शनिवार, 30 अगस्त 2008

एक माँ

ट्रेन के कोने में दुबकी सी वह
उसकी गोद में दुधमुंही बच्ची पड़ी है
न जाने कितनी निगाहें उसे घूर रही हैं
गोद में पड़ी बच्ची बिलबिला रही है
शायद भूखी है
पर डरती है वह उन निगाहों के बीच
अपने स्तनों को बच्ची के मुँह में लगाने से
वह आँखों के किनारों से झाँकती है
अभी भी लोग उसको सवालिया निगाहों से देख रहे हैं
बच्ची अभी भी रो रही है
आखिर माँ की ममता जग ही जाती है
वह अपने स्तनों को उसके मुँह से लगा देती है
पलटकर लोगों की आँखों में झाँकती है
इन आँखों में है एक विश्वास , ममत्व
उसे घूर रहे लोग अपनी नज़रें हटा लेते हैं
अब उनमें एक माँ की नज़रों का सामना
करने की हिम्मत नहीं ।

***कृष्ण कुमार यादव***

7 टिप्‍पणियां:

  1. Maan ki bhavnaon par badi uttam kavita hai...sadhuvad!

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  2. kya baat hai yadav sahab....kaafi achha chitran hai....ek alag shaili hai aapki rachnaon main....bahut khoob...bahut khoob....meri subkamnayain saanth hain aapke....keep it up...!!

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  3. really very touching and contemporary...beautiful

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  4. अब उनमें एक माँ की नज़रों का सामना
    करने की हिम्मत नहीं ।
    .....क्या खूब लिखा आपने.

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  5. बहुत भावपूर्ण अभिव्यक्ति!!!

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