंत्री बना दिया और एक तुम हो, एक पका आम भी नहीं खिला सकते अपनी पत्नी को। ब्याह करना अच्छा लगा अब दोहद खिलाने में..... आगे की बात रामदास नहीं सुन सका और बिना साइकिल उठाए घबराहट में पैदल ही केजुएल होने चला गया। दफ्तर में पहले से रामदास केजुएल की ढुढाई मची थी। दरअसल यह हुआ कि बड़े साहब की बीवी ने बड़े साहब से कहा कि दो किलो आम लेते आइएगा। बड़े साहब ने दफ्तर पहुंचकर बड़े बाबू से कहा कि बड़े बाबू यार दो किलो आम मंगवा दीजिए। आम बिना आम के घर में घुस नहीं पाउंगा और तब से बड़े बाबू रामदास केजुएल को तलाश रहे हैं। सहसा, रामदास केजुएल टकरा ही गया। बड़े बाबू स्वयं इतने परेशानी में थे कि रामदास केजुएल के नमस्ते का जवाब भी नहीं दिया और अपनी बात करने लगे। रामदास रामदास सुन सुन एक महीने के लिए और दफ्तर में रखने के लिए बड़े साहब राज़ी हो गए हैं। समझे रामदास, बड़े बाबू को धन्यवाद देने लगा, लेकिन बड़े बाबू उसका धन्यवाद सुनें तब न! वो तो अपना आम राग अलापे जा रहे हैं। जाओ जल्दी से पांच किलो दशहरी ले आओ। बड़े साहब का हुकुम है। मरता क्या न करता रामदास केजुएल, जुगाड़ करके जैसे-तैसे दशहरी ले आता है, जिसमें साठ प्रतिशत बड़े बाबू अपने झोले में डाल लेते हैं और चालीस प्रतिशत साहब के पास भेजवा देते हैं।

दिनभर का थका-हारा रामदास केजुएल शाम को जब घर पहुंचता है तो जेब एक आम निकालता है और घरवाली के सामने रखकर हंसने लगता है। उसकी घरवाली लपकरक आम उठाती है और मुंह में दबा लेती है, यह देखकर रामदास और जोर से हंसता है, उसकी घरवाली आम को हाथ में लेकर गौर से देखने लगती है, फिर पूछती है कि यह क्या, इसमें न रस है, न गूदा, न छिलका। रामदास केजुलए की आंखें भर आती हैं- मेरी जान! अगर द्रोणाचार्य की पत्नी चावल का घोल दूध बताकर अपने बच्चे को पिला सकती है तो तुम भी यह प्लास्टिक का नकली आम दिखाकर अपने होने वाले बच्चे को पाल सकती हो। असली आम तो केवल मौसम भर साथ देता है पगली! यह बारहों महीने साथ देगा, बस इसे आग से बचाकर रखना। यह आम खेलने के लिए है खाने के लिए नहीं।

-कैलाश गौतम

मंगलवार, 5 जून 2012

पाठ्यक्रमों से परे पर्यावरण को रोज के व्यवहार से जोड़ने की जरुरत

मानव सभ्यता के आरंभ से ही प्रकृति के आगोश में पला और पर्यावरण की सुरक्षा के प्रति सचेत रहा। पर जैसे-जैसे विकास के सोपानों को मानव पार करता गया, प्रकृति का दोहन व पर्यावरण से खिलवाड़ रोजमर्रा की चीज हो गई. ऐसे में आज समग्र विश्व में पर्यावरण चर्चा व चिंता का विषय बना हुआ है। इसके प्रति चेतना जागृत करने के उद्देश्य से संयुक्त राष्ट्रसंघ के तत्वावधान में हर वर्ष 5 जून को 'विश्व पर्यावरण दिवस' का आयोजन वर्ष 1972 से आरम्भ किया गया। इसका प्रमुख उद्देश्य पर्यावरण के प्रति राजनैतिक-सामाजिक-आर्थिक जागरूकता लाते हुए सभी को इसके प्रति सचेत व शिक्षित करना एवं पर्यावरण-संरक्षण के प्रति प्रेरित करना है. प्रकृति और पर्यावरण, हम सभी को बहुत कुछ देते हैं, पर बदले में कभी कुछ माँगते नहीं। पर हम इसी का नाजायज फायदा उठाते हैं और उनका ही शोषण करने लगते हैं। हमें हर किसी के बारे में सोचने की फुर्सत है, पर प्रकृति और पर्यावरण के बारे में नहीं. यदि पर्यावरण इसी तरह प्रदूषित होता रहे तो क्या होगा... कुछ नहीं। ना हम, ना आप और ना ये सृष्टि. पर इसके बावजूद रोज प्रकृति व पर्यावरण से खिलवाड़ किये जा रहे हैं. हम नित धरती माँ को अनावृत्त किये जा रहे हैं. जिन वृक्षों को उनका आभूषण माना जाता है, उनका खात्मा किये जा रहे हैं. विकास की इस अंधी दौड़ के पीछे धरती के संसाधनों का जमकर दोहन किये जा रहे हैं. वाकई विकास व प्रगति के नाम पर जिस तरह से हमारे वातावरण को हानि पहुँचाई जा रही है, वह बेहद शर्मनाक है. हम सभ्यता का गला घोंट रहें हैं. हम जिस धरती की छाती पर बैठकर इस प्रगति व लम्बे-लम्बे विकास की बातें करते हैं, उसी छाती को रोज घायल किये जा रहे हैं. पृथ्वी, पर्यावरण, पेड़-पौधे हमारे लिए दिनचर्या नहीं अपितु पाठ्यक्रमों का हिस्सा बनकर रह गए हैं. वास्तव में देखा जाय तो पर्यावरण शुद्ध रहेगा तो आचरण भी शुद्ध रहेगा. लोग निरोगी होंगे और औसत आयु भी बढ़ेगी. पर्यावरण-रक्षा कार्य नहीं, बल्कि धर्म है.


सौभाग्य से आज विश्व पर्यावरण दिवस है। लम्बे-लम्बे भाषण, दफ्ती पर स्लोगन लेकर चलते बच्चे, पौधारोपण के कुछ सरकारी कार्यक्रम....शायद कल के अख़बारों में पर्यावरण दिवस को लेकर यही कुछ दिखेगा और फिर हम भूल जायेंगे. हम कभी साँस लेना नहीं भूलते, पर स्वच्छ वायु के संवाहक वृक्षों को जरुर भूल गए हैं। यही कारण है की नित नई-नई बीमारियाँ जन्म ले रही हैं. इन बीमारियों पर हम लाखों खर्च कर डालते हैं, पर अपने पर्यावरण को स्वस्थ व स्वच्छ रखने के लिए पाई तक नहीं खर्च करते.


एक दिन मेरी बिटिया अक्षिता बता रही थी कि पापा, आज स्कूल में टीचर ने बताया कि हमें अपने पर्यावरण की रक्षा करनी चाहिए। पहले तो पेड़ काटो नहीं और यदि काटना ही पड़े तो एक की जगह दो पेड़ लगाना चाहिए। पेड़-पौधे धरा के आभूषण हैं, उनसे ही पृथ्वी की शोभा बढती है और पर्यावरण स्वच्छ रहता है। पहले जंगल होते थे तो खूब हरियाली होती, बारिश होती और सुन्दर लगता पर अब जल्दी बारिश भी नहीं होती, खूब गर्मी भी पड़ती है...लगता है भगवान जी नाराज हो गए हैं. इसलिए आज सभी लोग संकल्प लेंगें कि कभी भी किसी पेड़-पौधे को नुकसान नहीं पहुँचायेंगे, पर्यावरण की रक्षा करेंगे, अपने चारों तरफ खूब सारे पौधे लगायेंगे और उनकी नियमित देख-रेख भी करेंगे. अक्षिता के नन्हें मुँह से कही गई ये बातें मुझे देर तक झकझोरती रहीं। आखिर हम बच्चों में प्रकृति और पर्यावरण की सुरक्षा के संस्कार क्यों नहीं पैदा करते. मात्र स्लोगन लिखी तख्तियाँ पकड़ाने से पर्यावरण का उद्धार संभव नहीं है. इस ओर सभी को तन-मन-धन से जुड़ना होगा. अन्यथा हम रोज उन अफवाहों से डरते रहेंगे कि पृथ्वी पर अब प्रलय आने वाली है. पता नहीं इस प्रलय के क्या मायने हैं, पर कभी ग्लोबल वार्मिंग, कभी सुनामी, कभी कैटरीना व आईला चक्रवात तो कभी बाढ़, सूखा, भूकंप, आगजनी और अकाल मौत की घटनाएँ ॥क्या ये प्रलय नहीं है? गौर कीजिये इस बार तो चिलचिलाती ठण्ड के तुरंत बाद ही चिलचिलाती गर्मी आ गई, हेमंत, शिशिर, बसंत का कोई लक्षण ही नहीं दिखा..क्या ये प्रलय नहीं है. अभी भी वक़्त है, हम चेतें अन्यथा प्रकृति कब तक अनावृत्त होकर हमारे अनाचार सहती रहेंगीं. जिस प्रलय का इंतजार हम कर रहे हैं, वह इक दिन इतने चुपके से आयेगी कि हमें सोचने का मौका भी नहीं मिलेगा.


ऐसे में जरुरत हें कि हम खुद ही चेतें और प्रकृति व पर्यावरण के संरक्षण को मात्र पाठ्यक्रमों व कार्यक्रमों की बजाय अपने दैनिंदिन व्यवहार का हिस्सा बनायें. आज पर्यावरण के प्रति लोगों को सचेत करने के लिए सामूहिक जनभागीदारी द्वारा भी तमाम कदम उठाये जा रहे हैं. मसलन, फूलों को तोड़कर उपहार में बुके देने की बजाय गमले में लगे पौधे भेंट किये जाएँ. स्कूल में बच्चों को पुरस्कार के रूप में पौधे देकर, उनके अन्दर बचपन से ही पर्यावरण संरक्षण का बोध कराया जा सकता है. जीवन के यादगार दिनों मसलन- जन्मदिन, वैवाहिक वर्षगाँठ या अन्य किसी शुभ कार्य की स्मृतियों को सहेजने के लिए पौधे लगायें और उनका पोषण करें. री-सायकलिंग द्वारा पानी की बर्बादी रोकें और टॉयलेट इत्यादि में इनका उपयोग करें. पानी और बिजली का अपव्यय रोकें. फ्लश का इस्तेमाल कम से कम करें. शानो-शौकत में बिजली की खपत को स्वत: रोकें. सूखे वृक्षों को भी तभी काटा जाय, जब उनकी जगह कम से कम दो नए पौधे लगाने का प्रण लिया जाय. अपनी वंशावली को सुरक्षित रखने हेतु ऐसे बगीचे तैयार किये जा सकते हैं, जहाँ हर पीढ़ी द्वारा लगाये गए पौधे मौजूद हों. यह मजेदार भी होगा और पर्यावरण को सुरक्षित रखने की दिशा में एक नेक कदम भी. हमारे पूर्वजों ने यूँ ही नहीं कहा है कि- 'एक वृक्ष - दस पुत्र सामान.'

शनिवार, 2 जून 2012

लीजिये हम भी डाक-टिकट पर आ गए...


भारतीय डाक विभाग डाक-टिकटों के क्षेत्र में नित नए और अनूठे प्रयोग कर रहा है. पिछले वर्षों में जहाँ चन्दन, गुलाब व जूही की सुगंध से सुवासित खुशबूदार डाक-टिकट और हालमार्क के साथ मिलकर सोने के डाक टिकट जारी किये गए, वहीँ अब 'माई स्टांप' या 'पर्सनालाईजड स्टैम्प' के साथ डाक-टिकट पर कोई व्यक्ति अपनी भी तस्वीर लगा सकता है. फ़िलहाल ये 17 डाक-टिकटों के साथ उपलब्ध हैं. इनमें ताजमहल, पंचतंत्र, एयरो फ्लाईट, स्टीम इंजन, वाइल्ड लाइफ डाक-टिकटों के साथ 12 राशियों के डाक टिकट भी उपलब्ध हैं.

दुनिया के कई देशों में 'माई स्टाम्प' सुविधा पहले से ही लागू है, पर भारत में पहली बार इसे भारतीय डाक विभाग द्वारा वर्ष 2000 में कोलकाता में 'इंदिपेक्स एशियाना' के आयोजन के दौरान जारी किया गया था. पर उस समय यह उतनी लोकप्रिय न हो सकी. पिछले वर्ष नई दिल्ली में विश्व डाक टिकट प्रदर्शनी (12-18 फरवरी 2011 ) के आयोजन के दौरान इसे पुन: लांच किया गया और लोगों ने इसे हाथों-हाथ लिया. नतीजन देखते ही देखते हजारों लोगों ने डाक टिकटों के साथ अपनी तस्वीर लगाकर इसका लुत्फ़ उठाया. उत्तर प्रदेश में 17 -19 दिसंबर, 2011 के दौरान लखनऊ में आयोजित राज्य स्तरीय डाक टिकट प्रदर्शनी में इसे जारी किया गया और अभी तक अकेले उत्तर प्रदेश में लगभग 5000 लोग इसे जारी करा चुके हैं, जिनमें से अधिकतर लोगों ने ताजमहल के साथ अपनी तस्वीर लगवानी पसंद की.

इस सेवा का लाभ उठाने के लिए अपने शहर में स्थित फिलाटेलिक ब्यूरो में पंजीकरण कराना होता है. एक फार्म भरकर उसके साथ अपनी फोटो और 300 /-जमा करने होते हैं. एक शीट में कुल 12 डाक-टिकटों के साथ फोटो लगाई जा सकती है. इसके लिए आप अपनी अच्छी तस्वीर डाक विभाग को दे सकते हैं, जो उसे स्कैन करके आपका खूबसूरत 'माई स्टांप' बना देगा. यदि कोई तत्काल भी फोटो खिंचवाना चाहे तो उसके लिए भी प्रबंध किया गया है. 'माई स्टैम्प' को ही 'पर्सनालाईजड स्टैम्प' भी कहा जाता है. इस पर सिर्फ जीवित व्यक्तियों की ही तस्वीर लगाई जा सकती है. सम्बंधित व्यक्ति को फिलाटेलिक ब्यूरो में व्यक्तिगत रूप से जाना पड़ता है, यदि किसी कारणवश न जा सके तो सम्बंधित संदेशवाहक से अपना फोटो युक्त परिचय पत्र भेजना पड़ता है.

तो अब देर किस बात की, किसी को उपहार देने का इससे नायब तरीका शायद ही हो. इसके लिए जेब भी ज्यादा नहीं ढीली करनी पड़ेगी, मात्र 300 रूपये में 12 डाक-टिकटों के साथ आपकी खूबसूरत तस्वीर. अब आप इसे चाहें अपने परिवारजनों को दें, मित्रों को या फिर अपने प्रेमी-प्रेमिका को. डाक-टिकट पर आप अपनों की तस्वीर भी छपवा कर उसे भेज सकते हैं. मतलब, आप किसी से बेशुमार प्यार करते हैं, तो इस प्यार को बेशुमार दिखाने का भी मौका है. पांच रुपए के डाक-टिकट, जिस पर आपकी तस्वीर होगी, वह देशभर में कहीं भी भेजी जा सकती है.

'माई स्टाम्प' पर सिर्फ आप अपनी तस्वीर ही नहीं देखते, बल्कि वक़्त की नजाकत के अनुसार इसे विभिन्न डाक-टिकटों के साथ देख सकते हैं. मसलन, प्रेम को दर्शाने के लिए ताजमहल, बच्चों के लिए पञ्चतंत्र, एडवेंचर के लिए वाइल्ड लाइफ से जुड़ा डाक टिकट या फिर एयरो फ्लाईट और स्टीम इंजन. यही नहीं अपनी राशि के अनुरूप भी डाक-टिकट पसंद कर उस पर अपनी फोटो लगवा सकते हैं!!

(चित्र में : माई स्टैम्प के तहत ताजमहल के साथ कृष्ण कुमार यादव की तस्वीर)


- कृष्ण कुमार यादव
निदेशक डाक सेवाएँ, इलाहबाद परिक्षेत्र, इलाहबाद-211001