कल दशहरा है. इस दिन का बड़ा इंतजार रहता था कभी. दशहरा आयेगा तो मेला भी होगा और फिर वो जलेबियाँ, चाट, गुब्बारे, बांसुरी, खिलौने...और भी न जाने क्या-क्या. अब तो कहीं भी जाओ ये सभी चीजें हर समय उपलब्ध हैं. पार्क के बाहर खड़े होइए या मार्केट में..गुब्बारे वाला हाजिर. मेले को लेकर पहले से ही न जाने क्या-क्या सपने बुनते थे. राम-लीला की यादें तो अब मानो धुंधली हो गई हैं. घर जाता हूँ तो राम लीला में अभिनय करने वाले लोगों को देखकर अनायास ही पुरानी यादें ताजा हो जाती हैं. एक तरफ दुर्गा पूजा, फिर दीवाली के लिए लक्ष्मी-गणेश की मूर्तियाँ खरीदना इस मेले के अनिवार्य तत्व थे. हमारी लोक-परम्पराएँ, उत्सव और सामाजिकता ..इन सब का मेल होता था मेला. याद कीजिये प्रेमचन्द की कहानी का हामिद, कैसे मेले से अपने माँ के लिए चिमटा खरीद कर लाता है. ऐसे न जाने कितने दृश्य मेले में दिखते थे. जादू वाला, झूले वाला, मदारी, घोड़े वाला, हाथी वाला, सब मेले के बहाने इकठ्ठा हो जाते थे. मानो मेला नहीं, जीवन का खेला हो. मिठाई की दुकानें हफ्ते भर पहले से ही सजने लगती थीं. बिना मिठाई के मेला क्या और जलेबी, रसगुल्ले और चाट की महिमा तो अपरम्पार थी. चारों तरफ बजते लाउडस्पीकर कि अपनी जेब संभल कर चलें, जेबकतरों से खतरा हो सकता है या अमुक खोया बच्चा यहाँ पर है, उसके मम्मी-पापा आकर ले जाएँ. इन मेलों की याद बहुत दिन तक जेहन में कैद रहती थी. मेले में कितने रिश्तेदारों और दोस्तों से मुलाकात हो जाती थी. ऐसा लगता मानो पूरा संसार सिमट कर मेले में समा गया हो.
पर अब न तो वह मेला रहा और न ही उत्साह. आतंक की छाया इन मेलों पर भी दिखाई देने लगी है. हर साल हम रावण का दहन करते हैं, पर अगले साल वह और भी विकराल होकर सामने आता है. मानो हर साल चिढाने आता है कि ये देखो पिछले साल भी मुझे जलाया था, मैं इस साल भी आ गया हूँ और उससे भी भव्य रूप में. यह भी कैसे बेबसी है कि हम हर साल पूरे ताम-झाम के साथ रावण को जलाते हैं और फिर अगले साल वह आकर अट्ठाहस करने लगता है. शायद यह भ्रष्टाचार और अनाचार को समाज में महिमामंडित करने का खेल है.
मेला इस साल भी आयेगा और चला जायेगा. पर इस मेले में ना वह बात रही और न ही सामाजिकता और आत्मीयता.दशहरा शब्द की उत्पत्ति संस्कृत भाषा के शब्द संयोजन "दश" व "हरा" से हुयी है, जिसका अर्थ भगवान राम द्वारा रावण के दस सिरों को काटने व तत्पश्चात रावण की मृत्यु रूप में राक्षस राज के आंतक की समाप्ति से है। यही कारण है कि इस दिन को विजयदशमी अर्थात अन्याय पर न्याय की विजय के रूप में भी मनाया जाता है। काश हर साल दशहरे पर हम प्रतीकात्मक रूप की बजाय वास्तव में अपने और समाज के अन्दर फैले रावण को ख़त्म कर पाते !!
17 टिप्पणियां:
यादें ताज़ा कर दी बचपन की।
हाँ बचपन की यादें ताजा हो गयीं
@आदरणीय कृष्ण जी
अभी तक लोग राम को बस मानते हैं पर मुझे लगता है मानना ही उतना जरूरी नहीं है जितना उन्हें जानना और समझना
जिस दिन हम जानेंगे मन का रावण अपने आप अदृश्य हो जायेगा
विजयादशमी की हार्दिक शुभकामनाएं
दशहरे का आनन्द तो मेले ही में आता है।
मेले अब भी लगते हैं । लेकिन इनका स्वरुप बदल गया है ।
रावण आज कई रूपों में जिन्दा है । इंतजार है उस दिन का , जब हम अपने ही बनाये रावणों को मार पाएंगे ।
क्या करें? ना टमाटर में वह खट्टापन , ना चावल में वह खुशबू .... ना धनिया में वह ताजगी .....तो मेले में सदभाव कहाँ होगा ?
आनन्द तो मेले ही में आता विजयादशमी की हार्दिक शुभकामनाएं
दशहरा की ढेर सारी शुभकामनाएँ!!
यादें ताज़ा कर दी बचपन की।
आप सभी को विजयदशमी पर्व की हार्दिक शुभकामनायें !!
यादें ताज़ा कर दी बचपन की।
आप सभी को विजयदशमी पर्व की हार्दिक शुभकामनायें !!
ऊपर से इतने इमानदार लगते हैं मगर इसी इमानदारी के साथ अगर अपने अन्दर झांकते हैं तो अन्दर की जगह रवां नज़र आता है ! क्या हम अपने रावन को मार पाते हैं ...कुछ दिन बाद दुखी होने के बाद भूल जाते हैं और हम फिर ईमानदार बन जाते हैं
बहुत अच्छी प्रस्तुति। राजभाषा हिन्दी के प्रचार-प्रसार में आपका योगदान सराहनीय है।
बेटी .......प्यारी सी धुन
bahut sundar post badhai
असत्य पर सत्य की विजय हो ....दशहरा पर्व पर हार्दिक शुभकामनाएं ...
मेला की यादें भला कैसे भूल सकती हैं...दिलचस्प पोस्ट.
चलिए इसी बहाने सबकी यादें भी ताजा हो गईं...अब सभी की टिप्पणियों के लिए आभार.
सब तो सब कह चुके फिर अब क्या कहूँ सिवाय इसके कि ---- खूबसूरत पोस्ट!
वाह! सचमुच...
गौरव अग्रवाल जी ने बड़ी अच्छी बात कही है...
विजयादशमी की सादर बधाईयाँ...
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