रविवार, 29 मार्च 2015

छुट्टियों का आनंद : उम्मेद भवन पैलेस, जोधपुर में


राजस्थान अपनी ऐतिहासिकता और स्थापत्य कला लिए प्रसिद्ध है।  जयपुर  यहाँ जोधपुर सबसे महत्वपूर्ण बड़ा शहर है।  उमेद भवन पैलेस यहाँ सबसे प्रमुख आकर्षण का केंद्र है। इसके संस्थापक महाराजा उमेदसिंह (1929-1942) के काल में ही जोधपुर एक आधुनिक शहर के रूप में विकसित हुआ।

महराजा उमेदसिंह  ने उमेद भवन पैलेस बनवाया था। यह महल छित्तर महल के नाम से भी प्रसिद्ध है। यह महल वास्तुकला का बेहतरीन नमूना है। हाथ से तराशे गए पत्थरों के टुक़डे अनोखे ढंग से एक-दूसरे पर टिकाए गए हैं। इनमें दूसरा कोई पदार्थ नहीं भरा गया है। महल के एक हिस्से में होटल और दूसरे में संग्रहालय है, जिसमें आधुनिक हवाई जहाज, शस्त्र, पुरानी घड़ियाँ, कीमती क्रॉकरी तथा शिकार किए जानवर रखे गए हैं।



उम्मेद भवन पैलेस का नाम इसके संस्थापक  महराजा उमेदसिंह (1929-1942) के नाम पर रखा गया है। चित्तर पहाड़ी पर होने के कारण यह सुंदर महल 'चित्तर पैलेस' के रूप में भी जाना जाता है। यह भारत - औपनिवेशिक स्थापत्य शैली और डेको-कला का एक आदर्श उदाहरण है। डेको कला स्थापत्य शैली यहाँ हावी है और यह 1920 और 1930 के दशक के आसपास की शैली है। 

महल को तराशे गये बलुआ पत्थरों को जोड़ कर बनाया गया था। महल के निर्माण के दौरान पत्थरों को बाँधने के लिये मसाले का उपयोग नहीं किया गया था। यह विशिष्टता बड़ी संख्या में पर्यटकों को इस महल की ओर आकर्षित करती है। इस सुंदर महल के वास्तुकार हेनरी वॉन, एक अंग्रेज थे। महल का एक हिस्सा हेरिटेज होटल में परिवर्तित कर दिया गया है, जबकि बाकी हिस्सा एक संग्रहालय के रूप में है, जिसमें विंटेज कारें, आधुनिक हवाई जहाज  प्रतिरूप, शस्त्र, पुरानी घड़ियाँ, कीमती क्रॉकरी तथा शिकार किए जानवर रखे गए हैं। अपने स्थापत्य के  कारण उम्मेद भवन पैलेस देश ही नही वरन विदेशो में भी काफी प्रसिद्ध है !!


शनिवार, 21 मार्च 2015

'संगम नगरी' इलाहाबाद को अलविदा....अब 'सूर्य नगरी' जोधपुर में



संगम नगरी 'प्रयाग' से सूर्य नगरी 'जोधपुर' तक का सफर। राजस्थान पश्चिमी क्षेत्र, जोधपुर के निदेशक डाक सेवाएँ रूप में 16 मार्च, 2015 को हमने कार्यभार ग्रहण कर लिया। इस क्षेत्र के अधीन कुल 10  डाक मंडल हैं। इनमें जोधपुर-जैसलमेर, बाड़मेर, बीकानेर, चुरू, झुंझुनू, नागौर, पाली, सीकर, सिरोही-जालोर, श्रीगंगानगर-हनुमानगढ़ शामिल हैं।




नया क्षेत्र, नया परिवेश, नए लोग, नई-नई बातें। वाकई जीवन का आनंद ठहराव में नहीं यायावरी में ही है !!



अब मुलाकातें जोधपुर में होंगी !!

रविवार, 1 मार्च 2015

लट्ठमार होली राधा-कृष्ण के बरसाना व नंदगाँव में

होली का त्योहार आने में भले ही अभी देरी हो लेकिन कृष्ण की नगरी नंदगांव, बरसाना, मथुरा, वृंदावन में हफ्ते भर पहले से ही रंग, अबीर, गुलाल उड़ने लगे हैं। गोपियों संग होली मनाने पहुंचे हुरियारों पर कहीं लाठियां बरसीं तो कहीं उड़े रंग-गुलाल। वैसे भी होली की रंगत बरसाने की लट्ठमार होली के बिना अधूरी ही मानी जाती है । इस होली में औरतें घूंघट ओढ़कर और हाथ में लाठी लेकर पुरुषों पर प्रहार करती हैं, और पुरुष उनके प्रहारों से बचने की भरसक कोशिश करते हैं।... और यह सब होता है बड़े ही प्यार से।  परंपरा के अनुसार यहां की होली में नंदगांव के पुरूष और बरसाने की महिलाएं भाग लेती हैं, क्योंकि कृष्ण नंदगांव के थे और राधा बरसाने की थीं। नंदगांव और बरसाने के लोगों का विश्वास है कि होली की इन लाठियों से किसी को चोट नहीं लगती है।

कृष्ण-लीला भूमि होने के कारण फाल्गुन शुल्क नवमी को ब्रज में बरसाने की लट्ठमार होली का अपना अलग ही महत्व है। ब्रज में तो वसंत पंचमी के दिन ही मंदिरों में डांढ़ा गाड़े जाने के साथ ही होली का शुभारंभ हो जाता है। बरसाना में हर साल फाल्गुन शुक्ल नवमी के दिन होने वाली लट्ठमार होली देखने व राधारानी के दर्शनों की एक झलक पाने के लिए यहाँ बड़ी संख्या में श्रद्धालु व पर्यटक देश-विदेश से खिंचे चले आते हैं। इस दिन नन्दगाँव के कृष्णसखा ‘हुरिहारे’ बरसाने में होली खेलने आते हैं, जहाँ राधा की सखियाँ लाठियों से उनका स्वागत करती हैं। यहाँ होली खेलने वाले नंदगाँव के हुरियारों के हाथों में लाठियों की मार से बचने के लिए मजबूत ढाल होती है। परंपरागत वेशभूषा में सजे-धजे हुरियारों की कमर में अबीर-गुलाल की पोटलियाँ बंधी होती हैं तो दूसरी ओर बरसाना की हुरियारिनों के पास मोटे-मोटे तेल पिलाए लट्ठ होते हैं। बरसाना की रंगीली गली में पहुँचते ही हुरियारों पर चारों  ओर से टेसू के फूलों से बने रंगों की बौछार होने लगती है। परंपरागत शास्त्रीय गान ‘ढप बाजै रे लाल मतवारे को‘ का गायन होने लगता है। हुरियारे ‘फाग खेलन बरसाने आए हैं नटवर नंद किशोर‘, का गायन करते हैं तो हुरियारिनें ‘होली खेलने आयै श्याम आज जाकूं रंग में बोरै री‘, का गायन करती हैं। भीड़ के एक छोर से गोस्वामी समाज के लोग परंपरागत वाद्यों के साथ महौल को शास्त्रीय रुप देते हैं। ढप, ढोल, मृदंग की ताल पर नाचते-गाते दोनों दलों में हंसी-ठिठोली होती है। हुरियारिनें अपनी पूरी ताकत से हुरियारों पर लाठियों के वार करती हैं तो हुरियार अपनी ढालों पर लाठियों की चोट सहते हैं। हुरियारे  मजबूत ढालों से अपने शरीर की रक्षा करते हैं एवं चोट लगने पर वहाँ ब्रजरज लगा लेते हैं। 

बरसाना की होली के दूसरे दिन फाल्गुन शुक्ल दशमी को सायंकाल ऐसी ही लट्ठमार होली नन्दगाँव में भी खेली जाती है। अन्तर मात्र इतना है कि इसमें नन्दगाँव की नारियाँ बरसाने के पुरूषों का लाठियों से सत्कार करती हैं। इसमें बरसाना के हुरियार नंदगाँव की हुरियारिनों से होली खेलने नंदगाँव पहुँचते हैं। फाल्गुन की नवमी व दशमी के दिन बरसाना व नंदगाँव के लट्ठमार आयोजनों के पश्चात होली का आकर्षण वृन्दावन के मंदिरों की ओर हो जाता है, जहाँ रंगभरी एकादशी के दिन पूरे वृंदावन में हाथी पर बिठा राधावल्लभ लाल मंदिर से भगवान के स्वरुपों की सवारी निकाली जाती है। बाद में भी ठाकुर के स्वरूप पर गुलाल और केशर के छींटे डाले जाते हैं। ब्रज की होली की एक और विशेषता यह है कि धूलैड़ी मना लेने के साथ ही जहाँ देश भर में होली का खूमार टूट जाता है, वहीं ब्रज में इसके चरम पर पहुँचने की शुरुआत होती है। 

- कृष्ण कुमार यादव : Krishna Kumar Yadav 
https://www.facebook.com/krishnakumaryadav1977

वसंत और सरसों में खिले पीले फूल



वसंत को ऋतुराज कहा गया है।  इस समय पंचतत्त्व जल, वायु, धरती, आकाश और अग्नि अपना प्रकोप छोड़कर सुहावने रूप में प्रकट होते हैं। इस दौरान सर्वत्र हरियाली दृष्टोगोचर होती है और उनमें पीली वस्तुओं का सम्मिलन इसे और भी मोहक बनाता है। भारतीय संस्कृति में पीले रंग को शुभ माना गया है।  बसंत पंचमी पर न केवल पीले रंग के वस्त्र पहने जाते हैं, अपितु खाद्य पदार्थों में भी पीले चावल पीले लड्डू व केसर युक्त खीर का उपयोग किया जाता है, जिसे बच्चे तथा बड़े-बूढ़े सभी पसंद करते हैं। अतः इस दिन सब कुछ पीला दिखाई देता है और प्रकृति खेतों को पीले-सुनहरे रंग से सज़ा देती है, तो दूसरी ओर घर-घर में लोग के परिधान भी पीले दृष्टिगोचर होते हैं। नवयुवक-युवती एक -दूसरे के माथे पर चंदन या हल्दी का तिलक लगाकर पूजा समारोह आरम्भ करते हैं। तब सभी लोग अपने दाएं हाथ की तीसरी उंगली में हल्दी, चंदन व रोली के मिश्रण को माँ सरस्वती के चरणों एवं मस्तक पर लगाते हैं, और जलार्पण करते हैं। धान व फलों को मूर्तियों पर बरसाया जाता है। गृहलक्ष्मी बेर, संगरी, लड्डू इत्यादि बांटती है। 



बसंत में न तो ज्यादा गर्मी होती है और न ही ठंडी।  आकाश स्वच्छ है, वायु सुहावनी है, अग्नि (सूर्य) रुचिकर है तो जल पीयूष के समान सुखदाता और धरती, उसका तो कहना ही क्या वह तो मानो साकार सौंदर्य का दर्शन कराने वाली प्रतीत होती है। ठंड से ठिठुरे विहंग अब उड़ने का बहाना ढूंढते हैं तो किसान लहलहाती जौ की बालियों और सरसों के फूलों को देखकर नहीं अघाते। बसंत की ऋतु हो तो सरसों नाम अनायास ही ओंठों पर आ जाता है। आर्युवेदिक ग्रंथ भावप्रकाश के अनुसार सरसों के बीज उष्ण, तीखे और त्वचा रोगों को हरने वाले होते हैं तथा ये वात, पित्त और कफ जनित दोषों को शांत करते हैं। होलिकोत्सव में सरसों के चूर्ण से उबटन लगाने की परंपरा है, ताकि ग्रीष्म ऋतु में त्वचा की सुरक्षा रहे। सरसों प्रकृति के सौंदर्य का प्रतीक तो है ही आर्थिक दृष्टि से भी यह भारत के सामाजिक जीवन का महत्त्वपूर्ण हिस्सा है। धनी जहाँ प्रकृति के नव-सौंदर्य को देखने की लालसा प्रकट करने लगते हैं तो वहीं निर्धन शिशिर की प्रताड़ना से मुक्त होने पर सुख की अनुभूति करने लगते हैं। सच! प्रकृति तो मानो उन्मादी हो जाती है। हो भी क्यों ना! पुनर्जन्म जो हो जाता है। श्रावण की पनपी हरियाली शरद के बाद हेमन्त और शिशिर में वृद्धा के समान हो जाती है, तब बसंत उसका सौन्दर्य लौटा देता है। नवगात, नवपल्लव, नवकुसुम के साथ नवगंध का उपहार देकर विलक्षण बना देता है।




आया वंसत आया वसंत
छाई जग में शोभा अनंत।
सरसों खेतों में उठी फूल
बौरें आमों में उठीं झूल
बेलों में फूले नए फूल
पल में पतझड़ का
हुआ अंत
आया वसंत आया वसंत। 
(कविवर सोहन लाल द्विवेदी)