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शनिवार, 29 मई 2010

अंडमान-निकोबार में रवीद्रनाथ टैगोर 150वीं जयंती समारोह का शुभारम्भ

महान कवि रवीद्रनाथ टैगोर की 150 वीं जयंती पर अंडमान-निकोबार द्वीप समूह की राजधानी पोर्टब्लेयर में पिछले दिनों वर्ष भर चलने वाले भव्य समारोह का आगाज़ हुआ। अंडमान पीपुल थिएटर एसोसिएशन, आप्टा द्वारा आयोजित इस कवि गुरू नमन का उद्घाटन एम्फी थिएटर के खुले रंगमंच पर अंडमान-निकोबार द्वीप समूह के डाक निदेशक एवं साहित्यकार कृष्ण कुमार यादव द्वारा किया गया।मुख्य अतिथि के रूप में कृष्ण कुमार यादव ने कहा कि रवीद्रनाथ टैगोर जैसा व्यक्तित्व किसी समाज या किसी देश की सीमाओं में नहीं बांधा जा सकता, ऐसे व्यक्तित्व समूची मानवता के थाती होते हैं। रवीद्रनाथ टैगोर न सिर्फ़ कवि, साहित्यकार, संगीतकार, चित्रकार इत्यादि थे बल्कि वे मानवतावाद के अग्रणी पोषक भी थे। एक जमींदार घराने से होते हुए भी उन्होंने ग्रामीण किसानों के लिए कार्य किया। वह पहले कवि थे, जिन्होंने प्रतिष्ठित नोबेल पुरस्कार से सम्मानित होकर भारत को पहला नोबेल तो दिलवाया ही, पराधीन भारत के आहत स्वाभिमान को एक बार फिर सिर उठाने का अवसर दिया। श्री यादव ने बताया कि मात्र सात साल की उम्र में लिखना आरम्भ करने वाले रवीद्रनाथ टैगोर ने 1920 में भावनगर, गुजरात में आयोजित छठे गुजराती साहित्य परिषद में गाँधी जी के आग्रह पर बतौर अध्यक्ष अपना पहला भाषण हिन्दी में दिया।
वरिष्ठ पत्रकार एवं साहित्य अकादमी, नई दिल्ली के सदस्य श्री गोविन्द राजू ने कार्यक्रम की अध्यक्षता की। उन्होंने सभी भाषा-भाषियों से अनुरोध किया कि वे भी टैगोर के 150 वीं जयंती कार्यक्रम को मनाएँ। द्वीपों के जाने-माने बंगला साहित्य के रचनाकार और वाक-प्रतिमा के संपादक इस अवसर पर विशिष्ट सम्माननीय अतिथि थे। उन्होंने कवि गुरू रवीद्रनाथ टैगोर के संक्षिप्त जीवन दर्शन का परिचय दिया। साथ ही उनकी कुछ चुनिंदा रचनाओं का बोध कराया।


कार्यक्रम में रवीन्द्र संगीत, कहानी, कविता, गीतांजलि पर श्री प्रकाश की पेंटिंग तथा रक्त कोरणी ; लाल कनेर नाटक के अंश प्रस्तुत किए गए। इसे आप्टा के निदेशक नरेश चन्द्र लाल ने प्रस्तुत की। श्री निमोय चन्द्र बनर्जी ने धन्यवाद ज्ञापन किया।
(रिपोर्ट : नरेश चन्द्र लाल)

(इस समाचार को आप सृजनगाथा, साहित्यशिल्पी, स्वतंत्र आवाज़ , युग मानस पर भी देख सकते हैं )

शुक्रवार, 28 मई 2010

टैगोर का शांति निकेतन विश्व धरोहर बनने की ओर

रवीन्द्रनाथ टैगोर के नाम से भला कौन अपरिचित होगा। साहित्यकार-संगीतकार-लेखक-कवि-नाटककार-संस्कृतिकर्मी एवं भारतीय उपमहाद्वीप में साहित्य के एकमात्र नोबेल पुरस्कार विजेता के अलावा उनकी छवि एक प्रयोगधर्मी और मानवतावादी की भी है. अनेक मामलों में उनकी समझ अपने युग के सभी वि‍चारकों, आलोचकों, रचनाकारों और कला मनीषि‍यों के वि‍चारों की सीमाओं को भेदती हुई मनुष्‍यत्‍व के मर्म तक गयी है। 1901 में स्थापित शांतिनिकेतन रवींद्रनाथ टैगोर जी के जीवन दर्शन उनके अद्भुत कार्यो और शिक्षा के क्षेत्र में उनके अनोखे माडल को प्रदर्शित करता है. एक तरह से देखा जाय तो शांति निकेतन भारतीय शिक्षा के क्षेत्र में 'तपोवन परंपरा' की वापसी और 'मानवीय विचारधारा' के समावेश की बानगी पेश करता है। एक ऐसे समय में जब बंगाल ब्रिटिश शासन और जातपात का दंश झेल रहा था उस समय रवींद्रनाथ टैगोर जी ने धार्मिक और क्षेत्रीय बाधाओं से परे शांतिनिकेतन नामक ऐसी शिक्षण संस्था का आधार तैयार किया जो मानवीयता, अन्तराष्ट्रीय सांस्कृतिक मूल्यों और मुक्त पाठ्यक्रम पर आधारित थी। गौरतलब है कि शांति निकेतन के हिंदू बहुल क्षेत्र में स्थित होने के बावजूद सौ वर्ष पहले वहाँ प्रत्येक पाँच में से तीन शिक्षक ईसाई थे और महिलाओं को भी शिक्षण कार्य में प्रोत्साहित किया जाता था। टैगोर ने आमिर-गरीब के साथ लिंगभेद को भी दूर करते हुए आम आदमी को शिक्षा से जोड़ने का प्रयास किया था। शान्तिनिकेतन की महत्ता का अंदाजा इसी से लगाया जा सकता है कि स्थापना के दूसरे वर्ष में ही इस शिक्षण संस्था को जापान से पहला विदेशी छात्र मिला और बाद में वैदिक, पुराण, इस्लाम, बौद्ध, जैन इत्यादि सम्बंधित विषयों को पाठ्यक्रम में शामिल किया गया। यही नहीं टैगोर ने स्कूल के संबंधों को स्थानीय समुदाय से भी जोड़ने का प्रयास किया और संथाल समुदाय में शिक्षा को बढ़ावा देने पर जोर दिया। गौरतलब है कि मानवाधिकारों पर संयुक्त राष्ट्र घोषणा, 1948 से पहले ही शांति निकेतन में अन्तराष्ट्रीय मानवीय मूल्यों की आधारशिला रखी गई और वहां पर्यावरण संरक्षण के साथ ही महिला सशक्तिकरण और समावेशी पहल पर जोर दिया गया।

ऐसे में टैगोर की 150वीं जयंती के अवसर पर शन्ति निकेतन की महत्ता और प्रासंगिकता और भी बढ़ जाती है. यही कारण है की गुरुदेव की इस पवन कर्मस्थली को यूनेस्को विश्व धरोहर क़ी सूची में शामिल कराने हेतु भारत सरकार ने पहल आरंभ कर दी है. यदि यह अनुपम पहल कामयाब होती है तो शांति निकेतन को भारत क़ी 30वीं विश्व धरोहर होने का गौरव प्राप्त हो सकेगा और टैगोर जी को उनकी 150 वीं जयंती पर इससे सुन्दर और सार्थक स्मरण क्या हो सकता है !!

मंगलवार, 25 मई 2010

कितने सुंदर हैं गुब्बारे

सरस पायस पर प्रकाशित मेरी बाल कविता कितने सुंदर हैं गुब्बारे का लुत्फ़ आप भी उठाइए। रावेन्द्रकुमार रवि जी ने इसमें कुछेक परिवर्तन कर इसे और भी रोचक बना दिया है... आभार !!

लाल-बैंगनी-हरे-गुलाबी,
रंग-बिरंगे हैं ये प्यारे।
एक नहीं हैं इतने सारे,
कितने सुंदर हैं गुब्बारे।

गुब्बारों की दुनिया होती,
कितनी-प्यारी और निराली।
हँस देते रोनेवाले भी,
खिल जाती चेहरे पर लाली।

हम सब दौड़ें इनके पीछे,
कसकर पकड़े इन्हें हाथ में।
सीना ताने घूम रहे हैं,
हम सब इनको लिए साथ में।

सोमवार, 24 मई 2010

लाल गुलाबों का सत्याग्रह-डे

सल्लू मियाँ हमारे लिए सिर्फ दर्जी ही नहीं वरन् अच्छे मित्र भी हैं। उम्र कोई पचपन साल पर बातें ऐसी चुटीली कि जवान भी शर्मा जायें। सल्लू मियाँ की सबसे बड़ी खासियत ‘गाँधी टोपियों‘ को सिलने की है। वे बेसब्री से चुनावी रैलियों और गाँधी जयन्ती का इन्तजार करते कि कब उनको गाँधी टोपियों का आर्डर मिले और वे अपने सिर पर से लोगों के कर्ज का बोझ उतार सकें। पर ईधर नई पीढ़ी में गाँधी टोपी के प्रति बढ़ती उदासीनता ने उनके माथे पर सलवटें ला दी थीं। इस उम्र में नौकरी भी नहीं मिल सकती थी और न ही इतना पैसा था कि कोई नया व्यवसाय शुरू किया जा सके।
इसी बीच मुझे ट्रेनिंग के लिए एक महीने बाहर जाना पड़ा। ट्रेनिंग से लौटकर जब बाजार घूमने गया तो सल्लू मियाँ की टेलरिंग की दुकान गायब थी और उसकी जगह गुलाब के फूलों की एक चमचमाती दुकान खड़ी थी। तभी अचानक उस दुकान के अन्दर से सल्लू मियाँ निकले तो मैं अवाक्् उनको देखते रह गया। लकालक सफेद कुर्ता - पायजामा और गाँधी टोपी पहने सल्लू मियाँ पहचान में ही नहीं आ रहे थे। मेरी तरफ नजर पड़ते ही वे दोनों बाँहें फैलाए दौड़े और मुझे खींचते हुए अन्दर ले गए। अभी मैं दुकान का पूरा जायजा भी नहीं ले पाया था कि सल्लू मियाँ की तरह ही कपड़े पहने उनके छोटे पुत्र ने मेरे हाथ में गुलाब का एक फूल थमाते हुए कहा- वेलकम अंकल जी! हमारी नई दुकान में आपका स्वागत है। इससे पहले कि मैं कुछ बोलता, सल्लू मियाँ ने मुझे कुर्सी खींचते हुए बैठाया और अपने बेटे को दो बोतल कोल्ड ड्रिंक लाने को कहा। सल्लू मियाँ! ये सब मैं क्या देख रहा हूँ...... और आपकी वो दर्जी वाली दुकान। कुछ नहीं भाई साहब, सब वक्त का फेर है। हुआ यूँ कि पिछले दिनों मैं थिएटर में ‘‘लगे रहो मुन्ना भाई’’ फिल्म देखने गया और उसमें संजय दत्त की जो गाँधीगिरी देखी तो लगा कि अब गाँधी टोपी की बजाय लाल गुलाब का ही जमाना है। फिर क्या था, अपने घर के पीछे धूल-धूसरित हो रही बागवानी के शौक को फिर से जिन्दा किया और चारों तरफ गुलाबों की बगिया ही लगा दी एवं इस बीच बाजार से कुछ गुलाब के फूल खरीद कर ये दुकान सजा ली। अब तो लोग मुन्ना भाई स्टाइल में सत्याग्रह करते हैं और लोगों को गुलाब के फूल बाँटते हैं, गाँधी टोपी तो कोई पहनता ही नहीं। मेरा काम बस इतना है कि जब भी किसी धरने या विरोध की खबर पाता हूँ तो वहाँ पहुँच जाता हूँ और उन्हें समझाता हूँ कि अब धरना, पोस्टरबाजी व नारेबाजी पुरानी चीजें हो गई हैं। अब तो अपने विरोधी को या जन समस्याओं की ओर लोगों का ध्यान आकृष्ट करने हेतु गुलाब का फूल देकर प्रदर्शन किया जाता है, जिसको मीडिया भी बढा़-चढ़ाकर कवरेज देता है। बस उनके दिमाग में यह बात घुसते ही मेरा धंधा शुरू हो जाता है। अगर सौ गुलाब के फूल भी एक धरना या विरोध प्रदर्शन के दौरान बिके, तो कम से कम पाँच सौ रुपये का मुनाफा तो पक्का है। पर यह धंधा यहीं नहीं खत्म होता, प्रदर्शनकारियों के अलावा उसको भी पकड़ना होता है, जिसके विरुद्ध प्रदर्शन किया जा रहा हो। उसे समझाना पड़ता है कि ये फूल आखिर उसके किस काम के! आखिर वह उन्हें अगले दिन तो फेंक ही देगा। उस पर से सफाई का झंझट अलग से। बस फिर क्या है- ईधर प्रदर्शनकारियों ने उस अधिकारी को विरोधस्वरूप गुलाब के फूल दिये और कैमरे के फ्लैशों के बीच मीडिया ने उनकी फोटो उतारी, उसके कुछ देर बाद ही सारा तमाशा खत्म और फिर मैं उन फूलों को वहाँ से उठवा लेता हूँ। ये गुलाब फिर से मेरे दुकान की शोभा बढ़ाते हैं और शाम तक फिर कोई प्रदर्शनकारियों का झुंड इन्हें खरीदकर सत्याग्रह की राह पर विरोध करने निकल पड़ता है। यानी आम के आम और गुठलियों के दाम।
सल्लू मियाँ का सत्याग्रही लाल गुलाबों का व्यवसाय दिनों-ब-दिन बढता जा़ रहा है। अपने एक बेरोजगार बेटे को उन्होंने प्रदर्शनकारियों को सत्याग्रही गुलाबों के फूलों की आपूर्ति हेतु तो दूसरे बेरोजगार बेटे को प्रदर्शन पश्चात् अधिकारियों के यहाँ से सत्याग्रही गुलाबों के फूलों के इकट्ठा करने का कार्य सौंप दिया है और स्वयं अखबारों में रोज ‘‘आज के कार्यक्रम’’ पढ़कर देखते हैं कि किस संगठन द्वारा, किस अधिकारी के विरुद्ध व कहाँ पर प्रदर्शन होना है। अभी तक वेलेण्टाइन डे पर लाल गुलाब के फूलों की बिक्री सिर्फ एक दिन होती थी और कभी-कभी किसी उत्सव या पर्व पर। पर सल्लू मियाँ के लिए लाल गुलाब के फूलों के सत्याग्रह-डे ने चीजें काफी आसान कर दिया है। दोनों बेटों के स्वरोजगार ने उनके माथे की सलवटों व रोज की उधारी की मारा-मारी से मुक्त कर दिया है। कभी-कभी अखबारों व टी0वी0 पर भी उनका चेहरा दिख जाता है, यह बताते हुए कि शहर में कई सत्याग्रहों के चलते आज गुलाब के फूलों की दुगनी-चैगुनी बिक्री रही। अब वे गुलाब के फूलों की भारी खरीद पर गाँधीवादी साहित्य को प्रचारित करती किताबें फ्री में देने की योजना बना रहे हैं ताकि ये तथाकथित लाल गुलाब वाले सत्याग्रही घर जाकर गाँधी जी की अन्य विचारधाराओं को भी जान सकें।

(इसे वैशाखनंदन सम्मान प्रतियोगिता में भी पढ़ सकते हैं)

गुरुवार, 20 मई 2010

सात जन्मों तक इनकमिंग फ्री

मोहन बाबू हमारे पड़ोसी ही नहीं अभिन्न मित्र भी हैं। कहने को तो वे सरकारी विभाग में क्लर्क हैं पर सामान्यता क्लर्क की जो इमेज होती है, उससे काफी अलग हैं.... एकदम ईमानदार टाइप के। कभी-कभी तो महीना खत्म होने से पहले ही उधारी की नौबत आ जाती। उनकी बीबी रोज ताना देती- श्क्या ईमानदारी का अचार डालोगे? अपनेे साथ के लोगों को देखो। हर किसी ने निजी मकान बनवा लिया है, गाड़ी खरीद ली है, बच्चे अच्छे स्कूलों में पढ़ने जाते हैं और तो और उनकी बीबियाँ कितने शानो-शौकत से रहती हंै और एक तुम हो जो साड़ियाँ खरीदने के नाम पर ही तुनक जाते हो। मुझे तो याद भी नहीं कि अन्तिम बार तुमने मुझे कब साड़ी खरीद कर दी थी। वो तो मैं अगर तुम्हारी जेब से रोज कुछ न कुछ गायब न करूँ तो रिश्तेदारी में भी जाना मुश्किल हो जाय. इधर मोहन बाबू की बीबी ने एक नई रट लगा रखी थी- मोबाइल फोन खरीदने की।

हुआ यूँ कि पिछले दिनों मोहन बाबू की बीबी अपने मायके गयीं और वहाँ अपनी भाभी के हाथ में मोबाइल फोन देखा। जब तक उनके भैया के पास मोबाइल फोन था, तब तक तो ठीक था पर अब भाभी ही नहीं उनके बच्चों के पास भी मोबाइल फोन है। ऐसा नहीं कि उनके भैया किसी बहुत बड़े पद पर हैं, वरन् पी0 डब्ल्यू0 डी0 मंे एक मामूली क्लर्क हैं। भाभी के मुँह से भैया के रूतबे के किस्से उन्होंने खूब सुन रखे हैं कि कैसे अच्छे-अच्छे ठेकेदार और नेता उनके सामने पानी भरते हंै। जिस समय मोहन बाबू से उनकी शादी हुयी, उस समय तक भैया को नौकरी नहीं मिली थी, पर नौकरी मिलने के दस साल के अन्दर ही उनके ठाठ-बाट साहबों वाले हो गए। मोहल्ले में अपना रूतबा झाड़ने के लिए उन्होंने एक सेकेण्ड हैण्ड मारूति कार खरीद ली और गेट पर एक झबरे बालों वाला कुत्ता बाँध लिया, जो भाभी की नजर में साहब लोगों की विशिष्ट पहचान होती है। एक बार भाभी के मुँह से कुत्ते के लिए कुत्ता शब्द निकल गया तो भैया झल्ला उठे थे- श्जिन्दगी भर गँवार ही रह जाओगी। अरे! कुत्ता उसे कहते हैं जो सड़कों पर आवारा फिरते हैं। इसे तो टाॅमी कहते हैं।श् फिर क्या था, तब से झबरे बालों वाला कुत्ता टाॅमी हो गया। टाॅमी जितनी बार पड़ोसियों को देखकर भौंकता, भाभी उतनी बार अपने पति की साहबी पर गुमान करतीं।

मोहन बाबू भी दिल से चाहते हैं कि एक मोबाइल फोन उनके पास हो जाय तो काफी सुविधा होगी। लैण्डलाइन फोन में वैसे भी कई समस्यायें आती हैं, मसलन- महीने में दस दिन तो डेड ही पड़ा रहता, उस पर से फोन का बिल इतना आता कि मानो आस-पड़ोस के लोगांे का भी बिल उसमें जोड़ दिया गया हो। फिर फोन का बिल सही करवाने के लिए टेलीफोन-विभाग का चक्कर काटो। एक तो बिना रिश्वत दिए वे बिल ठीक नहीं करते और उस पर से उस दिन के लिए दफ्तर से छुट्टी लेनी पड़ती है।
जब मोहन बाबू ने अपनी बीबी से मोबाइल फोन लेने की चर्चा की तो मानो उनको मुँहमाँगी मुराद मिल गयी हो। एक लम्बे अर्से बाद उस दिन मोहन बाबू की बीबी ने खूब मन से खाना बनाया और प्यार भरे हाथों से उन्हें खिलाया। मोहन बाबू की बीबी उस रात को सपने में देख रही थीं कि उनके घर में भी मोबाइल फोन आ गया है और जैसे ही मोबाइल फोन की घण्टी बजी, उन्होंने पहले से तैयार आरती की थाली को उस पर घुमाया और फिर मोबाइल फोन को स्टाइल में कानों के पास लगाकर बोलीं-हलो! ऊधर से आवाज आयी-कौन बोल रही हैं?.... मैं मिसेज मोहन बोल रही हूँ, किससे बात करनी है आपको? जी, मुझे शर्मिला से बात करनी है.... कौन शर्मिला..... अच्छा तो आवाज बदलकर पूछ रही हो, कौन शर्मिला! मेरी प्यारी बीबी शर्मिला, आई लव यू ..... दिमाग खराब हो गया है तुम्हारा, दूसरों की बीबी को आई लव यू बोलते हो। अभी पुलिस में रिपोर्ट दर्ज कराती हूँ....... साॅरी मैडम! लगता है रांग नम्बर लग गया। सपने के साथ ही मोहन बाबू की बीबी की नींद भी खुल गयी। वे प्रसन्न थीं कि सपने में मोबाइल फोन आया अर्थात घर में मोबाइल फोन आ जाएगा। रांग नम्बर तो आते रहते हैं, उनकी क्या चिन्ता करना।

सुबह होते ही मोहन बाबू को उनकी बीबी ने याद दिलाया कि आज मोबाइल फोन लाना है। आज नहीं, कल लाना है....... पर ऐसा क्यों.... अरे! आज तो मुझे टेलीफोन विभाग के दफ्तर जाकर इस लैण्डलाइन फोन को डिसकनेक्ट करवाने के लिए आवदेन देना होगा। पर मोबाइल का इस लैण्डलाइन फोन से क्या मतलब.... अरे तुम नहीं समझोगी? जब बिल भरना पड़ता तो पता चलता। मेरी अनुपस्थिति में घण्टों बैठकर तुम अपने मायके वालों के साथ गप्पें मारती हो, क्या मुझे नहीं पता है? अब ये लैण्डलाइन फोन कटवा कर मोबाइल फोन खरीदूँगा और उसे हमेशा अपने पास रखूँगा। ..... तुम्हारा दिमाग तो नहीं खराब हो गया है। लैण्डलाइन फोन कटवाकर मोबाइल फोन खरीदोगे तो लोग सोचेंगे कि मोबाइल फोन खरीदने की औकात नहीं है सो उसे कटवाकर मोबाइल फोन खरीदा है। और फिर मोबाइल फोन अगर तुम अपने पास रखोगे तो मैं अपने मायके वालों से बातें कैसे करूँगी!.... तो फिर अपने मायके वालों को ही बोल दो न कि तुम्हें एक मोबाइल फोन खरीदकर दे दें। हाँ... हाँ... जरूर बोल दूँगी। मेरे मायके में तो सभी के पास मोबाइल फोन हंै, यहाँ तक कि बच्चों के पास भी। पर तुम किस मर्ज की दवा हो...... इतना दहेज देकर मेरे पापा ने इसलिए तुमसे शादी नहीं की, कि शादी के बाद भी मंै उनके सामने हाथ फैलाऊँ। वो तो मेरी गलती थी जो फोटो में तुम्हारे घुँघराले बाल और मासूम चेहरा देखकर रीझ गयी, नहीं तो आज मैं किसी घर में रानी की तरह रह रही होती।

मोहन बाबू की बीबी जब गुस्सा होतीं तो वे शान्तिपूर्वक वहाँ से खिसक लेने में ही भलाई समझते और मुझसे अच्छा उनका मित्र कौन हो सकता है। सुबह-सुबह अपने दरवाजे पर मोहन बाबू को देखकर मैं पूछ उठा- श्अरे मोहन बाबू!सब ठीक तो है। कोई प्राॅब्लम तो नहीं है।श् प्राॅब्लम है, तभी तो आया हूँ आपके पास। अच्छा-अच्छा! पहले आप आराम से बैठकर गर्मा-गर्म चाय और पकौडो़ं का मजा लीजिए और उसके बाद मैं आपकी प्राॅब्लम हल करता हूँ। फिर मोहन बाबू ने चाय व पकौड़ों के साथ टेपरिकार्डर की तरह अपनी सारी प्राॅब्लम मेरे सामने रख दी। चूँंकि मैं मोहन बाबू की ईमानदारी से परिचित हूँ सो उनकी प्राॅब्लम अच्छी तरह समझता हूँ पर उनकी बीबी भी जमाने के हिसाब से गलत नहीं हैं।.... अचानक मेरी निगाह अखबार मे छपे एक विज्ञापन पर पड़ी- श्हमारे मोबाइल फोन खरीदिए और एक साल तक इनकमिंग फ्री पाईये।श् मैंने मोहन बाबू को विज्ञापन दिखाया तो वे काफी खुश हुए और हँसते हुए बोले- श्लगता है इन मोबाइल फोन वालों को मेरे जैसों का भी ख्याल है।श् मैंने उन्हें सलाह देते हुए कहा- श्मोहन बाबू मोबाइल फोन खरीदने के लिए कुछ दिन तक इन्तजार कर लीजिए तो कम्पटीशन में अन्य मोबाइल कम्पनियाँ सम्भवतः और भी आकर्षक प्लान के साथ आयें।श् खैर मोहन बाबू को मेरी बात जँची और अखबार का विज्ञापन वाला पेज उठाते हुए बोले- श्अगर बुरा न मानें तो, ये मैं अपने साथ लेते जाऊँ। आपकी भाभी को दिखाऊँगा तो शायद उसका गुस्सा कुछ ठण्डा हो जाय।

मोहन बाबू उस दिन के बाद से रोज सुबह ही सुबह मेरे दरवाजे पर आ टपकते हंै। चाय और पकौडों के साथ अखबार देखते हैं और ऐसे खुश होते हैं मानो भगवान ने उनकी सुन ली हो। पहले एक साल, दो साल, तीन साल, पाँच साल, और फिर आजीवन इनकमिंग फ्री वाले मोबाइल कम्पनियों के विज्ञापन आये पर मोहन बाबू मोबाइल खरीदने के लिए उस दिन का इन्तजार कर रहे हैं जब कोई कम्पनी अपना विज्ञापन देगी कि- श्हमारा मोबाइल फोन खरीदिए ओर अगली पीढ़ी तक इनकमिंग फ्री पाइये।श् पर अब मंै मोहन बाबू से परेशान हो गया हूँ क्योंकि वे हर सुबह मेरे घर आकर चाय व पकौडों का मजा लेते हैं और फिर विज्ञापन के बहाने पूरा का पूरा अखबार लेकर चले जाते हैं। मुझे तो डर लगता है कि कहीं अगली पीढ़ी तक इनकमिंग फ्री वाला विज्ञापन किसी मोबाइल कम्पनी ने दे भी दिया तो मोहन बाबू यह न कह उठें कि अब मैं मोबाइल फोन उसी दिन खरीदूँगा जब कोई कम्पनी अपना विज्ञापन देगी कि- श्हमारा मोबाइल फोन खरीदिए और अगले जन्म ही नहीं वरन् सात जन्मों तक इनकमिंग फ्री पाइये।
(इसे वैशाखनंदन सम्मान प्रतियोगिता में भी पढ़ सकते हैं)

मंगलवार, 18 मई 2010

मेरी कहानी

कल ही एक मित्र का फोन आया
सुना था दिल्ली की कई साहित्यिक पत्रिकाओं में
उसकी घुसपैठ है
सो आदतन बोल बैठा
यार मेरी भी एक कहानी कहीं लगवा दे
वह हँस कर बोला
यह तो मेरे बायें हाथ का खेल है
मेरा दिल गदगद हुआ
ऐसे दोस्त को पाकर मैं धन्य हुआ
अगले ही दिन
अपनी एक नई कहानी
मित्र के पते पर भिजवा दी
और इंतजार करने लगा
उसके छपने का
दो-तीन माह बाद
सुबह ही सुबह
मित्र का फोन आया
पाँच सौ रूपये का मनीआर्डर
मुझे भेजा जा रहा है
और अगले अंक में
मेरी रचना
छप कर आ रही है
रोज आॅफिस से आते ही
पहले पड़ोस की
पुस्तकों की दुकान पर जाता
और पत्रिका को न पाकर
झल्लाकर वापस चला आता
आखिर
वो शुभ दिन आ ही गया
पत्रिका के पृष्ठ संख्या पैंतीस पर
मेरी कहानी का शीर्षक जगमगा रहा था
तुरन्त उसकी दो प्रतियाँ खरिद
बगल में स्थित मिष्ठान-भंडार से
ताजा मोतीचूर का लड्डू
पैक कराया और
जल्दी से घर आकर
पत्नी को गले लगाया
प्रिये! ये देखो
तुम्हारे पति की कहानी छपी है
पत्नी ने उत्सुकतावश
पत्रिका के पन्ने फड़फड़ाये और
पृष्ठ संख्या पैंतीस पर ज्यों ही हाथ रखा
मैने उसके मुँह में लड्डू डाला
कि वह बोल उठी
पहले आपका नाम तो देख लूँ
कहीं दूसरे की कहानी को तो
अपनी नहीं बता रहे
हाँ.....हाँ.....क्यों नहीं प्रिये
पर यहाँ तो दांव ही उल्टा पड़ गया
कहानी तो मेरी थी
पर छपी किसी दूसरे के नाम से थी
अब अपने दोस्त की
घुसपैठ का माजरा
कुछ-कुछ समझ में आ रहा था
सामने पड़ा पाँच सौ रुपये का मनीआॅर्डर
और मोतीचूर का लड्डू
मुझे मुँह चिढ़ा रहा था !!

शनिवार, 15 मई 2010

बारिश, पकौड़े और चाय...

अंडमान में आज खूब जमकर बारिश हुई। सुना तो था कि यहाँ मूसलाधार बारिश होती है, पर इस बार कुछ ऐसा नहीं दिखा. कभी हलकी-फुलकी बारिश हुई तो बस उतनी ही. सुनामी के बाद अंडमान में भी पर्यावरण में काफी परिवर्तन आया है. पर आज तो दोपहर से शाम तक खूब झमाझम बारिश हुई. बारिश के फौव्वारे अन्दर तक आते तो बचपन की यादें ताजा हो जातीं. वो बारिश में भीगना, वो कागज की नाव, वो मस्ती के दिन....पता नहीं क्यों बड़े होने के साथ बचपना भी छूट जाता है. मन तो कहता कि बारिश में भीगो, पर मुझे पता था कि इसी बहाने हमारी बिटिया रानी अक्षिता (पाखी) भी मौके का पूरा फायदा उठायेंगीं और फिर उन्हें मनाना मुश्किल होगा.

खैर शाम को जब बारिश धीमी हुई तो बाहर का मौसम बड़ा सुहाना हो चुका था। गुलमोहर के लाल-लाल फूल अपने शवाब में दिख रहे थे तो पक्षी आसमां में कलाबाजियाँ दिखा रही थीं. बादल अभी भी उमड़-घुमड़ कर रहे थे. ऐसे में बाहर निकलकर हल्का-हल्का भीगना पूरे दिलोदिमाग को एक अजीब सी ख़ुशी प्रदान करता है. लगता है कितने दिनों बाद इस दिन को जी रहा हूँ. मौके की नजाकत, तब तक पकौड़ों और चाय की तलब महसूस हुई. कहते हैं ना बारिश का मजा पकौड़ों और चाय के बिना अधूरा ही होता है. पता नहीं कहाँ से ये परंपरा आरंभ हुई होगी, पर यह बारिश का मजा दुगुना कर देती है और बारिश इनका स्वाद दुगुना कर देते हैं. फ़िलहाल पत्नी आकांक्षा और बिटिया अक्षिता के साथ अंडमान की बारिश का लुत्फ़ भरपूर रूप में उठा रहा हूँ, इधर अख़बारों और न्यूज चैनल्स पर उधर की कड़ी धूप व गर्मी के भी समाचार देख रहा हूँ. दिल में बस यही ख्याल आता है-
सब प्रकृति की माया है !
कहीं धूप और कहीं छाया है !!
(चित्र में बिटिया अक्षिता)

सोमवार, 10 मई 2010

10 मई 1857 की याद में

आज 10 मई है। इस दिन का भारतीय इतिहास में एक विशिष्ट स्थान है। 1857 में भारत का प्रथम स्वतंत्रता संग्राम इसी दिन आरंभ हुआ था. 1857 वह वर्ष है, जब भारतीय वीरों ने अपने शौर्य की कलम को रक्त में डुबो कर काल की शिला पर अंकित किया था और ब्रिटिश साम्राज्य को कड़ी चुनौती देकर उसकी जडे़ं हिला दी थीं। 1857 का वर्ष वैसे भी उथल-पुथल वाला रहा है। इसी वर्ष कैलिफोर्निया के तेजोन नामक स्थान पर 7.9 स्केल का भूकम्प आया था तो टोकियो में आये भूकम्प में लगभग एक लाख लोग और इटली के नेपल्स में आये 6.9 स्केल के भूकम्प में लगभग 11,000 लोग मारे गये थे। 1857 की क्रान्ति इसलिये और भी महत्वपूर्ण हो जाती है कि ठीक सौ साल पहले सन् 1757 में प्लासी के युद्ध में विजय प्राप्त कर राबर्ट क्लाइव ने अंग्रेजी राज की भारत में नींव डाली थी। विभिन्न इतिहासकारों और विचारकांे ने इसकी अपने-अपने दृष्टिकोण से व्याख्यायें की हैं। भारत के प्रथम प्रधानमंत्री और महान चिन्तक पं0 जवाहरलाल नेहरू ने लिखा कि- ‘‘यह केवल एक विद्रोह नहीं था, यद्यपि इसका विस्फोट सैनिक विद्रोह के रूप में हुआ था, क्योंकि यह विद्रोह शीघ्र ही जन विद्रोह के रूप में परिणित हो गया था।’’ बेंजमिन डिजरायली ने ब्रिटिश संसद में इसे ‘‘राष्ट्रीय विद्रोह’’ बताया। प्रखर विचारक बी0डी0सावरकर व पट्टाभि सीतारमैया ने इसे ”भारत का प्रथम स्वाधीनता संग्राम”, जाॅन विलियम ने ”सिपाहियों का वेतन सुविधा वाला मामूली संघर्ष“ व जाॅन ब्रूस नाॅर्टन ने ‘‘जन-विद्रोह’’ कहा। माक्र्सवादी विचारक डा0 राम विलास शर्मा ने इसे संसार की प्रथम साम्राज्य विरोधी व सामन्त विरोधी क्रान्ति बताते हुए 20वीं सदी की जनवादी क्रान्तियों की लम्बी श्रृंखला की प्रथम महत्वपूर्ण कड़ी बताया। प्रख्यात अन्तर्राष्ट्रीय राजनैतिक विचारक मैजिनी तो भारत के इस प्रथम स्वाधीनता संग्राम को अन्तर्राष्ट्रीय परिप्रेक्ष्य में देखते थे और उनके अनुसार इसका असर तत्कालीन इटली, हंगरी व पोलैंड की सत्ताओं पर भी पड़ेगा और वहाँ की नीतियाँ भी बदलेंगी।


1857 की क्रान्ति को लेकर तमाम विश्लेषण किये गये हैं। इसके पीछे राजनैतिक-सामाजिक-धार्मिक-आर्थिक सभी तत्व कार्य कर रहे थे, पर इसका सबसे सशक्त पक्ष यह रहा कि राजा-प्रजा, हिन्दू-मुसलमान, जमींदार-किसान, पुरूष-महिला सभी एकजुट होकर अंग्रेजों के विरुद्ध लड़े। 1857 की क्रान्ति को मात्र सैनिक विद्रोह मानने वाले इस तथ्य की अवहेलना करते हैं कि कई ऐसे भी स्थान थे, जहाँ सैनिक छावनियाँ न होने पर भी ब्रिटिश सत्ता के विरूद्ध क्रान्ति हुयी। इसी प्रकार वे यह भूल जाते है कि वास्तव में ये सिपाही सैनिक वर्दी में किसान थे और किसी भी व्यक्ति के अधिकारों के हनन का सीधा तात्पर्य था कि किसी-न-किसी सैनिक के अधिकारों का हनन, क्योंकि हर सैनिक या तो किसी का पिता, बेटा, भाई या अन्य रिश्तेदार है। यह एक तथ्य है कि अंगे्रजी हुकूमत द्वारा लागू नये भू-राजस्व कानून के खिलाफ अकेले सैनिकों की ओर से 15,000 अर्जियाँ दायर की गयी थीं। डाॅ0 लक्ष्मीमल्ल सिंघवी के शब्दों में- ‘‘सन् 1857 की क्रान्ति को चाहे सामन्ती सैलाब या सैनिक गदर कहकर खारिज करने का प्रयास किया गया हो, पर वास्तव में वह जनमत का राजनीतिक-सांस्कृतिक विद्रोह था। भारत का जनमानस उसमें जुड़ा था, लोक साहित्य और लोक चेतना उस क्रान्ति के आवेग से अछूती नहीं थी। स्वाभाविक है कि क्रान्ति सफल न हो तो इसे ‘विप्लव’ या ‘विद्रोह’ ही कहा जाता है।’’ यह क्रान्ति कोई यकायक घटित घटना नहीं थी, वरन् इसके मूल में विगत कई सालों की घटनायें थीं, जो कम्पनी के शासनकाल में घटित होती रहीं। एक ओर भारत की परम्परा, रीतिरिवाज और संस्कृति के विपरीत अंग्रेजी सत्ता एवं संस्कृति सुदृढ हो रही थी तो दूसरी ओर भारतीय राजाओं के साथ अन्यायपूर्ण कार्रवाई, अंग्रेजों की हड़पनीति, भारतीय जनमानस की भावनाओं का दमन एवं विभेदपूर्ण व उपेक्षापूर्ण व्यवहार से राजाओं, सैनिकों व जनमानस में विद्रोह के अंकुर फूट रहे थे।


इसमें कोई शक नहीं कि 1757 से 1856 के मध्य देश के विभिन्न स्थानों पर भिन्न-भिन्न वर्गों द्वारा कई विद्रोह किये गये। यद्यपि अंग्रेजी सेना बार-बार इन विद्रोहों को कुचलती रही पर उसके बावजूद इन विद्रोहों का पुनः सर उठाकर खड़ा हो जाना भारतीय जनमानस की जीवटता का ही परिचायक कहा जायेगा। 1857 के विद्रोह को इसी पृष्ठभूमि में देखे जाने की जरूरत है। अंग्रेज इतिहासकार फॅारेस्ट ने एक जगह सचेत भी किया है कि- ‘‘1857 की क्रान्ति हमें इस बात की याद दिलाती है कि हमारा साम्राज्य एक ऐसे पतले छिलके के ऊपर कायम है, जिसके किसी भी समय सामाजिक परिवर्तनों और धार्मिक क्रान्तियों की प्रचण्ड ज्वालाओं द्वारा टुकडे़-टुकडे़ हो जाने की सम्भावना है।’’ अंग्रेजी हुकूमत को भी 1757 से 1856 तक चले घटनाक्रमों से यह आभास हो गया था कि वे अब अजेय नहीं रहे। तभी तो लाॅर्ड केनिंग ने फरवरी 1856 में गर्वनर जनरल का कार्यभार ग्रहण करने से पूर्व कहा था कि - ‘‘मैं चाहता हूँ कि मेरा कार्यकाल शान्तिपूर्ण हो। मैं नहीं भूल सकता कि भारत के गगन में, जो अभी शान्त है, कभी भी छोटा सा बादल, चाहे वह एक हाथ जितना ही क्यों न हो, निरन्तर विस्तृत होकर फट सकता है, जो हम सबको तबाह कर सकता है।’’ लाॅर्ड केनिंग की इस स्वीकारोक्ति में ही 1857 की क्रान्ति के बीज छुपे हुये थे।

1857 की क्रान्ति की सफलता-असफलता के अपने-अपने तर्क हैं पर यह भारत की आजादी का पहला ऐसा संघर्ष था, जिसे अंग्रेज समर्थक सैनिक विद्रोह अथवा असफल विद्रोह साबित करने पर तुले थे, परन्तु सही मायनों में यह पराधीनता की बेड़ियों से मुक्ति पाने का राष्ट्रीय फलक पर हुआ प्रथम महत्वपूर्ण संघर्ष था। अमरीकी विद्वान प्रो0 जी0 एफ0 हचिन्स के शब्दों में-‘‘1857 की क्रान्ति को अंग्रेजों ने केवल सैनिक विद्रोह ही कहा क्योंकि वे इस घटना के राजद्रोह पक्ष पर ही बल देना चाहते थे और कहना चाहते थे कि यह विद्रोह अंग्रेजी सेना के केवल भारतीय सैनिकों तक ही सीमित था। परन्तु आधुनिक शोध पत्रों ने यह स्पष्ट कर दिया है कि यह आरम्भ से सैनिक विद्रोह के ही रूप में हुआ, परन्तु शीघ्र ही इसमें लोकप्रिय विद्रोह का रूप धारण कर लिया।’’ वस्तुतः इस क्रान्ति को भारत में अंग्रेजी हुकूमत के विरुद्ध पहली प्रत्यक्ष चुनौती के रूप में देखा जा सकता है। यह आन्दोलन भले ही भारत को अंग्रेजों की गुलामी से मुक्ति न दिला पाया हो, लेकिन लोगों में आजादी का जज्बा जरूर पैदा कर गया। 1857 की इस क्रान्ति को कुछ इतिहासकारों ने महास्वप्न की शोकान्तिका कहा है, पर इस गर्वीले उपक्रम के फलस्वरूप ही भारत का नायाब मोती ईस्ट इण्डिया कम्पनी के हाथों से निकल गया और जल्द ही कम्पनी भंग हो गयी। 1857 के संग्राम की विशेषता यह भी है कि इससे उठे शंखनाद के बाद जंगे-आजादी 90 साल तक अनवरत चलती रही और अंतत: 15 अगस्त, 1947 को हम आजाद हुए !!

रविवार, 9 मई 2010

माँ के आँसू

आज मदर्स डे है. माँ हमारे जीवन में सबसे महत्वपूर्ण स्थान रखती हैं और माँ की वजह से हम आज इस दुनिया में हैं. दुनिया में माँ का एक ऐसा अनूठा रिश्ता है, जो सदैव दिल के करीब होता है. हर छोटी-बड़ी बात हम माँ से शेयर करते हैं. दुनिया के किसी भी कोने में रहें, माँ की लोरी, प्यार भरी डांट और चपत, माँ का प्यार, दुलार, स्नेह, अपनत्व व ममत्व, माँ के हाथ का बना हुआ खाना, किसी से झगडा करके माँ के आँचल में छुप कर अपने को महफूज़ समझना, बीमार होने पर रात भर माँ का जगकर गोदी में सर लिए बैठे रहना, हमारी हर छोटी से छोटी जिद को पूरी करना, हमारी सफलता के लिए देवी-देवताओं से मन्नतें मांगना ..ना जाने क्या-क्या कष्ट माँ हमारे लिए सहती है और एक दिन हम सफलता के पायदान पर चढ़ते हुए अपनी अलग ही जिदगी बसा लेते हैं. माँ की नजरों से दूर अपनी दुनिया में, फिर भी माँ रोज हमारी चिंता करती है. हम सोचते हैं कि हम बड़े हो चुके हैं, पर माँ की निगाह में तो हम बच्चे ही हैं. आज मदर्स डे पर ऐसा ही कुछ भाव लिए मेरी यह कविता –

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बचपन से ही देखता आ रहा हूँ माँ के आँसू

सुख में भी, दुख में भी

जिनकी कोई कीमत नहीं

मैं अपना जीवन अर्पित करके भी

इनका कर्ज नहीं चुका सकता।


हमेशा माँ की आँखों में आँसू आये

ऐसा नहीं कि मैं नहीं रोया

लेकिन मैंने दिल पर पत्थर रख लिया

सोचा, कल को सफल आदमी बनूँगा

माँ को सभी सुख-सुविधायें दूँगा

शायद तब उनकी आँखों में आँसू नहीं हो

पर यह मेरी भूल थी।


आज मैं सफल व्यक्ति हूँ

सारी सुख-सुविधायें जुटा सकता हूँ

पर एक माँ के लिए उसके क्या मायने ?

माँ को सिर्फ चाहिए अपना बेटा

जिसे वह छाती से लगा जी भर कर प्यार कर सके

पर जैसे-जैसे मैं ऊँचाईयों पर जाता हूँ

माँ का साथ दूर होता जाता है

शायद यही नियम है प्रकृति का।

शनिवार, 8 मई 2010

जनसत्ता में 'शब्द सृजन की ओर' ब्लॉग की चर्चा

''शब्द सृजन की ओर'' पर 22 अप्रैल, 2010 को प्रस्तुत पोस्ट प्रलय का इंतजार को प्रतिष्ठित हिन्दी दैनिक पत्र 'जनसत्ता' ने 8 मई 2010 को अपने सम्पादकीय पृष्ठ पर नियमित स्तम्भ 'समान्तर' में स्थान दिया ... आभार!!

(चित्र साभार : प्रिंट मीडिया पर ब्लॉगचर्चा)

गुरुवार, 6 मई 2010

67 लाख रुपये में बिका चंद्रमा को निहारने वाला कागज

इतिहास की धरोहरें आने वाली पीढ़ियों के लिए पथ-प्रदर्शक का कार्य करती हैं। हाल ही में चंद्रमा पर सबसे पहले पहुंचने वाला पन्ना जिस पर नील आर्मस्ट्रांग के हस्ताक्षर भी हैं, करीब डेढ़ लाख डालर (करीब 67 लाख रूपये) में नीलाम हुआ। इस पन्ने पर लिखा था- "एक शख्स का छोटा सा कदम, इंसानियत के लिए एक बड़ी छलांग।" यह पेज बोनहम्स नीलामी घर, न्यूयार्क में बेचा गया।
इस पन्ने पर लिखे शब्द नील आर्मस्ट्रांग ने तब कहे थे जब 20 जुलाई 1969 को अपोलो-11 में बैठकर उन्होंने चंद्रमा की यात्रा तय की थी और चंद्रमा पर पहला कदम रखने वाले शख्स का गौरव हासिल किया था। नील आर्मस्ट्रांग ने पेज पर अपने दस्तखत कर इसे अमेरिकी अंतरिक्ष एजेंसी नासा के लोक सूचना कार्यालय के प्रमुख को दे दिया था। उन्होंने नासा के अधिकारी को यह पन्ना उस वक्त दिया था जब धरती पर लौटने पर जॉन्सन अंतरिक्ष केंद्र में उनका इलाज किया जा रहा था। वाकई वक़्त बिताने के साथ चीजें कितनी मूल्यवान हो जाती हैं, इसे सिर्फ महसूस किया जा सकता है. आज विज्ञानं भले ही कितने आगे पहुँच गया हो पर धरोहरों को सुरक्षित रखने में ही सृष्टि की भलाई है !!