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रविवार, 30 दिसंबर 2012

बच्चे की निगाह


कभी देखो समाज को
बच्चे की निगाहों से
पल भर में रोना
पल भर में खिलखिलाना।

अरे! आज लड़ाई हो गई
शाम को दोनों गले मिल रहे हैं
एक दूसरे को चूम रहे हैं।

भीख का कटोरा लिए फिरते
बूढ़े चाचा की दशा देखी नहीं गई
माँ की नजरें चुराकर
अपने हिस्से की दो रोटियाँ
दे आता है उसे।

दीवाली है, ईद है
अपनी मंडली के साथ
मिठाईयाँ खाये जा रहा है
क्या फर्क पड़ता है
कौन हिन्दू है, कौन मुसलमां।

सड़क पर कुचल आता है आदमी
लोग देखते हुए भी अनजान हैं
पापा! पापा! गाड़ी रोको
देखो उन्हें क्या हो गया ?

छत पर देखा
एक कबूतर घायल पड़ा है
उठा लाता है उसे
जख्मों पर मलहम लगाता है
कबूतर उन्मुक्त होकर उड़ता है।

बच्चा जोर से तालियाँ बजाकर
उसके पीछे दौड़ता है
मानों सारा आकाश
उसकी मुट्ठी में है।

- कृष्ण कुमार यादव (अपने काव्य-संग्रह 'अभिलाषा' से)

 
(चित्र में बिटिया अपूर्वा)

मंगलवार, 25 दिसंबर 2012

मेरा भी तो ब्याह रचाओ

 
राजा जी की निकली सवारी,
हाथी-घोड़ा औ' दरबारी।
हाथी दादा रूठ गए,
पीछे-पीछे छूट गए।

रानी बोली हाथी लाओ,
फिर आगे को कदम बढ़ाओ।
सारे सैनिक दौड़ पड़े,
हाथी दादा अडिग खड़े।

पहले मानो मेरी बात,
तब आऊँ मैं सबके साथ।
बोले मेरी हथिनी लाओ,
मेरा भी तो ब्याह रचाओ।

रविवार, 23 दिसंबर 2012

कुँवारी किरणें

 
सद्यःस्नात सी लगती हैं
हर रोज सूरज की किरणें।

खिड़कियों के झरोखों से
चुपके से अन्दर आकर
छा जाती हैं पूरे शरीर पर
अठखेलियाँ करते हुये।

आगोश में भर शरीर को
दिखाती हैं अपनी अल्हड़ता के जलवे
और मजबूर कर देती हैं
अंगड़ाईयाँ लेने के लिए
मानो सज धज कर
तैयार बैठी हों
अपना कौमार्यपन लुटाने के लिए।

- कृष्ण कुमार यादव-
 
 

गुरुवार, 13 दिसंबर 2012

21 दिसंबर 2012 को कुछ ही दिन रह गए हैं...


21 दिसंबर 2012 को कुछ ही दिन रह गए हैं। 21 दिसंबर 2012 को धरती का अंत हो जाएगा, इस बात के कोई सबूत नहीं है लेकिन दुनिया भर में इसको लेकर लोगों में एक डर बना हुआ है कि आखिर 21 दिसंबर को होगा क्या? क्या दुनिया खत्म हो जाएगी? क्या महाप्रलय आएगी। माया कैलेंडर की मानें तो दुनिया में प्रलय आएगी, लेकिन नासा ने माया सभ्यता की इस भविष्यवाणी को गलत साबित कर दिया है। नासा के एक अध्ययन में यह बात सामने आई है कि इतनी जल्दी पृथ्वी का अंत नहीं होगा।
 
प्रलय या कयामत का दिन, शब्द भले ही अलग हों लेकिन दोनों का आशय दुनिया के भयावह अंत से ही है। हिंदू धर्म के अनुसार कलयुग के अंत के बाद प्रलय का दिन आएगा, जब सब कुछ समाप्त हो जाएगा, पूरी दुनिया विनाश के साए में सिमट जाएगी। दूसरी ओर इस्लाम और ईसाई धर्म में भी कयामत या द डे ऑफ जस्टिस (जब सभी लोगों के पाप और पुण्यों का हिसाब किया जाएगा) इस दिन का उल्लेख किया गया है।
 
क्या है माया सभ्यता
 
दुनिया खत्म होने के पीछे माया सभ्यता की भविष्यवाणी को एक बड़ा कारण माना जा रहा था। माया सभ्यता 300 से लेकर 900 ई के बीच मैक्सिको, पश्चिमी होंडूरास और अल सल्वाडोर के बीच चली आ रही पुरानी सभ्यता है, इस सभ्यता के अनुसार चले आ रहे कैलेंडर में 21 दिसंबर 2012 के आगे किसी तारीख का कोई जिक्र नहीं है, जिसकी वजह से माना जा रहा था कि इस दिन पूरी दुनिया समाप्त हो जाएगी। यह कैलेंडर इतना सटीक है कि आज के सुपर कंप्यूटर भी उसकी गणनाओं में सिर्फ 0.06 तक का ही फर्क निकाल सके हैं।
 
प्राचीन माया सभ्यता के काल में गणित और खगोल के क्षेत्र उल्लेखनीय विकास हुआ। अपने ज्ञान के आधार पर माया लोगों ने एक कैलेंडर बनाया था। हजारों साल पहले बनाए माया कैलेंडर में 21 दिसंबर 2012 के बाद की तारीख नहीं दी गई हैं, इसका अर्थ यही समझा जा रहा है कि इस दिन दुनिया पर खतरा मंडरा सकता है।
 
माया कैलेंडर की भविष्यवाणी
 
माया कैलेंडर के मुताबिक 21 दिसंबर 2012 में एक ग्रह पृथ्वी से टकराएगा, जिससे सारी धरती खत्म हो जाएगी। करीब 250 से 900 ईसा पूर्व माया नामक एक प्राचीन सभ्यता स्थापित थी। ग्वाटेमाला, मैक्सिको, होंडूरास तथा यूकाटन प्रायद्वीप में इस सभ्यता के अवशेष खोजकर्ताओं को मिले हैं।
 
समय-समय पर दुनिया के खात्मे के लिए कई प्रकार की भविष्यवाणिया की जा रही हैं। नास्त्रेदमस और माया सभ्यता की दुहाई देकर जहा इस वर्ष दुनिया का अंत होने की भविष्यवाणियां की जा रही थीं, वहीं ग्वाटेमाला के जंगलों में मिले माया कैलेंडर के एक अज्ञात संस्करण से खुलासा हुआ है कि अगले कई अरब वषरें तक पृथ्वी पर मानव सभ्यता के अंत का कारण बनने वाली कोई भी प्रलयकारी आपदा नहीं आएगी। शूलतुन में माया सभ्यता के एक प्राचीन शहर के खंडहर मौजूद हैं। इन खंडहरों में मौजूद एक दीवार पर यह कैलेंडर मौजूद हैं। लगभग आधे वर्ग मीटर आकार के इस कैलेंडर के अच्छी हालात में होने की बात कही जा रही है। वैज्ञानिक इसे अब तक मिला सबसे पुराना माया कैलेंडर करार दे रहे हैं।
 
उनका दावा है कि यह कम से कम 1200 वर्ष पुराना रहा होगा। माया पुरोहितों के जिस पूजा स्थल से इस कैलेंडर को बरामद किया गया है उसमें माया राजाओं की विशालकाय भिती चित्र मौजूद हैं। पुरोहित समय की गणना करके राजाओं को शुभ मुहूर्त के बारे में सूचित किया करते थे। राजा अपने सभी फैसले शुभ मुहूर्त में ही लिया करते थे। प्राकृतिक आपदाओं से बचने और देवताओं को खुश करने के लिए माया सभ्यता में मानव बलि देने की भी प्रथा रही थी और इसके लिए आसपास के जंगलों में निवास करने वाले आदिवासियों को बड़े पैमाने पर बंदी बनाने का रिवाज था।
 
यह नया कैलेंडर पत्थर की एक दीवार में तराशा हुआ है, जबकि 2012 मे दुनिया के अंत की भविष्यवाणी करने वाले सभी माया कैलेंडर पुरानी पाडुलिपियों में मिलते हैं, जिनमें अलग-अलग चित्रों के माध्यम से अलग-अलग भविष्यवाणिया की गई हैं। दुनिया के अंत की घोषणा करने वाले सभी कैलेंडर इस पाषाण कैलेंडर से कई सौ वर्ष बाद तैयार किए गए थे। शूलतुन के खंडहरों के इस पूजा स्थल की एक दीवार पर चंद्र कैलेंडर बना हुआ है जो 13 वषरें की गणना कर सकता है।
 
इसके निकट की ही एक दीवार पर मौजूद तालिकाओं के आधार पर चार युगों की गणना हो सकती है जो वर्ष 935 से लेकर 6700 ईसवी तक हैं। शूलतुन के जंगलों में माया सभ्यता का एक महत्वपूर्ण शहर होने के बारे में पहली बार वर्ष 1915 में पता चला था। इसके बाद यहा खजाना चोरों ने कई बार सेंध लगाने का प्रयास किया लेकिन उनके हाथ कुछ भी नहीं लगा। प्रोफेसर सैर्टनों के छात्र मैक्स चेम्बरिलन ने जब वर्ष 2010 में एक सुरंग से जाकर यहा कुछ भित्तीचित्रों के होने का पता लगाया तो पूरी टीम खुदाई में जुट गई और उन्होंने सदियों से गुमनामी में खोए माया सभ्यता के इस प्राचीन शहर को ढूंढ निकाला। सैटनरे का दावा है कि यह पूरा शहर 16 वर्गमील में फैला हुआ है और इसे पूरी तरह से खोदकर बाहर निकालने के लिए अगले दो दशकों का समय भी कम है।
 
दुनिया के अंत के संबंध में समय-समय पर कई प्रकार की भविष्यवाणिया की जाती रही है। इससे पहले 21 मई, 2011 को दुनिया के विनाश का दिन बताया जा रहा था लेकिन यह बात झूठी साबित हो गई। लेकिन अब माया कैलेंडर के आधार पर 21 दिसंबर, 2012 को दुनिया का आखिरी दिन मान लिया गया है।
 
साभार : जागरण

बुधवार, 12 दिसंबर 2012

12-12-12 : 12 हाइकु


 
1-
नई-नवेली
दुल्हन सी धरती
सजने लगी।

2-
पोषण कर
सुख-समृद्धि देती
पावन धरा।

3-
प्रकृति बंधी
नियमों से अटल
ललकारो ना।

4-
पर्यावरण
प्रदूषित हो रहा
रोकिए इसे।

5-
हर तरफ
कटते जंगलात
धरा रो रही।

6-
स्वच्छ जल
कहाँ से मिले अब
दूषित पानी।

7-
फैलता शोर
कनफोड़ू आवाज
घुटते लोग।

8-
संकटापन्न
विलुप्त होते प्राणी
कहाँ जाएं ये?

9-
घटती आयु
बढ़ता प्रदूषण
संकट आया।

10-
बढ़ते लोग
घटते संसाधन
पिसती धरा।

11-
पूछ रही है
धरती मदहोश
बंधन खोल।

12-
मत छेडि़ए
प्रकृति को यूँ अब
जला देगी ये।
 
-कृष्ण कुमार यादव-
 
 
 
 



 

मंगलवार, 4 दिसंबर 2012

पुस्तकों के बहाने..

पुस्तकें सिर्फ ज्ञान नहीं देतीं, बल्कि व्यक्तित्व का भी विस्तार करती हैं। यही कारण है कि मुझे जब भी मौका मिलता है, ढेर सारी पुस्तकें खरीद कर लाता हूँ। इस बार यह मौका मिला, 23 नवम्बर-2 दिसंबर तक संपन्न इलाहाबाद में राष्ट्रीय पुस्तक मेला में। घर से दूरी भी नहीं, सो आलस्य भी नहीं। ठण्ड का गुनगुना मौसम और पुस्तकें, धूप में बैठकर पुस्तकें पढना मुझे तो बहुत अच्छा लगता है। इलाहाबाद वैसे भी साहित्यकारों-बुद्धिजीवियों का शहर माना जाता है, अत: इसी बहाने कईयों से पुस्तक-मेले में मुलाकात भी हो गई। साहित्य की विभिन्न विधाओं के साथ-साथ कैरियर व मैनेजमेंट संबंधी पुस्तकें, पकवानों की खुशबू सहेजती पुस्तकें, धर्म-अध्यात्म, ज्योतिष, वास्तु का विस्तृत होता क्षितिज, स्वास्थ्य के प्रति सचेत करती पुस्तकें और बच्चों से जुडी पुस्तकें भी दिखीं इस पुस्तक-मेले में।

राजकमल, राधाकृष्ण, लोकभारती, वाणी, प्रभात, भारतीय ज्ञानपीठ, किताबघर, राजपाल एंड संस जैसे साहित्यिक प्रकाशनों के अलावा ओशो, सम्यक प्रकाशन, प्रतियोगिता साहित्य, स्कालर, के स्टालों पर भी खूब भीड़ रही। कौन कहता है कि हिंदी पुस्तकों के प्रति लोगों में पठनीयता घाट रही है, अकेले दस दिनों में ही एक करोड़ से ज्यादा की पुस्तकें इस मेले में बिक गईं। हर आयुवर्ग के लोग पुस्तकों के माध्यम से अपनी-अपनी जिज्ञासाएं शांत कर रहे थे। सम्यक प्रकाशन के स्टाल पर दलितों, पिछड़ों और इस वर्ग से जुड़े महापुरुषों पर आधारित पुस्तकों को लेकर दीवानगी देखते ही बनती थी। साहित्य में दलित-विमर्श का उभार देखना हो तो, इससे बेहतर जगह नहीं हो सकती थी। कुछेक किताबों को मैंने भी उलट-पलट कर देखा, स्थापित प्रतिमानों को ध्वंस करती व्याख्यायें लोगों को लुभाती हैं या और भी जिज्ञासु बनाती हैं। वाणी प्रकाशन द्वारा प्रकाशित 'दलित साहित्य के प्रतिमान' भले ही हिंदी दलित साहित्य के इतिहास और उसके सौंदर्य शास्त्र पर महत्वपूर्ण पुस्तक हो, पर दलितों से सम्बंधित पुस्तकों के लिए भीड़ सम्यक प्रकाशन पर ही दिखी।

इलाहाबाद में कोई साहित्यिक आयोजन हो और 'गुनाहों का देवता' की चर्चा न हो तो अधूरा सा लगता है। धर्मवीर भारती ने जिस तरह से इसमें इलाहाबाद का वर्णन किया है, और उसके बाद इस उपन्यास की भाव-भूमि, वाकई बार-बार पढने को मन करता है। विद्यार्थी जीवन में तो एक रात में ही इस उपन्यास को पढ़कर ख़त्म कर दिया था। वो पहली बार खरीदी गई यह पुस्तक अभी भी मेरी लायब्रेरी में सुरक्षित है। भारतीय ज्ञानपीठ द्वारा प्रकाशित इस उपन्यास के लिए लोगों में यहाँ भी खूब क्रेज़ दिखा। श्रीलाल शुक्ल की 'राग दरबारी' तो अभी भी कई ग्रामीण इलाकों का सच बयां करती है। लगता है जैसे अभी यह उपन्यास जल्द ही लिखा गया हो। इस पुस्तक के प्रति भी लोगों में काफी आकर्षण रहा। भारत सरकार के प्रकाशन विभाग द्वारा प्रकाशित अखिल भारतीय लेखक संदर्शिका भी यहाँ दिखी, पर इसे हर साल अप-डेट करते रहने की जरुरत है।

लाल कृष्ण आडवानी जी के ब्लॉग पर लिखी गई पोस्ट पुस्तकाकार रूप में आ गई हैं, देखकर अच्छा लगा। हम ब्लागर्ज़ के लिए यह एक अच्छा संकेत भी है।

अपनी व्यस्तताओं के मध्य पुस्तकों से संवाद करने का भले ही मुझे कम ही अवसर मिलता है, पर इस बार मैंने कई पुस्तकों को पढने का मन बनाया है। पुस्तक-मेले के बहाने ही सही, कई नई पुस्तकों से रूबरू होने का मौका मिला। इन्हें खरीद कर लाया भी और अब इन्हें पढने की बारी है।

 

बुधवार, 28 नवंबर 2012

दाम्पत्य जीवन के आठ वर्ष

आज 28 नवम्बर को हमारी (कृष्ण कुमार यादव-आकांक्षा यादव) शादी की 8वीं सालगिरह है। दाम्पत्य के साथ-साथ साहित्य और ब्लागिंग में भी सम्मिलित सृजनशीलता की युगलबंदी करते हुए जीवन के इस सफ़र में दिन, महीने और फिर साल कितनी तेजी से पंख लगाकर उड़ते चले गए, पता ही नहीं चला। आज हम वैवाहिक जीवन के 8 वर्ष पूरे करके 9वें वर्ष में प्रवेश करेंगें। वैसे भी 9 हमारा पसंदीदा नंबर है।

!! जीवन के इस सफ़र में आप सभी की शुभकामनाओं और स्नेह के लिए आभार !!

                                       रविकर जी की यह खूबसूरत पंक्तियाँ

वर्ष-गाँठ आई सुखद, *आठ-गाँठ-कुम्मैद |
मस्त रहें आठो पहर, इक दूजे में कैद |

इक दूजे में कैद, किन्तु दुनिया भी घूमें |
बने बच्चियां श्रेष्ठ, पताका नभ को चूमे |

नौ रविकर कर नौमि, हुआ है तन मन गदगद |
शुभकामना असीम, वर्ष-गाँठ आई सुखद ||


*सर्व-गुण-संपन्न |

रविवार, 25 नवंबर 2012

आपका ब्लॉग और भी कहीं पढ़ा जा रहा है...

न्यू मीडिया के रूप में ब्लागिंग ने कई रंग भरे हैं। प्रिंट-मीडिया से लेकर इलेक्ट्रानिक-मीडिया तक ब्लॉग कौतुहल का विषय बने हुए हैं। बलाग्ज़ पर प्रकाशित पोस्ट तमाम पत्र-पत्रिकाओं में धड़ल्ले से प्रकाशित हो रही हैं। इनमें प्रतिष्ठित से लेकर छोटे कस्बों तक से निकलने वाली पत्र-पत्रिकाएं शामिल हैं। कई बार तो पत्र-पत्रिकाएं ब्लोग्ज़ की पोस्ट को प्रकाशित करती हैं, पर उन्हें सूचित भी नहीं करतीं, शुक्र मात्र इतना है कि ब्लोगज के यूआरएल एड्रेस और लेखक का नाम प्रकाशित करती हैं। पर कई बार तो ऐसा भी नहीं होता।
 
फ़िलहाल शुक्रगुजार हूँ हिसार, हरियाणा में रह रहे वरिष्ठ साहित्यकार डा. राम निवास 'मानव' जी का जिन्होंने मुझे पिछले दिनों हिसार से प्रकाशित हो रहे दैनिक अख़बार 'नभ-छोर' की दर्जन भर से ज्यादा प्रतियाँ भेजीं, इसमें सम्पादकीय पृष्ठ पर प्रकाशित आलेख हिंदी-ब्लॉगों से ही लिए गए हैं। एक अन्य स्तम्भ 'ब्लॉग जगत से' में हर रोज किसी-न-किसी ब्लॉग की पोस्ट प्रकाशित हो रही हैं। इसमें आपका भी ब्लॉग शामिल हो सकता है।
 
 
दुर्भाग्य यह है कि इन सबको सहेजेने वाला कोई ब्लॉग या वेबसाइट भी नहीं है, जो इन्हें सहेजते भी हैं उनकी अपनी सीमाएं हैं। खैर, इसी बहाने हिंदी के ब्लोगज उन ग्रामीण क्षेत्रों में भी खूब पढ़े जा रहे हैं, जहाँ नेट कनेक्टिविटी का भी अभाव हो। सो आप निश्चिन्त रहिये, आपका ब्लॉग और भी कहीं पढ़ा जा रहा है।
 
 

रविवार, 11 नवंबर 2012

'आतिशबाजी' की बजाय दीपावली को 'सामाजिक सरोकारों' से जोड़ने की ज़रूरत


भारतीय उत्सवों को लोकरस और लोकानंद का मेल कहा गया है। भूमण्डलीकरण एवं उपभोक्तावाद के बढ़ते दायरों के बीच इस रस और आनंद में डूबा भारतीय जन-मानस आज भी न तो बड़े-बड़े माल और क्लबों में मनने वाले फेस्ट से चहकार भरता है और न ही किसी कम्पनी के सेल आफर को लेकर आन्तरिक उल्लास से भरता है। त्यौहार सामाजिक सदाशयता के परिचायक हैं न कि हैसियत दर्शाने के। त्यौहार हमें जीवन के राग-द्वेष से ऊपर उठाकर एक आदर्श समाज की स्थापना में मदद करते हैं। कोस-कोस पर बदले भाषा, कोस-कोस पर बदले बानी-वाले भारतीय समाज में एक ही त्यौहार को मनाने के अन्दाज में स्थान परिवर्तन के साथ कुछ न कुछ परिवर्तन दिख ही जाता है। वक्त के साथ दीपावली का स्वरूप भी बदला है।
 
दीपावली का त्यौहार इस बात का प्रतीक है कि हम इन दीपों से निकलने वाली ज्योति से सिर्फ अपना घर ही रोशन न करें वरन् इस रोशनी में अपने हृदय को भी आलोकित करें और समाज को राह दिखाएं। दीपक सिर्फ दीपावली का ही प्रतीक नही वरन् भारतीय सभ्यता में इसके प्रकाश को इतना पवित्र माना गया है कि मांगलिक कार्यों से लेकर भगवान की आरती तक इसका प्रयोग अनिवार्य है। यहाँ तक कि परिवार में किसी की गंभीर अस्वस्थता अथवा मरणासन्न स्थिति होने पर दीपक बुझ जाने को अपशकुन भी माना जाता है।
 
 अगर हम इतिहास के गर्भ में झांककर देखें तो सिंधु घाटी सभ्यता की खुदाई में पकी हुई मिट्टी के दीपक प्राप्त हुए हैं और मोहनज़ोदड़ो की खुदाई में प्राप्त भवनों में दीपकों को रखने हेतु ताख बनाए गए थे व मुख्य द्वार को प्रकाशित करने हेतु आलों की श्रृंखला थी। इसमें कोई शक नहीं कि दीपकों का आविर्भाव सभ्यता के साथ ही हो चुका था, पर दीपावली का जन-जीवन में पर्व रूप में आरम्भ श्री राम के अयोध्या आगमन से ही हुआ।
 
 दीपावली पर्व के पीछे मान्यता है कि रावण- वध के बीस दिन पश्चात भगवान राम अनुज लक्ष्मण व पत्नी सीता के साथ चौदह  वर्षों के वनवास पश्चात अयोध्या वापस लौटे थे। जिस दिन श्री राम अयोध्या लौटे, उस रात्रि कार्तिक मास की अमावस्या थी अर्थात आकाश में चाँद बिल्कुल नहीं दिखाई देता था। ऐसे माहौल में नगरवासियों ने भगवान राम के स्वागत में पूरी अयोध्या को दीपों के प्रकाश से जगमग करके मानो धरती पर ही सितारों को उतार दिया। तभी से दीपावली का त्यौहार मनाने की परम्परा चली आ रही है। धार्मिक मान्यताओं के अनुसार आज भी दीपावली के दिन भगवान राम, लक्ष्मण और पत्नी सीता के साथ अपनी वनवास स्थली चित्रकूट में विचरण कर श्रद्धालुओं की मनोकामनाओं की पूर्ति करते हैं। यही कारण है कि दीपावली के दिन लाखों श्रद्धालु चित्रकूट में मंदाकिनी नदी में डुबकी लगाकर कामद्गिरि की परिक्रमा करते हैं और दीप दान करते हैं। दीपावली के संबंध में एक प्रसिद्ध मान्यतानुसार मूलतः यह यक्षों का उत्सव है। दीपावली की रात्रि को यक्ष अपने राजा कुबेर के साथ हास-विलास में बिताते व अपनी यक्षिणियों के साथ आमोद-प्रमोद करते। दीपावली पर रंग- बिरंगी आतिशबाजी, लजीज पकवान एवं मनोरंजन के जो विविध कार्यक्रम होते हैं, वे यक्षों की ही देन हैं।
 
पारम्परिक सरसों के तेल की दीपमालायें न सिर्फ प्रकाश व उल्लास का प्रतीक होती हैं बल्कि उनकी टिमटिमाती रोशनी के मोह में घरों के आसपास के तमाम कीट-पतंगे भी मर जाते हैं, जिससे बीमारियों पर अंकुश लगता है। इसके अलावा देशी घी और सरसों के तेल के दीपकों का जलाया जाना वातावरण के लिए वैसे ही उत्तम है जैसे जड़ी-बूटियां युक्त हवन सामग्री से किया गया हवन। पर वर्तमान में जिस प्रकार बल्बों और झालरों का प्रचलन बढ़ रहा है, वह दीपावली के परम्परागत स्वरूप के ठीक उलटा है। आज दीपावली, दीयों का कम पटाखों और आतिशबाजी का त्यौहार ज्यादा हो गया है।
 
भारतीय संस्कृति दीये को प्रतिबिंबित करती है, आतिशबाजी चीनी-संस्कृति की देन है। पटाखे फोड़कर, आतिशबाजी कर व जोर से लाउडस्पीकर बजाकर हम पर्यावरण को प्रदूषित कर रहे हैं। गौरतलब है कि आतिशबाजी से निकलने वाले धुएं में कैडमियम, बेरियम, रुबिडियम, स्ट्रान्सियम और डाईआक्सिन जैसे जहरीले तत्व शामिल होते हैं। इसके धुंए में कार्बनडाईआक्साइड के अलावा कार्बनमोनोआक्साइड, सल्फर डाईआक्साइड जैसी विषैली गैसें शामिल होती हैं। वास्तव में देखें तो आतिशबाजी जल, वायु और ध्वनि तीनों प्रदूषणों का कारण है और इसके चलते इनका जहरीला असर लम्बे समय तक बना रहता है। आतिशबाजी के चलते आँखों, फेफड़ों, शवांस, त्वचा के रोगों में भी इजाफा होने की सम्भावना होती है। एक ओर कोई व्यक्ति बीमार है तो दूसरी ओर अन्य लोग बिना उसके स्वास्थ्य की परवाह किए लाउडस्पीकर बजाए जा रहे हैं, एक व्यक्ति समाज में अपनी हैसियत दिखाने हेतु हजारों-लाखों रुपये की आतिशबाजी कर रहा है तो दूसरी ओर न जाने कितने लोग सिर्फ एक समय का खाना खाकर पूरा दिन बिता देते हैं।
 
एक अनुमानानुसार हर साल दीपावली की रात पूरे देश में करीब पाँच हजार करोड़ रूपये के पटाखे जला दिए जाते हैं और करोड़ों रूपये जुए में लुटा दिए जाते हैं। जिस तरह से आतिशबाजी और पटाखे तैयार करने में बालश्रम का इस्तेमाल होता है, वह भी चिंतनीय है। क्या हमारी अंतश्चेतना यह नहीं कहती कि करोड़ों रुपये के पटाखे छोड़ने और आतिशबाजी की बजाय भूखे-नंगे लोगों हेतु कुछ प्रबन्ध किए जायें? हम दीपावली को 'इको फ्रैंडली' बनाते हुए इसे सामाजिक सरोकारों से क्यों नहीं जोड़ सकते। त्यौहार के नाम पर सब छूट है के बहाने अपने को शराब के नशे में डुबोकर मारपीट व अभद्रता करना कहाँ तक जायज है? निश्चिततः इन सभी प्रश्नों का जवाब अगर समय रहते नहीं दिया गया तो अगली पीढ़ियाँ शायद त्यौहारों की वास्तविक परिभाषा ही भूल जायें।

आज जरुरत 'आतिशबाजी' की बजाय दीपावली को 'सामाजिक सरोकारों' से जोड़ने की है। यदि इस शुभ-पर्व पर हम किसी के जीवन में खुशियों का उजियारा फैला सके तो उससे बड़ी ख़ुशी और नहीं होगी !!
 
- कृष्ण कुमार यादव

शनिवार, 3 नवंबर 2012

कृष्ण कुमार-आकांक्षा यादव को उ.प्र. के मुख्यमंत्री द्वारा अवध सम्मान : झलकियाँ

(उत्तर प्रदेश के मुख्यमंत्री श्री अखिलेश यादव ने 1 नवम्बर, 2012 को हमें (कृष्ण कुमार यादव-आकांक्षा यादव) ‘न्यू मीडिया एवं ब्लागिंग’ में उत्कृष्टता के लिए एक भव्य कार्यक्रम में ‘अवध सम्मान’ से सम्मानित किया. जी न्यूज़ द्वारा आयोजित इस कार्यक्रम का आयोजन ताज होटल, लखनऊ में किया गया था, जिसमें विभिन्न विधाओं में उत्कृष्ट कार्य करने वालों को सम्मानित किया गया. प्रस्तुत हैं कार्यक्रम के यादगार पल)

(उत्तर प्रदेश के मुख्यमंत्री श्री अखिलेश यादव द्वारा 1 नवम्बर, 2012 को कृष्ण कुमार यादव और आकांक्षा यादव को 'न्यू मीडिया एवं ब्लागिंग' में उत्कृष्टता के लिए युगल रूप में 'अवध सम्मान' से सम्मानित किया गया.साथ में परिलक्षित हैं उत्तर प्रदेश विधान सभा के अध्यक्ष श्री माता प्रसाद पाण्डेय और जी-न्यूज उत्तर प्रदेश-उत्तराखंड के संपादक वाशिन्द्र मिश्र  )
                          (सम्मान से पहले  उत्तर प्रदेश के मुख्यमंत्री श्री अखिलेश यादव से मुलाकात)

('अवध सम्मान' प्राप्त करने के बाद कृष्ण कुमार यादव का संबोधन)


('अवध सम्मान' प्राप्त करने के बाद आकांक्षा यादव का संबोधन)
                                   (उत्तर प्रदेश के मुख्यमंत्री श्री अखिलेश यादव से गुफ्तगू के पल)

('अवध सम्मान' के दौरान उत्तर प्रदेश के मुख्यमंत्री श्री अखिलेश यादव, चर्चित लोकगायिका मालिनी अवस्थी और कृष्ण कुमार यादव.)

(उ.प्र. विधानसभा अध्यक्ष श्री माता प्रसाद पाण्डेय जी के साथ : कृष्ण कुमार यादव, आकांक्षा यादव, बेटियां अक्षिता (पाखी)-अपूर्वा और प्रसिद्ध ज्योतिषाचार्य के. ए. दुबे पद्मेश.)
('अवध सम्मान' प्राप्त करने के बाद कृष्ण कुमार यादव और कानपुर में रह रहे प्रसिद्द ज्योतिषाचार्य के. ए. दुबे पद्मेश)
('अवध सम्मान' के दौरान उत्तर प्रदेश से विधायक सुश्री अनुप्रिया पटेल से रूबरू.कानपुर में रहते हुए उनसे कुछेक कार्यक्रमों में मुलाकात हुई थीं, पर विधानसभा सदस्य बनने के बाद पहली बार मुलाकात हुई)
 
 
('अवध सम्मान' के बाद उत्तर प्रदेश के मुख्यमंत्री श्री अखिलेश यादव साथ ग्रुप फोटो)

('अवध सम्मान' प्राप्त करने के बाद प्रसन्नचित्त परिवार)

शुक्रवार, 2 नवंबर 2012

उ.प्र. के मुख्यमंत्री द्वारा कृष्ण कुमार यादव और आकांक्षा यादव 'ब्लागिंग' में उत्कृष्ट कार्य हेतु 'अवध सम्मान' से सम्मानित


जीवन में कुछ करने की चाह हो तो रास्ते खुद-ब-खुद बन जाते हैं। हिन्दी-ब्लागिंग के क्षेत्र में ऐसा ही रास्ता अखि़्तयार किया दम्पति कृष्ण कुमार यादव व आकांक्षा यादव ने। उनके इस जूनून के कारण ही आज हिंदी ब्लागिंग को आधिकारिक तौर पर भी विधा के रूप में मान्यता मिलने लगी है. इसी क्रम में उत्तर प्रदेश के मुख्यमंत्री श्री अखिलेश यादव ने 1 नवम्बर, 2012 को इलाहाबाद परिक्षेत्र के निदेशक डाक सेवाएं कृष्ण कुमार यादव और उनकी पत्नी आकांक्षा यादव को ‘न्यू मीडिया एवं ब्लागिंग’ में उत्कृष्टता के लिए एक भव्य कार्यक्रम में ‘अवध सम्मान’ से सम्मानित किया गया. जी न्यूज़ द्वारा आयोजित इस कार्यक्रम का आयोजन ताज होटल, लखनऊ में किया गया था, जिसमें विभिन्न विधाओं में उत्कृष्ट कार्य करने वालों को सम्मानित किया गया, पर यह पहली बार हुआ जब किसी दम्पति को युगल रूप में यह प्रतिष्ठित सम्मान दिया गया. ब्लागर दम्पति को सम्मानित करते हुए मुख्यमंत्री अखिलेश यादव ने जहाँ न्यू मीडिया के रूप में ब्लागिंग की सराहना की, वहीँ कृष्ण कुमार यादव ने अपने संबोधन में उनसे उत्तर प्रदेश हिंदी संस्थान द्वारा दिए जा रहे सम्मानों में ‘ब्लागिंग’ को भी शामिल करने का अनुरोध किया. आकांक्षा यादव ने न्यू मीडिया और ब्लागिंग के माध्यम से भ्रूण-हत्या, नारी-उत्पीडन जैसे मुद्दों के प्रति सचेत करने की बात कही. अन्य सम्मानित लोगों में वरिष्ठ साहित्यकार विश्वनाथ त्रिपाठी, चर्चित लोकगायिका मालिनी अवस्थी, ज्योतिषाचार्य पं. के. ए. दुबे पद्मेश, वरिष्ठ आई.एस. अधिकारी जय शंकर श्रीवास्तव इत्यादि प्रमुख रहे.

जीवन में एक-दूसरे का साथ निभाने की कसमें खा चुके कृष्ण कुमार यादव और आकांक्षा यादव, साहित्य और ब्लागिंग में भी हमजोली बनकर उभरे हैं. कृष्ण कुमार यादव ब्लागिंग और हिन्दी-साहित्य में एक चर्चित नाम हैं, जिनकी 6 पुस्तकें प्रकाशित हो चुकी हैं । उनके जीवन पर एक पुस्तक ’बढ़ते चरण शिखर की ओर’ भी प्रकाशित हो चुकी है। आकांक्षा यादव भी नारी-सशक्तीकरण को लेकर प्रखरता से लिखती हैं और उनकी दो पुस्तकें प्रकाशित हो चुकी हैं । कृष्ण कुमार-आकांक्षा यादव ने वर्ष 2008 में ब्लाग जगत में कदम रखा और 5 साल के भीतर ही सपरिवार विभिन्न विषयों पर आधारित दसियों ब्लाग का संचालन-सम्पादन करके कई लोगों को ब्लागिंग की तरफ प्रवृत्त किया और अपनी साहित्यिक रचनाधर्मिता के साथ-साथ ब्लागिंग को भी नये आयाम दिये। कृष्ण कुमार यादव का ब्लॉग ‘शब्द-सृजन की ओर’ (http://www.kkyadav.blogspot.in/) जहाँ उनकी साहित्यिक रचनात्मकता और अन्य तमाम गतिविधियों से रूबरू करता है, वहीँ ‘डाकिया डाक लाया’ (http://dakbabu.blogspot.in/) के माध्यम से वे डाक-सेवाओं के अनूठे पहलुओं और अन्य तमाम जानकारियों को सहेजते हैं. आकांक्षा यादव अपने व्यक्तिगत ब्लॉग ‘शब्द-शिखर’ (http://shabdshikhar.blogspot.in/) पर साहित्यिक रचनाओं के साथ-साथ सामाजिक सरोकारों और विशेषत: नारी-सशक्तिकरण को लेकर काफी मुखर हैं. इस दम्पति के ब्लागों को सिर्फ देश ही नहीं बल्कि विदेशों में भी भरपूर सराहना मिली। कृष्ण कुमार यादव के ब्लाग ’डाकिया डाक लाया’ को 98 देशों, ’शब्द सृजन की ओर’ को 75 देशों, आकांक्षा यादव के ब्लाग ’शब्द शिखर’ को 68 देशों में देखा-पढ़ा जा चुका है. सबसे रोचक तथ्य यह है कि यादव दम्पति ने अभी से अपनी सुपुत्री अक्षिता (पाखी) में भी ब्लागिंग को लेकर जूनून पैदा कर दिया है. पिछले वर्ष ब्लागिंग हेतु भारत सरकार द्वारा ’’राष्ट्रीय बाल पुरस्कार’’ से सम्मानित अक्षिता (पाखी) का ब्लाग ’पाखी की दुनिया’ (http://pakhi-akshita.blogspot.in/) बच्चों के साथ-साथ बड़ों में भी काफी लोकप्रिय है और इसे 98 देशों में देखा-पढ़ा जा चुका है। इसके अलावा इस ब्लागर दम्पति द्वारा ‘उत्सव के रंग’, ‘बाल-दुनिया’, ‘सप्तरंगी प्रेम’ इत्यादि ब्लॉगों का भी सञ्चालन किया जाता है.

इस अवसर पर उ.प्र. विधानसभा अध्यक्ष माता प्रसाद पाण्डेय, रीता बहुगुणा जोशी, प्रमोद तिवारी, केबिनेट मंत्री दुर्गा प्रसाद यादव, अनुप्रिया पटेल, मेयर दिनेश शर्मा सहित मंत्रिपरिषद के कई सदस्य, विधायक, कार्पोरेट और मीडिया से जुडी हस्तियाँ, प्रशासनिक अधिकारी, साहित्यकार, पत्रकार, कलाकर्मी व खिलाडी इत्यादि उपस्थित रहे. आभार ज्ञापन जी न्यूज उत्तर प्रदेश-उत्तराखंड के संपादक वाशिन्द्र मिश्र ने किया.

-डा. विनय कुमार शर्मा
प्रधान संपादक-संचार बुलेटिन (अंतराष्ट्रीय शोध जर्नल)
448/119/76, कल्याणपुरी, ठाकुरगंज, चैक, लखनऊ-226003

गुरुवार, 1 नवंबर 2012

कृष्ण कुमार यादव के हाइकु

आधुनिकता
क्षीण हो रहे मूल्य
चकाचौंध में।


टूटते रिश्ते
सूखती संवेदना
कैसे बचाएं।


संवेदनाएं
लहुलुहान होती
समय कैसा।


सत्य-असत्य
के पैमाने बदले
छाई बुराई।


खलनायक
नेता या अभिनेता
खामोश सब।


अहं में चूर
मानव शर्मसार
अब तो जाग।


-कृष्ण कुमार यादव

रविवार, 28 अक्तूबर 2012

'दैनिक जागरण' में 'शब्द-सृजन की ओर' का 'रावण'


'शब्द सृजन की ओर' पर 24 अक्तूबर, 2012 को प्रकाशित पोस्ट 'कब तक हम रावण के पुतले जलाते रहेंगे' को प्रतिष्ठित हिन्दी अख़बार दैनिक जागरण ने 25 अक्तूबर, 2012 को अपने राष्ट्रीय संसकरण में नियमित स्तंभ  'फिर से'  के तहत 'कब तक जलाते रहेंगें रावण के पुतले' शीर्षक से प्रकाशित किया है. दैनिक जागरण में पहली बार मेरी किसी ब्लॉग-पोस्ट की चर्चा हुई है ... आभार !
 
इससे पहले 'शब्द सृजन की ओर' पर प्रकाशित ब्लॉग की पोस्टों की चर्चा जनसत्ता, अमर उजाला, LN स्टार इत्यादि में हो चुकी है. मेरे दूसरे ब्लॉग 'डाकिया डाक लाया' ब्लॉग और इसकी प्रविष्टियों की चर्चा दैनिक हिंदुस्तान, जनसत्ता, राष्ट्रीय सहारा, राजस्थान पत्रिका, उदंती, LN STAR पत्र-पत्रिकाओं में हो चुकी है. इस प्रोत्साहन के लिए आप सभी का आभार !!
 

शनिवार, 27 अक्तूबर 2012

बिटिया अपूर्वा हुईं दो साल की : जीवन के विविध रंग

मिलिए आज की बर्थ-डे गर्ल से. ये हैं हमारी प्यारी सी बिटिया रानी अपूर्वा, जो आज अपना दूसरा हैप्पी बर्थ-डे सेलिब्रेट कर रही हैं...वैसे ये भावी ब्लागर भी हैं. आज आपको दिखाते हैं अपूर्वा की ढेर सारी गतिविधियाँ, इनका नटखटपन और मासूमियत.
 
फूल किसे नहीं अच्छे लगते...
 
कैसी लग रही हूँ सन-ग्लास में..अभी मेरी साइज़ का सन-ग्लास ढूंढा जा रहा है..
 
शंकर जी तो गले में साँप धारण करते हैं, मेरे लिए तो यह खिलौना ही सही.
 
 
अब मैं बड़ी हो गई हूँ. ममा का शूज़ तो पहन ही सकती हूँ.
अभी पढ़ भले ही नहीं सकती हैं, पर पुस्तकों को उलट-पलटकर चित्रों की दुनिया में खोने से कौन रोक सकता है !!  
 
                  अपूर्वा अपनी दीदी अक्षिता (पाखी) की सबसे अच्छी दोस्त है.
ममा-पापा की राह पर..अभी से कलम से दोस्ती.
 
यह मासूम चेहरा..नटखटपन.
 
लान में शाम को पौधों को पानी देना नहीं भूलतीं अपूर्वा.
 
अपने लॉन में लगे आम के पेड़ पर आम आ गए तो अपूर्वा ने खूब आम तोड़े और खाए. 
                                 गमले में लगे पौधों में नए पौधे लगाने की कोशिश..
 
दिन भर उछल-कूद मचाना, दौड़ना..वाह क्या दिन हैं.
टाइगर की सवारी का आनंद ही कुछ और है.
 
अपूर्वा के दुसरे जन्मदिन पर ढेरों बधाई, आशीर्वाद, स्नेह और प्यार.
 
!! आपके आशीर्वाद और स्नेह की आकांक्षा बनी रहेगी !!

बुधवार, 24 अक्तूबर 2012

कब तक हम रावण के पुतले जलाते रहेंगे...


आज दशहरा है. इस दिन का बड़ा इंतजार रहता था कभी. दशहरा आयेगा तो मेला भी होगा और फिर वो जलेबियाँ, चाट, गुब्बारे, बांसुरी, खिलौने...और भी न जाने क्या-क्या. अब तो कहीं भी जाओ ये सभी चीजें हर समय उपलब्ध हैं. पार्क के बाहर खड़े होइए या मार्केट में..गुब्बारे वाला हाजिर. मेले को लेकर पहले से ही न जाने क्या-क्या सपने बुनते थे. राम-लीला की यादें तो अब मानो धुंधली हो गई हैं. घर जाता हूँ तो राम लीला में अभिनय करने वाले लोगों को देखकर अनायास ही पुरानी यादें ताजा हो जाती हैं. एक तरफ दुर्गा पूजा, फिर दीवाली के लिए लक्ष्मी-गणेश की मूर्तियाँ खरीदना इस मेले के अनिवार्य तत्व थे. हमारी लोक-परम्पराएँ, उत्सव और सामाजिकता ..इन सब का मेल होता था मेला. याद कीजिये प्रेमचन्द की कहानी का हामिद, कैसे मेले से अपने माँ के लिए चिमटा खरीद कर लाता है. ऐसे न जाने कितने दृश्य मेले में दिखते थे. जादू वाला, झूले वाला, मदारी, घोड़े वाला, हाथी वाला, सब मेले के बहाने इकठ्ठा हो जाते थे. मानो मेला नहीं, जीवन का खेला हो. मिठाई की दुकानें हफ्ते भर पहले से ही सजने लगती थीं. बिना मिठाई के मेला क्या और जलेबी, रसगुल्ले और चाट की महिमा तो अपरम्पार थी. चारों तरफ बजते लाउडस्पीकर कि अपनी जेब संभल कर चलें, जेबकतरों से खतरा हो सकता है या अमुक खोया बच्चा यहाँ पर है, उसके मम्मी-पापा आकर ले जाएँ. इन मेलों की याद बहुत दिन तक जेहन में कैद रहती थी. मेले में कितने रिश्तेदारों और दोस्तों से मुलाकात हो जाती थी. ऐसा लगता मानो पूरा संसार सिमट कर मेले में समा गया हो.

पर अब न तो वह मेला रहा और न ही उत्साह. आतंक की छाया इन मेलों पर भी दिखाई देने लगी है. हर साल हम रावण का दहन करते हैं, पर अगले साल वह और भी विकराल होकर सामने आता है. मानो हर साल चिढ़ाने आता है कि ये देखो पिछले साल भी मुझे जलाया था, मैं इस साल भी आ गया हूँ और उससे भी भव्य रूप में. यह भी कैसे बेबसी है कि हम हर साल पूरे ताम-झाम के साथ रावण को जलाते हैं और फिर अगले साल वह आकर अट्ठाहस करने लगता है. शायद यह भ्रष्टाचार और अनाचार को समाज में महिमामंडित करने का खेल है.

मेला इस साल भी आयेगा और चला जायेगा. पर इस मेले में ना वह बात रही और न ही सामाजिकता और आत्मीयता.दशहरा शब्द की उत्पत्ति संस्कृत भाषा के शब्द संयोजन "दश" व "हरा" से हुयी है, जिसका अर्थ भगवान राम द्वारा रावण के दस सिरों को काटने व तत्पश्चात रावण की मृत्यु रूप में राक्षस राज के आंतक की समाप्ति से है। यही कारण है कि इस दिन को विजयदशमी अर्थात अन्याय पर न्याय की विजय के रूप में भी मनाया जाता है। काश हर साल दशहरे पर हम प्रतीकात्मक रूप की बजाय वास्तव में अपने और समाज के अन्दर फैले रावण को ख़त्म कर पाते !!
- कृष्णा कुमार यादव

गुरुवार, 18 अक्तूबर 2012

विश्व की प्रथम रामलीला

महाकवि तुलसीदासजी सांसारिक बंधन से विरक्त होकर वैराग्य धारणकर रामधुन में लीन धार्मिक तीर्थस्थलों का भ्रमण करने ramlilaनिकल पड़े। पूजा पाठ, ध्यान - धर्म तथा आराधना में लीन राममय होकर भ्रमण करते हुए 1593 में वे अयोध्या पहुंच गये। प्रतिदिन भोर में ही सरजू तट पर पहुंचना, राम का ध्यान लगाना, जप - तप करना इत्यादि रामभक्त तुलसीदासजी की दिनचर्या थी।

उसी तट पर एक तपस्वी महासंत समाधिस्थ रहते थे। तुलसीदासजी प्रतिदिन उस समाधिस्थ संत को दूर से ही साष्टांग दंडवत कर अभिवादन करते थे। संत के प्रति श्रद्धा और भक्ति से ओत-प्रोत अपने मन में उनसे साक्षात्कार करने, आशीर्वाद लेने और ज्ञान प्राप्त करने की जिज्ञासा लिये तुलसीदासजी वापस चले जाया करते थे। एक दिन वह शुभ घड़ी आ ही गयी, जब संत समाधि से बाहर आये। उसी समय तुलसीदासजी ने साष्टांग दंडवत किया। तपस्वी संत ने तुलसीदास को देखकर मन ही मन पहचान लिया कि प्रभु ने सही व्यक्ति को मेरे पास भेज दिया है। तपस्वी संत ने तुलसीदास को अपने हाथों उठाया, आशीर्वाद दिया और संकेत किया कि मेरे साथ आओ। वे तुलसीदास को अपने साथ लेकर अपनी कुटिया में पहुंचे। उस कुटिया में राम की मूर्ति के अलावा मुकुट, धनुष-बाण, खड़ाऊं और कमंडल को फूलों से सजा कर रखा हुआ था। तपस्वी संत ने तुलसीदास से कहा कि ये मुकुट, धनुष-बाण, खड़ाऊं और कमंडल सभी कुछ तुमको सौंपता हूं। तुम वास्तव में प्रभु श्रीराम के उपासक हो इसीलिए प्रभु राम ने तुम्हें मेरे पास भेजा है। इस मुकुट, धनुष-बाण, खड़ाऊं और कमंडल को कोई सामान्य वस्तु न समझना, यह सभी प्रभु राम के स्मृति चिह्न हैं। यह धनुष-बाण कभी प्रभु राम के करकमलों में रह चुका है। इन खड़ाऊं और कमंडल को प्रभु राम के स्पर्श का सौभाग्य प्राप्त है। यह मुकुट श्रीराम के सिर को संवार चुका है। प्रभु के आदेश से ही तुम यहां पधारे हो। मैं इस जीवन से थक चुका हूं। इन स्मृति चिह्नों तथा अमूल्य धरोहर को उचित स्थान, उचित संत और उचित रामभक्त को समर्पित करने की प्रतीक्षा में ही मैं समाधिस्थ रहता था। यह श्रीराम का दिव्य उपहार है। इस धरोहर तथा अमूल्य संपत्ति को लेकर तुम काशी जाओ। वहीं निवास करो। वहीं श्रीराम की आराधना करो। श्रीराम के जन्म से लेकर अंत तक की संपूर्ण घटनाएं साक्षात तुम्हारे मानसपटल पर अंकित हो जायेंगी। तुमसे तुम्हारे अपने राम मिल जायेंगे। तुम्हारे हाथों एक नयी रामायण लिखी जायेगी, तुम्हारी ही सरल लेखनी से रामलीला लिखी जायेगी जो जन-जन तक पहुंचेगी तथा रामलीला के नाम से विख्यात होगी।''
संत तुलसीदास के नेत्रों से अश्रुधारा बह चली।

तुलसीदास महासंत के चरणों में गिर गये और साष्टांग दंडवत प्रणाम किया और आज्ञाकारी शिष्य के रूप में कुछ दिन उन महासंत की छाया में रहने की अनुमति प्राप्त करने के लिए करबद्ध स्वीकृति मांगी। महासंत की शिक्षा-दीक्षा ने मानो तुलसीदासजी के मन के नेत्र खोल दिये। ज्ञान प्राप्त करने के पश्चात, गुरु का आदेश पाकर वे काशी के लिए चल पड़े। साथ में राम, मन में राम, स्मृति में राम, राम ही राम।

1595 में तुलसीदासजी महासंत की आज्ञा के अनुसार काशी पहुंचे और अस्सीघाट पर रहने लगे। रात्रि में देखे गये स्वप्न, प्रात: उनको रामकथा लिखने की प्रेरणा देने लगे। रामचरितमानस का लेखन आरंभ हो गया। 1618-19 में यह पवित्र ग्रंथ पूरा हो गया। संत तुलसीदासजी दिव्य उपस्करों (मुकुट, धनुष-बाण, खड़ाऊं, कमंडल) को अपने साथ लेकर अपने कुछ शिष्यों के साथ नाव में बैठकर, तत्कालीन काशी नरेश से मिलने रामनगर गये। काशी नरेशजी संत तुलसीदासजी से मिलकर प्रसन्नता और श्रद्धा से भावविभोर हो गये। अपने सिंहासन से उठकर उन्होंने तुलसीदासजी का सम्मान किया तथा रामलीला करवाने का संकल्प किया।

ramlila21621 ई. में सर्वप्रथम अस्सीघाट पर नाटक के रूप में संत तुलसीदासजी ने रामचरित मानस के रूप में रामलीला का विमोचन किया। उसके बाद काशी नरेश ने रामनगर में रामलीला करवाने के लिए एक वृहद क्षेत्र में लंका, चित्रकूट, पंचवटी की रूपरेखा बड़े मंच पर अंकित करवाकर रामलीला की भव्य प्रस्तुति करवायी। प्रतिवर्ष संशोधन के साथ रामलीला होने लगी। रामनगर की रामलीला 22 दिनों में पूरी होती है। रामलीला का अंतिम दिन दशहरा का दिन होता है। इस दिन रावण का पुतला जलाया जाता है।

1626 ई. में महाकवि संत तुलसीदासजी ब्रह्मलीन हो गये। तुलसीदासजी की स्मृति में काशी नरेश ने रामनगर को राममय करके विश्व का श्रेष्ठतम रामलीला स्थल बना दिया है। आज भी रामनगर की रामलीला विश्वभर में प्रसिद्ध है। आज भी वह दिव्य उपस्कर (मुकुट, धनुष-बाण, खड़ाऊं, कमंडल) महाराज काशी के संरक्षण में प्राचीन बृहस्पति मंदिर में सुरक्षित हैं। वर्ष में सिर्फ एक बार भरत मिलाप के दिन प्रभु राम के मुकुट, धनुष-बाण, खड़ाऊं, कमंडल प्रयोग में लाये जाते हैं। तभी भरत मिलाप अद्वितीय माना जाता है। इस रामलीला को देखने के लिए देश-विदेश के पर्यटक रामनगर (वाराणसी) आते हैं।