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शनिवार, 25 मई 2013

बुद्ध और अंगुलिमाल






ठहरो!
तुम आगे नहीं जा सकते
फिर भी बुद्ध आगे बढ़ते रहे
अविचलित मुस्कुराते हुए
चेहरे पर तेज के साथ

अंगुलिमाल अवाक्
मानो किसी ने सारी हिंसा
उसके अन्दर से खींच ली हो
कदम अपने आप उठने लगे
और बुद्ध के चरणों में सिर रख दिया

उसने जान लिया कि
शारीरिक शक्ति से महत्वपूर्ण
आत्मिक शक्ति है
आत्मा को जीतना ही
परमात्मा को जीतना है।

(चित्र में : सारनाथ में कृष्ण कुमार यादव)

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आज बुद्ध पूर्णिमा है। जिस महात्मा बुद्ध ने तमाम कर्मकांडों के विरुद्ध आवाज़ उठाई, उसे हमने मूर्तियों, पूजा और कर्मकांडों के बीच उलझा दिया। दुर्भाग्य यही है कि जब कोई अच्छा कार्य करता है तो हम उसे मानव की बजाय भगवान बना देते हैं और इसी के साथ उसके विचारों की बजाय आडम्बर को ज्यादा महत्त्व देने लगते हैं। बुद्ध का मध्यम मार्ग मुझे बहुत भाता है, न तो अतिवादिता और न ही निम्नता। आज जीवन को अच्छे से जीने का यही माध्यम मार्ग भी उत्तम है !!

 (जीवन संगिनी आकांक्षा जी के फेस बुक टाइम लाइन से  )

रविवार, 12 मई 2013

माँ के आँसू



आज मदर्स डे है. माँ हमारे जीवन में सबसे महत्वपूर्ण स्थान रखती हैं और माँ की वजह से हम आज इस दुनिया में हैं. दुनिया में माँ का एक ऐसा अनूठा रिश्ता है, जो सदैव दिल के करीब होता है. हर छोटी-बड़ी बात हम माँ से शेयर करते हैं. दुनिया के किसी भी कोने में रहें, माँ की लोरी, प्यार भरी डांट और चपत, माँ का प्यार, दुलार, स्नेह, अपनत्व व ममत्व, माँ के हाथ का बना हुआ खाना, किसी से झगडा करके माँ के आँचल में छुप कर अपने को महफूज़ समझना, बीमार होने पर रात भर माँ का जगकर गोदी में सर लिए बैठे रहना, हमारी हर छोटी से छोटी जिद को पूरी करना, हमारी सफलता के लिए देवी-देवताओं से मन्नतें मांगना ..ना जाने क्या-क्या कष्ट माँ हमारे लिए सहती है और एक दिन हम सफलता के पायदान पर चढ़ते हुए अपनी अलग ही जिदगी बसा लेते हैं. माँ की नजरों से दूर अपनी दुनिया में, फिर भी माँ रोज हमारी चिंता करती है. हम सोचते हैं कि हम बड़े हो चुके हैं, पर माँ की निगाह में तो हम बच्चे ही हैं. आज मदर्स डे पर ऐसा ही कुछ भाव लिए मेरी यह कविता –


बचपन से ही देखता आ रहा हूँ माँ के आँसू

सुख में भी, दुख में भी

जिनकी कोई कीमत नहीं

मैं अपना जीवन अर्पित करके भी

इनका कर्ज नहीं चुका सकता।


हमेशा माँ की आँखों में आँसू आये

ऐसा नहीं कि मैं नहीं रोया

लेकिन मैंने दिल पर पत्थर रख लिया

सोचा, कल को सफल आदमी बनूँगा

माँ को सभी सुख-सुविधायें दूँगा

शायद तब उनकी आँखों में आँसू नहीं हो

पर यह मेरी भूल थी।


आज मैं सफल व्यक्ति हूँ

सारी सुख-सुविधायें जुटा सकता हूँ

पर एक माँ के लिए उसके क्या मायने ?


माँ को सिर्फ चाहिए अपना बेटा

जिसे वह छाती से लगा जी भर कर प्यार कर सके

पर जैसे-जैसे मैं ऊँचाईयों पर जाता हूँ

माँ का साथ दूर होता जाता है

शायद यही नियम है प्रकृति का।

शुक्रवार, 10 मई 2013

10 मई 1857 : जब हुआ प्रथम स्वतंत्रता संग्राम का आगाज़


आज 10 मई है। इस दिन का भारतीय इतिहास में एक विशिष्ट स्थान है। 1857 में भारत का प्रथम स्वतंत्रता संग्राम इसी दिन आरंभ हुआ था. 1857 वह वर्ष है, जब भारतीय वीरों ने अपने शौर्य की कलम को रक्त में डुबो कर काल की शिला पर अंकित किया था और ब्रिटिश साम्राज्य को कड़ी चुनौती देकर उसकी जडे़ं हिला दी थीं। 1857 का वर्ष वैसे भी उथल-पुथल वाला रहा है। इसी वर्ष कैलिफोर्निया के तेजोन नामक स्थान पर 7.9 स्केल का भूकम्प आया था तो टोकियो में आये भूकम्प में लगभग एक लाख लोग और इटली के नेपल्स में आये 6.9 स्केल के भूकम्प में लगभग 11,000 लोग मारे गये थे। 1857 की क्रान्ति इसलिये और भी महत्वपूर्ण हो जाती है कि ठीक सौ साल पहले सन् 1757 में प्लासी के युद्ध में विजय प्राप्त कर राबर्ट क्लाइव ने अंग्रेजी राज की भारत में नींव डाली थी। विभिन्न इतिहासकारों और विचारकांे ने इसकी अपने-अपने दृष्टिकोण से व्याख्यायें की हैं। भारत के प्रथम प्रधानमंत्री और महान चिन्तक पं0 जवाहरलाल नेहरू ने लिखा कि- ‘‘यह केवल एक विद्रोह नहीं था, यद्यपि इसका विस्फोट सैनिक विद्रोह के रूप में हुआ था, क्योंकि यह विद्रोह शीघ्र ही जन विद्रोह के रूप में परिणित हो गया था।’’ बेंजमिन डिजरायली ने ब्रिटिश संसद में इसे ‘‘राष्ट्रीय विद्रोह’’ बताया। प्रखर विचारक बी0डी0सावरकर व पट्टाभि सीतारमैया ने इसे ”भारत का प्रथम स्वाधीनता संग्राम”, जान विलियम ने ”सिपाहियों का वेतन सुविधा वाला मामूली संघर्ष“ व जान ब्रूस नार्टन ने ‘‘जन-विद्रोह’’ कहा। माक्र्सवादी विचारक डा0 राम विलास शर्मा ने इसे संसार की प्रथम साम्राज्य विरोधी व सामन्त विरोधी क्रान्ति बताते हुए 20वीं सदी की जनवादी क्रान्तियों की लम्बी श्रृंखला की प्रथम महत्वपूर्ण कड़ी बताया। प्रख्यात अन्तर्राष्ट्रीय राजनैतिक विचारक मैजिनी तो भारत के इस प्रथम स्वाधीनता संग्राम को अन्तर्राष्ट्रीय परिप्रेक्ष्य में देखते थे और उनके अनुसार इसका असर तत्कालीन इटली, हंगरी व पोलैंड की सत्ताओं पर भी पड़ेगा और वहाँ की नीतियाँ भी बदलेंगी।


1857 की क्रान्ति को लेकर तमाम विश्लेषण किये गये हैं। इसके पीछे राजनैतिक-सामाजिक-धार्मिक-आर्थिक सभी तत्व कार्य कर रहे थे, पर इसका सबसे सशक्त पक्ष यह रहा कि राजा-प्रजा, हिन्दू-मुसलमान, जमींदार-किसान, पुरूष-महिला सभी एकजुट होकर अंग्रेजों के विरुद्ध लड़े। 1857 की क्रान्ति को मात्र सैनिक विद्रोह मानने वाले इस तथ्य की अवहेलना करते हैं कि कई ऐसे भी स्थान थे, जहाँ सैनिक छावनियाँ न होने पर भी ब्रिटिश सत्ता के विरूद्ध क्रान्ति हुयी। इसी प्रकार वे यह भूल जाते है कि वास्तव में ये सिपाही सैनिक वर्दी में किसान थे और किसी भी व्यक्ति के अधिकारों के हनन का सीधा तात्पर्य था कि किसी-न-किसी सैनिक के अधिकारों का हनन, क्योंकि हर सैनिक या तो किसी का पिता, बेटा, भाई या अन्य रिश्तेदार है। यह एक तथ्य है कि अंगे्रजी हुकूमत द्वारा लागू नये भू-राजस्व कानून के खिलाफ अकेले सैनिकों की ओर से 15,000 अर्जियाँ दायर की गयी थीं। डाॅ0 लक्ष्मीमल्ल सिंघवी के शब्दों में- ‘‘सन् 1857 की क्रान्ति को चाहे सामन्ती सैलाब या सैनिक गदर कहकर खारिज करने का प्रयास किया गया हो, पर वास्तव में वह जनमत का राजनीतिक-सांस्कृतिक विद्रोह था। भारत का जनमानस उसमें जुड़ा था, लोक साहित्य और लोक चेतना उस क्रान्ति के आवेग से अछूती नहीं थी। स्वाभाविक है कि क्रान्ति सफल न हो तो इसे ‘विप्लव’ या ‘विद्रोह’ ही कहा जाता है।’’ यह क्रान्ति कोई यकायक घटित घटना नहीं थी, वरन् इसके मूल में विगत कई सालों की घटनायें थीं, जो कम्पनी के शासनकाल में घटित होती रहीं। एक ओर भारत की परम्परा, रीतिरिवाज और संस्कृति के विपरीत अंग्रेजी सत्ता एवं संस्कृति सुदृढ हो रही थी तो दूसरी ओर भारतीय राजाओं के साथ अन्यायपूर्ण कार्रवाई, अंग्रेजों की हड़पनीति, भारतीय जनमानस की भावनाओं का दमन एवं विभेदपूर्ण व उपेक्षापूर्ण व्यवहार से राजाओं, सैनिकों व जनमानस में विद्रोह के अंकुर फूट रहे थे।


इसमें कोई शक नहीं कि 1757 से 1856 के मध्य देश के विभिन्न स्थानों पर भिन्न-भिन्न वर्गों द्वारा कई विद्रोह किये गये। यद्यपि अंग्रेजी सेना बार-बार इन विद्रोहों को कुचलती रही पर उसके बावजूद इन विद्रोहों का पुनः सर उठाकर खड़ा हो जाना भारतीय जनमानस की जीवटता का ही परिचायक कहा जायेगा। 1857 के विद्रोह को इसी पृष्ठभूमि में देखे जाने की जरूरत है। अंग्रेज इतिहासकार फॅारेस्ट ने एक जगह सचेत भी किया है कि- ‘‘1857 की क्रान्ति हमें इस बात की याद दिलाती है कि हमारा साम्राज्य एक ऐसे पतले छिलके के ऊपर कायम है, जिसके किसी भी समय सामाजिक परिवर्तनों और धार्मिक क्रान्तियों की प्रचण्ड ज्वालाओं द्वारा टुकडे़-टुकडे़ हो जाने की सम्भावना है।’’ अंग्रेजी हुकूमत को भी 1757 से 1856 तक चले घटनाक्रमों से यह आभास हो गया था कि वे अब अजेय नहीं रहे। तभी तो लार्ड केनिंग ने फरवरी 1856 में गर्वनर जनरल का कार्यभार ग्रहण करने से पूर्व कहा था कि - ‘‘मैं चाहता हूँ कि मेरा कार्यकाल शान्तिपूर्ण हो। मैं नहीं भूल सकता कि भारत के गगन में, जो अभी शान्त है, कभी भी छोटा सा बादल, चाहे वह एक हाथ जितना ही क्यों न हो, निरन्तर विस्तृत होकर फट सकता है, जो हम सबको तबाह कर सकता है।’’ लार्ड केनिंग की इस स्वीकारोक्ति में ही 1857 की क्रान्ति के बीज छुपे हुये थे।

1857 की क्रान्ति की सफलता-असफलता के अपने-अपने तर्क हैं पर यह भारत की आजादी का पहला ऐसा संघर्ष था, जिसे अंग्रेज समर्थक सैनिक विद्रोह अथवा असफल विद्रोह साबित करने पर तुले थे, परन्तु सही मायनों में यह पराधीनता की बेड़ियों से मुक्ति पाने का राष्ट्रीय फलक पर हुआ प्रथम महत्वपूर्ण संघर्ष था। अमरीकी विद्वान प्रो0 जी0 एफ0 हचिन्स के शब्दों में-‘‘1857 की क्रान्ति को अंग्रेजों ने केवल सैनिक विद्रोह ही कहा क्योंकि वे इस घटना के राजद्रोह पक्ष पर ही बल देना चाहते थे और कहना चाहते थे कि यह विद्रोह अंग्रेजी सेना के केवल भारतीय सैनिकों तक ही सीमित था। परन्तु आधुनिक शोध पत्रों ने यह स्पष्ट कर दिया है कि यह आरम्भ से सैनिक विद्रोह के ही रूप में हुआ, परन्तु शीघ्र ही इसमें लोकप्रिय विद्रोह का रूप धारण कर लिया।’’ वस्तुतः इस क्रान्ति को भारत में अंग्रेजी हुकूमत के विरुद्ध पहली प्रत्यक्ष चुनौती के रूप में देखा जा सकता है। यह आन्दोलन भले ही भारत को अंग्रेजों की गुलामी से मुक्ति न दिला पाया हो, लेकिन लोगों में आजादी का जज्बा जरूर पैदा कर गया। 1857 की इस क्रान्ति को कुछ इतिहासकारों ने महास्वप्न की शोकान्तिका कहा है, पर इस गर्वीले उपक्रम के फलस्वरूप ही भारत का नायाब मोती ईस्ट इण्डिया कम्पनी के हाथों से निकल गया और जल्द ही कम्पनी भंग हो गयी। 1857 के संग्राम की विशेषता यह भी है कि इससे उठे शंखनाद के बाद जंगे-आजादी 90 साल तक अनवरत चलती रही और अंतत: 15 अगस्त, 1947 को हम आजाद हुए !!

बुधवार, 8 मई 2013

दौड़ रही थी तितलियों के पीछे...




आज मैंने उसको देखा
वह दौड़ रही थी
तितलियों के पीछे

जूही, गेंदा, गुलाब
और जाने
कितने-कितने फूलों के पास

तितलियाँ भी छेड़ती थीं उसे
हाथ में आकर भी छूट जातीं

पर एक तितली को
शायद अच्छा लगा
वह उसके हाथ ही गई

उसकी खुशी का ठिकाना रहा
उसे लेकर वह वहीं
फूलों के बीच लेट गई
अपनी अल्हड़ धड़कनों पर
काबू पाने के लिए

तभी हवा का तेज झोंका आया
और उसके सीने पर रखे
दुपट्टे को उड़ा ले गया

ऐसा लगा
मानों तितलियों का झुंड
फूलों का रस पीकर उड़ा जा रहा हो।

शुक्रवार, 3 मई 2013

जब हिंदी फिल्मों की पहली नायिका बना एक वेटर


आज हम भले ही हिंदी फिल्मों को देखकर रोमांचित होते हैं, पर इसका यह सफ़र इतना आसान नहीं था। आज से ठीक सौ साल पहले 3 मई 1913 को देश में पहली स्वदेश निर्मित फिल्म 'राजा हरिश्चंद्र' रिलीज हुई थी। दादा साहब फाल्के द्वारा निर्मित  चालीस मिनट की इस फिल्म में आज यह सोचना भी अटपटा लगता है कि नायिका का रोल एक वेटर ने किया था। 

दरअसल 1912 में पटकथा लेखन के बाद दादा साहब फालके को तमाम कलाकार तो मिल गए, मगर महारानी तारामती का रोल करने के लिए कोई महिला तैयार नहीं हुई। हारकर दादा वेश्याओं के बाजार में उनके कोठे पर गए और उनसे तारामती रोल के लिए निवेदन किया। वेश्याओं ने दादा को टका-सा जवाब दिया कि उनका पेशा, फिल्म में काम करने वाली बाई से ज्यादा बेहतर है। फिल्म में काम करना घटिया बात है। दादा निराश तथा हताश होकर लौट रहे थे। रास्ते में सड़क किनारे एक ढाबे में रुके और चाय का ऑर्डर दिया। जो वेटर चाय का गिलास लेकर आया, दादा ने देखा कि उसकी अंगुलियां बड़ी नाजुक हैं और चालढाल में थोड़ा जनानापन है। दादा ने उससे पूछा- यहां कितनी तनख्वाह मिलती है? उसने जवाब दिया कि 5 रुपए महीना। दादा ने फिर कहा कि यदि तुम्हें 5 रुपए रोजाना मिले तो काम करोगे? उत्सुकता से वेटर ने तेजी से पूछा- क्या काम करना होगा? दादा ने सारी बात समझाई। इस तरह भारत की पहली फिल्म राजा हरिश्चंद्र की नायिका कोई महिला न होकर एक पुरुष थी। उसका नाम था अण्णा सालुंके। 

 नायिका की खोज पूरी होने के बाद सन् 1912 की बरसात के बाद बंबई के दादर इलाके में राजा हरिश्चंद्र की शूटिंग आरंभ हुई। राजा हरिश्चन्द्र की भूमिका निभाई दत्तात्रेय दामोदर दाबके ने और एनी प्रमुख कलाकार थे- भालचंद्र फाल्के, साने, तेलांग, शिंदे और औंधकर इत्यादि। सूरज की रोशनी में शूटिंग होती। शाम को पूरी यूनिट का खाना बनता। रात को किचन को डार्करूम में बदल दिया जाता। दादा और काकी सरस्वती देवी मिलकर फिल्म की डेवलपिंग-‍प्रिंटिंग का काम करते। 21 अप्रैल 1913 को बंबई के ओलिम्पिया सिनेमा में राजा हरिश्चंद्र का प्रथम प्रदर्शन मेहमानों के लिए किया गया। राजा हरिश्चंद्र लगातार 13 दिन चली, जो उस समय का रिकॉर्ड था।

यहाँ यह भी उल्लेख करना जरुरी है कि 'राजा हरिश्चंद्र' के बाद दादा साहेब फालके ने नासिक में 1913 में कथा फिल्म 'मोहिनी-भस्मासुर' का निर्माण किया। इस फिल्म के लिए रंगमंच पर काम करने वाली अभिनेत्री कमलाबाई गोखले दादा साहब को मिल गईं। कमलाबाई को हिन्दी फिल्मों की प्रथम महिला नायिका माना जाता है। 

हिंदी फिल्मों के पितामह धुंडीराज गोविंद फालके यानी दादा साहेब फाल्के ने पहली हिंदी फिल्म का निर्माण यूँ ही नहीं कर लिया, बल्कि इसके लिए उन्हें काफी पापड़ भी बेलने पड़े।  30 अप्रैल 1870 को नासिक के पास त्र्यम्बकेश्वर गांव के ब्राह्मण परिवार में जन्मे फाल्के ने बचपन में घर पर ही उत्तीर्ण होने पर बंबई के कला संस्थान जेजे स्कूल ऑफ आर्ट्स में प्रवेश लिया। वहां उन्होंने छात्रवृत्ति मिलने पर एक कैमरा भी खरीद लिया। फिर क्या था, कैमरे के साथ-साथ फाल्के साहेब का मन भी रोमांचित होने लगा और अन्तत: उस दौर के नायक लोकमान्यबाल गंगाधर तिलक के विचारों से प्रभावित दादा फालके ने सरकारी नौकरी छोड़ दी। भागीदारी में प्रिंटिंग प्रेस का संचालन किया। 
 दादा साहेब फाल्के के जीवन में क्रन्तिकारी परिवर्तन तब आया जब सन् 1911 में क्रिसमस में बंबई के एक तम्बू सिनेमा में उन्होंने 'लाइफ ऑफ क्राइस्ट' नामक फिल्म देखी। वे फिल्म‍ देखकर घर लौटे और सारी रात बेचैन रहे। दूसरे दिन अपनी पत्नी सरस्वती काकी के साथ वही फिल्म दोबारा देखी। लगातार अलग-अलग नजरिए से उन्होंने 10 दिन फिल्म देखकर मन में निश्चय किया कि भगवान श्रीकृष्ण के जीवन पर फिल्म बनाना चाहिए। यह बात अपनी पत्नी, रिश्तेदार तथा मित्रों को बताई। सबने फिल्म निर्माण की व्यावहारिक कठिनाइयां सामने रखीं। उभरकर सुझाव आया कि कृष्ण के जीवन में विस्तार तथा उतार-चढ़ाव अधिक हैं इसलिए किसी सरल कथानक पर फिल्म बनाना चाहिए। अंत में राजा हरिश्चंद्र का कथानक सबको पसंद आया।
दादा साहब के व्यापारी मित्र नाडकर्णी ने बाजार दर पर रुपए उधार देने की पेशकश की। चूँकि उस जमाने में भारत में फिल्म निर्माण के विषय में नहीं के बराबर ही जानकारी थी इसलिये इंगलैंड में रहकर फिल्म निर्माण की कला सीखी।1 फरवरी 1912 को दादा साहब लंदन के लिए पानी के जहाज से रवाना हुए। वहां उनका कोई परिचित नहीं था। केवल 'बायस्कोप' पत्रिका के संपादक को इसलिए जानते थे कि उसकी पत्रिका नियमित मंगाकर पढ़ते थे। दादा फालके 'बायस्कोप' के संपादक कैबोर्ग से मिले। वह भला आदमी था। वह उन्हें स्टुडियो तथा सिनेमा उपकरण एवं केमिकल्स की दु‍कानों पर ले गया और फिल्म निर्माण का सारा सामान खरीदवा दिया। 1 अप्रैल 1912 को दादा बंबई लौट आए और फिर आरंभ हुआ हिंदी सिनेमा की पहली फिल्म के निर्माण का।

फिल्म निर्माण कला सीख कर वापस भारत आने पर दादा साहेब फाल्के ने "राजा हरिश्चन्द्र" फिल्म बनाना शुरू किया। किन्तु उस जमाने में फिल्म बनाना आसान नहीं था क्योंकि लोग फिल्मों को अंग्रेजों का जादू-टोना समझते थे। फिल्म के लिये कलाकार मिलना मुश्किल होता था। किसी प्रकार से पुरुष कलाकार तो मिल जाते थे किन्तु महिला कलाकार मिल ही नहीं पाते थे क्योंकि महिलाओं का नाटक, नौटंकी, फिल्मों आदि में काम करना वर्जित माना जाता था। पुरुष कलाकारों को ही महिलाओं के वस्त्र पहनकर महिला-चरित्रों को निभाना पड़ता था। "राजा हरिश्चन्द्र" के निर्माण के दौरान दादा साहेब फाल्के के समक्ष अनेक बाधाएँ आईं किन्तु उन्होंने अडिग रहकर अपनी फिल्म बनाने में सफलता प्राप्त कर ही लिया और फिल्म 3 मई 1913 को प्रदर्शित हो गई।
प्रदर्शित होने पर "राजा हरिश्चन्द्र" ने इतनी अधिक लोकप्रियता प्राप्त की कि मुंबई (उन दिनों बंबई) के गिरगाँव स्थित कोरोनेशन सिनेमा के सामने सड़कों पर लोगों की विशाल भीड़ इकट्ठी हो जाया करती थी। यह फिल्म उस जमाने में जनता के मनोरंजन का केंद्र बिंदु बनी। परदे पर चलती फिरती आकृतियों को देखकर दर्शक भौचक थे. इस फिल्म की इतनी अधिक मांग बढ़ी कि ग्रामीण क्षेत्रों में इसके प्रदर्शन के लिये दादा साहेब फाल्के को फिल्म के और भी कई प्रिंट बनाने पड़े। फिल्म ने जबरदस्त सफलता प्राप्त की और दादा साहेब फाल्के एक फिल्म निर्माता के रूप में स्थापित हो गये और भारतीय फिल्म उद्योग के लिये एक रास्ता खुल गया। आज भारत सरकार के द्वारा फ़िल्म निर्माण में क्षेत्र में उत्कृष्ठ योगदानकर्ता को ’दादा साहब फालके’ सम्मान द्वारा नवाजा जाता है जो कि इस क्षेत्र का सर्वोच्च सम्मान है।


फ़िलहाल भारत में बनी यह पहली मूक फिल्म ‘राजा हरिश्चंद्र’ अब डीवीडी फॉरमैट में भी  उपलब्ध है। पुणे स्थित भारतीय राष्ट्रीय फिल्म अभिलेखागार (एनएफएआई)  ने इस फिल्म को डीवीडी फॉरमैट में प्रस्तुत किया है.
हिंदी फिल्मों की शताब्दी पर दादा साहेब फाल्के के साथ उन सभी का पुनीत स्मरण, जिन्होंने हिंदी सिनेमा को देश और  भाषा की सीमा से परे अंतर्राष्ट्रीय स्तर पर भी व्यापक पहचान दिलाई।