मंगलवार, 15 जून 2010

मानवता के दुश्मन

रात का सन्नाटा
अचानक चीख पड़ती हैं मौतें
किसी ने हिन्दुओं को दोषी माना
तो किसी ने मुसलमां को
पर किसी ने नहीं सोचा कि
न तो ये हिंदू थे न मुसलमां
बस मानवता के दुश्मन थे।

17 टिप्‍पणियां:

  1. चन्द पंक्तिया और सच का सामना
    यही तो होता आया है
    बहुत सुन्दर

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  2. अंतिम पंक्तियों ने दिल को छू लिया.... बहुत सुंदर.....

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  3. ऐ आसमान तेरे,
    खुदा का नहीं है खौफ।
    डरते हैं ऐ ज़मीन,
    तेरे इन्सान से हम।

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  4. गज़ब्……………………बिल्कुल सही कहा।

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  5. बहुत ही मार्मिक किन्तु सत्य का चित्रण
    बधाई

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  6. गज़ब के.के. जी ..मान गए आपकी रचनात्मकता को..शत-शत बधाई !!

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  7. कम शब्दों में धारदार बात...कायल हूँ आपका.

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  8. एक सच, जो हम रोज समाज में देखते हैं..अनुपम कविता.

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  9. बहुत बड़ी बात कह दी आपने कृष्ण कुमार जी . काश कि हर कोई ऐसा ही सोचता.

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  10. न तो ये हिंदू थे न मुसलमां
    बस मानवता के दुश्मन थे।

    ....आपने तो हमारे मन की बात कह दी...बधाई.

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  11. मुझे भी पसंद आई पापा की यह कविता...

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  12. आप सभी लोगों को हमारी यह कविता पसंद आई, आपने इसे सराहा..आभार. अपना स्नेह यूँ ही बनाये रहें !!

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  13. सुन्दर सोच...बेहतरीन रचना.

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