पता नहीं क्यों
सूरज की पहली किरण
मुझे कुँवारी सी लगती है
बिस्तर पर अल्हड़ता से
अस्त-व्यस्त और
निश्चिन्त होकर लेटे
भर लेती है अपने बाहुपाश में
माँ की डाँट के बीच
अंगड़ाईयाँ लेते हुये
ज्यों ही कोशिश करता हूँ उठने की
रोक लेती है मुझे
धूप का नर्म अहसास
मानो ये किरणें
तैयार बैठी हों
अपना कौमार्यपन
मुझ पर लुटाने के लिए।
सूरज की पहली किरण
मुझे कुँवारी सी लगती है
बिस्तर पर अल्हड़ता से
अस्त-व्यस्त और
निश्चिन्त होकर लेटे
भर लेती है अपने बाहुपाश में
माँ की डाँट के बीच
अंगड़ाईयाँ लेते हुये
ज्यों ही कोशिश करता हूँ उठने की
रोक लेती है मुझे
धूप का नर्म अहसास
मानो ये किरणें
तैयार बैठी हों
अपना कौमार्यपन
मुझ पर लुटाने के लिए।
9 टिप्पणियां:
पता नहीं क्यों
सूरज की पहली किरण
मुझे कुँवारी सी लगती है
Bade Romantic vichar hain. Khair Kavi ki yahi pehchan hai.
खूबसूरत भाव और खूबसूरत कविता...बधाई !!
goood expression with thoughtfulness
keep it up
take care
Adbhut...Prakriti aur Manviy bhavon ka anutha sammilan.
बिस्तर पर अल्हड़ता से
अस्त-व्यस्त और
निश्चिन्त होकर लेटे
भर लेती है अपने बाहुपाश में
..........Bade Romantic vichar hain Janab.
Nice poem.
Thank u Friends.
माँ की डाँट के बीच
अंगड़ाईयाँ लेते हुये
ज्यों ही कोशिश करता हूँ उठने की
रोक लेती है मुझे
धूप का नर्म अहसास
...पढ़कर दिल खुश हो गया.
बेहद सुंदर और भावभीनी कविता ।
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