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गुरुवार, 31 जुलाई 2014

प्रेमचंद की रचनाओं के पात्र आज भी समाज में जिंदा हैं


प्रेमचन्द का साहित्य और सामाजिक विमर्श आज भी उतने ही प्रासंगिक हैं और उनकी रचनाओं के पात्र आज भी समाज में कहीं-न-कहीं जिंदा हैं। आधुनिक साहित्य के स्थापित मठाधीशों के नारी-विमर्श एवं दलित-विमर्श जैसे तकिया-कलामों के बाद भी अंततः लोग इनके सूत्र किसी न किसी रूप में पे्रमचन्द की रचनाओं में ढूंँढते नजर आते हैं।  प्रेमचन्द जब अपनी रचनाओं में समाज के उपेक्षित व शोषित वर्ग को प्रतिनिधित्व देेते हैं तो निश्चिततः इस माध्यम से वे एक युद्ध लड़ते हैं और गहरी नींद सोये इस वर्ग को जगाने का उपक्रम करते हैं। राष्ट्र आज भी उन्हीं समस्याओं से जूझ रहा है जिन्हें प्रेमचन्द ने काफी पहले रेखांकित कर दिया था। चाहे वह जातिवाद या सांप्रदायिकता का जहर हो, चाहे कर्ज की गिरफ्त में आकर आत्महत्या करता किसान हो, चाहे नारी की पीड़ा हो, चाहे शोषण और समाजिक भेद-भाव हो। इन बुराईयों के आज भी मौजूद होने का एक कारण यह है कि राजनैतिक सत्तालोलुपता के समांतर हर तरह के सामाजिक, धार्मिक व सांस्कृतिक आन्दोलन की दिशा नेतृत्वकर्ताओं को केंद्र-बिंदु बनाकर लड़ी गयी जिससे मूल भावनाओं के विपरीत आंदोलन गुटों में तब्दील हो गये एवं व्यापक व सक्रिय सामाजिक परिवर्तन की आकांक्षा कुछ लोगों की सत्तालोलुपता की भेंट चढ़ गयी।   

हिन्दी साहित्य के इतिहास में उपन्यास सम्राट के रूप में अपनी पहचान बना चुके प्रेमचंद का वास्तविक नाम धनपत राय श्रीवास्तव था. वह एक कुशल लेखक, जिम्मेदार संपादक और संवेदशील रचनाकार थे. प्रेमचंद का जन्म 31 जुलाई, 1880 को वाराणसी से लगभग चार मील दूर लमही नामक ग्राम में हुआ था. इनका संबंध एक गरीब कायस्थ परिवार से था. इनकी माता का नाम आनन्दी देवी था. इनके पिता अजायब राय श्रीवास्तव डाकमुंशी के रूप में कार्य करते थे.ऐसे में प्रेमचंद का डाक-परिवार से अटूट सम्बन्ध था.

जब प्रेमचंद के पिता गोरखपुर में डाकमुंशी के पद पर कार्य कर रहे थे उसी समय गोरखपुर में रहते हुए ही उन्होंने अपनी पहली रचना लिखी. यह रचना एक अविवाहित मामा से सम्बंधित थी जिसका प्रेम एक छोटी जाति की स्त्री से हो गया था. वास्तव में कहानी के मामा कोई और नहीं प्रेमचंद के अपने मामा थे, जो प्रेमचंद को उपन्यासों पर समय बर्बाद करने के लिए निरन्तर डांटते रहते थे. मामा से बदला लेने के लिए ही प्रेमचंद ने उनकी प्रेम-कहानी को रचना में उतारा. हालांकि प्रेमचंद की यह प्रथम रचना उपलब्ध नहीं है, क्योंकि उनके मामा ने क्रुद्ध होकर पांडुलिपि को अग्नि को समर्पित कर दिया था.

प्रेमचंद की एक कहानी, ‘कज़ाकी’, उनकी अपनी बाल-स्मृतियों पर आधारित है। कज़ाकी डाक-विभाग का हरकारा था और बड़ी लम्बी-लम्बी यात्राएँ करता था। वह बालक प्रेमचंद के लिए सदैव अपने साथ कुछ सौगात लाता था। कहानी में वह बच्चे के लिये हिरन का छौना लाता है और डाकघर में देरी से पहुँचने के कारण नौकरी से अलग कर दिया जाता है। हिरन के बच्चे के पीछे दौड़ते-दौड़ते वह अति विलम्ब से डाक घर लौटा था। कज़ाकी का व्यक्तित्व अतिशय मानवीयता में डूबा है। वह शालीनता और आत्मसम्मान का पुतला है, किन्तु मानवीय करुणा से उसका हृदय भरा है।

प्रेमचंद बचपन से ही काफी खुद्दार रहे. 1920 का दौर... गाँधी जी के रूप में इस देश ने एक ऐसा नेतृत्व पा लिया था, जो सत्य के आग्रह पर जोर देकर स्वतन्त्रता हासिल करना चाहता था। ऐसे ही समय में गोरखपुर में एक अंग्रेज स्कूल इंस्पेक्टर जब जीप से गुजर रहा था तो अकस्मात एक घर के सामने आराम कुर्सी पर लेटे, अखबार पढ़ रहे एक अध्यापक को देखकर जीप रूकवा ली और बडे़ रौब से अपने अर्दली से उस अध्यापक को बुलाने को कहा । पास आने पर उसी रौब से उसने पूछा-‘‘तुम बडे़ मगरूर हो। तुम्हारा अफसर तुम्हारे दरवाजे के सामने से निकल जाता है और तुम उसे सलाम भी नहीं करते।’’ उस अध्यापक ने जवाब दिया-‘‘मैं जब स्कूल में रहता हूँ तब मैं नौकर हूँ, बाद में अपने घर का बादशाह हूँ।’’अपने घर का बादशाह यह शख्सियत कोई और नहीं, वरन् उपन्यास सम्राट प्रेमचंद थे, जो उस समय गोरखपुर में गवर्नमेन्ट नार्मल स्कूल में सहायक अध्यापक के पद पर कार्यरत थे।

प्रेमचंद बहुमुखी प्रतिभा संपन्न साहित्यकार थे. उनकी रचनाओं में तत्कालीन इतिहास की झलक साफ दिखाई देती है. यद्यपि प्रेमचंद के कालखण्ड में भारत कई प्रकार की प्रथाओं और रिवाजों, जो समाज को छोटे-बड़े और ऊंच-नीच जैसे वर्गों में विभाजित करती है, से परिपूर्ण था इसीलिए उनकी रचनाओं में भी इनकी उपस्थिति प्रमुख रूप से शामिल होती है. प्रेमचंद का बचपन बेहद गरीबी और दयनीय हालातों में बीता. मां का चल बसना और सौतेली मां का बुरा व्यवहार उनके मन में बैठ गए थे. वह भावनाओं और पैसे के महत्व को समझते थे. इसीलिए कहीं ना कहीं उनकी रचनाएं इन्हीं मानवीय भावनाओं को आधार मे रखकर लिखे जाते थे. उन्होंने अपनी रचनाओं में जन साधारण की भावनाओं, परिस्थितियों और उनकी समस्याओं का मार्मिक चित्रण किया था. उनकी कृतियाँ भारत के सर्वाधिक विशाल और विस्तृत वर्ग की कृतियाँ हैं. इसके अलावा प्रेमचंद ने लियो टॉल्सटॉय जैसे प्रसिद्ध रचनाकारों के कृतियों का अनुवाद भी किया जो काफी लोकप्रिय रहा.


प्रेमचंद जी के पिता अजायब राय डाक-कर्मचारी थे. प्रेमचंद की स्मृति में भारतीय डाक विभाग की ओर से 31 जुलाई, 1980 को उनकी जन्मशती के अवसर पर 30 पैसे मूल्य का एक डाक टिकट भी जारी किया गया.


(मुंशी प्रेमचंद को पढ़ते हुए हम  सब बड़े हो  गए।  उनकी रचनाओं से बड़ी  आत्मीयता महसूस होती है।  ऐसा लगता है जैसे इन रचनाओं के  पात्र हमारे आस-पास ही मौजूद हैं। पिछले दिनों बनारस गया तो मुंशी प्रेमचंद की जन्मस्थली लमही भी जाने का सु-अवसर प्राप्त हुआ। मुंशी प्रेमचंद स्मारक लमही, वाराणसी के पुस्तकालय हेतु हमने अपनी पुस्तक '16 आने 16 लोग' भी भेंट की, संयोगवश इसमें एक लेख प्रेमचंद के कृतित्व पर भी शामिल है।)




रविवार, 20 जुलाई 2014

प्रतिभा किसी की मोहताज नहीं


जीवन में सफलता के बहुत मायने हैं।  कई बार जब हम जीवन में असफल होते हैं तो अपने ऊपर प्रश्नचिन्ह लगाने की बजाय परिस्थितियों को दोष देने लगते हैं। कहते हैं कि अभावों के बीच ही भाव पैदा होते हैं, जरुरत बस दृढ इच्छा शक्ति की है।  प्रतिभा किसी की मोहताज नहीं . इन उदाहरणों पर गौर करके तो देखिये-

1 - मुझे उचित शिक्षा लेने का अवसर नहीं मिला। 

-उचित शिक्षा का अवसर फोर्ड मोटर्स के मालिक हेनरी फोर्ड को भी नहीं  मिला ।

2- बचपन में  ही मेरे पिता का देहांत हो गया था। 

-प्रख्यात संगीतकार एआर रहमान के पिता का भी देहांत बचपन में हो गया था।

3 - मै अत्यंत गरीब घर से हूँ।

-पूर्व राष्ट्रपति अब्दुल कलाम भी गरीब घर से थे ।

4- बचपन से ही अस्वस्थ था। 

-ऑस्कर  विजेता अभिनेत्री मरली मेटलिन भी बचपन से बहरी व अस्वस्थ थीं ।

5 - मैंने  साइकिल पर घूमकर आधी जिंदगी गुजारी है। 

-निरमा के करसन भाई पटेल ने भी साइकिल पर निरमा बेचकर आधी जिन्दगी गुजारी ।

6- एक दुर्घटना में अपाहिज होने के बाद मेरी हिम्मत चली गयी।

- प्रख्यात नृत्यांगना सुधा चन्द्रन के पैर नकली हैं  ।

7 - मुझे बचपन से मंद बुद्धि कहा जाता है।  

- थामस अल्वा एडीसन को भी बचपन से मंदबुद्धि कहा जाता था।

8 - मैं  इतनी बार हार चुका कि  अब हिम्मत नहीं बची।  

-अब्राहम लिंकन 15 बार चुनाव हारने के बाद अमेरिका के राष्ट्रपति बने।

9 - मुझे बचपन से ही परिवार की जिम्मेदारी उठानी पड़ी। 

- प्रख्यात पार्श्व गायिका लता मंगेशकर को भी बचपन से ही परिवार की जिम्मेदारी उठानी पङी थी।

10 - मेरी लंबाई बहुत कम है।  

- सचिन तेंदुलकर की भी लंबाई कम है।

11 - मैं एक छोटी सी नौकरी करता हूँ, भला  इससे क्या होगा। 

 -धीरु अंबानी भी छोटी नौकरी करते थे।

12 - मेरी कम्पनी एक बार दिवालिया हो चुकी है, अब मुझ पर कौन भरोसा करेगा।

- दुनिया की सबसे बङी शीतल पेय निर्माता पेप्सी कोला भी दो बार दिवालिया हो चुकी है ।

13 - मेरा दो बार नर्वस ब्रेकडाउन हो चुका है, अब क्या कर पाऊँगा। 

-डिज्नीलैंड बनाने के पहले वाल्ट डिज्नी का तीन बार नर्वस ब्रेकडाउन हुआ था।

14 - मेरी उम्र बहुत ज्यादा है। 

- विश्व प्रसिद्ध केंटुकी फ्राइड के मालिक ने 60 साल की उम्र में  पहला रेस्तरा खोला था।

15 - मेरे पास बहुमूल्य आइडिया है पर लोग अस्वीकार कर देते हैं। 

- जेरॉक्स  फोटोकापी मशीन के आइडिये को भी ढेरों कंपनियों  ने अस्वीकार किया था पर आज परिणाम सामने है ।

16 - मेरे पास धन नहीं।

- इन्फोसिस के पूर्व चेयरमैन नारायणमूर्ति के पास भी धन नहीं था, उन्हें अपनी पत्नी के गहने बेचने पङे।

17 - मुझे ढेरों बीमारियाँ हैं।

-वर्जिन एयरलाइंस के प्रमुख भी अनेकों बीमारियों से ग्रस्त थे।  अमेरिका के राष्ट्रपति रुजवेल्ट के दोनों  पैर काम नहीं करते थे।

उपरोक्त के बावजूद :
कुछ लोग कहेंगे  कि यह जरुरी नहीं  कि जो प्रतिभा इन महानायकों  में थी, वह हममें  भी हो।

उनकी इस बात से भी सहमति है, लेकिन यह भी जरुरी नहीं कि जो प्रतिभा आपके अंदर है वह इन महानायकों में भी हो।

सार यह है कि -

"आज आप जहाँ  भी हैं  या कल जहाँ भी होंगे, उसके लिए आप किसी और को जिम्मेदार नहीं  ठहरा सकते। इसलिए आज चुनाव करिये कि आपको  सफलता और सपने चाहिए या खोखले बहाने ....!!"

-कृष्ण कुमार यादव @ शब्द-सृजन की ओर
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शनिवार, 19 जुलाई 2014

जापान से सीखिये, मँहगाई पर काबू पाना


मँहगाई फिर से चरम पर है।  रोजमर्रा की जिंदगी में शामिल वस्तुयें दिनों ब दिन मँहगी होती जा रही हैं। 

जापान में एक परंपरा है जब किसी वस्तु का मूल्य अप्रत्याशित रूप से बढता है, तो वहां के नागरिक उस वस्तु का कुछ दिन के लिए उपयोग-उपभोग बंद कर देते है जिससे उस वस्तु के मूल्य में गिरावट आ जाती है।

हमको भी कुछ दिन के लिए,ज्यादा नहीं सिर्फ 10 दिन के लिए टमाटर-प्याज़ इत्यादि का सेवन बंद या न्यूनतम कर देना चाहिए। इससे जमाखोरों  के हौसले पस्त होंगे और 8-10 दिन में ही रेट कम हो जाएंगे।

अगर हम 8-10 दिन टमाटर या प्याज़ ना खायें  तो कुछ फर्क नहीं पड़ता है पर महंगाई पर कुछ लगाम लगेगी। वस्तुत : जब आपूर्ति के मुकाबले माँग  कम हो जाएगी तो मूल्य अपने आप ही कम हो जाएंगे !!




(फेसबुक पर हमारी इस पोस्ट को काफी लोगों ने पसंद किया और शेयर किया।  'डेली न्यूज एक्टिविस्ट' अख़बार (19 जुलाई 2014) में 'साइबर संवाद' के अंतर्गत भी प्रकाशित)