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शुक्रवार, 24 अप्रैल 2015

चिट्ठियों ने जिया लम्बा दौर - कृष्ण कुमार यादव

इलाहाबाद के रहने वाले कृष्ण कुमार यादव करीब महीने भर पहले ही यहाँ राजस्थान पश्चिमी क्षेत्र, जोधपुर में डाक सेवाओं के निदेशक पद पर स्थानांतरित होकर आए हैं।  भारतीय डाक सेवा (आईपीएस) के अधिकारी यादव ने आते ही सुकन्या समृद्धि योजना सहित डाक विभाग की विभिन्न योजनाओं को लोगों तक पहुँचाने के लिए मेले और डाकघरों में कई कार्यक्रम आयोजित किए।  उनके महीने भर के कार्यकाल में ही जोधपुर में सुकन्या समृद्धि योजना के तहत करीब 20 हजार बेटियों ने खाते खुलवाए जो बेटियों की शादी व कॅरियर के लिए मील का पत्थर साबित होंगे।  डाक विभाग के बारे में उनकी योजनाओं व उनके व्यक्तित्व की जानकारी के लिए राजस्थान पत्रिका के संवाददाता गजेंद्र सिंह दहिया बुधवार दोपहर उनके दफ्तर पहुँचे।  पेश  है बातचीत के कुछ अंश -

प्रश्न  : आपको नहीं लगता कि डाक विभाग का महत्व दिन प्रतिदिन कम होता जा रहा है?
उत्तर : डाक विभाग ने 1854 में अपनी स्थापना से अब तक डेढ़ युग से अधिक का सफर तय किया है।  आर्टिकल डिलीवरी के लिए प्रसिद्ध इस विभाग की चिट्ठियों, पोस्टकार्ड और अंतरर्देषीय पत्र ने एक लम्बा दौर जिया है।  पेजर आया खत्म हो गया।  लैण्डलाईन फोन केवल सरकारी दफ्तरों में बचे हैं।  सोषल मीडिया आने के बाद मोबाइल की एसएमएस सेवा खत्म होने के कगार पर है, लेकिन चिट्ठियाँ आज भी आ रही हैं और जा रही हैं, बस स्वरूप व जरुरत थोड़ी बदल गई।

प्रश्न  : अन्य देशों की तुलना में भारतीय डाक में क्या अंतर है?
उत्तर : मैं भारतीय डाक अकादमी की ओर से दक्षिण कोरिया गया।  वहाँ डाकघर माॅल की तरह हैं  जहाँ ग्राहकों को डाकघर में हर सुविधा दी जा रही है,  यानी वे कामर्शियल  हो गया है, लेकिन भारतीय डाक ने अभी तक अपने आपको सामाजिक सरोकार से जोड़ रखा है।

प्रश्न  : डाक विभाग के पास देश में 1.50 लाख डाकघरों का नेटवर्क है वो भी प्राइम लोकेशन पर, वो इसका रिटेलिंग व मार्केटिंग के लिए इस्तेमाल क्यों नहीं करते ?
उत्तर : देश  के 70 फीसदी लोग गाँवों में रहते हैं।  उनको आधारभूत सुविधाएँ उपलब्ध करवाना विभाग का पहला काम है।  वैसे डाक विभाग धीरे-धीरे आईटी माॅर्डनाइजेशन की ओर बढ़ रहा है।

प्रश्न  : अपने बारे में बताइए?
उत्तर : मेरा जन्म 10 अगस्त,1977 को  उत्तर प्रदेश प्रदेश  के आजमगढ़ में हुआ।  शिक्षा इलाहाबाद में हुई।  एमए (राजनीति शास्त्र) फाईनल ईयर के दौरान ही 2001 में मेरा यूपीएससी में आईपीएस में चयन हो गया।  पिता श्री राम शिव मूर्ति यादव जी स्वास्थ्य अधिकारी रहे हैं और माता श्रीमती विमला गृहिणी हैं।  तीन भाई-बहिनों में सबसे बड़ा हूँ।  छोटी बहन उत्तर प्रदेश में शिक्षक है और भाई सिविल सेवा की तैयारी कर रहा है।  शादी 2004 में काॅलेज में लेक्चरर आकांक्षा से हुई जो वर्तमान में फ्री लांसिंग करती हैं।  मेरी दो बेटियाँ हैं।

प्रश्न  : आप सिविल सेवा में ही आना चाहते थे?
उत्तर : नहीं, मैं डाॅक्टर बनना चाहता था, लेकिन पापा ने सिविल सर्विसेज़  में आने को कहा।  मैंने उनसे कहा कि यह परीक्षा कठिन है तो उनका जवाब था कि इस दुनिया में जो भी कुछ बनता है, करता है, वह मनुष्य  ही है।

प्रश्न  : आप एक कवि व साहित्यकार भी हैं और आपकी पत्नी भी?
उत्तर : जी हाँ, मेरी अब तक सात पुस्तकें और आकांक्षा की दो पुस्तकें प्रकाशित हो चुकी हैं।  कविता, कहानी, लघुकथा व बाल कविताओं के लिए कई सम्मान भी मिले हैं।  मैं और आकांक्षा ब्लाॅग भी लिखते हैं।  साहित्य लेखन इलाहाबाद विश्वविद्यालय में अध्ययन के समय परवान चढ़ा था।



( साभार : 'राजस्थान पत्रिका' (24 अप्रैल, 2015), जोधपुर  में प्रकाशित कृष्ण कुमार यादव, निदेशक डाक सेवाएँ, राजस्थान पश्चिमी क्षेत्र, जोधपुर का साक्षात्कार : चिट्ठियों ने जिया लम्बा दौर.

बुधवार, 22 अप्रैल 2015

जब वृक्षों की रक्षा के लिए दे दी कुर्बानी

आज विश्व  पृथ्वी  दिवस  है।  अपनी धरती और अपने पर्यावरण के प्रति सचेत होने का एक और दिन। वृक्षों के रक्षार्थ जोधपुर के खेजड़ली गांव में सन् 1730 में खेजड़ी के पेड़ों की रक्षा के लिए विश्नोई जाति के के बलिदान की गाथा रोमांचक और प्रेरणास्पद है। अमृता देवी विश्नोई  के नेतृत्व में 363 लोगों द्वारा वृक्षों के रक्षार्थ किया गया जीवन बलिदान अपनी पृथ्वी,  वृक्ष और पर्यावरण के प्रति अनुकरणीय राह दिखाता है। राजस्थान में एक कहावत प्रचलित है- ‘सर साठे रुंख रहे तो भी सस्तो जाण’, यानी सिर कटवा कर भी वृक्षों की रक्षा हो सके, तो इसे फायदे का सौदा ही समझिए। 

खेजड़ली के बलिदान की गाथा रोमांचक और प्रेरणास्पद है।  सन् 1730 में जोधपुर के राजा अभयसिंह ने महल बनवाने का निश्चय किया. नया महल बनाने के कार्य में सबसे पहले चूने का भट्टा जलाने के लिए ईंधन की आवश्यकता बतायी गयी. राजा ने मंत्री गिरधारी दास  भण्डारी को लकड़ियों की व्यवस्था करने का आदेश दिया, मंत्री गिरधारी दास  भण्डारी  की नजर महल से करीब 25 किलोमीटर दूर स्थित गांव खेजडली पर पड़ी. मंत्री गिरधारी दास भण्डारी व दरबारियों ने मिलकर राजा को सलाह दी कि पड़ोस के गांव खेजड़ली में खेजड़ी के बहुत पेड़ है, वहां से लकड़ी मंगवाने पर चूना पकाने में कोई दिक्कत नहीं होगी. इस पर राजा ने तुरंत अपनी स्वीकृति दे दी. खेजड़ली गांव में अधिकांश बिश्नोई लोग रहते थे. बिश्नोईयों में पर्यावरण के प्रति प्रेम और वन्य जीव सरंक्षण जीवन का प्रमुख उद्देश्य रहा है. खेजड़ली गांव में प्रकृति के प्रति समर्पित इसी बिश्नोई समाज की 42 वर्षीय महिला अमृता देवी के परिवार में उनकी तीन पुत्रियां आसु, रतनी, भागु बाई  और पति रामू खोड़ थे, जो कृषि और पशुपालन से अपना जीवन-यापन करते थे.

खेजड़ली में राजा के कर्मचारी सबसे पहले अमृता देवी के घर के पास में लगे खेजड़ी के पेड़ को काटने आये तो अमृता देवी ने उन्हें रोका और कहा कि “यह खेजड़ी का पेड़ हमारे घर का सदस्य है यह मेरा भाई है इसे मैंने राखी बांधी है, इसे मैं नहीं काटने दूंगी.” इस पर राजा के कर्मचारियों ने प्रति प्रश्न किया कि “इस पेड़ से तुम्हारा धर्म का रिश्ता है, तो इसकी रक्षा के लिये तुम लोगों की क्या तैयारी है.” इस पर अमृता देवी और गांव के लोगों ने अपना संकल्प घोषित किया “सिर साटे रूख रहे तो भी सस्तो जाण” अर्थात् हमारा सिर देने के बदले यह पेड़ जिंदा रहता है तो हम इसके लिये तैयार है. उस दिन तो पेड़ कटाई का काम स्थगित कर राजा के कर्मचारी चले गये, लेकिन इस घटना की खबर खेजड़ली और आसपास के गांवों में शीघ्रता से फैल गयी.

 कुछ दिन बाद मंगलवार 21 सितम्बर 1730 ई. (भाद्रपद शुक्ल दशमी, विक्रम संवत 1787) को मंत्री गिरधारी दास भण्डारी लावलश्कर के साथ पूरी तैयारी से सूर्योदय होने से पहले आये, जब पूरा गाँव सो रहा था. गिरधारी दास भण्डारी के साथ आए लोगों ने सबसे पहले अमृता देवी के घर के पास लगे खेजड़ी के हरे पेड़ो की कटाई करना शुरु किया तो, आवाजें सुनकर अमृता देवी अपनी तीनों पुत्रियों के साथ घर से बाहर निकली उसने ये कृत्य विश्नोई धर्म में वर्जित (प्रतिबंधित) होने के कारण उनका विरोध किया  उद्घोष किया  “सिर साटे रुख रहे तो भी सस्तो जाण” और अमृता देवी गुरू जांभोजी महाराज की जय बोलते हुए सबसे पहले पेड़ से लिपट गयी, क्षण भर में उनकी गर्दन काटकर सिर धड़ से अलग कर दिया. फिर तीनों पुत्रियों पेड़ से लिपटी तो उनकी भी गर्दनें काटकर सिर धड़ से अलग कर दिये.

इस बात का पता चलते ही  खेजड़ली गांव के लोगों ने अपनी जान की कीमत पर भी वृक्षों की रक्षा करने का निश्चय किया। चौरासी गांवों को इस फैसले की सूचना दे दी गई। सैकड़ों की तादाद में लोग खेजड़ली गांव में इकट्ठे हो गए और पेड़ों को काटने से रोकने के लिए उनसे चिपक गए। उन्होनें एक मत से तय कर लिया कि एक पेड़ के एक विश्नोई लिपटकर अपने प्राणों की आहुति देगा. सबसे पहले बुजुर्गों ने प्राणों की आहुति दी. तब मंत्री गिरधारी दास  भण्डारी ने बिश्नोईयों को ताना मारा कि ये अवांच्छित बूढ़े लोगों की बलि दे रहे हो. उसके बाद तो ऐसा जलजला उठा कि बड़े, बूढ़े, जवान, बच्चे स्त्री-पुरुष सबमें प्राणों की बलि देने की होड़ मच गयी. बिश्नोई जन पेड़ो से लिपटते गये और प्राणों की आहुति देते गये. एक व्यक्ति के कटने पर तुरंत दूसरा व्यक्ति उसी पेड़ से चिपक जाता। इसमें कुल 363 बिश्नोईयों (71 महिलायें और 292 पुरूष) ने पेड़ की रक्षा में अपने प्राणों की आहूति दे दी. खेजड़ली की धरती बिश्नोईयों के बलिदानी रक्त से लाल हो गयी. जब इस घटना की सूचना जोधपुर के महाराजा को मिली तब जाकर उन्होंने पेड़ों की कटाई रुकवाई और भविष्य में वहां पेड़ न काटने के आदेश दिए। उन्होंने बिश्नोईयों को ताम्रपत्र से सम्मानित करते हुए जोधपुर राज्य में पेड़ कटाई को प्रतिबंधित घोषित किया और इसके लिये दण्ड का प्रावधान किया। 

 इस बलिदान में अमृतादेवी और उनकी दो पुत्रियां हरावल में रहीं। पुरुषों में सर्वप्रथम अणदोजी ने बलिदान दिया था और बाद में विरतो बणियाल, चावोजी, ऊदोजी, कान्होजी, किसनोजी, दयाराम आदि पुरुषों और दामी, चामी आदि स्त्रियों ने अपने प्राण दिए। मंगलवार 21 सितम्बर 1730 (भाद्रपद शुक्ल दशमी, विक्रम संवत 1787) का वह ऐतिहासिक दिन  इतिहास में सदैव के लिए प्रेरणा बनकर  अमर हो गया। खेजड़ली के इन वीरों की स्मृति में यहां हर वर्ष भादवा सुदी दशमी को मेला लगता है, जिसमें हजारों की संख्या में लोग इकट्ठे होते हैं।

(चित्र में : राष्ट्रीय पर्यावरण शहीद स्मारक, खेजड़ली-जोधपुर के समक्ष सपरिवार)