
अपने को उसकी बाँहों में
बालों में अंगुलियाँ फिराते-फिराते
हर लिया है हर कष्ट को उसने।
एक शिशु की तरह
सिमटा जा रहा हूँ
उसकी जकड़न में
कुछ देर बाद
ख़त्म हो जाता है
द्वैत का भाव।
ग़हरी साँसों के बीच
उठती-गिरती धड़कनें
खामोश हो जाती हैं
और मिलाने लगती हैं आत्मायें
मानों जन्म-जन्म की प्यासी हों।
ऐसे ही किसी पल में
साकार होता है
एक नव जीवन का स्वप्न।
***कृष्ण कुमार यादव***
बहुत बढिया लिखा है-
जवाब देंहटाएंएक शिशु की तरह
सिमटा जा रहा हूँ
उसकी जकड़न में
कुछ देर बाद
ख़त्म हो जाता है
द्वैत का भाव।
badi sundar anubhuti hai...!!
जवाब देंहटाएंइस टिप्पणी को लेखक द्वारा हटा दिया गया है.
जवाब देंहटाएंप्रेयसी कविता पर कुछ कमेन्ट करने की बजाय यही कहूँगा कि यह एहसास करने वाली भावना है. जिस रूप में अपने इसे शब्दों में पिरोया है, वह सिर्फ महसूस की जा सकती है.
जवाब देंहटाएंप्रेयसी को इतने सुन्दर शब्दों में ढालने के लिए आपको साधुवाद.
जवाब देंहटाएंलाजवाब और भावपूर्ण प्रस्तुति.
जवाब देंहटाएंछोड़ देता हूँ निढाल
जवाब देंहटाएंअपने को उसकी बाँहों में
बालों में अंगुलियाँ फिराते-फिराते
हर लिया है हर कष्ट को उसने।
.......सहज भाषा..सार्थक बात...सुन्दर प्रस्तुति.
बेहद सुंदर कविता।
जवाब देंहटाएंगहरी साँसों के बीच
जवाब देंहटाएंउठती-गिरती धड़कनें
खामोश हो जाती हैं
और मिलने लगती हैं आत्मायें
मानो जन्म-जन्म की प्यासी हों।
....भाई के.के. जी, क्या खूब लिखा है आपने. एक-एक शब्द मानो दिल में उतरते जाते हैं.
आपकी प्रेयसी कविता पढ़कर सुखद लगा. जिस शालीनता के साथ अपने शब्दों का खूबसूरती से इस्तेमाल किया है , उसके लिए मेरे पास शब्द नहीं हैं. मैंने बहुत सी कवितायेँ पढ़ी हैं, पर आपकी कविता में जो कशिश है वह एक अजीब से अहसास से भर देतीं है....आप यूँ ही लिखतें रहें, ढेर सारी बधाइयाँ !!
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