
इसी बीच मुझे ट्रेनिंग के लिए एक महीने बाहर जाना पड़ा। ट्रेनिंग से लौटकर जब बाजार घूमने गया तो सल्लू मियाँ की टेलरिंग की दुकान गायब थी और उसकी जगह गुलाब के फूलों की एक चमचमाती दुकान खड़ी थी। तभी अचानक उस दुकान के अन्दर से सल्लू मियाँ निकले तो मैं अवाक्् उनको देखते रह गया। लकालक सफेद कुर्ता - पायजामा और गाँधी टोपी पहने सल्लू मियाँ पहचान में ही नहीं आ रहे थे। मेरी तरफ नजर पड़ते ही वे दोनों बाँहें फैलाए दौड़े और मुझे खींचते हुए अन्दर ले गए। अभी मैं दुकान का पूरा जायजा भी नहीं ले पाया था कि सल्लू मियाँ की तरह ही कपड़े पहने उनके छोटे पुत्र ने मेरे हाथ में गुलाब का एक फूल थमाते हुए कहा- वेलकम अंकल जी! हमारी नई दुकान में आपका स्वागत है। इससे पहले कि मैं कुछ बोलता, सल्लू मियाँ ने मुझे कुर्सी खींचते हुए बैठाया और अपने बेटे को दो बोतल कोल्ड ड्रिंक लाने को कहा। सल्लू मियाँ! ये सब मैं क्या देख रहा हूँ...... और आपकी वो दर्जी वाली दुकान। कुछ नहीं भाई साहब, सब वक्त का फेर है। हुआ यूँ कि पिछले दिनों मैं थिएटर में ‘‘लगे रहो मुन्ना भाई’’ फिल्म देखने गया और उसमें संजय दत्त की जो गाँधीगिरी देखी तो लगा कि अब गाँधी टोपी की बजाय लाल गुलाब का ही जमाना है। फिर क्या था, अपने घर के पीछे धूल-धूसरित हो रही बागवानी के शौक को फिर से जिन्दा किया और चारों तरफ गुलाबों की बगिया ही लगा दी एवं इस बीच बाजार से कुछ गुलाब के फूल खरीद कर ये दुकान सजा ली। अब तो लोग मुन्ना भाई स्टाइल में सत्याग्रह करते हैं और लोगों को गुलाब के फूल बाँटते हैं, गाँधी टोपी तो कोई पहनता ही नहीं। मेरा काम बस इतना है कि जब भी किसी धरने या विरोध की खबर पाता हूँ तो वहाँ पहुँच जाता हूँ और उन्हें समझाता हूँ कि अब धरना, पोस्टरबाजी व नारेबाजी पुरानी चीजें हो गई हैं। अब तो अपने विरोधी को या जन समस्याओं की ओर लोगों का ध्यान आकृष्ट करने हेतु गुलाब का फूल देकर प्रदर्शन किया जाता है, जिसको मीडिया भी बढा़-चढ़ाकर कवरेज देता है। बस उनके दिमाग में यह बात घुसते ही मेरा धंधा शुरू हो जाता है। अगर सौ गुलाब के फूल भी एक धरना या विरोध प्रदर्शन के दौरान बिके, तो कम से कम पाँच सौ रुपये का मुनाफा तो पक्का है। पर यह धंधा यहीं नहीं खत्म होता, प्रदर्शनकारियों के अलावा उसको भी पकड़ना होता है, जिसके विरुद्ध प्रदर्शन किया जा रहा हो। उसे समझाना पड़ता है कि ये फूल आखिर उसके किस काम के! आखिर वह उन्हें अगले दिन तो फेंक ही देगा। उस पर से सफाई का झंझट अलग से। बस फिर क्या है- ईधर प्रदर्शनकारियों ने उस अधिकारी को विरोधस्वरूप गुलाब के फूल दिये और कैमरे के फ्लैशों के बीच मीडिया ने उनकी फोटो उतारी, उसके कुछ देर बाद ही सारा तमाशा खत्म और फिर मैं उन फूलों को वहाँ से उठवा लेता हूँ। ये गुलाब फिर से मेरे दुकान की शोभा बढ़ाते हैं और शाम तक फिर कोई प्रदर्शनकारियों का झुंड इन्हें खरीदकर सत्याग्रह की राह पर विरोध करने निकल पड़ता है। यानी आम के आम और गुठलियों के दाम।
सल्लू मियाँ का सत्याग्रही लाल गुलाबों का व्यवसाय दिनों-ब-दिन बढता जा़ रहा है। अपने एक बेरोजगार बेटे को उन्होंने प्रदर्शनकारियों को सत्याग्रही गुलाबों के फूलों की आपूर्ति हेतु तो दूसरे बेरोजगार बेटे को प्रदर्शन पश्चात् अधिकारियों के यहाँ से सत्याग्रही गुलाबों के फूलों के इकट्ठा करने का कार्य सौंप दिया है और स्वयं अखबारों में रोज ‘‘आज के कार्यक्रम’’ पढ़कर देखते हैं कि किस संगठन द्वारा, किस अधिकारी के विरुद्ध व कहाँ पर प्रदर्शन होना है। अभी तक वेलेण्टाइन डे पर लाल गुलाब के फूलों की बिक्री सिर्फ एक दिन होती थी और कभी-कभी किसी उत्सव या पर्व पर। पर सल्लू मियाँ के लिए लाल गुलाब के फूलों के सत्याग्रह-डे ने चीजें काफी आसान कर दिया है। दोनों बेटों के स्वरोजगार ने उनके माथे की सलवटों व रोज की उधारी की मारा-मारी से मुक्त कर दिया है। कभी-कभी अखबारों व टी0वी0 पर भी उनका चेहरा दिख जाता है, यह बताते हुए कि शहर में कई सत्याग्रहों के चलते आज गुलाब के फूलों की दुगनी-चैगुनी बिक्री रही। अब वे गुलाब के फूलों की भारी खरीद पर गाँधीवादी साहित्य को प्रचारित करती किताबें फ्री में देने की योजना बना रहे हैं ताकि ये तथाकथित लाल गुलाब वाले सत्याग्रही घर जाकर गाँधी जी की अन्य विचारधाराओं को भी जान सकें।
(इसे वैशाखनंदन सम्मान प्रतियोगिता में भी पढ़ सकते हैं)

अच्छा संस्मरण . सल्लू मियां किसी प्रेमचंद की कहानी के पात्र लगते है , पर एक महीने में ही धंधा बदल लिया
जवाब देंहटाएंhttp://madhavrai.blogspot.com/
http://qsba.blogspot.com/
रोचक प्रसंग...
जवाब देंहटाएंबहुत खूब लिखा..हार्दिक बधाई.
जवाब देंहटाएंये गुलाब फिर से मेरे दुकान की शोभा बढ़ाते हैं और शाम तक फिर कोई प्रदर्शनकारियों का झुंड इन्हें खरीदकर सत्याग्रह की राह पर विरोध करने निकल पड़ता है। यानी आम के आम और गुठलियों के दाम।....अब इसके आगे क्या कहा जाये....यही तो गाँधी जी के सपनों का देश है.
जवाब देंहटाएंगुलाबों का ऐसा उपयोग...के. के. यादव जी ने तो कईयों को राह दिखा दी. बधाई.
जवाब देंहटाएंहास्य व व्यंग्य का अद्भुत समन्वय दिखा इस रचना में.
जवाब देंहटाएंमजेदार व्यंग्य है...हम भी सोच रहे हैं कि इसी तरह का कुछ बिजनेस आरंभ किया जाय.
जवाब देंहटाएंहर कोई बस गाँधी जी का नाम भुना रहा है...सटीक व्यंग्य रचना..बधाई.
जवाब देंहटाएंरोचक व दिलचस्प रचना...
जवाब देंहटाएंअब वे गुलाब के फूलों की भारी खरीद पर गाँधीवादी साहित्य को प्रचारित करती किताबें फ्री में देने की योजना बना रहे हैं ताकि ये तथाकथित लाल गुलाब वाले सत्याग्रही घर जाकर गाँधी जी की अन्य विचारधाराओं को भी जान सकें।....
जवाब देंहटाएंगाँधी जी भी खूब बिकने लगे हैं..शानदार व्यंग्य रचना ..बधाई.
हा..हा..हा.. गाँधी जी को तो हम अपना नहीं पाए, उनके नाम पर दुकान जरुर खोल ले रहे हैं.
जवाब देंहटाएंमजेदार व्यंग्य..तीखा कटाक्ष...पसंद आया.
जवाब देंहटाएं@ Ratnesh Ji,
जवाब देंहटाएंयह आइडिया देने के लिए हमारा कमीशन भी तो...
आप सभी लोगों को यह व्यंग्य रचना पसंद आई..आभार !!
जवाब देंहटाएंमजेदार है..हा..हा..हा...
जवाब देंहटाएं_____________________
'पाखी की दुनिया' में 'अंडमान में आए बारिश के दिन'
कृष्ण कुमार जी, मन को झंकृत करता है आपका यह व्यंग्य आलेख...लगे रहो मुन्ना भाई फिल्म ने यह परिपाटी बखूबी फैलाई, फिर तो यह फैशन सा हो गया.
जवाब देंहटाएंबहुत ही सुन्दर, रोचक और दिलचस्प संस्मरण रहा! बढ़िया प्रस्तुती!
जवाब देंहटाएंबहुत बेहतरीन वैशाखनन्दन पर पढ़ी थी पहले.
जवाब देंहटाएंहा हा वेसे आईडिया बुरा नही हॆ...पर १ बात पल्ले नही पडी केवल लाल गुलाब ही क्यो...सफेद गुलाब भी तो शाति के प्रतीक माने जाते हॆ....वॆसे भी आपने दुकान का नाम नही बताया क्या पता दुकान का नाम ही रहा हो "ताजे ताजे गुलाब(बिना काटे वाले भी मिलते हॆ)के.के.यादव जी का नाम लेने पर २०% की छूट का लाभ ले आफर सीमित समय के लिये" आखिर आपका भी तो कमीशन बनना चाहिये:)
जवाब देंहटाएंपर दुख भी हुया अब गाधीजी के विचारो का ये हाल हे..कि उसमे भी लोग अपना फायदा ढूढ रहे हॆ..:(
जवाब देंहटाएंबहुत ही रोचक प्रसंग........
जवाब देंहटाएंSir, your story shows the reality of current time where personal selfishness is dominant over nationalism. Excellent presentation.
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