सोमवार, 1 फ़रवरी 2010

खिड़कियाँ

खोल देता हूँ खिड़कियों को
बाहर धूप खिल रही है
चारों तरफ हरी मखमल-सी घास
उन पर मोती जैसी ओस की बूँदें
चिड़ियों का कलरव शुरू हो गया
शरीर पर एक शाल डाल
बाहर चला आता हूँ
कुछ दूर तक टहलता हूँ
कितने दिनों बाद
इस सुबह को जी रहा हूँ
कितने एकाकी हो गये हैं हम
बस अपने ही कामों में लगे रहते हैं
शायद इसी तरह किसी दिन
मन की खिड़कियों को भी खोल सकूँ
और फिर देख सकूँ
कि बाहर कितनी धूप है !!

16 टिप्‍पणियां:

  1. बेनामी01 फ़रवरी, 2010

    शायद इसी तरह किसी दिन
    मन की खिड़कियों को भी खोल सकूँ
    और फिर देख सकूँ
    कि बाहर कितनी धूप है
    _________________
    लाजवाब लिखा के. के. जी आपने...हर कोई शायद ऐसा ही सोचता है.

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  2. शायद इसी तरह किसी दिन
    मन की खिड़कियों को भी खोल सकूँ
    और फिर देख सकूँ
    कि बाहर कितनी धूप है !!

    इंतज़ार रहेगा उस दिन का।
    सुन्दर अभिव्यक्ति।

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  3. शायद इसी तरह किसी दिन
    मन की खिड़कियों को भी खोल सकूँ
    और फिर देख सकूँ
    कि बाहर कितनी धूप है !!
    .... बहुत सुन्दर रचना, प्रसंशनीय !!!!

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  4. कितने एकाकी हो गये हैं हम
    बस अपने ही कामों में लगे रहते हैं
    जीवन का एक सच, जिसे आपने कविता के माध्यम से उधृत किया है...प्रशंसनीय है.

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  5. कितने एकाकी हो गये हैं हम
    बस अपने ही कामों में लगे रहते हैं
    जीवन का एक सच, जिसे आपने कविता के माध्यम से उधृत किया है...प्रशंसनीय है.

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  6. पोर्टब्लेयर में भले ही धूप खिल रही हो पर इधर तो मौसम अभी भी अलसाया सा है..फ़िलहाल सुन्दर भाव. आपकी सृजनधर्मिता वहां भी कायम रहे.

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  7. गंभीर बातों के बाद इतनी सुन्दर कविता पढना सुकून देता है. काश मैं भी पोर्टब्लेयर की तरह यहाँ खूबसूरत मौसम का लुत्फ़ उठा सकती.

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  8. सुन्दर सृजन. यहाँ भी-वहां भी. बधाई हमारी भी.

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  9. प्रशंशा के योग्य कविता. हमारी बात को निराले अंदाज़ में कहती है.

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  10. कवि मन की व्याकुलता झलकती है. प्रस्तुति लाजवाब रही.

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  11. शायद इसी तरह किसी दिन
    मन की खिड़कियों को भी खोल सकूँ
    और फिर देख सकूँ
    कि बाहर कितनी धूप है !!
    bahut sundar panktiyaan...!!

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  12. आप सभी की टिप्पणियों व स्नेह के लिए आभारी हूँ.

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  13. लाजवाब लिखा के. के. जी आपने...हर कोई शायद ऐसा ही सोचता है.

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