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मंगलवार, 31 मई 2011

देखिये..शायद आपका प्यार मिल जाये !!

क्या आपका मन किसी को पाने के लिए या जीवन साथी बनाने के लिए मचल रहा है? क्या आपके पास सबकुछ होते हुये भी प्यार नहीं है? क्या आपकी शादी नहीं नहीं हो पा रही? तो ये परेशान मत होइए आज हम आपके लिए लाये हैं वो सभी उपाय जिनको करने के बाद आपकी प्रेमिका कहेगी कि मैं जोगन तेरे प्रेम की.........

जब भी किसी को प्रेम करें तो याद रखें कि संयम और प्रतीक्षा सबसे उत्तम उपाय है .
ईश्वर से प्रेम के लिए प्रार्थना करनी चाहिए, क्योंकि दुआओं में असर होता है .
प्रेम प्राप्ति के लिए आप भगवान् कामदेव और देवी रति के साथ साथ शिव-शक्ति,गणपति,और भगवान विष्णु जी की पूजा कर सकते हैं .
इन्द्र देवता,अग्नि देवता,चन्द्रमा देवता,अप्सराओं व यक्षिणी देवियों की उपासना भी प्रेम प्रदान करती हैं .
देवी दुर्गा जी से मांगी गयी प्रेम व सुख शान्ति सौभाग्य की तत्काल पूर्ती होती है .
यदि प्रेम विवाह करना चाहते हैं तो ब्रत एवं दान बहुत सहायक होते हैं.



प्रेम प्राप्ति के कुछ अति सरल दिव्य मंत्र
कृष्ण जी का मंत्र -ॐ क्लीं कृष्णाय गोपीजन बल्लभाय स्वाहा:
कृष्ण मंदिर में मुरली बांसुरी ले जा कर अर्पित करें
पान अर्पण से प्रेम प्राप्ति होती है
यदि प्रेम में फूट पड़ गयी हो तो उसे पुनह पाने के लिए भैरव जी की पूजा अचूक उपाय है
भैरव देवता को मीठी रोटी का प्रसाद बना कर अर्पित करें
मानसिक तौर से उत्तरनाथ भैरव का मंत्र जपें
भैरव जी का मंत्र-ॐ ज्लौम रहौं क्रोम उत्तरनाथ भैरवाय स्वाहा:
यदि आप किसी को अपना बनाना चाहते हैं तो माँ शक्ति की पूजा करे
माता को लाल रंग का झंडा अर्थात ध्वजा चढ़ाएं व मनोकामना मांगें
माँ शक्ति का मंत्र-ॐ नमो मोहिनी महामोहिनी अमृत वासिनी स्वाहा:
देवराज इन्द्र की पत्नी इंद्रायणी की स्तुति को अमोघ माना जाता हैं कई ऋषि पुत्रियों ने उनकी स्तुति कर वर पाया है
इंद्रायणी देवी की पूजा उन्हें करनी चाहिए जो नहीं जानते की उनके जीवन में कौन आने वाला है
तब देवी प्रसन्न हो कर अत्यंत स्रेष्ठ प्रेमिका व पति या पत्नी प्रदान करती है
इंद्रायणी देवी का मंत्र-ॐ देवेंद्राणी विवाहं भाग्यमारोग्यम देहि मे
बीस के अंक को विवाह का अंक माना जाता है विवाह में समस्या पर चार खाने बना कर केवल बीस बीस लिखना चाहिय
बीस के इस यन्त्र को धारण करने से या पास रखने से विवाह हो जाता है

यन्त्र- 20 20 20 20
20 20 20 20
20 20 20 20
20 20 20 20

गोमेद नामक रत्न को गलें में पहनने से विवाह लाभ होगा
चांदी में मोती की अंगूठी पहनने से प्रेम बढेगा
हीरे अथवा जरकन के आभूषण प्रेम में बृद्धि करेंगे
नीलम की अंगूठी प्रतिष्ठित कर पहनने से और संकल्पित करने से प्रेम में सफलता मिलती है
शहद के रुद्राभिषेक से मनचाहा प्रेम मिलेगा
सोलह सोमवार के ब्रत से योग्य सुन्दर सुशील पति मिलेगा
अन्न दान करने से प्रेम विवाह संपन्न होता है
गौरी देवी को चुनरी श्रृंगार चढाने व मौली बांधने से मनमीत मिलता है
मधुर व्यबहार मीठी बाणी जीवन में स्थाई प्रेम प्रदान करने में समर्थ हैं
धीरज और संतोष के साथ साथ सकारात्मक आत्मविश्वास भी होना चाहिए
योग मेडिटेशन और संगीत सहित शाकाहार को अपनाएँ
नशों से दूर रहना चाहिए

साभार : कौलान्तक पीठाधीश्वर/महायोगी सत्येन्द्र नाथ

सोमवार, 30 मई 2011

मानवीय सभ्यता को लीलता तम्बाकू

कल 31 मई को विश्व तम्बाकू निषेध दिवस है। मई माह की भी अपनी महिमा है. मजदूर दिवस से आरंभ होकर यह तम्बाकू निषेध दिवस पर ख़त्म हो जाता है. यह दिवस तो सरकारें हर साल मनाती हैं, यहाँ तक कि दुनिया के 170 राष्ट्रों ने व्यापक तम्बाकू नियंत्रण संधि पर हस्ताक्षर भी किये हैं पर वास्तव में इस सम्बन्ध में कोई ठोस पहल नहीं की जाती है. इसके पीछे राजस्व नुकसान से लेकर कार्पोरेट जगत के निहित तत्व तक शामिल हैं, जिनकी सरकारों में जबरदस्त घुसपैठ होती है. ऐसे में तम्बाकू के धुँए का यह जहर धीरे-धीरे सुरसा के मुँह की तरह पूरी दुनिया को निगलने पर आमदा है. गौरतलब है कि 450 ग्राम तम्बाकू में निकोटीन की मात्रा लगभग 22.8 ग्राम होती है। इसकी 6 ग्राम मात्रा से एक कुत्ता 3 मिनट में मर जाता है। तम्बाकू के प्रयोग से अनेक दंत रोग, मंदाग्नि रोग हो जाता है। आंखों की ज्योति कम हो सकती है तो दुष्प्रभाव रूप में व्यक्ति बहरा व अन्धा तक हो जाता है। तम्बाकू के निकोटीन से ब्लड प्रेशर बढ़ता है, रक्त संचार मंद पड़ जाता है।फेफड़ों की टीबी तो इसका सीधा प्रभाव देखा जा सकता है. यही नहीं तम्बाकू के सेवन से व्यक्ति नपुंसक भी हो सकता है। कहना गलत न होगा कि तम्बाकू का नियमित सेवन धीरे-धीरे व्यक्ति को मृत्यु के करीब ला देता है और वह असमय ही काल-कवलित हो जाता है.

अकेले भारत में हर साल लगभद आठ लाख मौतें तम्बाकू से होने वाली बीमारियों के कारण होती हैं।आज बच्चे-बूढ़े-जवान से लेकर पुरुष-नारी तक सभी वर्गों में तम्बाकू की लत देखी जा सकती है. कभी फैशन में तो,कभी नशे के चस्के में और कई बार थकान मिटाने या गम भुलाने की आड़ में भी इसे लिया जा रहा है. घर में बड़ों द्वारा लिए जा रहा तम्बाकू कब छोटों के पास पहुँच जाता है, पता ही नहीं चलता. दुर्भाग्यवश भारत में धर्म की आड में भी तम्बाकू का स्वाद लेने वालों की कमी नहीं है. गौरतलब है कि आयुर्वेद के चरक तथा सुश्रुत जैसे हजारों वर्ष पूर्व रचे गए ग्रन्थों में धूम्रपान का विधान है। वैसे, वहाँ पर उसका वर्णन औषधि के रूप में हुआ है, जैसे कहा गया है कि आम के सूखे पत्ते को चिलम जैसी किसी उपकरण में रखकर धुआं खींचने से गले के रोगों में आराम होता है। दमा तथा श्वास संबंधी रोगों में वासा (अडूसा) के सूखे पत्तों को चिलम में रखकर पीना एक प्रभावशाली उपाय माना गया है। आज भी ऐसे लोग मिल जायेंगे जो तम्बाकू को दवा बताते हैं. पवित्र तीर्थस्थलों पर धूनी पर बैठकर सुलफा, गांजा अथवा तम्बाकू के दम लगाने वालों तथाकथित बाबाओं की तो पूरी फ़ौज ही भरी पड़ी है. सरकारी दफ्तरों में तम्बाकू या धूम्रपान का सेवन करते पकड़े गए तमाम लोगों ने इसे अपने पक्ष में उपयोग किया है. पर ऐसे लोग उस पक्ष को भूल जाते हैं, जहाँ स्कन्दपुराण में कहा गया है कि-"स्वधर्म का आचरण करके जो पुण्य प्राप्त किया जाता है, वह धूम्रपान से नष्ट हो जाता है। इस कारण समस्त ब्राह्मण, क्षत्रिय, वैश्य आदि को इसका सेवन कदापि नहीं करना चाहिए।''

इधर हाल के वर्षों में जिस तरह से इसने तेजी से महिलाओं को चंगुल में लेना आरंभ किया है, वह पूरी दुनिया के लिए चिंताजनक बन चुका है. अधिकतर महिलाओं का यह नशा उनकी अगली पीढ़ी में भी जा रहा है क्योंकि मातृत्व की स्थिति में इसका बुरा असर बच्चों पर पड़ना तय है. अब तो महिलाओं के लिए बाकायदा अलग से तम्बाकू उत्पाद भी बनने लगे हैं. स्कूल जाते लड़के-लड़कियां कम उम्र में ही इनका लुत्फ़ उठाने लगे हैं. उस पर से विज्ञापनों की चकाचौंध भी उन्हें इसका स्वाद लेने की तरफ अग्रसर करती है. फिल्मों-धारावाहिकों में जिस धड़ल्ले से नायक-नायिकाएं तम्बाकू वाले सिगरेट या सिगार को स्टाइल में पीते नजर आते हैं, वह नवयुवकों-नवयुवतियों पर गहरा असर डालता है. ऐसे में यह पता होते हुए भी कि यह स्वस्थ्य के अनुकूल नहीं है, यह स्टेट्स सिम्बल या फैशन का प्रतीक बन जाता है. प्रथम विश्व युद्ध के बाद घाटे की भरपाई और बदलते मूल्यों के चक्कर में पहली बार व्यावसायिक कंपनियों ने तम्बाकू उत्पादों की बिक्री के लिए महिलाओं का इस्तेमाल करना आरंभ किया. लारीवार्ड कंपनी ने पहल करते हुए पहली बार तम्बाकू उत्पादों के विज्ञापन हेतु सर्वप्रथम 1919 में महिलाओं के चित्रों का उपयोग किया। इसके अगले साल ही सिगरेट को नारी- स्वतंत्रता के प्रतीक रूप में प्रस्तुत किया गया। 1927 के दौर में तो बाकायदा मार्लबोरो ब्रांड में सिगरेट को फैशन व दुबलेपन से जोड़ कर पेश किया गया. इसी के साथ ही कई नामी-गिरामी कंपनियों ने तमाम अभिनेत्रियों को तम्बाकू उत्पादों के कैम्पेन से जोड़ना आरंभ किया। बाद के वर्षों में जैसे -जैसे नारी-स्वातंत्र्य के नारे बुलंद होते गए, स्लिम होने को फैशन-स्टेटमेंट माना जाने लगा, इन कंपनियों ने भी इसे भुनाना आरंभ कर दिया. फिलिप मौरिस कंपनी ने 60 के दशक में बाकायदा वर्जिनिया स्लिम्स नाम से मार्केटिंग अभियान आरंभ किया,जिसकी पंच लाइन थी -'यू हैव कम ए लांग वे बेबी.' इसके बाद तो लगभग हर कंपनी ही तम्बाकू उत्पादों के प्रचार के लिए नारी माडलों व फ़िल्मी नायिकाओं का इस्तेमाल कर रही है. ऐसे में विश्व स्वास्थ्य संगठन द्वारा पूरा पिछला वर्ष तम्बाकू निषेध दिवस पर महिलाओं पर फोकस किया जाना महत्वपूर्ण व प्रासंगिक भी है. गौरतलब है कि भारत की कुल जितनी आबादी है, लगभग उतने ही लोग दुनिया में धूम्रपान करने वाले भी हैं, अर्थात 1 अरब से ज्यादा. इस 1 अरब में धूम्रपान करने वाली करीब 20 फीसदी महिलाएं भी शामिल हैं. आज महिलाओं में धूम्रपान का यह शौक भारत में भी बखूबी देखने को मिलता है. यह अक्सर या तो हाई सोसाईटी में या समाज के निचले तबके में बखूबी देखने को मिलता है. आंकड़े गवाह हैं कि भारत में करीब 1.4 फीसदी महिलायें धूम्रपान और करीब 8.4 फीसदी महिलायें खाने योग्य तम्बाकू का सेवन करती है। ऐसे में तम्बाकू सेवन से उनमें तमाम रोग व विकार उत्पन्न होते हैं. इनमें श्वांस सम्बन्धी बीमारी, फेफड़े का कैंसर, दिल का दौरा, निमोनिया, माहवारी सम्बंधित समस्याएं एवं प्रजनन विकार जैसी बीमारियाँ शामिल हैं. यही नहीं तम्बाकू का नियमित सेवन करने वाली महिलाओं में अक्सर पूर्व-प्रसव भी देखा गया हाई तथा पैदा होने वाले बच्चे औसत वजन से लगभग 400-500 ग्राम कम के पैदा होते हैं. इसके साथ ही तम्बाकू सेवन करने वाली महिलाओं में गर्भपात की दर भी सामान्य महिलाओं की तुलना में 95 फीसदी ज्यादा होती है।वाकई आज जरुरत है कि इस ओर गंभीर पहल की जाय. इन्हीं सबके चलते विश्व स्वास्थ्य संगठन अब तम्बाकू-उत्पादों का भ्रामक बाजारीकरण, जिसमें परोक्ष-अपरोक्ष रूप में तम्बाकू कंपनियों द्वारा प्रायोजित किसी भी सार्वजनिक कार्यक्रम पर प्रतिबन्ध लगाना भी शामिल है, के बारे में भी सोच रहा है. जानकर आश्चर्य होगा कि तम्बाकू कंपनियाँ हर साल विज्ञापन पर करीब दस अरब रूपये खर्च करतीं हैं. पर बेहतर होगा कि सरकारों और संगठनों की बजाय इस सम्बन्ध में अपने घर और उससे पहले खुद से शुरुआत की जाय ताकि तम्बाकू की यह विषबेल समय से पहले ही सभ्यताओं को न लील ले. क्योंकि Active रूप में जहाँ यह खुद के लिए घातक है, वही Passive रूप में हमारे परिवेश, परिवार, समाज और अंतत: पूरी सभ्यता को लीलने के लिए तैयार बैठी है !!

बुधवार, 18 मई 2011

मई माह की याद में, जब 1857 की जंग का आगाज हुआ

मई माह का भारतीय सन्दर्भ में बहुत महत्त्व है. इसी माह की 10 तारीख को 1857 में भारत का प्रथम स्वतंत्रता संग्राम आरंभ हुआ था और फिर तो इससे लोग जुड़ते ही गए. 1857 वह वर्ष है, जब भारतीय वीरों ने अपने शौर्य की कलम को रक्त में डुबो कर काल की शिला पर अंकित किया था और ब्रिटिश साम्राज्य को कड़ी चुनौती देकर उसकी जड़ें हिला दी थीं। 1857 का वर्ष वैसे भी उथल-पुथल वाला रहा है। इसी वर्ष कैलिफोर्निया के तेजोन नामक स्थान पर 7.9 स्केल का भूकम्प आया था तो टोकियो में आये भूकम्प में लगभग एक लाख लोग और इटली के नेपल्स में आये 6.9 स्केल के भूकम्प में लगभग 11,000 लोग मारे गये थे। 1857 की क्रान्ति इसलिये और भी महत्वपूर्ण हो जाती है कि ठीक सौ साल पहले सन् 1757 में प्लासी के युद्ध में विजय प्राप्त कर राबर्ट क्लाइव ने अंग्रेजी राज की भारत में नींव डाली थी। विभिन्न इतिहासकारों और विचारकों ने इसकी अपने-अपने दृष्टिकोण से व्याख्यायें की हैं। भारत के प्रथम प्रधानमंत्री और महान चिन्तक पं0 जवाहरलाल नेहरू ने लिखा कि- ‘‘यह केवल एक विद्रोह नहीं था, यद्यपि इसका विस्फोट सैनिक विद्रोह के रूप में हुआ था, क्योंकि यह विद्रोह शीघ्र ही जन विद्रोह के रूप में परिणित हो गया था।’’ बेंजमिन डिजरायली ने ब्रिटिश संसद में इसे ‘‘राष्ट्रीय विद्रोह’’ बताया। प्रखर विचारक बी0डी0सावरकर व पट्टाभि सीतारमैया ने इसे ”भारत का प्रथम स्वाधीनता संग्राम”, ज़ोन विलियम ने ”सिपाहियों का वेतन सुविधा वाला मामूली संघर्ष“ व ज़ोन ब्रूस नोर्टन ने ‘‘जन-विद्रोह’’ कहा। माक्र्सवादी विचारक डा0 राम विलास शर्मा ने इसे संसार की प्रथम साम्राज्य विरोधी व सामन्त विरोधी क्रान्ति बताते हुए 20वीं सदी की जनवादी क्रान्तियों की लम्बी श्रृंखला की प्रथम महत्वपूर्ण कड़ी बताया। प्रख्यात अन्तर्राष्ट्रीय राजनैतिक विचारक मैजिनी तो भारत के इस प्रथम स्वाधीनता संग्राम को अन्तर्राष्ट्रीय परिप्रेक्ष्य में देखते थे और उनके अनुसार इसका असर तत्कालीन इटली, हंगरी व पोलैंड की सत्ताओं पर भी पड़ेगा और वहाँ की नीतियाँ भी बदलेंगी।



1857 की क्रान्ति को लेकर तमाम विश्लेषण किये गये हैं। इसके पीछे राजनैतिक-सामाजिक-धार्मिक-आर्थिक सभी तत्व कार्य कर रहे थे, पर इसका सबसे सशक्त पक्ष यह रहा कि राजा-प्रजा, हिन्दू-मुसलमान, जमींदार-किसान, पुरूष-महिला सभी एकजुट होकर अंग्रेजों के विरुद्ध लड़े। 1857 की क्रान्ति को मात्र सैनिक विद्रोह मानने वाले इस तथ्य की अवहेलना करते हैं कि कई ऐसे भी स्थान थे, जहाँ सैनिक छावनियाँ न होने पर भी ब्रिटिश सत्ता के विरूद्ध क्रान्ति हुयी। इसी प्रकार वे यह भूल जाते है कि वास्तव में ये सिपाही सैनिक वर्दी में किसान थे और किसी भी व्यक्ति के अधिकारों के हनन का सीधा तात्पर्य था कि किसी-न-किसी सैनिक के अधिकारों का हनन, क्योंकि हर सैनिक या तो किसी का पिता, बेटा, भाई या अन्य रिश्तेदार है। यह एक तथ्य है कि अंगे्रजी हुकूमत द्वारा लागू नये भू-राजस्व कानून के खिलाफ अकेले सैनिकों की ओर से 15,000 अर्जियाँ दायर की गयी थीं। डाॅ0 लक्ष्मीमल्ल सिंघवी के शब्दों में- ‘‘सन् 1857 की क्रान्ति को चाहे सामन्ती सैलाब या सैनिक गदर कहकर खारिज करने का प्रयास किया गया हो, पर वास्तव में वह जनमत का राजनीतिक-सांस्कृतिक विद्रोह था। भारत का जनमानस उसमें जुड़ा था, लोक साहित्य और लोक चेतना उस क्रान्ति के आवेग से अछूती नहीं थी। स्वाभाविक है कि क्रान्ति सफल न हो तो इसे ‘विप्लव’ या ‘विद्रोह’ ही कहा जाता है।’’ यह क्रान्ति कोई यकायक घटित घटना नहीं थी, वरन् इसके मूल में विगत कई सालों की घटनायें थीं, जो कम्पनी के शासनकाल में घटित होती रहीं। एक ओर भारत की परम्परा, रीतिरिवाज और संस्कृति के विपरीत अंग्रेजी सत्ता एवं संस्कृति सुदृढ हो रही थी तो दूसरी ओर भारतीय राजाओं के साथ अन्यायपूर्ण कार्रवाई, अंग्रेजों की हड़पनीति, भारतीय जनमानस की भावनाओं का दमन एवं विभेदपूर्ण व उपेक्षापूर्ण व्यवहार से राजाओं, सैनिकों व जनमानस में विद्रोह के अंकुर फूट रहे थे।



इसमें कोई शक नहीं कि 1757 से 1856 के मध्य देश के विभिन्न स्थानों पर भिन्न-भिन्न वर्गों द्वारा कई विद्रोह किये गये। यद्यपि अंग्रेजी सेना बार-बार इन विद्रोहों को कुचलती रही पर उसके बावजूद इन विद्रोहों का पुनः सर उठाकर खड़ा हो जाना भारतीय जनमानस की जीवटता का ही परिचायक कहा जायेगा। 1857 के विद्रोह को इसी पृष्ठभूमि में देखे जाने की जरूरत है। अंग्रेज इतिहासकार फॅारेस्ट ने एक जगह सचेत भी किया है कि- ‘‘1857 की क्रान्ति हमें इस बात की याद दिलाती है कि हमारा साम्राज्य एक ऐसे पतले छिलके के ऊपर कायम है, जिसके किसी भी समय सामाजिक परिवर्तनों और धार्मिक क्रान्तियों की प्रचण्ड ज्वालाओं द्वारा टुकडे़-टुकडे़ हो जाने की सम्भावना है।’’ अंग्रेजी हुकूमत को भी 1757 से 1856 तक चले घटनाक्रमों से यह आभास हो गया था कि वे अब अजेय नहीं रहे। तभी तो लार्ड केनिंग ने फरवरी 1856 में गर्वनर जनरल का कार्यभार ग्रहण करने से पूर्व कहा था कि - ‘‘मैं चाहता हूँ कि मेरा कार्यकाल शान्तिपूर्ण हो। मैं नहीं भूल सकता कि भारत के गगन में, जो अभी शान्त है, कभी भी छोटा सा बादल, चाहे वह एक हाथ जितना ही क्यों न हो, निरन्तर विस्तृत होकर फट सकता है, जो हम सबको तबाह कर सकता है।’’ लाॅर्ड केनिंग की इस स्वीकारोक्ति में ही 1857 की क्रान्ति के बीज छुपे हुये थे।



1857 की क्रान्ति की सफलता-असफलता के अपने-अपने तर्क हैं पर यह भारत की आजादी का पहला ऐसा संघर्ष था, जिसे अंग्रेज समर्थक सैनिक विद्रोह अथवा असफल विद्रोह साबित करने पर तुले थे, परन्तु सही मायनों में यह पराधीनता की बेड़ियों से मुक्ति पाने का राष्ट्रीय फलक पर हुआ प्रथम महत्वपूर्ण संघर्ष था। अमरीकी विद्वान प्रो0 जी0 एफ0 हचिन्स के शब्दों में-‘‘1857 की क्रान्ति को अंग्रेजों ने केवल सैनिक विद्रोह ही कहा क्योंकि वे इस घटना के राजद्रोह पक्ष पर ही बल देना चाहते थे और कहना चाहते थे कि यह विद्रोह अंग्रेजी सेना के केवल भारतीय सैनिकों तक ही सीमित था। परन्तु आधुनिक शोध पत्रों ने यह स्पष्ट कर दिया है कि यह आरम्भ से सैनिक विद्रोह के ही रूप में हुआ, परन्तु शीघ्र ही इसमें लोकप्रिय विद्रोह का रूप धारण कर लिया।’’ वस्तुतः इस क्रान्ति को भारत में अंग्रेजी हुकूमत के विरुद्ध पहली प्रत्यक्ष चुनौती के रूप में देखा जा सकता है। यह आन्दोलन भले ही भारत को अंग्रेजों की गुलामी से मुक्ति न दिला पाया हो, लेकिन लोगों में आजादी का जज्बा जरूर पैदा कर गया। 1857 की इस क्रान्ति को कुछ इतिहासकारों ने महास्वप्न की शोकान्तिका कहा है, पर इस गर्वीले उपक्रम के फलस्वरूप ही भारत का नायाब मोती ईस्ट इण्डिया कम्पनी के हाथों से निकल गया और जल्द ही कम्पनी भंग हो गयी। 1857 के संग्राम की विशेषता यह भी है कि इससे उठे शंखनाद के बाद जंगे-आजादी 90 साल तक अनवरत चलती रही और अंतत: 15 अगस्त, 1947 को हम आजाद हुए !!

रविवार, 1 मई 2011

मजदूर करे तो क्या करे..




दुनिया भर के मजदूरों एक हो



जुल्म और शोषण का मिलकर जवाब दो



न जाने कैसे-कैसे नारे और वायदे




पर मजदूर एक हों तो कैसे



जिसे उन्होंने अपना नेता चुना



बैठ गया है वह सत्ता की पांत में



अब तो उनकी भाषा भी नहीं समझता




फिर मजदूर करे तो करे क्या



अब तो उनमें भी वर्ग भेद हो गया है



उनके अगुआ बन बैठे हैं दलाल






फिर बुर्जुआ वर्ग का क्या दोष



वह तो चाहता है उनका हक देना



पर आड़े आते हैं नेता और दलाल



आखिर फिर इन्हें कौन पूछेगा




शायद अब मार्क्स को भी गढ़नी पडे़



शोषितों व बुर्जुआ की एक नयी परिभाषा !!