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शनिवार, 26 जनवरी 2013

जनसत्ता में 'शब्द-सृजन की ओर' की पोस्ट : 'युवा की राह'

'शब्द सृजन की ओर' पर 11 जनवरी, 2013 को प्रकाशित पोस्ट 'उर्जा और आन्दोलन का प्रतीक है युवा वर्ग' को प्रतिष्ठित हिन्दी अख़बार जनसत्ता ने 19 जनवरी , 2013 को अपने नियमित स्तंभ 'समांतर' के तहत 'युवा की राह' शीर्षक से प्रकाशित किया है...आभार ! इस आलेख को पढने के लिए क्लिक करें - 'उर्जा और आन्दोलन का प्रतीक है युवा वर्ग'.
 
इससे पहले 'शब्द सृजन की ओर' पर प्रकाशित ब्लॉग की पोस्टों की चर्चा जनसत्ता, दैनिक जागरण, अमर उजाला, LN स्टार, नभ छोर, जन वाणी, इत्यादि में हो चुकी है. मेरे दूसरे ब्लॉग 'डाकिया डाक लाया' ब्लॉग और इसकी प्रविष्टियों की चर्चा दैनिक हिंदुस्तान, जनसत्ता, राष्ट्रीय सहारा, राजस्थान पत्रिका, उदंती, LN STAR पत्र-पत्रिकाओं में हो चुकी है.इस प्रोत्साहन के लिए आप सभी का आभार !!

रविवार, 20 जनवरी 2013

लघु भारत का अहसास कराता है प्रयाग का महाकुम्भ

भारत के ऐतिहासिक मानचित्र पर इलाहाबाद एक ऐसा प्रकाश स्तम्भ है, जिसकी रोशनी कभी भी धूमिल नहीं हो सकती। इस नगर ने युगों की करवट देखी है, बदलते हुये इतिहास के उत्थान-पतन को देखा है, राष्ट्र की सामाजिक व सांस्कृतिक गरिमा का यह गवाह रहा है तो राजनैतिक एवं साहित्यिक गतिविधियों का केन्द्र भी। पौराणिक मान्यताओं के अनुसार इस नगर का नाम ’प्रयाग’ है। ऐसी मान्यता है कि चार वेदों की प्राप्ति पश्चात ब्रह्म ने यहीं पर यज्ञ किया था, सो सृष्टि की प्रथम यज्ञ स्थली होने के कारण इसे प्रयाग कहा गया। प्रयाग माने प्रथम यज्ञ। कालान्तर में मुगल सम्राट अकबर इस नगर की धार्मिक और सांस्कृतिक ऐतिहासिकता से काफी प्रभावित हुआ। उसने भी इस नगरी को ईश्वर या अल्लाह का स्थान कहा और इसका नामकरण ’इलहवास‘ किया अर्थात जहाँ पर अल्लाह का वास है। परन्तु इस सम्बन्ध में एक मान्यता और भी है कि इला नामक एक धार्मिक सम्राट, जिसकी राजधानी प्रतिष्ठानपुर (अब झूंसी) थी के वास के कारण इस जगह का नाम ’इलावास‘ पड़ा। कालान्तर में अंग्रेजों ने इसका उच्चारण ’इलाहाबाद‘ कर दिया।

इलाहाबाद एक अत्यन्त पवित्र नगर है, जिसकी पवित्रता गंगा, यमुना और अदृश्य सरस्वती के संगम के कारण है। वेद से लेकर पुराण तक और संस्कृत कवियों से लेकर लोकसाहित्य के रचनाकारों तक ने इस संगम की महिमा का गान किया है। इलाहाबाद को संगमनगरी, कुम्भनगरी और तीर्थराज भी कहा गया है। प्रयागशताध्यायी के अनुसार काशी, मथुरा, अयोध्या इत्यादि सप्तपुरियां तीर्थराज प्रयाग की पटरानियां हैं, जिनमें काशी को प्रधान पटरानी का दर्जा प्राप्त है। तीर्थराज प्रयाग की विशालता व पवित्रता के सम्बन्ध में सनातन धर्म में मान्यता है कि एक बार देवताओं ने सप्तद्वीप, सप्तसमुद्र, सप्तकुलपर्वत, सप्तपुरियाँ, सभी तीर्थ और समस्त नदियाँ तराजू के एक पलड़े पर रखीं, दूसरी ओर मात्र तीर्थराज प्रयाग को रखा, फिर भी प्रयागराज ही भारी रहे। वस्तुतः गोमुख से इलाहाबाद तक जहाँ कहीं भी कोई नदी गंगा से मिली है उस स्थान को प्रयाग कहा गया है, जैसे-देवप्रयाग, कर्ण प्रयाग, रूद्रप्रयाग आदि। केवल उस स्थान पर जहाँ गंगा, यमुना और सरस्वती का संगम है प्रयागराज कहा गया। इस प्रयागराज इलाहाबाद के बारे में गोस्वामी तुलसीदास ने लिखा है-’’को कहि सकई प्रयाग प्रभाऊ, कलुष-पुंज कुंजर मृगराऊ। सकल काम प्रद तीरथराऊ, बेद विदित जग प्रगट प्रभाऊ।।’’ इसी प्रयाग की धरा पर हर बारह वर्ष पर कुंभ पर्व का भव्य आयोजन होता है।

कुम्भ पर्व सनातन आस्था का प्रतीक है। शास्त्रों में कुंभ पर्व की महिमा का गुण-गान करते हुए इसके स्नान को समस्त पापों का नाशक एवं अनंत पुण्यदायक बताया गया है। स्कंद पुराण में वर्णित है-

सहस्त्रं कार्तिके स्नानं माघे स्नानशतानि च।
वैशाखे नर्मदा कोटिः कुंभस्नानेन तत्फलम्।।

अर्थात एक हजार बार कार्तिक मास में गंगा में स्नान करने से, सौ बार माघ में संगम-स्नान करने से, वैशाख में एक करोड़ बार नर्मदा-स्नान करने से जो पुण्यफल अर्जित होता है, वह कुंभ में केवल एक बार स्नान करने से प्राप्त होता है। विष्णु पुराण में भी कुंभ-स्नान की प्रशंसा में कहा गया है-

अश्वमेधसहस्त्राणि वाजयशतानि च।
लक्षं प्रदक्षिणा भूमेः कुंभस्नानेन तत्फलम।।

अर्थात् हजार बार अश्वमेध-यज्ञ करने से, सौ बार वाजपेय-यज्ञ करने से और लाख बार पृथ्वी की परिक्रमा करने से जितनी पुण्यराशि संचित होती है, उतनी कुंभ में एक बार स्नान करने से प्राप्त होती है।

कुम्भ पर्व हरिद्वार (गंगा तट), उज्जैन (क्षिप्रा तट) तथा नासिक (गोदावरी तट) में भी लगता है परन्तु प्रयाग कुम्भ की महत्ता इसलिए भी बढ़ जाती है कि लोगों को यहाँ तीन पवित्र नदियों के संगम में स्नान करने का सुअवसर प्राप्त होता है। प्रयाग में गंगा, यमुना और अदृश्य सरस्वती के संगम तट पर प्रत्येक बारह वर्ष के अन्तराल पर यह विश्व प्रसिद्ध पर्व मकर संक्राति से लेकर महाशिवरात्रि तक चलता है, जिसमें देश-विदेश से करोड़ों नर-नारी असीम श्रद्धा के साथ पतित-पावनी त्रिवेणी में स्नान कर न केवल अपने पापों एवं कष्टों को धोते हैं, बल्कि ऐसी मान्यता है कि इसके साथ ही विद्वानों के मुखार बिन्दु से अविरल बह रही गंगा में गोता लगाकर अपने जन्म-जन्मान्तर के पापों को भी नष्ट करते हैं । बीतरागियों, साधु-महात्माओं, संन्यासियों, मठाधीशों और शंकराचार्यों की मौजूदगी मेले को गरिमा देती है। महामंडलेश्वरों, संत-महात्माओं के अतिरिक्त अनेक कथावाचकों, मनीषियों के शिवरों में कथा, कीर्तन, प्रवचन आदि के कार्यक्रम होते है कई शिवरों में रामलीलाएं, रासलीलाएं भी होती हैं । कुंभ की भव्यता और मनमोहकता से आकृष्ट हो हजारों विदेशी पर्यटक इस अवसर पर विशेष रूप से आते हैं और कई तो सदा-सदा के लिए यहाँ की आध्यात्मिक रजकणों से अभिभूत हो अपनी भौतिक सम्पन्नता को त्याग कर भक्ति में लीन हो जाते हैं।

सामान्यतः कुम्भ का अर्थ ’घड़े’ से होता है परन्तु इसका तात्विक अर्थ कुछ और ही है। कुंभ हमारी संस्कृतियों का संगम है। कुंभ एक आध्यात्मिक चेतना, मानवता का प्रवाह एवं शाश्वत जीवन धारा है। भारतीय दर्शन में नदियाँ जल का प्रवाह मात्र नहीं हैं वरन् ये महा चैतन्य रूपी परमात्मा का शाश्वत प्रवाह है। उनका स्वरूप लोक माताआंे के रूप में पूज्यनीय माना गया है। भारतीय संस्कृति में गंगा नदी का प्रमुख स्थान है, जिसके तट पर प्रयाग में कुंभ का आयोजन होता है। वस्तुतः गंगा एक जीवन धारा है। ज्ञान वैराग्य और भक्ति का अमृत संगम में छिपा है जिसमें डुबकी लगाने से इंसान को जीते जी मोक्ष की प्राप्ति होती है। तभी तो कहा गया है-’’गंगे तव दर्शनात् मुक्तिः।’’

कुम्भ का यदि हम ऐतिहासिक दृष्टि से विश्लेषण करें तो हमें सनातन काल से मिलता है। कुंभ-पर्व का वेदों में उल्लेख मिलने से इसकी प्राचीनता का पता चलता है। ऋग्वेद (10-89-7), शुक्लयजुर्वेद (19-87), अथर्ववेद (4-34-7, 16-6-8 एवं 19-53-3) की ऋचाएं कुंभ पर्व पर पर्याप्त प्रकाश डालती है। सनातन आदि और अनादि है। इसी में समष्टि का बोध निहित है। इसी में हिन्दू संस्कृति, इसी में विश्व की संस्कृति एवं सभ्यताओं का संगम निहित है। यही कारण है कि विश्व की सबसे प्राचीन संस्कृतियों में भी कुम्भ का उल्लेख एवं आकार हमें प्राप्त होता है। इतना विशाल पर्व एक दिन में तो होने नहीं लगता, शनैः-शनैः वह महान स्वरूप लेता है। कुछ ऐसा ही कुम्भ पर्व के बारे में हुआ होगा। 644 ईसवी में सम्राट हर्षवर्धन के कार्य काल में प्रयाग का यह महापर्व सर्वाधिक प्रकाश में आया, ऐसी मान्यता है। चीनी यात्री व्हेनसांग ने अपने यात्रा वृतांत का जिस प्रकार से उल्लेख किया है, उससे स्पष्ट है कि उस समय कुम्भ अथवा अर्द्धकुम्भ का ही समय रहा होगा। हर्षवर्धन द्वारा गंगा स्नान करके अपना सर्वस्व दान कर बहन राजश्री से वस्त्र मांग कर पहनने आदि जैसे वृतान्त प्रयाग के कुम्भ अथवा अर्द्धकुम्भ की ओर संकेत करते हैं। नवीं शताब्दी में आदि शंकराचार्य द्वारा दसनामी अखाड़ों का गठन करने, कुम्भ, अर्द्धकुम्भ पर्वों की नींव डालने की बात भी उभर कर सामने आती है। आज भी अखाड़ों की मौजूदगी कंुभ को विशिष्टता प्रदान करती है। अखाड़े कंुभ मेले के सिरमौर माने जाते हैं । मेले में विभिन्न अखाड़ों के साधु, संत, महंत रेती पर धूनी रमाते हैं और वसंत पंचमी के शाही स्नानपर्व के बाद अखाड़ों के साथ ही श्रद्धालु भी विदा लेते हैं।

प्रयाग में संगम की रेती पर लगने वाला कुंभ मेला अनेक मायनों में अद्भुत और अतुलनीय है। इस पर बसने वाली तंबुओं की नगरी में देश और दुनिया से अनेक मत-मतांतर, भाषा-भाषी, रीति-रिवाज, संस्कार प्रथा-परंपरा के श्रद्धालु पुण्य और मोक्ष की कामना से जुटते और संगम में डुबकी लगाते हैं। कुम्भ पर्व अमृत स्नान और अमृतपान की कामना की बेला है। इस समय गंगा की धारा में अमृत का सतत् प्रवाह होता है। कुम्भ पर्व की मूल चेतना पुराणों में वर्णित है। यह पर्व क्षीरसागर के मंथनोपरान्त प्राप्त हुए अमृत कुंभ के लिए हुए देवासुर संग्राम से जुड़ा है। समुद्र मंथन से प्राप्त 14 रत्नों में सबसे अन्त में आयुवर्धिनी शक्ति वाले अमृत कुंभ को लेकर, आयुर्वेद के अधिष्ठाता भगवान धनवंतरि स्वयं प्रकट हुए। अमृतकुम्भ पाने की होड़ ने देव-दानव युद्ध का रूप ले लिया। देवताओं ने दैत्यों से छिपाने के लिए देवराज इन्द्र के पुत्र जंयत को अमृत कुंभ की रक्षा का दायित्व सौंपा । इस दायित्व को पूरा करने में सूर्य, चन्द्र, गुरु और शनि भी सहयोगी बने।
 
दैत्यों ने अमृत कुंभ को पाने के लिए दैत्यगुरू शुक्राचार्य के आदेश पर तीनों लोकों में जयंत का पीछा किया। यह युद्ध 12 दिनों तक चला। देवताओं का एक दिन मानवों के एक वर्ष के बराबर माना जाता है। इस दौरान ’अमृत कुंभ’ की रक्षा के क्रम में विश्राम के दौरान अमृत की बूँदें बारह स्थानों पर गिरीं । इन बारह स्थलों में से आठ पवित्र स्थान देवलोक में हैं और चार (प्रयाग, हरिद्वार, उज्जैन, नासिक) पृथ्वी पर हैं। ये चार स्थान ही अमृत की बूंदों के कारण कुंभ क्षेत्र बने। चूँकि इस अमृत कलश की रक्षा में सूर्य, चन्द्र, गुरु और शनि सहयोगी की भूमिका में थे, अतः कुंभ पर्व के दौरान उन्हीं स्थानों पर इनका दुर्लभ संयोग पड़ने पर कुम्भ पर्व मनाया जाता है। विष्णु याग के अनुसार-
 
माघे मेषगते जीवे, मकरे चन्द्रीभास्करौ।
अमावस्या तदा योगः कुम्भख्यस्तीर्थ नायके।।

अर्थात् माघ में वृहस्पति के मेष में होने तथा सूर्य और चन्द्रमा के मकर में होने पर अमावस्या को प्रयाग में कुंभ पर्व होता है।

मकर संक्रान्ति से लेकर वैशाख पूर्णिमा तक चलने वाले प्रयाग कुंभ पर्व में कुछ खास स्नान पर्व होते हैं और तीन शाही स्नान पर्व होते हैं- मकर संक्राति (प्रथम शाही स्नान, 14 जनवरी 2013), पौष पूर्णिमा (27 जनवरी 2013), मौनी अमावस्या (द्वितीय शाही स्नान, 10 फरवरी 2013), वसंत पंचमी (तृतीय शाही स्नान, 15 फरवरी 2013), माघ पूर्णिमा (25 फरवरी 2013), महाशिवरात्रि (10 मार्च 2013)। विभिन्न अखाड़ों के साधु-संत कुम्भ स्थल में एकत्र होते हैं और प्रमुख स्नान पर्व पर वे एक शानदार शोभा यात्रा निकालते हुए पारम्परिक अनुशासन में बँधकर स्नान हेतु स्नान स्थल पर जाते हैं । इन अखाड़ों के प्रमुख महंतों की सवारी सोने-चाँदी तथा अन्य सजावट से सजे हाथी, भव्य रथों और पालकियों पर निकलती है, जिनके आगे-पीछे आकर्षक सज्जा से आच्छादित ऊँट, घोड़े, हाथी और बैंड भी होते हैं। इन्हें देखकर पुराने जमाने के राजा-महाराजाओं के काफिले का अक्स उभरकर सामने आता है।

 कुम्भ प्रयाग ही नहीं बल्कि संगम की रेती पर लगने वाला विश्व का सबसे बड़ा स्वतः स्फूर्त आयोजन है। कुंभ सिर्फ मानवीय आयोजन नहीं बल्कि एक दैवीय और आध्यात्मिक महोत्सव है। वर्ष 2013 का कुंभ पर्व तकरीबन एक करोड़ 99 लाख वर्ग मीटर के क्षेत्रफल में कुल 14 सेक्टरों में विभाजित है। वाकई, मीलों लंबे चैड़े क्षेत्र में कुंभ पर्व के दौरान जो वातावरण व्याप्त रहता है, वह महीनों और वर्षों में ढले स्वभाव को भी सहज ही बदलने में समर्थ है। यह भी इस अवसर को महत्वपूर्ण बनाता है। कुंभ ऐसा पर्व है जहाँ मानव का देव से सीधे साक्षात्कार होता है, शारीरिक-मानसिक व्याधियों से मुक्ति मिलती है। ग्रह-नक्षत्रों के सहयोग तथा गंगा और संतों पर उमड़ने वाली आस्था कुंभ रूपी सृष्टि जीवनदायी अमृत का बोध कराती है। न कोई दिखावा न आडंबर। अलग भाषा, अलग संस्कृति और अलग पहनावे के बावजूद कुंभ के समागम में सिमटती भावनाएं एक सी दिखती हैं। अनेकता में एकता का उदाहरण लिए प्रयाग कुंभ वाकई लघु भारत का एहसास कराता है।


कृष्ण कुमार यादव
निदेशक डाक सेवाएं
इलाहाबाद परिक्षेत्र, इलाहाबाद (उ.प्र.)-211001
kkyadav.t@gmail.com, http://kkyadav.blogspot.com/

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कृष्ण कुमार यादव : सम्प्रति भारत सरकार में निदेशक. प्रशासन के साथ-साथ साहित्य, लेखन और ब्लागिंग के क्षेत्र में भी प्रवृत्त। जवाहर नवोदय विद्यालय-आज़मगढ़ एवं तत्पश्चात इलाहाबाद विश्वविद्यालय से 1999 में राजनीति-शास्त्र में परास्नातक. देश की प्राय: अधिकतर प्रतिष्ठित पत्र-पत्रिकाओं एवं इंटरनेट पर वेब पत्रिकाओं व ब्लॉग पर रचनाओं का निरंतर प्रकाशन. व्यक्तिश: 'शब्द-सृजन की ओर' और 'डाकिया डाक लाया' एवं युगल रूप में सप्तरंगी प्रेम, उत्सव के रंग और बाल-दुनिया ब्लॉग का सञ्चालन. इंटरनेट पर 'कविता कोश' में भी कविताएँ संकलित. 50 से अधिक पुस्तकों/संकलनों में रचनाएँ प्रकाशित. आकाशवाणी और दूरदर्शन पर प्रसारण. कुल 6 कृतियाँ प्रकाशित -'अभिलाषा' (काव्य-संग्रह, 2005), 'अभिव्यक्तियों के बहाने' व 'अनुभूतियाँ और विमर्श'(निबंध-संग्रह, 2006 व 2007), 'India Post : 150 Glorious Years'(2006),'क्रांति-यज्ञ : 1857-1947 की गाथा' व जंगल में क्रिकेट (बाल-गीत संग्रह,2012).उ.प्र. के मुख्यमंत्री द्वारा न्यू मीडिया ब्लागिंग हेतु जी न्यूज़ का ’’अवध सम्मान’’, परिकल्पना समूह द्वारा ’’दशक के श्रेष्ठ हिन्दी ब्लागर दम्पति’’ सम्मान, विक्रमशिला हिन्दी विद्यापीठ, भागलपुर, बिहार द्वारा डाक्टरेट (विद्यावाचस्पति) की मानद उपाधि, भारतीय दलित साहित्य अकादमी द्वारा ‘डा. अम्बेडकर फेलोशिप राष्ट्रीय सम्मान‘, राष्ट्रीय राजभाषा पीठ इलाहाबाद द्वारा ’भारती ज्योति’, साहित्य मंडल, श्रीनाथद्वारा, राजस्थान द्वारा ”हिंदी भाषा भूषण”, सहित विभिन्न प्रतिष्ठित सामाजिक-साहित्यिक संस्थाओं द्वारा विशिष्ट कृतित्व, रचनाधर्मिता और सतत् साहित्य सृजनशीलता हेतु दर्जनाधिक सम्मान और मानद उपाधियाँ प्राप्त. व्यक्तित्व-कृतित्व पर 'बाल साहित्य समीक्षा'(सं. डा. राष्ट्रबंधु, कानपुर, सितम्बर 2007) और 'गुफ्तगू' (सं. मो. इम्तियाज़ गाज़ी, इलाहाबाद, मार्च 2008 द्वारा विशेषांक जारी. व्यक्तित्व-कृतित्व पर एक पुस्तक 'बढ़ते चरण शिखर की ओर : कृष्ण कुमार यादव' (सं0- दुर्गाचरण मिश्र, 2009) प्रकाशित.

शुक्रवार, 11 जनवरी 2013

ऊर्जा और आन्दोलन का प्रतीक है युवा वर्ग

युवा किसी भी समाज और राष्ट्र के कर्णधार हैं, वे उसके भावी निर्माता हैं। चाहे वह राजनेता या प्रशासक के रूप में हों अथवा डाक्टर, इन्जीनियर, वैज्ञानिक, साहित्यकार व कलाकार के रूप में हों । इन सभी रूपों में उनके ऊपर अपनी सभ्यता, संस्कृति, कला एवम् ज्ञान की परम्पराओं को मानवीय संवेदनाओं के साथ आगे ले जाने का गहरा दायित्व होता है। पर इसके विपरीत अगर वही युवा वर्ग इन परम्परागत विरासतों का वाहक बनने से इन्कार कर दे तो राष्ट्र का भविष्य अन्धकारमय भी हो़ सकता है।
 
युवा शब्द अपने आप में ही ऊर्जा और आन्दोलन का प्रतीक है। युवा को किसी राष्ट्र की नींव तो नहीं कहा जा सकता पर यह वह दीवार अवश्य है जिस पर राष्ट्र की भावी छतों को सम्हालने का दायित्व है। भारत की कुल आबादी में युवाओं की हिस्सेदारी करीब 50 प्रतिशत है जो कि विश्व के अन्य देशों के मुकाबले काफी है। इस युवा शक्ति का सम्पूर्ण दोहन सुनिश्चित करने की चुनौती इस समय सबसे बड़ी है। जब तक यह ऊर्जा और आन्दोलन सकारात्मक रूप में है तब तक तो ठीक है, पर ज्यों ही इसका नकारात्मक रूप में इस्तेमाल होने लगता है वह विध्वंसात्मक बन जाती है। वस्तुतः इसके पीछे जहाँ एक ओर अपनी संस्कृति और जीवन मूल्यों से दूर हटना है, वहीं दूसरी तरफ हमारी शिक्षा व्यवस्था का भी दोष है। आर्थिक उदारीकरण और भूमण्डलीकरण के बाद तो युवा वर्ग के विचार-व्यवहार में काफी तेजी से परिवर्तन आया है। पूँजीवादी बहुराष्ट्रीय कम्पनियों की बाजारी लाभ की अन्धी दौड़ और उपभोक्तावादी विचारधारा के अन्धानुकरण ने उसे ईष्र्या, प्रतिस्पर्धा और शार्टकट के गर्त में धकेल दिया। फिल्मी परदे पर हिंसा, बलात्कार, प्रणय दृश्य, यौन-उच्छश्रंृखलता एवम् रातों-रात अमीर बनने के दृश्यों को देखकर आज का युवा उसी जिन्दगी को वास्तविक रूप में जीना चाहता है। कभी विद्या, श्रम, चरित्रबल और व्यवहारिकता को सफलता के मानदण्ड माना जाता था पर आज सफलता की परिभाषा ही बदल गयी है। आज का युवा अपने सामाजिक उत्तरदायित्वों से परे सिर्फ आर्थिक उत्तरदायित्वों की ही चिन्ता करता है।
 
शिक्षा एक व्यवसाय नहीं संस्कार है, पर जब हम आज की शिक्षा व्यवस्था देखते हैं , तो यह व्यवसाय ही ज्यादा ही नजर आती है। युवा वर्ग स्कूल व कालेजों के माध्यम से ही दुनिया को देखने की नजर पाता है, पर शिक्षा में सामाजिक और नैतिक मूल्यों का अभाव होने के कारण इसका सीधा सरोकार मात्र रोजगार से जुड़ गया है। आज के युवा को राजनीति ने भी प्रभावित किया है। देश की आजादी में युवाओं ने अहम् भूमिका निभाई और जरूरत पड़ने पर नेतृत्व भी किया। कभी विवेकानन्द जैसे व्यक्तित्व ने युवा कर्मठता का ज्ञान दिया तो सन् 1977 में लोकनायक के आहृान पर सारे देश के युवा एक होकर सड़कों पर निकल आये पर आज वही युवा अपनी आन्तरिक शक्ति को भूलकर चन्द लोगों के हाथों का खिलौना बन गये हैं । वे बहार निकलते तो हैं पर उनमें sसे कोई नेत्रित्व नहीं पैदा होता। ऐसे में राजनेताओं से लेकर तमाम लोगों ने युवा भावनाओं को उभारकर उनका अपने पक्ष में इस्तेमाल किया और भविष्य के अच्छे सब्जबाग दिखाकर उनका शोषण किया। ऐसे में अवसरवाद की राजनीति ने युवाओं को हिंसा, हड़ताल व प्रदर्शनों में आगे करके उनकी भावनाओं को भड़काने और गुमराह करने का प्रयास किया है।

आज का युवा संक्रमण काल से गुजर रहा है। वह अपने बलबूते आगे तो बढ़ना चाहता है, पर परिस्थितियाँ और समाज उसका साथ नहीं देते। चाहे वह राजनीति हो, फिल्म व मीडिया जगत हो, शिक्षा हो, उच्च नेतृत्व हो- हर किसी ने उसे सुखद जीवन के सब्ज-बाग दिखाये और फिर उसको भँवर में छोड़ दिया। ऐसे में पीढि़यों के बीच जनरेशन गैप भी बढ़ा है। समाज की कथनी-करनी में भी जमीन आसमान का अन्तर है। एक तरफ वह सभी को डिग्रीधारी देखना चाहता है, पर सभी हेतु रोजगार उपलब्ध नहीं करा पाता, नतीजन- निर्धनता, मँहगाई, भ्रष्टाचार इन सभी की मार सबसे पहले युवाओं पर पड़ती है। इसी प्रकार व्यावहारिक जगत में आरक्षण, भ्रष्टाचार, स्वार्थ, भाई-भतीजावाद और कुर्सी लालसा जैसी चीजों ने युवा हृदय को झकझोर दिया है। जब वह देखता है कि योग्यता और ईमानदारी से कार्य सम्भव नहीं, तो कुण्ठाग्रस्त होकर गलत रास्तों पर चलने को मजबूर हो जाता है। ऐसे में ही समाज के दुश्मन उनकी भावनाओं को भड़काकर व्यवस्था के विरूद्ध विद्रोह के लिए प्रेरित करते हैं, फलतः अपराध और आतंकवाद का जन्म होता है। युवाओं को मताधिकार तो दे दिया गया है पर उच्च पदों पर पहुँचने और निर्णय लेने के उनके स्वप्न को दमित करके उनका इस्तेमाल राजनीतिज्ञों द्वारा सिर्फ अपने स्वार्थ में किया जा रहा है।
 
युवाओं ने आरम्भ से ही इस देश के आन्दोलनों में रचनात्मक भूमिका निभाई है- चाहे वह सामाजिक, शैक्षणिक, राजनैतिक या सांस्कृतिक हो। लेकिन आज युवा आन्दोलनों के पीछे किन्हीं सार्थक उद्देश्यों का अभाव दिखता है। युवा व्यवहार मूलतः एक शैक्षणिक, सामाजिक, संरचनात्मक और मूल्यपरक समस्या है जिसके लिए राजनैतिक, सामाजिक, शैक्षणिक और आर्थिक सभी कारक जिम्मेदार हैं। ऐसे में समाज के अन्य वर्गों को भी अपनी जिम्मेदारियों का अहसास होना चाहिए, सिर्फ युवाओं को दोष देने से कुछ नहीं होगा। आज सवाल सिर्फ युवा शक्ति के भटकाव का नहीं है, बल्कि अपनी संस्कृति, सभ्यता, मूल्यों, कला एवम् ज्ञान की परम्पराओं को भावी पीढि़यों के लिए सुरक्षित रखने का भी है। युवाओं को भी ध्यान देना होगा कि कहीं उनका उपयोग सिर्फ मोहरों के रूप में न किया जाय।
                              
- कृष्ण कुमार यादव