रविवार, 23 दिसंबर 2012

कुँवारी किरणें

 
सद्यःस्नात सी लगती हैं
हर रोज सूरज की किरणें।

खिड़कियों के झरोखों से
चुपके से अन्दर आकर
छा जाती हैं पूरे शरीर पर
अठखेलियाँ करते हुये।

आगोश में भर शरीर को
दिखाती हैं अपनी अल्हड़ता के जलवे
और मजबूर कर देती हैं
अंगड़ाईयाँ लेने के लिए
मानो सज धज कर
तैयार बैठी हों
अपना कौमार्यपन लुटाने के लिए।

- कृष्ण कुमार यादव-
 
 

5 टिप्‍पणियां:

  1. बेनामी23 दिसंबर, 2012

    शानदार लेखन, बधाई !!!

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  2. बढ़ती धीरे,
    अनखेली सी,
    सुन्दर किरणें,
    सुर्यपुंज की।

    आती मन को,
    प्यार जताती।

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  3. मानो सज धज कर
    तैयार बैठी हों
    अपना कौमार्यपन लुटाने के लिए।

    ..Behatrin Kalpana aur bhav..badhai KK sir.

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  4. जहाँ न पहुचे रवि, वहां पहुंचे कवि। सुन्दर चित्रण, खुबसूरत भाव। बधाइयाँ।

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  5. सद्यःस्नात सी लगती हैं
    हर रोज सूरज की किरणें।
    बहुत सुन्दर अभिव्यक्ति। कृष्ण जी को बधाई।

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