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गुरुवार, 27 नवंबर 2008

सूरज की किरणें

पता नहीं क्यों
सूरज की पहली किरण
मुझे कुँवारी सी लगती है

बिस्तर पर अल्हड़ता से
अस्त-व्यस्त और
निश्चिन्त होकर लेटे
भर लेती है अपने बाहुपाश में

माँ की डाँट के बीच
अंगड़ाईयाँ लेते हुये
ज्यों ही कोशिश करता हूँ उठने की
रोक लेती है मुझे
धूप का नर्म अहसास

मानो ये किरणें
तैयार बैठी हों
अपना कौमार्यपन
मुझ पर लुटाने के लिए।

9 टिप्‍पणियां:

Unknown ने कहा…

पता नहीं क्यों
सूरज की पहली किरण
मुझे कुँवारी सी लगती है
Bade Romantic vichar hain. Khair Kavi ki yahi pehchan hai.

हिंदी साहित्य संसार : Hindi Literature World ने कहा…

खूबसूरत भाव और खूबसूरत कविता...बधाई !!

Dr. Nazar Mahmood ने कहा…

goood expression with thoughtfulness
keep it up
take care

बेनामी ने कहा…

Adbhut...Prakriti aur Manviy bhavon ka anutha sammilan.

Dr. Brajesh Swaroop ने कहा…

बिस्तर पर अल्हड़ता से
अस्त-व्यस्त और
निश्चिन्त होकर लेटे
भर लेती है अपने बाहुपाश में
..........Bade Romantic vichar hain Janab.

Akanksha Yadav ने कहा…

Nice poem.

KK Yadav ने कहा…

Thank u Friends.

Amit Kumar Yadav ने कहा…

माँ की डाँट के बीच
अंगड़ाईयाँ लेते हुये
ज्यों ही कोशिश करता हूँ उठने की
रोक लेती है मुझे
धूप का नर्म अहसास
...पढ़कर दिल खुश हो गया.

www.dakbabu.blogspot.com ने कहा…

बेहद सुंदर और भावभीनी कविता ।